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Year-62, Volume-3 July-September 2009
अनेकान्त
(जैनविद्या एवं प्राकृत भाषाओं की त्रैमासिक शोध पत्रिका )
ANEKANTA
(A Quarterly Research Journal for Jainology & Prakrit Languages)
सम्पादक
डॉ. जयकुमार जैन, मुजफ्फरनगर (उ.प्र.)
RNI No. 10591/62 ISSN 0974-8768
Editor
Dr. Jaikumar Jain, Muzaffarnagar (U.P.) Mobile : 09760002389
वीर सेवा मन्दिर, नई दिल्ली- 110 002
Vir Sewa Mandir, New Delhi-110002
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अनेकान्त
ANEKANTA
(जैनविद्या एवं प्राकृत भाषाओं की त्रैमासिक शोध पत्रिका) (AQuarterly Research Journal for Jalnology & Prakrit Languages)
Founder
संस्थापक आचार्य जुगलकिशोर मुखतार 'युगवीर'
Acharya Jugalkishor Mukhtar 'Yugveer'
Editor
Prof. PhoolChand Jain 'Premi', Varanasi, Prof. Kamlesh Kumar Jain, Varanasi,
सम्पादक मण्डल प्रो. फूलचन्द जैन 'प्रेमी', वाराणसी प्रो. कमलेश कुमार जैन, वराणसी,
प्रो. उदयचन्द जैन, उदयपुर डॉ. हुकुमचन्द जैन, दिल्ली प्रो, एम.एल. जैन, नई दिल्ली
Prof. Udaychand Jain, Udaipur,
Dr. Hukumchand Jain, Delhi,
Prof. M.L. Jain, New Delhi
सदस्यता शुल्क/ Subsercription एक अंक-रुपये 20/- वार्षिक - रु. 80/This issue - Rs. 20/- Yearly - Rs. 80/
सभी पत्राचार पत्रिका एवं सम्पादकीय हेतु पता - All correspondance for the journal & editorial on
वीर सेवा मंदिर (जैन दर्शन शोध संस्थान) Vir Sewa Mandir (A Research Institute for Jainology) 21, अंसारी रोड़ दरियागंज, नई दिल्ली-110 002-06 21, Ansari Road, Daryaganj, New Delhi-110002-06 फोन नं. 011-30120522, 23250522, 09311050522
e-mail-virsewa@gmail.com
विद्वान लेखकों के विचारों से सम्पादक मंडल का सहमत होना आवश्यक नहीं हैं। लेखों में दिये गये तथ्यों और सन्दर्भो की प्रामाणिकता के संबंध में लेखक स्वयं उत्तरदायी हैं सभी प्रकार के विवादों का निपटारा दिल्ली न्यायालय के अधीन होगा।
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अध्यात्म पद
निज हित कारज करना
निज हित कारज करना रे भाई !
निज हित कारज करना, जन्म- मरण दुख पावन यातें सो विधि बंध कतरना। निज..
ज्ञान दरस अर राग फरस रस
निज पर चिन्ह भ्रमरना, संधि भेद बुधि छैनी से कर, निज गहि पर परिहरना। निज..
परिग्रही अपराधी शंके, त्यागी अभय विचरना, त्यौं पर चाह बंधा दुखदायक त्यागत सब सुख भरना। निज..
जो भव भ्रमन चाहे तो अब
सुगुरू सीख उर धरना, दौलत स्वरस सुधारस चाखौ ज्यों विनसै भव मरना। निज..
- दौलतराम जी
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विषयानुक्रमणिका
विषय
लेखक का नाम
पृष्ठ संख्या
अध्यात्म पद
- दौलतराम जी 3 विषयानुक्रमणिका 1. सम्पादकीय
- जयकुमार जैन 5 2. शाब्दबोध का स्याद्वादनय संस्कृत - डॉ. राजकुमारी जैन 11
स्वरूप 3. पुरुषार्थ सिद्ध्युिपाय में वर्णित निश्चय - डॉ. अशोक कुमार जैन 21
और व्यवहार नय 4. भक्ति का उत्कृष्ट संस्कृत काव्य - श्री पंकज कुमार जैन 28
भक्तामरस्तोत्र 5. जैन प्राच्यकालीन-साहित्य के आद्य हिन्दी - प्रो. राजाराम जैन 40
गद्य-टीकाकारः महापण्डित टोडरमल 6. सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट तीर्थ का वैभव - डॉ. संगीता मेहता 55 7. आचार्य ज्ञानसागर के संस्कृत महाकाव्यों में अनेकान्तवाद
- डा0 चन्द्रमोहन शर्मा 60 8. दश धर्म
- डॉ. बसन्त लाल जैन 65 9. बुन्देलखण्ड के जैन तीर्थो में जैन संस्कृति और कला की व्यापकता 74
- पं. विमलकुमार जैन 10. तीर्थकर का श्रीविहार वैचारिक धरातल पर - डॉ. धर्मेन्द्र जैन 11. आचार्य जयसेन की दृष्टि में स्याद्वाद - डॉ. सुपार्श्व कुमार जैन 11. रिषभदेवा, पुस्तक समीक्षा
- प्रो. एम. एल. जैन
79 89 95
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सम्पादकीय
वीर सेवा मंदिर (जैन दर्शन शोध संस्थान) नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक शोध-पत्रिका के सम्पादन का उत्तरदायित्व जनवरी 2000 ई. में मैने सम्हाला था। परमादरणीय पं. पदमचंद शास्त्री की छत्रछाया उस समय मेरे सिर पर थी तथा उनका परामर्श सतत प्राप्त था। 01 जनवरी 2007 को अचानक अनभ्र वज्रपात हुआ और श्रुताराधक पण्डित जी का चिर वियोग हो गया। वीर सेवा मंदिर के पदाधिकारी हतप्रभ हो गये। मैं 1979 से पण्डित जी से परिचित हुआ किन्तु अनेकान्त के सम्पादक के रुप में 7 वर्ष तक उनके अत्यन्त निकट रहने एवं चर्चा करने पर मैंने पाया कि पण्डित जी जैसे निरभिमानी, नि:स्पृही किन्तु दबंग स्वभाव के धनी पण्डित समाज में अंगुलिगण्य ही हैं। आज जब अधिकांश विद्वान् स्वार्थवश आगम के विरूद्ध कथन कर रहें हैं, ऐसे समय में पं. पदमचंद शास्त्री की स्मृति निश्चित तौर पर हमें आगम रक्षा के उत्तरदायित्व का बोध कराने में समर्थ होगी। इस समय मुझे स्मरण आ रही है एक घटना जो मैंने बार-बार वीर सेवा मंदिर के पदाधिकारियों से सुनी है कि मन्दिर समिति ने प्रस्ताव पास किया था कि जो मानदेय पण्डित जी दिया जा रहा है उसको दोगुना कर दिया जाय एवं आजीवन यह राशि उनकों प्रदान की जाय एवं उनके स्वर्गारोहण के पश्चात् वह राशि उनकी धर्मपत्नी को आजीवन दी जाय। जब इस आशय का प्रस्ताव पण्डित जी को बताया गया तो वे बोले कि मुझे जो मिल रहा है, उससे अधिक की आवश्यकता नही है। पण्डित जी के स्वर्गारोहण के पश्चात् यह राशि उनकी धर्मपत्नी को को दी जा रही है। संस्था की उदारता भी पं. जी की तरह ही सराहनीय है। पं. सदासुख जी के पश्चात् कदाचित् मैंने यह प्रथम बार सुना था। यह मेरा अहोभाग्य रहा कि पण्डित जी का सान्निध्य प्रेरणा एवं आलोक मुझे मिला। उनके आदेश से ही मैने अनेकान्त के सम्पादन का गुरुतर उत्तरदायित्व स्वीकार किया था।
वीर सेवा मन्दिर (जैन दर्शन शोध संस्थान) और उसकी त्रैमासिक शोध पत्रिका 'अनेकान्त' आज प्रगति के पथ पर निरंतर अग्रसर है तथा सुधी पाठकों एवं विद्वान् लेखकों का सहयोग उसे प्राप्त हो रहा है। संस्था की प्रगाति को देखकर मैं अभिभूत हूँ तथा कतिपय महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर पाठकों एवं सुधी श्रावकों का सम्मुख प्राप्त करना अपना कर्तव्य समझता हूँ। साहित्य प्रदर्शनी
संस्था ने अपने भवन के मुख्य द्वार के दोनों तरफ साहित्य प्रदर्शनी स्थल का निर्माण कर जैन आगम, धर्म, दर्शन, संस्कृति एवं कला के साथ-साथ जैन विद्याओं से सम्बद्ध अन्य विषयों का साहित्य प्रदर्शित करने तथा आवश्यक साहित्य की बिक्री के लिए स्थल उपलब्ध कराया है। इससे जहाँ जैन समाज को पर्याप्त लाभ मिल रहा है, वहाँ अनुसंधान कार्य में संलग्न विद्वानों एवं शोध-छात्रों की अनेक समस्यायें भी हल हो रही है। यदि अन्य संस्थायें भी समाज के सभी वर्गों के हित में ऐसा कार्य करें तो निश्चित तौर पर संस्थाओं के उद्देश्यों की पूर्ति होगी तथा समाज के धन का सदुपयोग होगा।
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कम्पयूटरीकरण योजना
संस्था के ग्रन्थागार में प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू एवं अन्य भारतीय भाषाओं में लिखित जैन एवं जैनेतर साहित्य के उच्चकोटि के सात हजार से भी अधिक प्राचीन एवं नवीन ग्रन्थ हैं। इनमें ज्योतिष, आयुर्वेद एवं जैनेतर धर्मो के हस्तलिखित ग्रन्थ भी है। इन ग्रन्थों की सुरक्षा हेतु संस्था के अपने भवन में आधुनिक तकनीक से परिपूर्ण एक कम्प्यूटर सेन्टर स्थापित किया गया है। संस्था की कार्यकारिणी समिति ने सी.डैक उपक्रम के साथ वीर सेवा मन्दिर के ग्रन्थागार में विद्यमान प्राचीन ग्रन्थों एवं महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों के डिजिटाइजेशन का कार्य प्रारंभ हो चुका है। स्कैनिंग की इस प्रक्रिया से ग्रन्थागार की जीर्ण-शीर्ण पुस्तकों एवं पाण्डुलिपियों का संरक्षण हो सकेगा। इस कार्य में संस्था के उत्साही मन्त्री श्री योगेश जैन जी को मैंने सतत निष्ठापूर्वक कार्य में संलग्न देखा है।
वीर सेवा मन्दिर के विविध गतिविधियों के संचालित करने के लिए उपसमितियों का गठन किया गया है। यथा अचल सम्पत्ति प्रबंधन उपसमिति, शोध उपसमिति, विधान संशोधन उपसमिति, एवं कम्प्यूटरीकरण प्रोजेक्ट आदि। इन उपसमितियों के संयोजक मनोनीत किये गये हैं उनमें श्री सुभाष जैन, महामंत्री, श्री धनपाल सिंह जैन, श्री योगेश जैन, श्री विनोद कुमार जैन, के साथ श्री रुपचंद कटारिया, श्री सुमत प्रसाद जैन, आदि लोग इसके प्रमुख रुप से सदस्य हैं। शोध उपसमिति
जूलाई 1961 में संस्था ने अपना ग्रन्थागार अनुसंधान हेतु लोकार्पित किया था। तब से अब तक शोधार्थी निरन्तर संस्था के ग्रन्थागार के ग्रन्थों से अनुसंधान कार्य में लाभान्वित होते रहे है। इससे बड़ा और प्रमाण क्या हो सकता है कि देश विदेश में जैन विद्याओं पर किये गये शोध कार्य में वीर सेवा मंदिर का उल्लेख और अनेकान्त का सन्दर्भ अवश्य हो दृष्टिगोचर हो जाता है। दिनॉक 2 मार्च 2008 को कार्यकारिणी समिति ने शोध कार्यो में विशेष अवदान हेतु एक शोध उपसमिति का गठन किया है। सम्पूर्ण समिति आगम की सुरक्षा को ध्यान में रखकर शोध कार्य के विकास के लिए दर्ताचत्त होकर प्रयासशील है।
शोध उपसमिति की भावना के अनुसार जैन विद्या एवं प्राकृत भाषाओं की त्रैमासिक शोध पत्रिका अनेकान्त ने अपने प्राचीन स्तर को अक्षुण्ण रखते हुए चिन्तनशील पाठकों को नवीन सामग्री प्रदान करने हेतु अपने रूप एवं आकार में परिवर्तन-परिवर्धन किया है। विद्वानों ने अनेकान्त के अवदान को आचार विचार के उन्नयन, तत्वज्ञान के प्रचार प्रसार
और साहित्यिक, ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण मानकर सम्मान प्रदान किया है। मैं सम्पादक के रूप में विद्वान् मनीषियों से निवेदन करना चाहता हूँ कि वे अपने आलेखों, टिप्पणियों एवं परामर्शो से अनेकान्त के यात्रापथ को सुगम बनायें ताकि यह पत्रिका पूर्व की तरह अनुसंधान के क्षेत्र में मानक स्थान बनाये रख सके।
यू.जी.सी. ने शिक्षकों की नियुक्ति एवं पदोन्नति आदि में उन पत्रिकाओं में प्रकाशित शोध पत्रों को ही मान्यता दी है, जिन पत्रिकाओं को ISSN नंबर प्राप्त है। सौभाग्य का
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 विषय है कि पेरिस से जारी होने वाला यह इन्टरनेशनल स्टेण्डर्ड सीरियल नम्बर 'अनेकान्त' को इसका स्तर देखकर प्राप्त हो चुका है। जहाँ कतिपय शोध पत्रिकायें राशि लेकर आलेख प्रकाशित कर रही हैं, वहाँ अनेकान्त अच्छे आलेखों को मानदेय भी प्रदान कर रहा है। संस्था की यह उदारता अनुसंधान प्रेमियों को प्रमोद प्रदान कर रही है। मैं आह्वान करता हूँ उन अनुसंधित्सुओं का, जो प्राच्य विद्याओं में रूचि रखते हैं, वे जैन विद्या एवं प्राकृत के क्षेत्र से भी जुड़ें तथा भारतीय संस्कृति के सर्वाग संरक्षण में अपना महत्त्वपूर्ण अवदान दें।
जैन विद्याओं के क्षेत्र में न केवल प्राच्य अपितु पाश्चात्य विद्वानों की गंभीर रूचि रही है। विदेशी शोधार्थी साधनों के अभाव में हतोत्साहित न हों, इस बात का संस्था सतत ध्यान रख रही है। इस सन्दर्भ में प्रो. एम.एल.जैन, साहू आर.पी.जैन एवं श्री योगेश जैन तथा संस्था के अन्य पदाधिकारियों के सम्मिलित प्रयास सफलीभूत हो रहे हैं । पिछले 5 वर्षो में जिन विदेशी विद्वानों ने हमारे ग्रन्थागार का अवलोकन एवं उपयोग किया है, उनमें प्रो. क्रामवेल हवाई, प्रो. अन्ने वैली-कनाडा, डॉ सबीने स्काल्ज-जर्मनी, प्रो. नटालिया-मास्को, डॉ भुवनेन्द्र कुमार-कनाडा, डॉ जेनेट गुन-कनाडा, डॉ अरान ग्रास-कैलिफोर्निया और डॉ. पी.बी. गाडा-टैक्सास प्रमुख हैं। यहाँ मैं यह विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूँगा कि जैन साहित्य एवं इतिहास, प्राच्य विद्याओं का अन्तःशास्त्रीय अध्ययन तथा अहिंसा एवं शाकाहार में रूचि रखने वाला किसी भी देश का किसी भी जाति या समुदाय का कोई भी व्यक्ति यहाँ अपने अनुसंधान के लिए आवास एवं ग्रन्थागार की सुविधा नि:शुल्क प्राप्त कर सकता है। वातानुकूलित सभागार
संस्था के पास अपने नवीनीकृत विशाल भवन में एक वातानुकूलित विशाल सभागार है। इसमें विभिन्न अकादमिक, सामाजिक एवं धार्मिक गतिविधियों का आयोजन होता रहता है। वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, उच्चतर शिक्षा विभाग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय भारत सरकार ने अपनी प्राच्य धर्म-दर्शन परिभाषा कोश योजना में जैन धर्म दर्शन परिभाषा कोश के निर्माण में इस सभागार का एवं संस्था के ग्रन्थागार का अनुसंधान हेतु अनेक बार उपयोग किया है। यह ग्रन्थ पूर्णतया कम्पोज होकर संशोधित किया जा चुका है तथा शीध्र ही प्रकाशित होने वाला है। इस कोश के निर्माण में एक मानद सदस्य के रूप में मुझे भी सहभगिता का अवसर प्राप्त हुआ है इस कार्य में श्री सुभाष जैन-शकुन प्रिंटर्स महामंत्री वीर सेवा मंदिर का अविस्मरणीय सहयोग मिला है। विशेष व्याख्यानमाला
श्रतु पंचमी पर्व के पावन प्रसंग पर संस्था की कार्यकारिणी समिति के निर्णयानुसार वातानुकूलित सभागार में दिनांक 31 मई 2009 को एक राष्ट्रीय व्याख्यान माला का आयोजन किया गया, जिसका विषय जैन विद्या एवं प्राकृत साहित्य समीक्षा रहा, इस कार्यक्रम की अध्यक्षता श्री सी.के. जैन - पूर्व महासचिव लोकसभा ने की । मुख्य अतिथि के रूप में
