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होता है और इस प्रकार उक्त तीनों चरणों का अन्तिमाक्षर जो होता है वही निश्चित रूप से चतुर्थं चरण का १३, १६, १६वां अक्षर होता है तथा तृतीय चरण का ही अन्तिम १६वां अक्षर चतुर्थ चरण का पहला प्रक्षर होता है ।
यह षडारकबन्ध चक्रकाव्य प्रायः १९ वर्णात्मक शार्दूलविक्रीडित छन्द में ही प्रथित किया
जाता है।
इस चक्रकाव्य में जिन प्रक्षरों के आगे १ से १२ तक के अंकों का न्यास किया गया है, उसकी परिपाटी निम्नांकित है :
प्रारम्भ में श्लोक के प्रथम द्वितीय तृतीय चरण का ७वां अक्षर ग्रहण किया जाता है, पश्चात् क्रमशः १३वां अक्षर ग्रहण किया जाता है । पुनः उक्त तीनों चरणों के क्रमश: ३रा और १७वां अक्षर ग्रहण किया जाता है । उक्त रीति से ग्रक्षरों को ग्रहण करने पर कर्त्ता का नाम स्पष्ट होता है । उदाहरणार्थं चित्रकूटीय वीर चैत्य प्रशस्ति का ७६ वां पद्य देखें। इसमें श्लोक का ७वां प्रक्षर 'जिन व' १३वां अक्षर 'ल्ल भग' ३रा प्रक्षर 'णे वं च' प्रोर १७ वां अक्षर 'न मि दं' है । इन अक्षरों को संयुक्त करके पढ़ने पर 'जिनवल्लभगणेर्वचनमिदं कर्त्ता का नाम पढ़ा जाता है ।
२. चित्रकूटीय वीरचत्य प्रशस्ति, पद्म ७६
चित्र सं० १७. षडारक चक्रबन्ध -
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बिभ्राणेन मति जिनेषु बलवल्लग्नेन जैनक्रमे,
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सत्सर्वज्ञमतेन पूतवचसा भद्रावलीमिच्छुना ।
वल्लभ-भारती ]
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हित्वा च पावत्र वचने रन्तव्यं विधिना सदा स्वहितदे
३. धर्मशिक्षा प्रकररण, पद्य १ र ४०
चित्र सं० २३. षडारकचक्रबन्ध
६ १२ गर्हा प्रमादं दरं, मेधाविना सादरं ।। ७६ ।। 'जिनवल्लभ गणेर्वचनमिदं'
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नवा भक्तिनतांगको हमभयं नष्टाभिमान, २ ५ ११ विज्ञ वद्धि शोरिणमक्रमनखं वर्ण्य सतामिष्टदं । ६ १२ विद्याच विभु ं जिनेन्द्रमसकृल्लब्धास्य पादं भवे, बेद्य ं ज्ञानवतां विमर्शविशदं धर्म्य पदं प्रस्तुवे ||१|| 'गरिणजिनवल्लभवचनमिदं'
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