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गच्छ-व्यामोह से जो यह लिखा है:-"शासनद्रोहकारि-नवीनमतोत्पादकस्य ग्रन्थं प्रमाणीकुर्वन्तः परमसूत्रानुसारिश्रीमच्चन्द्रसूरिमहाभागास्तस्योपरि वृत्ति कुयु रेतदपि सुबुद्धिपथं नावतरति ।" सो कितना प्रलापपूर्ण है । देखिये, आप ही के गुरु धनेश्वरसूरि जिन्होंने सं० ११७१ में खरतरगच्छ मान्य इन्हीं जिनवल्लभगणि प्रणीत सार्द्ध शतक पर टोका रची है; जिसमें आप (श्री चन्द्रसूर) स्वयं सहायभूत थे । इस टीका में धनेश्वरसूरि स्पष्ट लिखते हैं:
"जिणवल्लह गणित्ति, जिनवल्लभगणिनामकेन मतिमता सकलार्थ-संग्राहिस्थानाङ्गाद्यङ्गोपाङ्गपञ्चाशकादिशास्त्रवृत्तिविधानावाप्तावदातकीत्तिसुधाधवलितधरामण्डलानां श्रीमदभयदेवसूरीणां शिष्येण ।'
इससे अत्यन्त ही स्पष्ट है कि जिनवल्लभ नाम का अन्य कोई व्यक्ति नहीं किन्तु अभयदेवसूरि शिष्य ही है। अन्यथा आचार्य श्रीचन्द्र स्वयं 'गणि' शब्द की व्याख्या करते हुए "उण (पुनः) गणयोगात् साधुगणयोगाद्वा गणिना-सूरिणा" तथा "सूक्ष्मपदार्थ-निष्क निष्कषणपटकसन्निभप्रतिभजिनवल्लभाभिधानाचार्य" जैसे पज्य शब्दों का व्यवहार कदापि नहीं करते । अतः मानविजयजी का "शासनद्रोहकारि" यह कथन अत्यन्त ही उपेक्षणीय है। यह टीका विजयदानसूरि ग्रन्थमाला सूरत से प्रकाशित है।
यशोदेवसूरि आप चन्द्र-कुलीय श्रीवीरगणि के प्रशिष्य और श्रीचन्द्रसूरि के शिष्य थे । सं० ११७६ में आपने अपने सुयोग्य शिष्य श्री पार्वदेव की सहायता से पिण्डविशुद्धि पर लघुवृत्ति की रचना पूर्ण की । इस लघुवृत्ति का संशोधन आचार्य मुनिचन्द्रसूरि ने किया है। जैसा कि प्रशस्ति में कहा गया है:
प्रासीच्चन्द्रकुलोद्गतिः शर्माधिः सौम्याकृतिः सन्मतिः, सलोनः प्रतिवासरं निलयगो वर्षासु सुध्यानधीः । हेमन्ते शिशिरे च शावरहिमं सोढुं कृतोवस्थितिस्विच्चण्डकरे निदाघसमये चाऽतापनाकारकः ॥१॥
प्रादेयता तपस्त्याग-व्याख्यातृत्वादिसद्गुणैः । लोकोत्तरै विशालश्च श्रीमद्वीररिणप्रभुः ।।२।। श्रीचन्द्रसूरि नामा शिष्योऽभूत्तस्य भारतीमधुरः । मानन्दितभव्यजनः शंसितसशुद्धसिद्धान्तः ॥३॥ तस्यान्तेवासिना दृब्धा, श्रीयशोदेवरिणा। सुशिष्य-पार्श्वदेवस्य, साहाय्यात् प्रस्तुता वृत्ति ॥४॥
पिविद्धिप्रकरणवृत्ति कृत्वा यदवाप्तं मया कुशलम् । तेनाऽभवपि भूयाद् भगवद्वचने ममाभ्यासः ॥६॥ श्रुतहेनिकषपट्ट: श्रीमन्मुनिचन्द्रसूरिभिः पूज्यः । संशोधितेयखिला प्रयत्नतः शेर्षावबुधैश्च ॥७॥
पल्लभ-भारती]
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