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प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी, कुलपति राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान दिल्ली रहे तथा मुख्य वक्ता प्रो. राजाराम जैन नोएडा, प्रो. शुभचन्द्र मैसूर विश्वविद्यालय मैसूर तथा प्रो. कमलेश कुमार जैन जैन बौद्ध दर्शन विभागाध्यक्ष का. हि. वि. वि. वाराणसी के विशिष्ट व्याख्यान सम्पन्न हुए। अनेकान्त के गत अंक 62/2 अप्रैल-जून 2009 में डॉ राजाराम जैन का व्याख्यान 'आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलि एवं उनका षट्खण्डागम', प्रो. कमलेश कुमार जैन का व्याख्यान 'श्रुताराधना का पर्व श्रुतपंचमी', प्रो. शुभचन्द्र का व्याख्यान "Shrutapanchami and Digamber Agam Works", प्रो. राधाबल्लभ त्रिपाठी का व्याख्यान "प्राकृत साहित्य का वैशिष्ट्य" तथा श्री सी. के. जैन का व्याख्यान “अध्यक्षीय वक्तव्य" के शीर्षक से प्रकाशित किया गया है। यह उक्त माननीयों के व्याख्यानों का सार संक्षेप है, केवल प्रो. राजाराम जी का लिखित रूप उनके स्वयं द्वारा तैयार किया गया है । कार्यक्रम का संचालन डॉ. जय कुमार जैन ने किया। इसी दिन इस व्याख्यान माला के द्वितीय सत्र में एक विद्वत गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें संस्था के पदाधिकारियों, कार्यकारिणी सदस्यों के साथ जैन विद्याओं के निष्णात अधीती मनीषी प्रो. राजाराम जैन नोएडा, प्रो. कमलेश कुमार जैन वाराणसी, प्रो शुभचंद्र मैसूर, डॉ. अशोक कुमार जैन वाराणसी, डॉ. जयकुमार जैन मुजफ्फरनगर, डॉ. जयकुमार उपाध्ये नई दिल्ली, डॉ. विजय कुमार झा श्री महावीर जी राजस्थान, डॉ. एन. सुरेश कुमार मैसूर, डॉ. रमेशचन्द्र जैन बिजनौर, डॉ. कपूरचंद जैन खतौली, डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन गाजियाबाद, श्री आनन्द कुमार जैन वाराणसी, श्री ओम प्रकाश कालड़ा नई दिल्ली, प्रो. सुदीप जैन नई दिल्ली, डॉ. वीर सागर जैन नई दिल्ली, डॉ जगदीश प्रसाद जैन नई दिल्ली, डॉ. अतुल कुमार जैन नई दिल्ली, डॉ. अरूणा आनन्द नई दिल्ली, डॉ. शिखरचंद जैन नई दिल्ली एवं श्री मनोज जैन 'निर्लिप्त' अलीगढ़ आदि विद्वान् सम्मिलित हुए इस गोष्ठी में प्रायः सभी विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किये तथा संस्था के प्रयासों की सराहना की। गोष्ठी का संचालन डॉ. कपूरचन्द जैन खतौली ने किया। संस्था के पदाधिकारियों ने प्रतिवर्ष ऐसी व्याख्यानमालाओं के आयोजन की बात रखी, जिसका उपस्थित विद्वानों एवं समाज के प्रबुद्ध श्रावकों ने करतल ध्वनि से समर्थन किया ।
इस समारोह की एक अन्य विशिष्ट उपलब्धि रही श्री सुभाष जैन शकुन प्रिंटर्स द्वारा रचित पचरंगा जैन ध्वज गीत का प्रथम बार गायन । प्रत्येक धार्मिक कृत्य के पूर्व ध्वजारोहण एवं ध्वजगीत गायन की परम्परा प्राचीन है। आचार्य श्री विद्यानन्द जी की प्रेरणा एवं अन्य जैन सम्प्रदायों के आचार्यो की सहमति से भगवान् महावीर के 2500वें निर्वाण दिवस पर पचरंगा ध्वज स्वीकार किया गया था। यद्यपि श्री मिश्रीलाल जी जैन गुना (म.प्र.) ने उस समय एक ध्वजगीत की रचना की थी, किन्तु वह अधिक प्रचलित नही हो पाया। वह पंचरगा ध्वजगीत इस प्रकार था
आदि पुरुष के पुत्र भरत का, भारत देश महान । आदिनाथ से महावीर तण्क, करें सुमंगल गान ॥ पांच रंग पाँचों परमेष्ठी, युग को दें आशीष । विश्व शान्ति के लिए झुकावें, पावन ध्वज को शीष ॥
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श्री सुभाष जैन द्वारा रचित पचरंगा ध्वजगीत यतः विजयी विश्व तिरंगा प्यारा की तर्ज पर जैन ध्वज पचरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा' के रुप में है, अत: यह जैन जन मानस में सर्वत्र प्रचलित हो सकेगा - ऐसी मेरी धारणा है। मैं आशा करता हूँ कि श्रुतपंचमी पर्व पर प्रथम बार गाया गया निम्न लिखित पचरंगा ध्वजगीत लोकप्रियता के शिखर का स्पर्श करेगा तथा जैन संगठन को शक्तिशाली बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करेगा। इस ध्वजगीत में तीन खण्ड हैं। प्रथम में पंचपरमेष्ठी के वन्दन, रत्नत्रय के पालन, हृदय में जिनवाणी के धारण और सिद्धप्रभु के गुणगायन की चर्चा है तो द्वितीय में सत्य, अहिंसा को अपनाने की बात कही गई है।
तृतीय खण्ड में अनेकान्त दृष्टि अपनाकर मुक्ति प्राप्ति हेतु संयम धारण करने की मान्यता प्रतिपादित की गई। फलतः यह ध्वजगीत जैनधर्म के हार्द को भी प्रकट करने में समर्थ है। गीत इस प्रकार है - पंचरंगा जैन ध्वज गीत :
जैन ध्वज पचरंगा प्यारा। मनवांछित अमृत फल पाओ॥ झण्डा उँचा रहे हमारा॥
जन्म मरण से हो छुटकारा। पंचपरमेष्ठी के वंदन से। झण्डा उँचा रहे हमारा॥ रत्नत्रय के व्रत पालन से ॥ जैन ध्वजः पचरंगा प्यारा। जिनवाणी मन में धारण से। झण्डा ऊँचा रहे हमारा ॥2॥ सिद्धप्रभु के गुण गायन से। इस झण्डे की छाया सुखकर। क्लेश कटे मन हो उजियारा। अनेकान्त दृष्टि अपनाकर ॥ झण्डा ऊँचा रहे हमारा॥ मुक्ति हेतु संयम तन धर कर। जैन ध्वज पचरंगा प्यारा। वीतराग को शीश नमनकर ।। झण्डा उँचा रहे हमारा॥1॥ सुभाष-शकुन का हो निस्तारा । आओ सहधर्मी गण आओ। झण्डा ऊँचा रहे हमारा॥ जैन धर्म के नित गुण गाओ॥ जैन ध्वजः पचरंगा प्यारा।
सत्य अहिंसा को अपनाओ। । झण्डा ऊँचा रहे हमारा ॥३॥ साहित्य प्रकाशन
साहित्य प्रकाशन के क्षेत्र में वीर सेवा मन्दिर ने लगभग पचास महत्वपूर्ण ग्रन्थों को प्रकाशित किया है। इनमें जैन लक्षणावली के तीन भाग, पुरातन जैन वाक्य सूची, जैन विविलोग्राफी (अंग्रेजी) दो भाग, युगवीर निबन्धावली, जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह के दो भाग, जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, जिनशासन के विचारणीय प्रसंग, जरा सोचिए आदि अनुसंधान की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। पं. पदमचंद शास्त्री का निष्कंप दीपशिखा एवं मूल जैन संस्कृति अपरिग्रह चिन्तनधारा में पुनः चिन्तन को बलात् विवश कर देते है। महत्वपूर्ण ग्रन्थों के प्रकाशन के साथ-साथ संस्था ने अंग्रेजी भाषा में वैरिस्टर
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चम्पतराय जी द्वारा लिखित Key of Knowledge, व Rishabh Deva का अंग्रेजी भाषा में पुनर्मुद्रण में एवं Confluence of Opposites का हिन्दी रुपान्तरण " असहमत संगम" में तकनीकी सहयोग प्रदान कर विद्वानों के लिए उपलब्ध कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है।
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मै भावना भाता हूँ कि श्री जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' द्वारा संस्थापित इस संस्था एवं 62 वर्ष से सतत प्रकाशित 'अनेकान्त' को सभी गुणानुरागियों का सहयोग मिलता रहेगा. जिससे आगामी वर्षों में समाज की और अधिक सेवा हो सकेंगी।
जयकुमार जैन
लेखकों से निवेदन
1. लेख स्वच्छ हस्तलिखित अथवा टकित मूल लेख ही भेजें।
2.
लेख के साथ लेख के मौलिक एवं अप्रकाशित होने का प्रमाण पत्र अवश्य संलग्न करें एवं अनेकान्त में प्रकाशन के निर्णय होने तक अन्यत्र प्रकाशनार्थ न भेजें। 3. अप्रकाशित निवन्ध को ही प्रकाशन में वरीयता दी जायेगी तथा मौलिक,
-
अप्रकाशित एवं मूल लेख प्राप्त होने पर ही मानदेय दिया जायेगा । लेख पर अपना पूरा पता, फोन एवं मोबाईल नं0, व ईमेल जरूर लिखे ।
4. यदि लेख कम्प्यूटर पर टंकित हो तो उसके Font के साथ सी. डी. के रूप में भी भेज सकते हैं अथवा उसे संस्था E-mail: virsewa@gmail.com पर भी भेज सकते हैं।
5. पुस्तक समीक्षा हेतु पुस्तक की दो प्रतियाँ अवश्य भेजें तथा संभव हो तो दो पृष्ठों में उस पुस्तक का संक्षिप्त परिचय भी भेजें। स्तरीय तथा महत्त्वपूर्ण प्रकाशनों की ही समीक्षायें प्रकाशित की जायेंगी।
6. लेख मूल हस्ताक्षरित प्रति में ही भेजे तथा भेजने से पूर्व उसकी एक प्रति अपने पास सुरक्षित रखें। अप्रकाशित निबन्ध लौटाये नहीं जायेंगे ।
7. लेख में उल्लिखित मूल श्लोकों, गाथाओं, उद्धरणों तथा सभी सन्दर्भों को मूल ग्रन्थ से मिलाकर शुद्ध करके ही भेजें। प्राय: प्रूफ रीडिंग में इनका मिलान आपके प्रेषित लेख की मूल कॉपी से ही संभव होता है।
8. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली के द्वारा जारी नयी पदोन्नति नीति के अनुसार वे ही शोधपत्र पदोन्नति में मान्य होगे जो ISSN नंबर से युक्त शोध पत्रिका में प्रकाशित होंगे। अनेकान्त पत्रिका को पेरिस से जारी होने वाले इन्टरनेशनल स्टैण्डर्ड सीरियल नंबर प्राप्त है। विद्वान अपने उच्चस्तरीय शोध आलेख प्रकाशन हेतु भेजे।
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शाब्द-बोध का स्याद्वादनयसंस्कृत स्वरूप
- डा. राजकुमारी जैन
जैन दर्शन के अनुसार जो भी सत् है वह अनेकान्तात्मक स्वरूप में अवस्थित है। अनेकान्त को परिभाषित करते हुए कहा गया हैं कि एक वस्तु की वस्तुरुपता के निष्पादक एक-अनेक, भेद-अभेद, सामान्य-विशेष आदि सप्रतिपक्षी धर्मों का युगपत् सद्भाव अनेकान्त है। यह 'वस्तु सर्वथा सत् स्वरूप ही है अथवा असत् रूप ही हैं, 'एक रूप ही है', नित्य ही है अथवा अनित्य ही है, इस प्रकार सर्वथा एकान्त के त्याग स्वरूप है और यह प्रतिपादन करता है कि जो एक है वही अनेक भी है, जो सत् है वही असत् भी है, जो नित्य है वही अनित्य भी है। इस प्रकार एक वस्तु की वस्तुरूपता को स्थापित करने वाले सप्रतिपक्षी धर्मयुगलों का युगपत् सद्भाव अनेकान्त कहलाता है। ___ जो भी सत् है वह अनेकान्तात्मक -एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक, सामान्यविशेषात्मक स्वरूप में अवस्थित है। दूसरे शब्दों में एक वस्तु का स्वरूप उसकी अनेक विशेषताएं हैं। वस्तु न तो उन विशेषताओं का समूह मात्र है, न ही वह उनके भिन्न उनका आश्रय मात्र है। इसके विपरीत वह उनमें व्याप्त एक अखण्ड सत्ता है। एक वस्तु की अनेक विशेषताओं में नाम, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद होते हुए भी सत्तापेक्षया अभेद है। ये विशेषताओं रूप से अनेक होते हुए भी वस्तुरूप से एक है। उदाहरण के लिये एक वस्तु के सामान्य रूप से सदैव विद्यमान रहने वाले अनेक स्वभावों को गुण तथा उनकी कालक्रम से होने वाली अनेक विशिष्ट अभिव्यक्तियों को पर्याय कहा जाता है। एक द्रव्य नाम, लक्षण प्रयोजन आदि की अपेक्षा परस्पर भिन्न भिन्न अनेक गुण तादात्म्य (तादात्म्य तत्+आत्म्य) सम्बन्ध से युक्त होकर एक दूसरे की आत्मा या स्वभाव होते हुए एक अस्तित्वरूपता या एक द्रव्यरूपता को प्राप्त करते हैं। एक द्रव्य के अनेक गुणों के इस तात्त्विक अभेद के कारण ने केवल द्रव्य का स्वभाव उसके समस्त गुण हैं बल्कि एक गुण का स्वभाव भी उसका आश्रयदाता सम्पूर्ण द्रव्य अर्थात् द्रव्य के समस्त गुण है। इस प्रकार सत्ता मात्र द्रव्य रूप, मात्र गुण रूप अथवा परस्पर निरपेक्ष गुण और गुणी रूप न होकर गुण-गुण्यात्मक स्वरूप में अवस्थित है।
जिस प्रकार नाम, लक्षणदि की अपेक्षा परस्पर भिन्न-भिन्न अनेक गुण तादात्म्य सम्बन्ध पूर्वक एक द्रव्यरूपता को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार नाम, लक्षणादि की अपेक्षा परस्पर भिन्न-भिन्न अनेक अवयव संयोग सम्बन्ध से सम्बन्धित होकर तथा एक दूसरे के स्वरूप और कार्यों से प्रभावित होते हुए एक अवयवी-रूपता को प्राप्त करते हैं। दूसरे शब्दों में एक अवयवी अपने अनेक अवयवों में व्याप्त एक जटिल संरचना है। उसका स्वरूप
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उसके समस्त अवयव है। साथ ही एक अवयव भी जिस विशिष्ट स्वरूप में अवस्थित है उस स्वरूप को वह अवयवी के आश्रय में रहकर अर्थात् उसके अन्य अंगों से सम्बन्धित
और उनके कार्यों से प्रभावित होता हुआ प्राप्त करता है। उदाहरण के लिये एक शरीर अपने हाथ, पैर, सिर, पेट आदि अनेक अंगों के अतिरिक्त कुछ नहीं है। लेकिन वह उनका समूह मात्र न होकर उनमें व्याप्त एक जटिल संरचना है। शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों का स्वरूप भिन्न-भिन्न है। वे भिन्न-भिन्न कार्यों को सम्पादित करते हैं लेकिन वे शरीर के एक अंग के रूप में ही, इसके अन्य अंगों से सम्बन्धित और उनके कार्यों से प्रभावित होकर ही इस स्वरूप और सामर्थ्य से युक्त हो सकते हैं; तथा यदि किसी कारणवश वे शरीर से अलग हो जाये तो उनका इस विशिष्ट स्वरूप और शक्तियों से युक्त अस्तित्व समाप्त हो जाता है। जैसे हाथ शरीर के अंग के रूप में हलन चलन आदि क्रियाओं से युक्त होता है, चीजों को उठाने, रखने आदि कार्यों को सम्पादित करता है लेकिन यदि किसी कारणवश हाथ शरीर से अलग हो जाय तो वह अपना यह विशिष्ट स्वरूप और उपयोगिता खो देता है।
एक वस्तु मात्र सामान्य रूप या मात्र विशेष रूप न होकर सामान्यविशेषात्मक सत्ता है। उसका सामान्य स्वरूप सामान्य रूप से निरन्तर वहीं रहते हुए वस्तु की आन्तरिक बाह्य स्थितियों में होने वाले परिवर्तन के अनुसार सदैव किसी न किसी विशिष्ट स्वरूप में अभिव्यक्त होता हुआ ही अस्तित्व रखता है।
सत्ता के इस अनेकान्तात्मक-एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक, सामान्य विशेषात्मक स्वरूप के कारण न केवल एक धर्मी का ज्ञान उसके धर्मों के ज्ञान पूर्वक होता है बल्कि एक धर्म के विशिष्ट स्वरूप को भी उसके आश्रयभूत धर्मी के सर्वांगीण स्वरूप के ज्ञान पूर्वक ही जाना जा सकता है। जो व्यक्ति समग्र वस्तु स्वरूप को जानता है वही उसके एकांश के विशिष्ट स्वरूप को ग्रहण कर सकता है तथा व्यक्ति की समग्र वस्तु के प्रति समझ जितनी गहरी होती जाती है उसकी एकांश के विशिष्ट स्वरूप को ग्रहण करने की क्षमता उतनी ही प्रखर होती जाती है। शरीर के एक विशेष अंग-सिर में उत्पन्न हुए विकार के विशिष्ट स्वरूप को एक कुशल डॉक्टर ही समझ सकता है क्योंकि वह सम्पूर्ण शरीर को अर्थात शरीर के समस्त अंगों, उनकी कार्यप्रणाली तथा उनके कार्यों के सिर पर पड़ने वाले प्रभावों को जानता है। अपनी इस समस्त जानकारी को दृष्टि में रखते हुए, इसका उपयोग करते हुए विभिन्न प्रमाणों की सहायता से वह तय करता है कि सिर के विकार का कारण नेत्रों की कमजोरी है, पेट की खराबी है अथवा सिर की संरचना में ही कोई दोष उत्पन्न हो गया है। इस प्रकार विभिन्न प्रमाणों द्वारा परीक्षा पूर्वक किये गये चिन्तन के आधार पर वह सिर के विकार के विशिष्ट स्वरूप को जानकर उसके निदान का स्वरूप तय करता है। इस कार्य को एक सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता क्योंकि वह सम्पूर्ण शरीर की कार्य प्रणाली तथा शरीर के विभिन्न अंगों पर पड़ने वाले पारस्परिक प्रभावों का नहीं जानता।
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प्रमाण और नय
सम्पूर्ण वस्तु के ज्ञान को प्रमाण तथा उसके एक धर्म के ज्ञान को नय कहा जा है। एक अंश के अपने विशिष्ट स्वरूप में अस्तित्व के लिए अंशी पर आश्रित होने के कारण उसका ज्ञान भी अंशी के ज्ञान पूर्वक ही हो सकता है। इसलिये अकलंकदेव नय को परिभाषित करते हुए कहते हैं "प्रमाण द्वारा प्रकाशित वस्तु के एकांश का प्ररूपक ज्ञाता का अभिप्राय नय कहलाता है। यह पदार्थ के स्वरूप के प्रति विचार पूर्वक निर्णय करने का उपाय है तथा इसके द्वारा पदार्थ परीक्षा (परि+इक्षा विभिन्न प्रमाणों से भली प्रकार देखना) पूर्वक जाना जाता है। नयात्मक ज्ञान द्वारा मनमाने चिन्तन पूर्वक वस्तु के किसी धर्म के स्वरूप का निश्चय नहीं किया जाता बल्कि "इसके द्वारा युक्ति पूर्वक वस्तु का ग्रहण किया जाता है।''
प्रमाण सकलादेशी ज्ञान है। नय को विकलादेशी कहा जाता है। जिस प्रदार्थ को पहले विभिन्न प्रमाणों द्वारा जान लिया गया है इसी पदार्थ के एक अंश के प्रति किसी प्रकार की समस्या या जिज्ञासा उत्पन्न होने पर उसके निराकरणार्थ परीक्षात्मक नय ज्ञान की प्रवृति होती है जिसमें युक्तियों द्वारा अर्थात विभिन्न प्रमाणों का अवलम्बन लेते हुए वस्तु के एकांश के विशिष्ट स्वरूप का निश्चय किया जाता है। अनन्तवीर्य कहते हैं "ज्ञाता द्वारा साक्षात्कार किये गये अर्थ में (अभिहित अर्थात् वर्णित द्वारा जाने गये और अनुमित अर्थ में भी) किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न होने पर वस्तु के प्रति पुनः ऊहापोहात्मक चिन्तन के अभाव में भ्रम का निवारण नहीं हो पाता। इसलिये आन्तरिक बाह्य सभी पदार्थों के प्रति नय का अनुष्ठान किया गया है। 10
किसी भी वस्तु का एक विशेष धर्म जिस विशिष्ट स्वरूप से युक्त होकर अस्तित्व रखता है उस रूप में उसका अस्तित्व सम्पूर्ण वस्तु पर, वस्तु के अन्य समस्त धर्मों पर
आश्रित होता है। इसलिये प्रयोजन के अनुसार वस्तु के एक विशेष धर्म को ग्रहण करने वाले नयात्मक ज्ञान की प्रवृत्ति प्रमाण ज्ञान द्वारा वस्तु के परस्पर सापेक्ष अनेक धर्मात्मक स्वरूप को ग्रहण करने के उपरान्त ही हो सकती है।। नय शब्द प्रमाण के विभिन्न अंश हैं। वस्तु के एक धर्म को जानने का साधन एक नय ही है तथा विभिन्न नयों से वस्तु के समस्त धर्मों को जानने के उपरान्त ही सकलादेशी शब्द प्रमाण की उत्पत्ति होती है। एक नय वस्तु के एक अंश का प्रतिपादक है। जिस प्रकार समुद्र का एक देश न तो समुद्र है न ही असमुद्र है बल्कि समुद्रांश है उसी प्रकार एक नय का विषय न तो सम्पूर्ण वस्तु है, न ही अवस्तु है बल्कि वस्त्वंश है। इसलिये एक नय स्वयं प्रमाण या अप्रमाण न होकर प्रमाणांश है। तथा अपने आप में पूर्ण सत्य न होकर सत्यांश है। नय द्वारा प्रतिपाद्य धर्म का अस्तित्व धर्मी के अन्य धर्मी से निरपेक्ष रूप से नहीं होता बल्कि वह उनसे सापेक्ष रूप से ही विद्यमान होता है। इसलिये एक नय नयान्तर सापेक्ष रूप से ही सम्यक् होता है तथा अन्य नयों से निरपेक्ष रूप से अपने विषय का प्रतिपादन करने वाला नय मिथ्या है। इसलिये परस्पर निरपेक्ष नयों से वस्तु के समस्त धर्मों को जान लेने पर भी उनसे एक
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वस्तु का ज्ञान नहीं होने के कारण वह ज्ञान अयथार्थ है तथा परस्पर सापेक्ष अनेक नयों से समस्त धर्मों के ज्ञान पूर्वक होने वाला एक वस्तु का ज्ञान ही प्रमाण ज्ञान होता है। यहाँ वस्तु के समस्त धर्मों को जानने से आशय उसके अनन्त धर्मों को उनके पूर्णरूपेण विशिष्ट स्वरूप में जानना नहीं है बल्कि इसका अभिप्राय यह है कि वस्तु को जिस स्तर पर जाना जा रहा है उस स्तर पर परस्पर पूरक और अपरिहार्य समस्त धर्मों के ज्ञान पूर्वक ही व्यक्ति का ज्ञान प्रमाण हो सकता है। शाब्दबोध का स्यादादनयसंस्कृत स्वरूप
वस्तु के अनेकान्तात्मक स्वरूप के कारण एक सामान्य व्यक्ति के समक्ष चिकित्सा, योग साधना, भवन निर्माण आदि किसी भी क्षेत्र में किसी प्रकार की समस्या उत्पन्न हो जाने पर उसके लिये स्वयं पुस्तकें पढ़ कर अथवा अपने आधे अधूरे ज्ञान के आधार पर उस समस्या का समाधान करने का निषेध किया जाता है तथा उसे विशेषज्ञ के परामर्शानुसार कार्य करने की सलाह दी जाती है। विशेषज्ञ द्वारा वस्तु के जिस अंश या पक्ष के विशिष्ट स्वरूप का वर्णन किया जाता है व सम्पूर्ण वस्तु के विशिष्ट स्वरूप को दृष्टि में रखकर किया जाता है। विशेषज्ञ के कथन को सुनते समय श्रोता उस कथन की सम्पूर्ण पृष्ठ-भूमि को नहीं जानता, वह यह नहीं जानता था कि पदार्थ के प्रति जो कथन किया गया है यह उसकी किन अन्य विशेषताओं को दृष्टि में रखते हुए किया गया है। परिणाम स्वरूप वह उस कथन को सर्वथा अथवा अपने आप में पूर्ण सत्य मान सकता है तथा उसके अनुसार कार्य करते हुए काफी हानि उठा सकता है। उदाहरण के लिये योग साध ना सदैव योग क्रिया के विशेषज्ञ गुरु के निर्देशानुसार ही करने की सलाह दी जाती है इसका कारण यह है कि गुरु ही साधक की शारीरिक स्थिति, उसकी साधना के स्तर आदि अनेक विशेषताओं को दृष्टि में रखते हुए तय कर सकता है कि साधक को किस यौगिक क्रिया का किस प्रकार सम्पादन करना है। यदि साधक या कोई अन्य श्रोता इस कथन को सर्वथा सत्य या अपने आप में पूर्ण सत्य समझ ले तथा सभी व्यक्तियों को इस क्रिया के सम्पादन हेतु प्रेरित करने लग जाय तो वह उनका हित साधन न करके उनकी अनेक प्रकार की परेशानियों का कारण बन जायेगा। इसलिये व्यक्ति विशेषज्ञ के परामर्श को निर्धान्त रूप से ग्रहण कर सके यह उसके उस परामर्श को स्याद्वादनयसंस्कृत रूप से ग्रहण करने पर ही सम्भव है। किसी क्षेत्र में अज्ञ पाठक या श्रोता को दृष्टि में रखते हुए नय की परिभाषा दी गयी है, स्याद्वाद से प्रविभक्त-विशेषित या अनुमित अनेकान्तात्मक वस्तु के एक विशेष अंश का व्यंजक ज्ञान या कथन नय है।
स्याद्वाद अनेकान्तात्मक वस्तु की कथन पद्धति है। इसके अनुसार प्रत्येक कथन एक नय-वस्तु के आंशिक स्वरूप का ज्ञापक है। इसके पूर्व स्यात् पद होना आवश्यक है। इस पद के अर्थ को स्पष्ट करते हुए अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं, "स्यात् एक अव्यय पद है जो सर्वथात्व का निषेधक, अनेकान्त का द्योतक तथा कथंचित् अर्थ का प्रतिपादक है।''15 आचार्य समन्तभद्र कहते हैं "वाक्यों में स्यात् अनेकान्त का द्योतक और गम्य अर्थ के प्रति
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विशेषण है। यह सर्वथा एकान्त के त्याग स्वरूप है तथा कथंचित रूप से अर्थ का प्रतिपादन करता है।''17 जैन आचार्यों के अनुसार प्रत्येक वाक्य के पूर्व विद्यमान स्यात् पद के दो कार्य हैं (1) यह अनेकान्त के द्योतक के रूप में उद्देश्य के अनेकान्तात्मक-परस्पर सापेक्ष अनेक धर्ममय एक धर्मीरूप स्वरूप, उसके सामान्यविशेषात्मक और परिवर्तनशील स्थायी स्वरूप की ओर संकेत करता है तथा (2) गम्य अर्थ के प्रति विशेषण के रूप में यह विधेय पद को सीमित या विशेषित करने का कार्य करता है। इस कार्य को वह कथंचित् रूप से अर्थ का प्रतिपादन करते हुए करता है। कथंचित् शब्द का अर्थ है 'किसी निश्चित अपेक्षा से'। यह 'अपेक्षा' व्यक्तिगत दृष्टिकोण का सूचक न होकर इस बात का सूचक है कि उद्देश्य के प्रति किया जा रहा विधान सर्वथा सत्य न होकर एक विशेष परिस्थितियों के सन्दर्भ में ही सत्य है तथा उद्देश्य में वर्णित धर्म के अतिरिक्त धर्मों का भी सद्भाव है जिनसे सापेक्ष रूप से ही यह विधान सत्य है। कथंचित् स्यात् का पर्यायवायी है तथा स्यात् के दोनों कार्यों-उद्देश्य के अनेकान्तात्मक स्वरूप की ओर संकेत तथा विधेय द्वारा जाने जा रहे उद्देश्य के एक अंश के प्रति विशेषण को सम्पादित करता है। __ जो व्यक्ति विशेषज्ञ के परामर्श स्याद्वादनयसंस्कृत रूप से ग्रहण करता है वह यह ध्यान रखता है कि यह कथन सर्वथा सत्य न होकर एक निश्चित अपेक्षा से ही सत्य है तथा अन्य अपेक्षा से असत्य भी है। इसलिये वह विशेषज्ञ द्वारा किये जा रहे विधान को निर्विशेष रूप से सत्य न मानकर उसके विशिष्ट स्वरूप को जानने के लिये प्रवृत्त होता है तथा उस कथन को सर्वथा सत्य मानकर उसके अनुसार विभिन्न परिस्थितियों में समान रूप से कार्य करने की गलती नहीं करता। जैसे यदि गुरु द्वारा योग साधक को प्राणायाम जैसी किसी क्रिया के करने हेतु निर्देश देते समय उस क्रिया का सामान्य रूप से ही वर्णन कर दिया जाय तो उस वर्णन को स्याद्वादनयसंस्कृत रूप से ग्रहण करने वाला साधक सामान्य रूप से उस क्रिया के सामान्यविशेषात्मक स्वरूप से परिचित होने के कारण यह जानता है कि शुद्ध सामान्य की सत्ता नहीं होती वह (सामान्य) परिस्थितियों की भिन्नता के अनुसार सदैव किसी न किसी विशिष्ट स्वरूप में अवस्थित होकर अस्तित्व रखता है तथा उसके भिन्न भिन्न विशेष स्वरूपों के भिन्न भिन्न प्रभाव होते हैं। इसलिये वह गुरु से उस क्रिया के विशेषणों, कि उसे यह क्रिया कब, कितनी देर तक, किस प्रकार सम्पादित करनी चाहिये, को जानने के लिये प्रवृत्त होता है तथा उस क्रिया को किसी भी मनचाहे ढंग से सम्पादित करने की गलती नहीं करता।
शब्द प्रमाण किसी विशेष समस्या के समाधान हेतु विशेषज्ञ का परामर्श प्राप्त करने का ही साधन नहीं है बल्कि यह किसी क्षेत्र विशेष में विशेषज्ञता अर्जित करने का एक मात्र माध्यम भी है। भाषा द्वारा प्रारम्भ में ही एक वस्तु के परस्पर सापेक्ष अनेक धर्मात्मक स्वरूप तथा उन धर्मों के सामान्य स्वरूप के भिन्न-भिन्न आन्तरिक बाह्य स्थितियों के अनुसार होने वाले भिन्न-भिन्न विशिष्ट स्वरूप को अभिव्यक्त किया जा सकना सम्भव नहीं है। उसके इस अनेकान्तात्मक स्वरूप का ज्ञान प्रारम्भ में उसके एक-एक धर्म को
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 सामान्य रूप से तथा पृथक्-पृथक् जानने के उपरान्त उसके एक एक धर्म के अन्य धर्म सापेक्ष विशिष्ट को जानने पर ही हो सकता है। ___ यदि व्यक्ति ज्ञान के इस स्तर की प्राप्ति तक धैर्य नहीं बनाये रखे तथा वस्तु की कुछ ही विशेषताओं के वर्णन को सुनकर उत्पन्न हुए अपने आंशिक ज्ञान से संतुष्ट हो जाय अथवा वस्तु की समस्त विशेषताओं को परस्पर निरपेक्ष रूप से जान कर अपने ज्ञान को पर्याप्त मान ले तो उसका यह ज्ञान मिथ्या है तथा उसके अनुसार कार्य करने पर भी असफलता की ही प्राप्ति होगी। जैसे यदि एक मजदूर को भवन निर्माण की जिम्मेदारी दे दी जाये तो वह इस जिम्मेदारी का सफलता पूर्वक निर्वाह नहीं कर सकता क्योंकि यद्यपि यह भवन निर्माण के सभी चरणों को जानता है लेकिन वह उन्हें परस्पर निरपेक्ष स्वरूप में ही जानता है तथा उनके परस्पर सापेक्ष विशिष्ट स्वरूप को जानने की क्षमता उसमें नहीं है। इसलिये वह कार्य करते हुए सही ढंग से यह तय नहीं कर सकता कि इस जमीन से इतनी ऊँचाई वाले भवन के लिये कितनी गहरी नींव होनी चाहिये; वह भवन की नीवें नीचे वाली दीवार की स्थित, दीवार के उद्देश्य आदि अनेक बातों को दृष्टि में रखते हुए एक विशेष दीवार के विशिष्ट स्वरूप को तय नहीं कर सकता। भवन निर्माण के क्षेत्र में एक कुशल कारीगर का ज्ञान ही प्रमाण ज्ञान है क्योंकि वह इसके सभी चरणों को परस्पर सापेक्ष स्वरूप में जानता है।
व्यक्ति भाषा द्वारा किसी क्षेत्र में प्रमाण ज्ञान प्राप्त कर सके इस उद्देश्य से नय को परिभाषित करते हुए समन्तभद्राचार्य कहते हैं, "स्याद्वाद द्वारा प्रविभक्त अर्थ के एक विशेष अंश का व्यजंक नय है।" इसके अर्थ को स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते है स्याद्वाद सामान्य रूप से अनेकान्त का वाचक है। इसके द्वारा अनुमित अनेकान्तात्मक वस्तु ही स्याद्वाद से प्रविभक्त अर्थ है। सद्वाद द्वारा सामान्य रूप से वस्तु के एकानेकात्मक, भेदाभेदात्मक, सामान्य-विशेषात्मक स्वरूप का ज्ञान हो जाने मात्र से यह ज्ञान नहीं हो पाता कि वस्तु में कौन-कौन से अनेक धर्म है तथा वे किस प्रकार परस्पर सम्बन्धित होकर एक वस्तुरूपता को प्राप्त कर रहे है। इसलिये स्याद्वाद् सामान्य रूप से वस्तु परस्पर सापेक्ष अनेक धर्मात्मक स्वरूप का ज्ञान कराने के उपरान्त एक एक नय द्वारा क्रमिक रूप से उसकी एक एक विशेषता का वर्णन करता है। इस 'स्यात्' वस्तु के अनेकान्तात्मक स्वरूप का ज्ञापक होने के कारण प्रमाण अर्थात सकलादेशी ज्ञान स्वरूप है। तथा इस प्रमाण ज्ञान पूर्वक वस्तु के एकांश के प्रकाशक नय ज्ञान की उत्पति होती है। इसलिये इस स्याद्वादनयसंस्कृत ज्ञान को प्रमाणनयसंस्कृत कहा जाता है यह युक्ति और शास्त्र से अविरोधी होने के कारण प्रमाण (यथार्थ ज्ञान) है। ___ जो व्यक्ति स्याद्वाद को एक कथन पद्धति के रूप में स्वीकार करता है वह भाषा द्वारा ज्ञानार्जन प्रारम्भ करने से पूर्व ही वस्तु अनेकान्तात्मक स्वरूप से परिचित होता है। वह सामान्य रूप से इस तथ्य को जानता है कि एक वस्तु का स्वरूप उसकी अनेक विशेषताएं हैं जो नाम, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा परस्पर निरपेक्ष होते हुए भी सत्तापेक्षया परस्पर
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सापेक्ष हैं, इन विशेषताओं का सामान्य रूप से स्थायी स्वरूप भिन्न-भिन्न आन्तरिक बाह्य स्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न विशिष्ट रूपों में अभिव्यक्त होता हुआ ही अस्तित्व रखता है। इस प्रकार स्यात् पद के प्रयोग पूर्वक प्रारम्भ से ही वस्तु के अनेकान्तात्मक स्वरूप के प्रति सजग होने के कारण व्यक्ति वस्तु की एक विशेषता को जानते समय न केवल वस्तु के बल्कि उसकी ज्ञात हो रही विशेषता के ज्ञान की अपूर्णता को भी जानता है। तथा क्रमिक रूप वस्तु की सभी विशेषताओं को सामान्य रूप से तथा पृथक् पृथक् जान लेने के उपरान्त उनके आन्तरिक सम्बन्धों को समझते हुए उनके विशिष्ट स्वरूप को जानने के लिये प्रवृत्त होता है जैसे भाषा द्वारा जो व्यक्ति भवन निर्माण की प्रक्रिया को स्याद्वादनयसंस्कृत रूप से जानता है यह इस वाक्य को सुनते समय कि " भवन का निर्माण करते समय सर्वप्रथम नींव खोदी जाती है" नींव खोदने का अर्थ है यह जानता है कि इस वाक्य द्वारा न केवल भवन निर्माण की प्रक्रिया का बल्कि उसके एक चरण 'नींव की खुदाई' का भी आशिक ज्ञान प्राप्त हो रहा है। व्यक्ति का नींव की खुदाई संबन्धी ज्ञान पूर्ण तभी कहा जा सकता है जबकि वह मात्र यही नहीं जानता हो कि नींव कैसे खोदी जाती है बल्कि यह भी जानता हो कि किस प्रकार की जमीन में कितने ऊँचे भवन के लिये कितनी गहरी और कितनी चौड़ी नींव खोदी जाती है। यह ज्ञान भवन निर्माण के सभी चरणों को पृथक्-पृथक् जान लेने के उपरान्त नींव से उनके अन्तः सम्बन्धों को समझते हुए ही हो सकता है। एक नय अपने विषय का अपूर्ण ज्ञान है तथा अपने विषय को पूर्ण समझने के लिये वह अन्य नयों की आकांक्षा करता है। इसलिये व्यक्ति अपने पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान को परिपूर्ण बनाने के लिये विभिन्न नयाँ द्वारा उसके सभी पक्षों को जानने हेतु प्रवृत्त होता
है
17
ज्ञान के प्रारम्भिक स्तर पर विभिन्न विशेषताओं को परस्पर निरपेक्ष रूप से जानते समय व्यक्ति स्यात् पद के प्रयोग पूर्वक सामान्य रूप से ही यह जानता है कि ये विशेषताएँ अपने अस्तित्व के लिये परस्पर सापेक्ष है लेकिन इस स्तर पर यह ज्ञान नहीं हो पाता कि इनकी पारस्परिक सापेक्षता का स्वरूप क्या है, ये परस्पर किस प्रकार सम्बन्धित हैं, एक दूसरे को किस प्रकार प्रभावित करती है। यह ज्ञान वस्तु की समस्त विशेषताओं को सामान्य रूप से जान लेने के उपरान्त होने वाले नयात्मक ज्ञान द्वारा होता है। यह उच्चस्तरीय नयात्मक ज्ञान आप्तपुरुष के वचनों के निष्क्रिय रूप से ग्रहण करते हुए प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसके विपरीत व्यक्ति को इसकी प्राप्ति शब्द प्रमाण के विभिन्न अंशों को दृष्टि में रखते हुए स्वयं के ऊहापोहात्मक चिन्तन पूर्वक ही सम्भव हैं। इस प्रकार विभिन्न नयों द्वारा वस्तु की विभिन्न विशेषताओं के अन्तःसम्बन्धों को समझते हुए व्यक्ति को उस वस्तु को प्रमाण ज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रकार स्याद्वाद रूप प्रमाण ज्ञान पूर्वक नय की और नयों के ज्ञान पूर्वक प्रमाण ज्ञान की उत्पत्ति होती है।
व्यक्ति नय संस्कृत होना आवश्यक है, क्योंकि भाषा द्वारा एक समय में वस्तु के एक ही अंश या पक्ष को स्पष्ट किया जा सकता है, जिसे वस्तु के सर्वांगीण स्वरूप के ज्ञान पूर्वक ही समझा जा सकता है लेकिन उसके सर्वांगीण स्वरूप को एक साथ अभिव्यक्त
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करने की सामर्थ्य किसी भी वाक्य में नहीं है। आनुभविक क्षेत्रों में स्याद्वाद का महत्त्व प्रायः सभी स्वीकार करते हैं। इसका यह कारण है कि लोक व्यहार और विभिन्न विज्ञान का विषय पदार्थ का देशकाल में अवस्थित विशेष स्वरूप होता है तथा इस स्वरूप की उत्पति निश्चित कारणात्मक नियमों के अनुसार होती है। इसलिये परिचित क्षेत्रों में किसी कथन को सुनते समय व्यक्ति उसे सर्वथा सत्य न समझ कर एक निश्चित अपेक्षा से सत्य तथा अन्य अपेक्षा से असत्य ही समझता है। जैसे "दवा फायदा करती है" इस वाक्य को कोई भी व्यक्ति सभी व्यक्तियों के लिये सभी परिस्थितियों में समान रूप से सत्य नहीं समझता बल्कि इसका अर्थ यही लगाया जाता है कि एक विशेष रोग में व्यक्ति की विशेष परिस्थितियों के अनुसार विशेष रूप से किये जाने पर ही दवा लाभदायक है, अन्यथा यह हानिकारक भी हैं। यदि कभी अज्ञानवश किसी विशेषता को पदार्थ के सम्पूर्ण देशिक और कालिक विस्तार में समान रूप से व्याप्त मान भी लिया जाता है तो अनुभव में वृद्धि के साथ ही साथ वह भ्रम समाप्त भी हो जाता है । जैसे जहर के औषधि के रूप में प्रयोग को देखकर व्यक्ति का यह भ्रम समाप्त हो सकता है कि जहर मृत्यु का ही कारण है तथा यह स्वीकार कर लेता है कि जहर नाशक ही नहीं जीवनदायक भी है उसकी ये दोनों शक्तियाँ भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में अभिव्यक्त होती है।
अनुभव और विज्ञानों का विषय पदार्थ का आंशिक स्वरूप होता है। इसलिये इस क्षेत्र में स्याद्वाद के महत्त्व को सभी स्वीकार कर सकते है। लेकिन दर्शन का विषय सत्ता की मूलभूत कोटि या के समस्त दिक्कालिक रूपों में अनुस्यूत अनिवार्य स्वरूप है। इसलिये इसकी भाषा को स्याद्वाद की सीमा से परे माना जाता है। वास्तव में इस क्षेत्र में स्याद्वाद के प्रयोग पूर्वक ही सता के स्वरूप की व्याख्या की जा सकती है तथा इसका (स्याद्वाद का) प्रयोग नहीं किये जाने पर पदार्थ के प्रति भाषा का प्रयोग असम्भव हो जाता है। सामान्य भाषा विधि निषेधात्मक स्वरूप लिये हुए होती है। उद्देश्य के प्रति किया जाने वाला प्रत्येक विधान प्रतिपक्षी धर्म का निषेध कर देता है। लेकिन इस प्रतिपक्षी धर्म के अभाव में वर्णन किये जा रहे धर्म का सद्भाव भी नहीं हो सकता। इसलिये सत्ता को वचनातीत स्वीकार करना पड़ता है। नागार्जुन कहते हैं कि पदार्थ सत् नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसका अभावात्मक पक्ष भी है, उसे असत् नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसका सद्भाव तो है ही, उसे सत् असत् उभय रूप नहीं कहा जा सकता क्यों ये दोनों परस्पर विरोधी है, उसे न सत् न असत् भी नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार सत्ता के चतुष्कोटि विनिर्मुक्त होने के कारण वह अनिर्वचनीय है। इसी प्रकार भाषा द्वारा एक वस्तु का वर्णन करते समय वस्तु और उसकी विशेषताओं का पृथक्-पृथक् उल्लेख किया जाता है। उद्देश्य विधेयात्मक भाषा का यह स्वरूप यह प्रश्न उत्पन्न करता है कि यदि धर्मी और धर्म पृथक्-पृथक् है तो धर्म के ज्ञानपूर्वकधर्मी किस प्रकार ज्ञात हो सकता है, यदि इनमें अभेद है तो इनके लिये उद्देश्य और विधेय रूप प्रथक् पृथक् पदों का प्रयोग किस प्रकार किया जा सकता है? इन समस्याओं को देखते हुए शंकराचार्य कहते हैं कि सत्ता परमार्थतः अनिर्वचनीय है; भाषा द्वारा उसके स्वरूप को यथार्थतः समझ पाना असम्भव है।
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भाषा का उद्देश्य विधेयात्मक स्वरूप न केवल सता के स्वरूप के प्रतिपादन को असम्भव सिद्ध करता है बल्कि उसके प्रति अनेक प्रकार के दार्शनिक विवादों को भी उत्पन्न कर देता है। अनुभव द्वारा पदार्थ के एक-अनेक, परिवर्तनशील-स्थायी, सामान्य विशेष रूप द्विआयामी स्वरूप का ज्ञान होता है। जब दार्शनिक इस सामान्य अनुभव की व्याख्या करना चाहते हैं तो उद्देश्यविधेयात्मक भाषा के विधिनिषेधात्मक स्वरुप से भ्रमित होकर वे अनुभव के एक पक्ष को यथार्थ और दूसरे को भ्रामक स्वीकार कर लेते है। जैसे अद्वैत वेदान्त के अनुसार सता का सामान्य और स्थायी पक्ष वास्तविक है तथा वे उसके परिवर्तनशील विशेष पक्ष को भ्रमात्मक स्वीकार करते हैं और बौद्ध इसकी विपरीत स्थिति को स्वीकार करते हैं। उनके ये एकांगी सिद्धान्त कई प्रकार के अन्तर्विरोधों और समस्याओं को उत्पन्न कर देते हैं।
जैन दर्शन के अनुसार भाषा के स्वरूप से उत्पन्न विभिन्न दार्शनिक समस्याओं का समाधान स्याद्वाद को एक कथन शैली के रूप में स्वीकार करने पर स्वतः ही हो जाता है। कहा गया है कि सत्ता पूर्णतया अनिर्वचनीय न होकर वचनीय-अनिर्वचनीय स्वरूप है। उसके परस्पर सापेक्ष अनेक धर्मरूप जटिल स्वरूप को एक साथ अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य भाषा में नहीं है इसलिये वह अनिर्वचनीय है, लेकिन स्यात् शब्द के प्रयोग पूर्वक पदार्थ के इस जटिल स्वरूप की ओर संकेत करते हुए क्रमिक रूप से उसके एक धर्म का वर्णन किया जा सकना सम्भव होने के कारण वह वचनीय भी है। अनुभव द्वारा ज्ञात हो रहे वस्तु के एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि धर्म युगल परस्पर पूरक हैं तथा इनमें एक एक का निषेध किये जाने पर दूसरे का विधान असम्भव है। स्याद्वादनयात्मक दृष्टि द्वारा पदार्थ के इस द्विआयामी स्वरूप को यथार्थतः समझा जा सकता है।' स्यात् पदार्थ नित्य है' इस वाक्य में स्यात् पद के प्रयोग पूर्वक व्यक्ति यह जानता है कि वस्तु सर्वथा नित्य न होकर एक निश्चित अपेक्षा से ही नित्य है तथा उसका यह नित्यात्मक पक्ष अपने अस्तित्व के लिये दूसरे पक्ष-अनित्यात्मक पक्ष की अपेक्षा करता है। इस प्रकार स्याद्वाद द्वारा सामान्य रूप से वस्तु के नित्यानित्यात्मक स्वरूप को जानने के उपरान्त व्यक्ति विभिन्न नयों द्वार क्रमिक रूप से नित्य पक्ष को अनित्य पक्ष सापेक्ष विशिष्ट स्वरूप में और अनित्य पक्ष को नित्य पक्ष सापेक्ष विशिष्ट स्वरूप में जानता है। वह स्याद्वादनयसंस्कृत रूप से एक -अनेक, भेद-अभेद, सामान्य-विशेष आदि सभी धर्म युगलों को परस्पर सापेक्ष विशिष्ट स्वरूप में समझता है तथा उसे अनुभव के एक पक्ष को यथार्थ और दूसरे को भ्रामक मानने की कोई आवश्यकता नहीं रहती। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है लौकिक, वैज्ञानिक, दार्शनिक सभी क्षेत्रों में स्याद्वादनय संस्कृत दृष्टि शाब्दबोध की शक्यता और यथार्थता की अनिवार्य शर्त है।
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सन्दर्भ:
1. सदसन्नित्यानित्यादिसर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणाऽनेकान्तः।
अष्टशती, अष्टसहस्री, पृष्ठ-286 2. यदेव तत् तदेव अतत्, यदेवैकं तदेवानेकम्, सदेव सत् मदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यं, इत्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वय प्रकाशनमनेकान्तः।
समयसार आत्मख्याति टीका, स्याद्वादअधिकार 3. गुणगुण्यादिसंज्ञादिभेदात् भेदस्वभावः। आलाप पद्धति सूत्र-112 4. स्वद्रव्यचतुष्टयापेक्षया गुणाः परस्परस्वभावाः भवन्ति। वही, सूत्र-119 5. द्रव्याण्यपि भवन्ति। वही; सूत्र-120 6. 'जैन दर्शन में द्रव्य गुण सम्बन्ध', परामर्श, जनवरी-अप्रैल, सूत्र-1999 7. प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नमः, तत्त्वार्थ वार्तिक, पृष्ठ-94 8. प्रमाण प्रभवो नयः। विचारो निर्णयोपायः परीक्षेत्यवगम्यताम्। सिद्धि विनिश्चय 10/3 9. नयो ज्ञातुरभिप्रायोयुक्तितोऽर्थपरिग्रहः। लघीयस्त्रय, कारिका 52 10. तत्त्वार्थ वार्तिक, पृष्ठ-33 11. सिद्धिविनिश्चय टीका, पृष्ठ-667 12. तत्त्वार्थ वार्तिक, पृष्ठ-33 13. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक;, पृष्ठ-118 14. निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत-। आप्तमीमांसा, श्लोक 108 15. स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यजंको नयः। आप्तमीमांसा, श्लोक-103 16. अत्र सर्वथात्वनिषेधकोऽनेकान्तद्योतक कथंचित् अर्थे स्यात् शब्दो निपातः।
पंचास्तिकाय संग्रह, पृष्ठ-32-33 17. वाक्यीषु अनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषण। स्यात् निपातो ,पृष्ठ 103, आप्तमीमांसा 18. स्याद्वादः सर्वधैकान्तव्यागात् किंवृतचिद्विधिाः। आप्तीमीमांसा श्लोक 104 पूर्वार्द्ध 19. अष्टसहस्री;, पृष्ठ-289
- प्राध्यापिका, दर्शनशास्त्र राजकीय महाविद्यालय,
अजमेर (राज.)
पाठकों से अनुरोध है कि आपको अनेकान्त पत्रिका में छपे लेख कैसे लगे अपने सुझाव और टिप्पणी से अवगत करावे ताकि हम उसे पाठकीय प्रतिक्रिया के अन्तर्गत प्रकाशित कर सके। वीर सेवा मंदिर (जैन दर्शन शोध संस्थान) के पुस्तकालय का डिजीटलाईजेश्न का कार्य चल रहा है, जिसके अन्तर्गत आगम, प्राचीन हस्तलिखित शास्त्रों, जैन शोध पत्रों, जैन संस्कृति के प्रचीन चित्रों इत्यादि को सुरक्षित किया जा रहा हैं। सुधी पाठकों से अनुरोध है कि यदि उनके पास या निकटस्थ मन्दिरजी में इस प्रकार की कोई सामग्री प्राप्त हो तो संस्था पते व ई मेल पर भेजकर या सूचना प्रदानकर प्राचीन धरोहरों को सुरक्षित करने में सहयोग करें। Scanning के पश्चात् उनको वापस भेज दिया जाएगा।
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पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में वर्णित निश्चय और व्यवहार नय
डॉ. अशोकुमार जैन
जीवादि तत्त्व अनेकान्तात्मक हैं इसलिए जिनेन्द्रदेव ने उनकी प्ररूपणा निश्चय और व्यवहारनयों के आश्रय से की है। गुरु भी शिष्यों के अज्ञान की निवृत्ति के लिए निश्चय और व्यवहारनयों का अवलम्बन कर वस्तु स्वरूप का विवेचन करते हैं जैसा कि आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है।
मुख्योपाचाविवरण-निरस्तदुस्तरविनेयदुर्बोधाः।
व्यवहारनिश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम्॥ अर्थात् निश्चय और व्यवहार के ज्ञाता गुरु मुख्य विवरण (द्रव्याश्रित या मूलाश्रित कथन) तथा उपचार विवरण (पर्यायाश्रित कथन) द्वारा शिष्यों के दुर्निवार अज्ञान को मिटाकर जगत् में धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। तत्त्वार्थवार्तिककार ने लक्षण की परिभाषा देते हुए लिखा है। 'व्यतिकीर्ण-वस्तुव्यावृतिहेतुर्लक्षणम्' अर्थात् परस्पर सम्मिलित वस्तुओं में से किसी एक वस्तु को अलग करने वाले हेतु (चिंतन) को लक्षण कहते हैं। नय की परिभाषा इस प्रकार है- 'प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः' अर्थात् प्रमाण प्रकाशित अर्थ विशेष प्ररूप नय है। लघीयस्त्रय में 'नयो ज्ञातुरभिप्राय:' अर्थात् ज्ञाता का अभिप्राय नय है।
अध्यात्मशास्त्र में नयों के निश्चय और व्यवहार-ये दो भेद प्रसिद्ध हैं। आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र ने परिभाषित करते हुए लिखा है। 'आत्माश्रितो निश्चयः पराश्रितो व्यवहार नयः' अर्थात् आत्माश्रित कथन को निश्चय और पराश्रित कथन को व्यवहार कहते हैं। आचार्य देवसेन ने 'अभेदानुपचारितया वस्तु निश्चीयत इति निश्चयः' अर्थात् अभेद और अनुपचारता से जो नय वस्तु का निश्चय करे वह निश्चयनय है। "भेदोपचारितया वस्तु व्यवह्रियत इति व्यवहारः" अर्थात् जो नय भेद ओर उपचार से वस्तु का व्यवहार करता है वह व्यवहार नय है।'
अध्यात्म में निश्चय और व्यवहार की प्रक्रिया का विशेष महत्व है। इसका कारण है कि संसार के सभी प्राणी स्वकीय वास्तविक स्थिति से अनभिज्ञ हो रहे हैं। जैसाकि पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ग्रन्थ में लिखा है
निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम्। भूतार्थबोधविमुखः प्रायः सर्वोऽपि संसारः।।'
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लोक में जो भूतार्थ है वह निश्चय है और जो अभूतार्थ है वह व्यवहार है। प्रायः संसार के सभी प्राणी भूतार्थ के ज्ञान से विमुख हो रहे हैं। समयसार में लिखा है
ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणयो।
भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो॥ अभूतार्थ का नाम व्यवहार है और भूतार्थ का नाम निश्चय है। जिस जीव ने भूतार्थ का आश्रय कर लिया वह सम्यग्दृष्टि (ज्ञानी) कहलाता है।
इसका स्पष्टीकरण जैनागम में इस प्रकार किया गया है कि एक तो वस्तु की अखण्डरूपता निश्चय है और उसके जितने खण्ड हो सकते हैं वे सब व्यवहार रूप हैं। दूसरे वस्तु की स्वाश्रयता निश्चय है और उसकी जितनी भी पराश्रितता है वह व्यवहार है क्योंकि अखण्डरूपता त्रैकालिक या अनादि निधन होने के भूतार्थ की कोटि में समाविष्ट होती है तथा खण्डरूपता अस्थायी होने से अभूतार्थ की कोटि में समाविष्ट होती है। इसी प्रकार स्वाश्रयता वस्तु का निजरूप होने से भूतार्थ है और पराश्रयता वस्तु का निजरूप न होने व पर के सहयोग से होने से अभूतार्थ हैं। इस तरह आत्मा के स्वरूप के विषय में जो स्वभाव और विभाव के रूप प्रतिभासित होते हैं उनमें से स्वभाव का रूप भूतार्थ है।'
उपर्युक्त गाथा की टीका में आचार्य जयसेन ने इस गाथा का अर्थ दो प्रकार से किया है एक तो यह है कि व्यवहार तो अभूतार्थ है और निश्चय नय भूतार्थ है जो कि आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा भी सम्मत है किन्तु इन्ही आचार्य के गाथा के 'दु' शब्द को लेकर दूसरे प्रकार से भी अर्थ किया है कि व्यवहारनय भूतार्थ व अभूतार्थ के भेद से दो प्रकार का है, इसी प्रकार निश्चयनय भी शुद्ध निश्चयनय व अशुद्धनिश्चय के भेद से दो प्रकार का है। उसमें भूतार्थ को करने वाला सम्यग्दृष्टि होता है।
यहां पर भूतार्थ का अर्थ सत्यार्थ व अभूतार्थ का अर्थ असत्यार्थ किया है किन्तु यहाँ पर असत्यार्थ का अर्थ सर्वथा विस्तार नहीं लेना चाहिए किन्तु "अ" का अर्थ ईषत् लेकर व्यवहारनय अभूतार्थ अर्थात् तात्कालिक प्रयोजनवान है ऐसा लेना चाहिए।
किंच भूत शब्द का अर्थ संस्कृत भाषा के विश्व लोचन कोष में जिस प्रकार सत्य बतलाया है, उसी प्रकार उसका अर्थ 'सम' भी बतलाया है। अतः भूतार्थ का अर्थ जबकि सम होता है अर्थात् सामान्य धर्म को स्वीकार करने वाला है तो अभूतार्थ का अर्थ विषम अर्थात् विशेषता को कहने वाला अपने आप हो जाता है। जिससे व्यवहार नय अर्थात् परमार्थिक नय और निश्चय नय अर्थात् द्रव्यार्थिक नय सत् प्रकार का अर्थ अनायास ही निकल जाता है, जो कि इतर आचार्यो के द्वारा भी सर्वसम्मत है और 'निश्चय नय को स्वीकार कर लेने पर ही सम्यग्दृष्टि' होता है यह बात भी कुन्दकुन्दाचार्य की सर्वथा ठीक बैठती है, क्योंकि जब यह जीव जिस पर्याय में जाता है, उस पर्यायरूप ही अपने आपको (पशु होने पर पशु, मनुष्य होने होने पर मनुष्य इत्यादि) मानता रहता है किन्तु जब अपने आपको पशु या मनुष्य इत्यादि रूप न मानकर सदा शाश्वत रहने वाला ज्ञान का धारक आत्मा मानने लगता है तब ही सम्यग्दृष्टि होता है। समयसार में लिखा है
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ववहारणयो भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को।
ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदा वि एक्कट्ठो॥० व्यवहार नय कहता है कि जीव और देह एक ही हैं और निश्चय नय कहता है कि जीव और देह कदापि एक नहीं हो सकते।
निश्चय नय तादात्म्य सम्बन्ध को लेकर वर्णन करता है। उसकी दृष्टि में संयोग सम्बन्ध गौण होता है। ज्ञानावरणादि कर्म और आत्मा का यदि कोई सम्बन्ध है तो वह संयोग सम्बन्ध है, इसलिए निश्चय नय की दृष्टि में कर्म नहीं है और उनका कर्ता नहीं है अपितु इस दृष्टि में तो आत्मा का स्वयं का परिणाम ही उनका कर्म है और आत्मा उनका कर्ता है, क्योंकि उसका उसी के साथ तादात्म्य है।
निश्चय नय से सम्पूर्ण पदार्थ अपने-अपने शुद्ध स्वरूप में सदा रहते हैं। जाना, आना, घटना, बढ़ना, ठहरना, ठहराना, आदि क्रियायें उसमें नहीं होती हैं। व्यवहार नय से ही उन पदार्थों के क्रियासहितपन की प्रसिद्धि हो रही है। निश्चय नय तो वस्तु में शुद्ध निर्विकल्प अंशों को ग्रहण करता है। व्यवहार नय से आधार-आधेय व्यवस्था हो रही है।
निश्चय नय के अनुसार कार्य-कारण भाव की घटना नहीं हो सकती है, न कोई किसी को बनाता है और न कोई किसी से बनता है, कोई किसी का बाध्य या बाधक नहीं है। प्रतिपाद्य-प्रतिपादन भाव, गुरु-शिष्य भाव, जन्य-जनक भाव ये सब भाव व्यवहार नय अनुसार है।
जब तक साध्य और साधन में भेद दृष्टि है तब तक व्यवहार नय है और जब आत्मा को आत्मा से जानता है, देखता है, आचरता है, तब आत्मा ही सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान
और सम्यकचारित्र होने से अभेद रूप निश्चय नय है। पं० आशाधर जी ने व्यवहार और निश्चय का यही लक्षण दिया है
कर्ताद्या वस्तुनो भिन्ना येन निश्चयसुद्धये।
साध्यन्तव्यवहारोऽसौ निश्चयस्तमभेददृक्॥2 जिसके द्वारा निश्चय की सिद्धि के लिए कर्ता-कर्म-करण आदि कारक वस्तु जीवादि से भिन्न जाने जाते हैं वह व्यवहार नय है और कर्ता आदि को जीव से अभिन्न देखने वाला निश्चय नय है।
इससे स्पष्ट है कि निश्चय की सिद्धि ही व्यवहार का प्रयोजन है। उसके बिना व्यवहार भी व्यवहार कहे जाने का अपात्र है। ऐसा व्यवहार ही निश्चय का साधक होता है। निश्चय को जाने बिना किया गया व्यवहार निश्चय का साधक न होने से व्यवहार भी नहीं है। पण्डित आशधर जी ने एक दृष्टान्त दिया है जैसे नट रस्सी पर चलने के लिए बांस का सहारा लेता है और जब उसमें अभ्यासरत हो जाता है तो बांस का सहारा छोड़ देता है उसी प्रकार निश्चय की सिद्धि के लिए व्यवहार का अवलम्बन लेना होता है किन्तु उसकी सिद्धि होने पर व्यवहार स्वतः छूट जाता है। व्यवहार के बिना निश्चय की सिद्धि
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संभव नहीं है किन्तु व्यवहार का लक्ष्य निश्चय होना चाहिए और वह सतत दृष्टि में रहना चाहिए। निश्चय रूप धर्म धर्म की आत्मा है और व्यवहार रूप धर्म उसका शरीर है। जैसे आत्मा से रहित शरीर मुर्दा-शवमात्र होता है, वैसे ही निश्चय शून्य व्यवहार भी जीवन हीन होता है, उससे धर्म सेवन का उद्देश्य सफल नहीं होता। धर्म यथार्थ में वही कहलाता है जिसमें संवरपूर्वक निर्जरा होकर अंत में समस्त कर्म-बन्धन से छुटकारा होता है। निश्चय-व्यवहार में मैत्रीभाव
निश्चय नय से निरपेक्ष व्यवहार का विषय असत् है अत: निश्चय निरपेक्ष व्यवहार का उपयोग करने पर स्वार्थ का विनाश ही होता है, यह दृष्टान्त द्वारा कहते हैं
व्यवहारमभूतार्थ प्रायो भूतार्थविमुखजनमोहात्।।
केवलमुपयुञ्जानो व्यञ्जनवद् भ्रश्यति स्वार्थात्॥ व्यंजन ककार आदि अक्षरों को भी कहते हैं और दाल-शाक वगैरह को भी कहते हैं। जैसे स्वर रहित व्यंजन का उच्चारण करने वाला अपनी बात दूसरे को नहीं समझा सकता, अतः स्वार्थ से भ्रष्ट होता है या जैसे घी, चावल आदि के बिना केवल दाल-शाक खाने वाला स्वस्थ नहीं रह सकता अतः वह स्वार्थ-पुष्टि के भ्रष्ट होता है। वैसे ही निश्चय नय से विमुख बहिर्दृष्टि वाले मनुष्यों के सम्पर्क से होने वाले अज्ञानवश अधिकतर अभूतार्थ व्यवहार को ही भावना करने वाला अपने मोक्ष सुखदायी स्वार्थ से भ्रष्ट होता है। कभी भी मोक्ष सुख को प्राप्त नहीं कर सकता।
जैसे निश्चय से शून्य व्यवहार व्यर्थ है, वैसे ही व्यवहार के बिना निश्चय भी सिद्ध नहीं होता, यह व्यतिरेक के द्वारा कहते है
व्यवहारपराचीनो निश्चयं यश्चिकीर्षति,
बीजादिना विना मूढः स सस्यानि सिसृक्षति॥१४ जो व्यवहार से विमुख होकर निश्चय को करना चाहता है, वह मूढ़ बीज, खेत, पानी आदि के बिना ही वृक्ष आदि फलों को उत्पन्न करना चाहता है। समयसार में लिखा है
व्यवहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहि।
जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा॥ अर्थात् ये सब रागादि अध्यवसानमयी भाव जीव है, ऐसा जिनवर भगवान् ने जो आदेश दिया है, वह व्यवहार नय का मत है। इस गाथा की टीका में आचार्य जिनसेन ने लिखा है-यह व्यवहार नय का दर्शन है, मत है, स्वरूप है जो कि जिनेन्द्र भगवान ने बतलाया है कि वे सब अध्यवसायादि भाव परिणाम भी जीव है। स्पष्टीकरण यह है कि यद्यपि व्यवहारनय बहिर्द्रव्य का आलम्बन लेने से अभूतार्थ है किन्तु रागादि बहिर्द्रव्य से आलम्बन से रहित विशुद्ध ज्ञान, दर्शन स्वभाव के आलम्बन सहित ऐसे परमार्थ का प्रतिपादक होने से इसका भी कथन करना आवश्यक है, क्योंकि यदि व्यवहारनय को सर्वथा भुला दिया जाये तो फिर शुद्ध निश्चय से तो त्रस और स्थावर जीव है ही नहीं,
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25 अतः फिर लोग निःशङ्क होकर उनके मर्दन में प्रवृत्ति करने लगेंगे। ऐसी दशा में पुण्य रूप कर्म का अभाव हो जायेगा, एक दूषण तो यह आयेगा तथा शुद्धनिश्चयनय से तो जीव राग, द्वेष, मोह से रहित पहले से ही है अत: मुक्त ही है, ऐसा मानकर फिर मोक्ष के लिए भी अनुष्ठान कोई क्यों करेगा, अत: मोक्ष का अभाव हो जायेगा, यह दूसरा दूषण आयेगा। इसलिए व्यवहारनय का व्याख्यान परम आवश्यक है, निरर्थक नहीं है।
पं. जयचन्द जी का भावार्थ है- परमार्थनय तो जीव को शरीर और राग, द्वेष, मोह से भिन्न कहता है। यदि इसी का एकान्त किया जाये, तब शरीर तथा राग, द्वेष, मोह पुद्गलमय ठहरे और तब पुद्गल के घात से हिंसा नहीं हो सकती ओर राग, द्वेष, मोह से बंध नहीं हो सकता। इस प्रकार परमार्थ से संसार और मोक्ष दोनों का अभाव हो जायेगा। ऐसा एकान्तरूप वस्तु का स्वरूप नहीं है। अवस्तु का ज्ञान और आचरण मिथ्या अवस्तु रूप ही है इसलिए व्यवहार का उपदेश न्याय प्राप्त है। इस प्रकार स्याद्वाद से दोनों नयों का विरोध भेदकर श्रद्धान करना सम्यक्त्व है।"
व्यवहार नय पर्यायार्थिक है, अतएव जीव के साथ पुद्गल का संयोग होने से जीव की औपाधिक अवस्था हो रही है उसका वर्णन करता है, इसलिए वर्णादिक से गुणस्थान पर्यन्त भावों को जीव के रहता है किन्तु निश्चयनय तो मूल द्रव्य को लक्ष्य में लेकर स्वभाव का ही कथन करने वाला है इसलिए निश्चयनय की दृष्टि में ये जीव में नहीं है, क्योंकि सिद्ध अवस्था में ये नहीं होते । यह सब विवक्षा भेद से है। स्याद्वाद में इसका कोई विरोध नहीं है।”
निश्चयनय अभिन्न तादात्म्य सम्बन्ध या उपादान-उपेय भाव को ही ग्रहण करता है। उसकी दृष्टि संयोग-सम्बन्ध पर नहीं जाती जबकि व्यवहार नय संयोग सम्बन्ध और निमित्त-नैमित्तिक भावों को बतलाने वाला है। इसलिए आचार्य महाराज कहते हैं कि आत्मा निश्चयनय से तो अपने भावों का ही कर्ता-भोक्ता है किन्तु व्यवहारनय से वह द्रव्य कर्मों का करने वाला तथा भोगने वाला भी है। यह व्यवहार नय समाधि अवस्था से च्युत अज्ञान दशा में स्वीकार किया जाता है किन्तु समाधि दशा में निश्चय नय का अवलंबन रहता है।
सिद्धान्त में तथा अध्यात्म में प्रवेश के लिए नय ज्ञान बहुत आवश्यक है क्योंकि दोनों नय दो आँखें हैं और दोनों आँखों से देखने पर ही सर्वावलोकन होता है। एक आँख से देखने पर केवल एक अंश का ही अवलोकन होता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है
दोण्हवि णयाण भणियं जाणदि णवरिं तु समय पडिबद्धो।
___ण दु णयपक्खं गिण्हदि किंचिवि णयपक्खपरिहीणो॥18 जो पुरुष सहज परमानंद स्वरूप समयसार का अनुभव करने वाला है वह दोनों नयों के कथन को जानता अवश्य है किन्तु वह किसी भी एक नय के पक्ष को स्वीकार नहीं करता, दोनों नयो के पक्षपात से दूर रहता है।
बद्धादि विकल्परूप व्यवहारनय का पक्ष है और अबद्धादि-विकल्प रूप निश्चय नय का पक्ष है, किन्तु पारिणामिक परमभाव का ग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक नय के द्वारा देखने पर जीव बद्धाबद्धादिरूप विकल्प से सर्वथा दूर है, ऐसा कथन करते हैं
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एक दु जादा णअपक्खं।
पक्खतिक्कतो पुण भणदि जो सो समयसारो। जीव से कर्म बद्ध हैं, लगे हुए हैं, यह भी और जीव में कर्म चिपके हुए नहीं हैं, ऐसा भी एक नय का पक्ष है किन्तु समयसार रूप जो आत्मा है, वह इन दोनों पक्षों से दूरवर्ती है।
नय जितने भी होते हैं, वे सब श्रुतज्ञान के विकल्परूप होते हैं, यह सिद्धान्त की बात है और श्रुतज्ञान क्षयोपशमिक है, वह क्षयोपशम ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से प्रकट होने के कारण यद्यपि व्यवहार नय के द्वारा छद्मस्थ जीव की अपेक्षा से जीव का स्वरूप होता है तथापि केवल ज्ञान की अपेक्षा से वह शुद्धजीव का स्वरूप नहीं है तब फिर जीवन स्वरूप क्या है? इस प्रश्न के होने पर आचार्य उत्तर देते हुए कहते है-नय ने पक्षपात से रहित- जो स्वसंवेदन-ज्ञानी जीव है उसके विचारानुसार जीव का स्वरूप बद्धाबद्ध या मूढामूढ़ आदि नय के विकल्पों रहित चिदानंद स्वरूप होता है जैसा कि आत्मख्यातिकार ने लिखा है।
य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यं। विकल्पजालच्युतशान्तचित्तास्त एक साक्षादमृतं पिबन्ति। एकस्य बद्धो न तथा परस्य चितिद्वयोाविति पक्षपातो।
यस्तत्त्ववेदीच्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव। जो लोग नय के पक्षपात को छोड़कर सदा अपने आपके स्वरूप में तल्लीन रहते हैं एवं सभी प्रकार के विकल्प जाल से रहित शान्त-चित्त वाले होते हैं, वे लोग ही साक्षात् अमृत का, समयसार का पान करते हैं। जीव व्यवहारनय की अपेक्षा से बद्ध होता है और निश्चयनय की अपेक्षा से वह बद्ध नही होता अतः वह इन दोनों नयों के विचार में अपना-अपना पक्षपात है। इसलिए पक्षपात से रहित तत्त्वविवेकी पुरुष के ज्ञान में तो चेतन, चेतन ही है। आगम के व्याख्यान के समय मनुष्य की बुद्धिनिश्चय और व्यवहार इन दोनों नय को लेकर चलती है, किन्तु तत्त्व को जान लेने के बाद स्वस्थ हो जाने पर ऊहापोहात्मक बुद्धि दूर हो जाती है। निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों के द्वारा हेय और उपादेय-तत्त्व का निर्णय कर लेने पर हेय का त्याग करके उपादेय-तत्व में लगे रहना साधु-सन्तों को अभीष्ट है। आचार्य अमृचन्द्र ने लिखा है
व्यवहारनिश्चयौ यः प्रबुद्धतत्त्वेन भवति मध्यस्थः।
प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः॥2 अर्थात् व्यवहार और निश्चय को समझकर जो दोनों में मध्यस्थ हो जाता है अर्थात् किसी एक नय का पक्षपात नहीं करता, वही शिष्य उपदेश का सम्पूर्ण फल प्राप्त करता है। इस प्रकार हमें आगम और अध्यात्म विषयक यथार्थ दृष्टि से वस्तु स्वरूप को हृदयंगम करना चाहिए।
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सन्दर्भ :
1. उभयनयायत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तन पंचास्तिकाय / तत्वदीपिका गाथा 159
2.
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 4
3
3.
तत्त्वार्थवर्तिक 1/33 ,
4.
लघीयस्त्रय कारिका,
आलाप पद्धति, 204
वही, 205
पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, श्लोक 5
5.
6.
7.
8.
9.
10. आचार्य कुन्दकुन्द समयसार 32
11. समयसार की आचार्य ज्ञानसागर कृत हिन्दी टीका, पृ. 295
12. अनगारधर्मामृत, 1/102
13. अनगारधर्मामृत, 199
14. वही, 1/100
समयसार गाथा 8
पं बंशीधर व्याकरणाचार्य, 'जैन शासन में निश्चय और व्यवहार' प्रस्तावना, पृ. 33
9
15. गाथा, 46
16. समयसार - हिन्दी टीका आचार्य ज्ञानसागर, पृ० 5
17. वही, पृ० 59
18.
19. वही, गाथा 149
समयसार, गाथा 150
समयसार कलश, 69 वही, 70
20.
21.
22. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक 8
9
27
रीडर जैन-बौद्धदर्शन विभाग संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-5
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भक्ति का उत्कृष्ट संस्कृत काव्य-भक्तामर स्तोत्र
पंकज कुमार जैन
भक्तामरस्तोत्र समस्त भारतीय संस्कृत-काव्य साहित्य में सर्वोत्कृष्ट भक्ति काव्य है। आचार्य मानतुंग विरचित इस सर्वोत्कृष्ट भक्ति-काव्य में भक्ति, दर्शन एवं काव्य की त्रिवेणी एक साथ प्रवाहित होती है।
जैन स्तोत्र साहित्य में जैनाचार्यों ने भगवान् जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए शताधिक भक्ति-स्तोत्रों की रचना की है, लेकिन भक्तामर स्तोत्र ने जिस प्रतिष्ठा, गौरव एवं प्रसिद्धि को प्राप्त किया है उतनी प्रतिष्ठा एवं प्रसिद्धि किसी दूसरे स्तोत्र को प्राप्त नहीं हुई है। एक ओर जहाँ जैन समुदाय के अधिकांश लोगों को भक्तामर स्तोत्र पूर्ण रूपेण कंठस्थ है वहीं दूसरे ओर अन्य भक्ति काव्यों के नाम भी अधिकांश लोगों को याद नहीं हैं। भक्तामर स्तोत्र की सर्वोत्कृष्टता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है?
संस्कृत भक्ति काव्यों के इतिहास में अनेक भक्ति काव्यों के नाम प्राप्त होते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख संस्कृत भक्ति काव्यों के नाम इस प्रकार है। आचार्य काव्य
समय (1) आ० समंतभद्र स्वामी देवागम स्तोत्र, स्वयंभू स्तोत्र 2वीं शती ई.
द्वारा विरचित जिन स्तुति शतक (स्तुति विद्या) (2) आचार्य पूज्यपाद स्वामी शान्त्यष्टक, सरस्वती-स्तोत्र 5वीं शती ई.
द्वारा विरचित दश-भक्तिः (3) आ. सिद्धसेनकृत कल्याण मंदिर स्तोत्र 6वीं शती ई. (4) आ. पात्रकेशरीकृत पात्र केशरी स्तोत्र
6वीं शती ई. (5) आ. मानतुंगकृत भक्तामर स्तोत्र
7वीं शती ई. (6) आ. अकलंककृत अकलंकाष्टक
7वीं शती ई. (7) कवि धनंजयकृत विषापहार स्तोत्र
7वीं शती ई. (8) आ. विद्यानंदकृत श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र 8वीं शती ई. (9) आ. जिनसेनस्वामीकृत श्री जिन सहस्रनाम स्तोत्र 9वीं शती ई. (10) गोल्लाचार्य भूपालकृत भूपाल चतुविशतिका लगभग 975 ई. (11) आ. वादिराजकृत एकीभाव स्तोत्र
1025 ई. (12) आ. इंद्रनंदीकृत पार्श्वनाथ स्तोत्र
1050 ई. (13) आ. वसुनंदीकृत जिनशतक स्तोत्र
11वीं सदी (14) श्वे. आ. हेमचंद्रकृत वीतराग स्तोत्र
11वीं सदी
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(15) पं. आशाधर कृत (16) पद्मनंदीभट्टारककृत (17) भागेन्दुजी कृत
सहस्रनाम स्तोत्र जीरापल्ली पार्श्वनाथ स्तोत्र महावीराष्टक
12वीं सदी
14वीं सदी
19वीं सदी
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भक्तामर स्तोत्र की प्राचीनता - भक्तामर स्तोत्र एक अत्यंत प्राचीन संस्कृत भक्ति काव्य है। भक्तामर स्तोत्र के रचनाकाल पर विद्वानों में मतभेद है। इसका कारण यह है कि श्री भक्तामर स्तोत्र के रचयिता आ. मानतुंग के काल का निर्धारण नहीं हो पाया है। विद्वानों में आचार्य मानतुंग के समय निर्धारण को लेकर परस्पर विरोधो विचारधारायें दिखाई देती है।
कुछ विद्वानों ने आचार्य मानतुंग को सम्राट हर्ष के समकालीन माना है, विद्वानों का एक समुदाय आ. मानतुंग को महाराज भोज के समकालीन मानता है। आधुनिक विद्वानों ने गहन शोध के उपरांत यह निष्कर्ष निकाला है कि आचार्य मानतुंग सम्राट् हर्ष के समकालीन थे। आ. मानतुंग को सम्राट् हर्ष के समकालीन मानने वालों में संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. ए.बी. कीथ ने लिखा है कि "आचार्य मानतुंग के स्तोत्र से जुड़ी हुई कथा में जिन कोठरियों के ताले एवं पाशबद्धता का वर्णन किया गया है वे संसार बन्ध न का रूपक है। इस प्रकार की रूपक विधा का उपयोग छठी एवं सातवीं शताब्दी के विद्वानों के काव्य संग्रहों में दिखाई देता है।"
सुप्रसिद्ध इतिहासकार पं. गौरीशंकर हीराचंद्र ओझा ने अपने "सिरोही का इतिहास " नामक ग्रंथ में आ. मानतुंग का समय हर्ष कालीन माना है। प्रसिद्ध विद्वान डॉ॰ नेमिचंद्र जी शास्त्री एवं डा. ज्योति प्रसाद जी ने भी विभिन्न संदर्भों एवं प्रमाणों से आचार्य मानतुंग का समय सम्राट् हर्ष के समकालीन निर्धारित किया है। सम्राट् हर्ष का राज्यभिषेक ईस्वी सन 608 में हुआ था अतः उपर्युक्त विद्वानों के निष्कर्षो से आ. मानतुंग का समय सातवीं शताब्दी माना जाना चाहिए।
अनेक विद्वानों ने भक्तामर स्तोत्र की काव्य शैली के अध्ययन के उपरांत उनकों मयूर, बाण, धनंजय आदि सुप्रसिद्ध कवियों के समकालीन माना है। इतिहासकारों ने महाकवि बाण, धनंजय, मयूर को सातवीं शताब्दी का कवि माना है।
आचार्य मानतुंग को चाहे सम्राट् हर्ष के समकालीन माना जाये या ग्यारहवी सदी के राजा भोज के समकालीन माना जाय लेकिन किसी भी धारणा के पुष्ट होने पर इस उत्कृष्ट भक्ति काव्य की श्रेष्ठता एवं उत्कृष्टता का अवमूल्यन नहीं होता।
भक्तामर स्तोत्र का अभ्युदय - यह तो निर्विवाद है कि भक्तामर स्तोत्र की रचना आचार्य मानतुंग जी ने अपनी लेखनी से की थी। उन घटनाओं एवं परिस्थितियों को लेकर विद्वानों में मतभेद है जिन घटनाओं एवं परिस्थितियों ने इस कालजयी कृति को जन्म दिया था।
जन सामान्य में भक्तामर स्तोत्र की रचना के पीछे यह मान्यता है कि किसी राजा के द्वारा आचार्य मानतुंग को सांकलों से जकड़कर किसी ऐसी कोठरी में बंद कर दिया गया जिसमें अड़तालीस दरवाजे थे और प्रत्येक दरवाजे पर ताला लगा दिया गया। आचार्य मानतुंग ने इस विषम परिस्थिति में जिन धर्म को प्रभावना हेतु भगवान् जिनेन्द्र की भक्ति में तल्लीन होकर प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव की स्तुति करते हुए भक्तामर स्तोत्र की रचना
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की थी। इस भक्तिमय संस्कृत काव्य के प्रभाव से कोठरियों के ताले एवं साकलें टूट गयीं। आचार्य मानतुंग बंधन मुक्त हो गये। इस चमत्कारिक घटना से प्रभावित होकर राजा एवं प्रजा मुनिराज के चरणों में नम्री भूत हो गयी एवं जैन धर्म की अपूर्व प्रभावना हुई।
उक्त जन सामान्य की मान्यता का समर्थन अनेक पूर्ववर्ती लेखकों ने अपनी-2 रचनाओं में किया है। इन लेखकों में कुछ प्रमुख लेखकों के नाम एवं उनकी रचनाओं के नाम इस प्रकार है। (1) श्वेताम्बराचार्य प्रभाचन्द्र सूरि ने 1277 ई. में लिखे गये 'प्रभावक चरित' नामक
ग्रंथ में इसी प्रकार की घटना उल्लेख किया है। (2) मेरुतुंग ने 1304 ई. में लिखे गये अपने ग्रंथ 'प्रबन्ध चिन्तामणि' में भी इसी घटना
का उल्लेख किया है। (3) गुणाकर सूरि ने 1370 ई. में लिखे गये भक्तामर स्तोत्र वृत्ति नामक शास्त्र में भी
इसी प्रकार की घटना का वर्णन किया गया है। (4) 1610 ई. में ब्र रायमल्ल वर्णी द्वारा लिखे गये भक्तामर स्तोत्र वृत्ति में कथावतार
के रूप में इसी घटना का वर्णन है। (5) 1665 ई. में भट्टारक विश्व भूषण कृत भक्तामरचरित में भी इसी प्रकार की
घटना का वर्णन किया गया है।
अनेक आधुनिक कवियों एवं विद्वानों ने भी भक्तामर स्तोत्र की रचना के पीछे इसी प्रकार घटना का उल्लेख किया है। इन विद्वानों में कवि विनोदी लाल, भट्टारक सुरेन्द्र भूषण, नथमल बिलाला जयछंद छाबड़ा आदि कई विद्वानों के नाम उल्लेखनीय है।
उपर्युक्त सभी पूर्ववर्ती विद्वानों ने अपने-2 ग्रंथों में भक्तामर स्तोत्र से जुड़ी हुई जिस कथा का वर्णन किया है, उसकी विषय वस्तु समान है पर उनमें पात्रों के नाम, घटना काल एवं घटना स्थल में भिन्नता दिखाई देती है। इसके पीछे क्या कारण रहा होगा यह विचारणीय विषय है।
भक्तामर स्तोत्र की रचना के पीछे की घटना एवं परिस्थिति पर दिगम्बराचार्य प्रभाचन्द्र ने ग्यारहवीं शताब्दी में क्रिया कलाप ग्रन्थ की टीका की उत्थानिका में लिखा है।
'मानतुंग नामक: श्वेताम्बरो महाकवि निर्ग्रन्थाचार्यवर्यैरपनीतमहाव्याधिप्रतिपन्न निर्ग्रथमार्गो भगवन् कि क्रियतामिति ब्रु वाणो भगवतः परमात्मनो गुणगणं स्तोत्रं बिधीयता मित्यादिष्टः भक्तामर इत्यादि।"
अर्थात् मानतुंग नामक श्वेताम्बर महाकवि को एक दिगम्बराचार्य ने महाव्याधि से मुक्त कर दिया तो उसने दिगम्बर मार्ग ग्रहण कर लिया और पूछा कि भगवन्! अब मैं क्या करूँ? आचार्य ने आदेश दिया कि परमात्मा के गुणों को गूंथ कर स्तोत्र की रचना करो। जिसके फलस्वरूप मानतुंग मुनि ने भक्तामर स्तोत्र की रचना की।
भक्तामर सम्बन्धी प्राप्त साहित्य-संस्कृत भाषा में रचित संपूर्ण भक्ति काव्यों के इतिहास में किसी स्तोत्र पर इतना साहित्य नहीं लिखा गया जितना साहित्य भक्तामर स्तोत्र
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31 की रचना के बाद इस स्तोत्र पर उत्तरवर्ती विद्वानों एवं कवियों ने लिखा है। यह इसकी उत्कृष्टता का एक जीता-जागता प्रमाण है। भक्तामर स्तोत्र विषय साहित्य में निम्न रचनाओं के नाम उल्लेखनीय है। रचनाएं
समय (1) क्रिया कलाप टीका
लगभग 1025 ई. (2) प्रभावक चरित
1277 ई. (3) प्रबंध चिंत्तामणि
1304 ई. (4) प्रबंधकथा कोष
1348 ई. (5) गुणाकर कृत भक्तामर वृत्ति कथा
1370 ई. (6) शुभशीलगणी कृत भक्तामर स्तोत्र माहात्म्य 1452 ई. (7) ब्र रायमल्ल कृत भक्तामर चरित्र
1610 ई. (8) भट्टारक विश्व भूषण कृत भक्तामर चरित्र 1665 ई. (9) विनोदी लाल जी कृत भक्तामर चरित्र कथा 1690 ई. (10) भट्टारक सुरेन्द्रभूषण कृत भक्तामर कथा 1740 ई. (11) नथमल विलाला एवं लालचंद्र कृत
भक्तामर स्तोत्र ऋद्धि मंत्र काव्य छन्द कथा 1772 ई. (12) जयचन्द्र छाबड़ा कृत भक्तामर चरित 1813 ई.
भक्तामर स्तोत्र के प्रत्येक पद्य के पाठ और उच्चारण के महत्त्व को स्पष्ट करने वाली अनेक कथायें भी प्राप्त होती है। गुणाकर ने 26 पद्यों के महत्त्व को दर्शाने वाली 26 कथायें भी दी है। उसके बाद के लेखकों ने अड़तालीस पद्यों की पृथक्-पृथक् कथायें लिखी है। इन कथाओं की प्रामाणिकता शोध का विषय हो सकती है। पर ये सभी कथायें निर्विवाद रूप से यह सिद्ध कर देती है कि समस्त जैन समुदाय अपने असाता कर्मों के अशुभ फल से बचने के लिए णमोकार मंत्र के बाद भक्तामर स्तोत्र पर ही श्रद्धा करता है।
भक्तामर स्तोत्र का केवल पाठ ही नहीं किया जाता है। बल्कि पूजा-स्तवन एवं विधान के रूप में भी इस स्तोत्र का एक विशिष्ट स्थान है। प्रत्येक पद्य के भावार्थ पर आधारित ऋद्धि मंत्रों एवं यंत्रों की रचना भी की गयी है। जिनके द्वारा भक्त जन अतिशय फल प्राप्त करते हैं।
भक्तामर स्तोत्र से जुड़े हुए पूजन एवं विधान साहित्य में भट्टारक सोमसेन का भक्तामरोद्यापन (1980 ई) भट्टारक ज्ञान भूषण जी कृत भक्तामरोद्यापन (1650 ई.) श्री भूषण शिष्य ज्ञानसागर कृत भक्तामर पूजन (1610 ई.) रत्नचन्द्र गणिकृत भक्तामर स्तव (1617 ई.) भट्टारक लक्ष्मीचंदजी के शिष्य ब्रह्मज्ञान सागर कृत भक्तामर स्तवन पूजन (1625 ई.) आदि के नाम उल्लेखनीय है।
सम्पूर्ण संस्कृत भक्ति काव्यों में भक्तामर स्तोत्र एक मात्र ऐसा स्तोत्र है जिसे सर्वाधि क भाषाओं में अनुवादित किया गया है। इस स्तोत्र का सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रचारित हिन्दी अनुवाद पांडे हेमराज जी द्वारा 1652 ई. में किया गया था। इसके बाद इस अनुपम स्तोत्र
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के अब तक हिन्दी में विभिन्न कवियों के द्वारा शताधिक अनुवाद किये जा चुके हैं। भक्तामर स्तोत्र को हिन्दी के साथ-2 अन्य भारतीय भाषाओ में जैसे-राजस्थानी गुजराती, मराठी, कन्नड़, बंगला आदि में भी अनुवादित किया जा चुका है। इस स्तोत्र को जर्मन भाषा में डॉ. जैकोवी ने एवं अंग्रेजी में शार्लोट क्राउने एवं एच. आर. कापड़िया आदि विद्वानों ने अनुवादित किया है। हिन्दी के साथ-2 इस स्तोत्र को जर्मन, अंग्रेजी एवं उर्दू में भी अनुवादित किया जा चुका है। उर्दू में इसका अनुवाद 1925 ई. में भोलानाथ दरख्शां जी ने रूवाइयाते दरख्शां नामक शीर्षक से किया था। भक्तामर स्तोत्र का आंतरिक मूल्यांकन
स्तोत्र शब्द की व्याख्या करते हुए हलायुधकोष में लिखा है कि स्तोत्र शब्द संस्कृत के स्तु धातु से निष्पन्न होता है। स्तु धातु का अर्थ स्तुति करना, प्रशंसा करना होता है। स्तोत्र शब्द की उक्त परिभाषा के अनुरूप भक्तामर स्तोत्र आ. मानतुंग के द्वारा जिनेन्द्र भगवन् की गुण स्तुति एवं प्रशंसा में लिखा गया है।
भक्ति की कसौटी पर भक्तामर-भक्तामर जैसे महान संस्कृत भक्ति काव्य का मूल्यांकन करना समुद्र के जल को अंजुलि में भरने के असफल प्रयास जैसा होगा। भक्ति के लक्षणों को समझने के लिए विभिन्न पूर्वाचार्यो एवं विद्वानों के अभिमतों पर दृष्टि डालना आवश्यक है(1) "अहंदाचार्यबहुश्रुतवचनेषु भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागः भक्तिः -सर्वार्थ सिद्धि
6/24//339 अर्थ-अरहन्त, आचार्य, उपाध्याय आदि बहुश्रुत संतों में और जिनवाणी में भावों की विशुद्धि पूर्वक जो प्रशस्त अनुराग होता है। उसे
भक्ति कहते हैं। (2) "अर्हदादिगुणानुरागो भक्तिः -भगवती आराधना 47/159 अर्थ-अर्हदादि गुणों
में प्रेम करना भक्ति है। (3) भक्तिः पुनः सम्यकत्वं भव्यते व्यवहारेण सरागसम्यग्दृष्टीनां
पंचपरमेष्ठ्याराधनारूपा।, समयसार तात्पर्यवृत्ति टीका 173/176/243 आगम में उल्लिखित परिभाषायें भक्ति के स्वरूप को भगवन् के गुणों के प्रति अनुराग के रूप में परिभाषित करती है। आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र में भगवान जिनेन्द्र के प्रति एक भक्त के रूप में अनुराग व्यक्त करते हुए लिखा है कि
सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश! कर्तुं स्तवं विगत शक्ति रपि प्रवृत्तः! प्रीत्यात्मवीर्य मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्।
नाभ्येति किं निज शिशोः परिपालनार्थम्॥ भावार्थ-हे नाथ! जैसे हिरणी शक्ति न रहते हुए भी प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिए सिंह का सामना करती है। उसी तरह मैं भी शक्ति न होने पर भी भक्तिवश आपका स्तवन करने के लिए उद्यत हुआ हूँ।
उक्त पद्य में आचार्य मानतुंग ने स्पष्ट किया है जिनेन्द्र भगवन् के प्रति उनके असीम
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अनुराग में ही उन्हें इस स्तोत्र की रचना के लिए प्रेरित किया है।
भक्तामर स्तोत्र की विषय वस्तु आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र में अड़तालीस पद्मों के माध्यम से एक क्रमवार विषय वस्तु पर भावाभिव्यक्ति की है अड़तालीस पद्यों की विषय वस्तु को गहराई से समझने पर समस्त पद्यों में एक क्रम पूर्वक विषय वस्तु स्पष्ट होती है, जो इस प्रकार है
विषय वस्तु
(1)
मंगलाचरण के रूप में आदि
जिनेन्द्र प्रभु की वंदना
स्तोत्र रचना का संकल्प
(2)
(3)
(4)
(5)
(6)
(7)
( 8 )
(9)
(10) जननी प्रशंसा
लघुताभिव्यक्ति
भक्ति हेतु प्रेरणा
जिनेन्द्र स्तुति का फल
श्रेय समर्पण
जिनेन्द्र भगवान की परम दर्शनीय बाह्य मुद्रा
जिनेन्द्र भगवान की अंतरंग गुण विभूति
अनुपमेय जिनेन्द्र भगवान
(11) श्रेयस पथ प्रणेता
( 12 )
(13)
( 14 )
विभिन्न नामों से स्तुति एवं प्रणाम
अनंत गुण निधान जिनेन्द्र की स्तुति
बाह्य विभूति रूप समवशरण,
अष्ट प्रतिहार्यो एवं बिहार काल का वर्णन
(15) भय मुक्ति दाता के रूप में जिनेन्द्र की स्तुति ( 16 ) स्तुति का फल
पद्य संख्या
1
2
3, 4
5, 6
7, 9, 10
8
11 से 13
14, 15 16 से 21
22
23
2223
24 से 26
27
28 से 37
38 से 47
48
33
भक्तामर स्तोत्र के मंगलाचरण के प्रथम में प्रयुक्त "युगादौ" एवं सम्यक् प्रणम्य शब्द ध्यान देने योग्य है। “युगादौ " शब्द का प्रयोग युग के आदि में अर्थात् कर्म भूमि के प्रारम्भ में उत्पन्न हुए भगवन् ऋषभ देव की ओर संकेत करता है यहाँ निश्चय ही आचार्य मानतुंग ने मंगलाचरण के रूप में प्रथम तीर्थकर भगवन् ऋषभ देव का स्मरण किया है।
द्वितीय शब्द 'सम्यक् प्रणम्य' इस बात को स्पष्ट करता है कि भक्ति, त्रियोग (मन, वचन, काय) पूर्वक की जानी चाहिए। अंतरंग हृदय में विद्यमान छल, कपट, अहंकार, विषयाभिलाषा जैसे विकारों को त्यागकर प्रमाद रहित होकर नमस्कार करना चाहिए। इसी भावना का उल्लेख पंडित प्रवर श्री दौलतराम जी ने छहढाला ग्रंथ के मंगलाचरण में "नमहँ त्रियोग सम्हारिके" लिखकर के किया है।
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लघुताभिव्यक्ति
आचार्य मानुतंग ने भक्तामर स्तोत्र के तृतीय पद्य में "बुद्ध्या विनाऽपि " शब्दों का प्रयोग करके अपने भीतर भरे हुए अपार ज्ञान सिन्धु से अहंकार का समस्त खारापन दूर कर दिया है। उनकी इस अभिव्यक्ति ने उनके कवि मस्तिष्क से उनके भक्त हृदय को श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया है। उनकी इसी भावना ने "लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर" जैसी पंक्तियों को जन्म दिया है।
आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र को लिखते समय ही इस स्तोत्र की सफलता का समस्त श्रेय आठवे पद्य में ही तव प्रभावात् के माध्यम से जिनेन्द्र चरणों में समर्पित कर दिया था। इस पद्य में उन्होंने लिखा कि "कमल" के पत्ते पर पड़ी एक साधारण जल की बूँद जिस तरह मोती जैसी चमक को प्राप्त कर लेती है। उसी प्रकार मुझ मन्द बुद्धि के द्वारा रचित आपका यह स्तवन सज्जनों के चित्त को हरने में आपके प्रभाव के कारण ही समर्थ होगा। भक्ति प्रेरणा
प्राप्त कथाओं से जिस प्रकार का उल्लेख प्राप्त होता है कि आचार्य मानतुंग ने शारीरिक बन्धन की अवस्था में इस स्तोत्र की रचना की एवं इसके प्रभाव से समस्त बंधनों से मुक्त हो गय स्तोत्र रचना से बंधन मुक्त होने के उद्देश्य के विषय में संपूर्ण स्तोत्र के किसी भी पद्य से जानकारी प्राप्त नहीं होती है। 46वे पद्य में मानतुंगाचार्य जी ने "आपाद -कण्ठ मुरुशृंखलवेष्टिताङ्गा...विगत बंध भया भवन्ति" इन भावों के माध्यम से भगवान के नाम - जाप्य के महत्त्व के प्रभाव को दर्शाया है। इस पद्य में पूर्व में भी उन्होंने हस्तिभय निवारण, सिंह भय निवारण, दावाग्नि भय निवारण, भुजंग भय निवारण, संग्राम भय निवारण, निर्विघ्न समुद्र यात्रा आदि का उल्लेख जिनेन्द्र स्मरण के फल के रूप में किया है। इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि वे स्वयं शारीरिक बंधन युक्त थे।
भगवन् की स्तुति में प्रेरणा के रूप में मानतुंगाचार्य जी ने छठे पद्य में "त्वद्भक्ति रेव मुखरीकुरुते बलान्माम्" लिखकर स्पष्ट कर दिया कि उन्हें इस स्तोत्र की रचना के लिए केवल भगवन् की भक्ति ने ही प्रेरित किया था जैसे बसन्त ऋतु में आम की मंजरी को देखकर बरबस ही कोयल मधुर शब्द बोलने लगती है।
वीतरागी परमात्मा में कर्तृत्व का आरोप निराधार
कुछ लोग भक्तामर स्तोत्र के विषय में शंका करते है कि इस स्तोत्र में निकाँक्षित अंग को गौण कर दिया है एवं वीतरागी प्रभु को कर्ता मानकर स्तुति की गयी है।
यह शंका निराधार है क्योंकि सम्पूर्ण स्तोत्र के किसी भी पद्म में ईश्वर से किसी भी प्रकार स्वर्गादि रूप लौकिक बाँछा नहीं की गयी है । मानतुंगाचार्य जी ने भक्तामर स्तोत्र के सातवें पद्य में भगवान जिनेन्द्र की स्तुति को पाप क्षयी बतलाते हुए लिखा है कित्वत्संस्तवेन भव सन्तति - सन्निबद्धं
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीर भाजाम् ।
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आक्रांत लोक-मलिनील मशेषमांशु।
सूर्यांशु भिन्न मिव शार्वरमन्धकारम्!!7!! हे भगवन् ! आपके स्तवन से प्राणियों के जन्म-2 के संचित पाप शीघ्र नष्ट हो जाते है जिस प्रकार सूर्य की किरणों से रात्रि का समस्त अंधकार नष्ट हो जाता है।
नवें पद्य में मानतुंगाचार्य जी ने लिखा है कि हे भगवन् ! आपकी निर्दोष स्तुति की बात तो दूर है आपका पवित्र नाम उच्चारण मात्र से ही जीवों के पाप नष्ट हो जाते है। जैसे सूर्य भले ही दूर हो पर इसकी उज्ज्वल किरणों से ही सरोवर के कमल खिल जाते हैं।
आचार्य मानतुंग स्वामी ने स्तोत्र के अड़तीसवे काव्य से लेकर छियालीसवे काव्य तक जिनेन्द्र भक्ति को भयमुक्ति दायक बतलाया है। ये भय तिर्यंचकृत मनुष्यकृत एवं प्रकृति कृत अनेक प्रकार के होते हैं। मानतुंगाचार्य जी ने जिनका उल्लेख एक साथ सैंतालीसवें काव्य में करते हुए लिखा है कि-"मदोन्मत्त हाथी, सिंह, दावानल सर्प, युद्ध, समुद्र, जलोदर रोग, और कारागृह आदि से उत्पन्न हुआ भय भी जिनेन्द्र भक्ति से भयभीत होकर भाग जाता है।
इन कथनों से कहीं भी मानतुगाचार्य जी ने वीतरागी जिनेन्द्र प्रभु में कर्तृत्व आरोपित नहीं किया एवं न ही किसी प्रकार की बाँछा की है। समस्त सांसारिक आपत्तियाँ-विपत्तियाँ रोग, उपसर्ग, भय, असाता कर्मों के उदय से संसारी प्राणियों के जीवन में उपस्थित होते हैं। भगवन् जिनेन्द्र की गुणानुरागी भक्ति से शुभोपयोग द्वारा पुण्यास्रव होता है एवं असाता कर्म मंद पड़ जाते हैं एवं समस्त भय एवं आपत्तियों का स्वतः निवारण हो जाता है। धवल ग्रथ में भी लिखा है
जिणबिंब दसणेण निधत्त निकाचिदस्स
मिच्छतादि कम्म कला वस्स खय दंसणादो। (षटखंडागम पु. 6) अर्थात् जिन बिम्ब के दर्शन से निधत और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्म कलाप का क्षय देखा जाता है। भाव पाहुड़ में लिखा है
ते मे तिहुवण महिया सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिच्चा।
दिंतु बर भाव शुद्धिं दंसण णाणे चरित्ते य 163॥ अर्थात-जो नित्य है निरंजन है शुद्ध है तथा तीन लोक के द्वारा पूजनीय है, ऐसे सिद्ध भगवान ज्ञान-दर्शन और चरित्र में श्रेष्ठ उत्तम भाव की शुद्धता दें। थोस्सामि दण्डक में भी इसी प्रकार की भावना भायी गयी है
कित्तिय वंदिय महिया एदे लोगोत्तमा जिंणा सिद्धी।
आरोग्गणाणलाह दितु समाहिंच में बोहिं ॥7॥ अर्थात्-वचनों से कीर्तन किय गये, मन से वंदना किये गये और काय से पूजे गये ऐसे ये लोकोत्तम कृतकृत्य जिनेन्द्र मुझे परिपूर्ण ज्ञान समाधि और बोधि प्रदान करें।
जिनेन्द्र देव से प्रार्थना करते हुए आचार्य पद्म नंदी जी ने पद्मनंदी पंचविशतिका में लिखा है।
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त्रिभुवनगुरो जिनेश्वर परमानन्दैककारण कुरुष्व। मयि किंकरेऽत्र करुणां तथा यथा जायते मुक्तिः ॥ अपहर मम जन्म दयां कृत्वेत्येकत्र वचसि वक्तव्ये।
तेनाति दग्ध इति मे देव बभूव प्रालपित्वम्॥6॥ जिसका भावार्थ है कि तीनों लोकों के गुरुऔर उत्कृष्ट सुख के अद्वितीय कारण ऐसे है जिनेश्वर! इस मुझ दास के ऊपर ऐसी कृपा कीजिए कि जिससे मुझे मुक्ति प्राप्त हो जाये। हे देव! कृपा करके आप मेरे जन्म (संसार) को नष्ट कर दीजिए यही एक बात मुझे आप से कहनी है। परन्तु चूँकि मैं संसार से अति पीड़ित हूँ इसलिए मैं बहुत बकवादी हूँ। हमारी नित्य-नैमित्ति पूजा - अर्चनाओं में भी परमार्थिक कामनाओं के उदाहरण मिलते है। कवि वृंदावन जी ने "दु:खहरण विनती' में लिखा है कि
“यद्यपि तुम में रागादि नहीं, यह सत्य सर्वथा जाना है। चिन्मूरति आप अनंत गुणी, नित शुद्ध दशा शिवथाना है। तद्यापि भक्तन की भीरि हरो सुखदेव तिन्हें जु सुहाना है।
यह शक्ति अचिंत तुम्हारी का, क्या पावे पार सयाना है।" हिन्दी भाषा में लिखे गये जलाभिषेक पाठ में कवि हरजसराय जी ने लिखा है कि
"मैं जानत तुम अष्ट कर्म हरि शिव गये। आवागमन विमुक्त राग-वर्जित भये। पर तथापि मेरो मनोरथ पूरत सही।
नय प्रमानतें जानि महा साता लही। उक्त अनेक शास्त्र प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि हमारे पूर्वाचार्यों, विद्वानों एवं कवियों ने भगवन् जिनेन्द्र के वीतराग भाव से भली भाँति परिचित होते हुए भी एक भक्त के रूप में प्रशस्त राग के वशीभूत सभी प्रकार के सुखों की कामना जिनेन्द्र प्रभु से अनेक स्थानों पर व्यक्त की है। महाकवि धनंजय ने विषापहार स्तोत्र में लिखा है कि
"तुंगात्फलं यत्तदकिंचनाच्च। प्राप्य समृद्धान्न धनेश्वरादेः। निरम्भसोऽटयुच्चतमादिवादे
नैकापि निर्याति धुनी पयोधेः॥17॥ हे भगवन् ! यद्यपि आप अशेष अपरिग्रही है, आपके पास से फिर भी बहुतों के मनोरथो की संपूर्ति ऐसी सरलता से होती है। जो बड़े-बड़े धनेश्वरों से भी नहीं हो पाती। जैसे पर्वत पर तो जलाभाव है फिर भी नदियाँ वहीं से निकलती हैं, जल संग्रह करने वाले समुद्रों से नहीं।
स्तुति करता हुआ भक्त भक्ति के आवेग से भरकर समर्पित भाव से भगवन् को उपालंभ देता है सुख का कर्ता या दु:ख का हर्ता बतला देता है, अपनी दीनता-हीनता प्रकट
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करता है। यह तभी होता है जब भक्त समर्पण की पराकाष्ठा पर होता है। सर्वार्थ सिद्धि में आचार्य पूज्यपाद ने स्तुति के लक्षण की व्याख्या करते हुए लिखा है- भूता भूदगुणोद्भाववचनं संस्तव: 7 / 23/364
अर्थात्-आराध्य में जो गुण है और जो नहीं भी है इन दोनों का सदभाव बतलाते हुए कथन करना संस्तव है। उपरोक्त कथनों से स्पष्ट है कि मानतुंगाचार्य जी ने भक्तामर स्तोत्र में भगवन् जिनेन्द्र में कर्तृत्व आरोपित नहीं किया है बल्कि वीतरागत्व की उपासना करते हुए सहृदय स्तुति की है।
अन्तरंग एवं बाह्य स्तुति का अद्भुत समन्वय भक्तामर स्तोत्र में आचार्य मानतुंग जी ने ग्यारहवें बारहवें एवं तेरहवें पद्य में जिनेन्द्र भगवान के बाह्य रूप एवं मुद्रा की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि हे भगवन्! आपके इस रूप को देखकर यह नेत्र किसी और को नहीं देखना चाहते जिस तरह क्षीर सागर का जल पीने के बाद कोई मनुष्य लवण समुद्र का खारा पानी नहीं पीना चाहता। जिनेन्द्र भगवन् के परमौदारिक तन की सुन्दरता का वर्णन करते हुए लिखा कि जिन शांत परमाणुओं से आपकी रचना हुई है, ऐसा लगता है कि लोक में वे उतने ही परमाणु थे। इसलिए आपके समान सुन्दर अन्य कोई दूसरा रूप नहीं है। अठारहवें पद्य में भगवन् के मुख चन्द्र की शोभा का वर्णन करते हुए लिखा कि आपका मुख कमल अद्भुत चन्द्रमा के समान है जिसके द्वारा मोहरूप अन्धकार का नाश होता है। जिसे न राहु निगल सकता है और न ही मेघों द्वारा आच्छादित किया जा सकता है।
मानतुंगाचार्य ने अरिहंत प्रभु की बाह्य विभूति के रूप में अट्ठाईसवें पद्म से लेकर सैंतीसवें पद्य तक अष्ट प्रतिहार्यों, आकाशगमन, एवं समशरण संपदा आदि का वर्णन भी किया है। लेकिन केवल बाह्य रूप एवं वैभव की आराधना से भगवन् की स्तुति पूर्ण नहीं हो सकती। आचार्य कुंद कुंद जी ने समयसार ग्रंथ में लिखा है कि
णयरम्मि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि । देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति ॥ 30 ॥
अर्थात-जैसे नगर का वर्णन करने पर राजा का वर्णन नही होता है। इसी प्रकार शरीर के गुण
का स्तवन करने पर केवली के गुणों का स्तवन नहीं होता है। आचार्य समंतभद्र स्वामी ने भी देवागम स्तोत्र में लिखा है कि हे भगवन्! मैं आपको केवल आपकी बाह्य विभूति जैसे देवों का समवशरण में आना, आकाश में बिहार करना छत्र चँवर आदि के कारण नमस्कार नहीं कर रहा हूँ। मैं आपको आपके अन्तरंग गुण वीतरागता एवं सर्वज्ञता आदि गुणों के कारण प्रणाम करता हूँ ।
आचार्य मानतुंग स्वामी ने भी भगवन् जिनेन्द्र के अंतरंग गुणों की स्तुति करते हुए स्तोत्र के चौदहवे एवं पन्द्रहवें पद्य में लिखा है कि हे भगवन्! आपके आश्रयभूत अत्यंत निर्मल गुण तीनों लोकों में फैले हुए हैं। भगवन् की निर्विकल्प दशा का वर्णन करते हुए लिखा कि जैसे प्रलय कालीन प्रचण्ड वायु जो पर्वतों को हिला देती है। वह मेरु पर्वत को कम्पित भी नहीं कर सकते उसी प्रकार मन में विकार पैदा करने वाली देवांगनाओं के हाव भाव भी आपके मन में विकार पैदा नहीं कर सकते। मानतुंगाचार्य जी का यह कथन भगवान जिनेन्द्र की निर्विकारी दशा को स्पष्ट करता है। सोलहवे एवं सत्रहवें पद्य
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 में जिनेन्द्र प्रभु की अलौकिक दीपक एवं अदभुत सूर्य जैसी उपमाओं के द्वारा स्तुति की गयी है। इन दोनों ही उपमाओं का प्रयोग भगवान जिनेन्द्र के कैवल्य ज्ञान की स्तुति करने के लिये किया गया है। मानतुंगाचार्य जी ने इस स्तोत्र में भगवान के अन्तरंग एवं बाह्य गुणों की स्तुति करके भक्ति के श्रेष्ठ मार्ग को प्रकाशित किया है। मिथ्यात्व का परिहार
मानतुंगाचार्य जी ने भक्तामर स्तोत्र के विभिन्न पद्यों में जिनेन्द्र प्रभु की स्तुति के माध्यम से मिथ्यात्व का परिहार किया है। भक्तामर स्तोत्र के ग्यारहवे पद्य में लिखा है कि "आपके सुन्दर रूप को देखने के बाद यह नेत्र फिर किसी और को देखकर संतोष को प्राप्त नहीं होते" इस पद्य में मानतुंगाचार्य जी ने यह भावाभिव्यक्ति की है कि जिस भक्त ने जिनेन्द्र भगवान की वीतरागता के दर्शन का आनंद पा लिया है वह फिर कहीं भी रागी देवी-देवताओं में संतोष को प्राप्त नहीं होता।
सम्यक्त्व की यह भावना बीसवें पद्य में और अधिक मुखर हो जाती है। इस पद्य में मानतुंगाचार्य ने भगवन् के कैवल्यज्ञान की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि "आपका परम ज्ञान जिस तरह आप में शोभा को प्राप्त होता है। उस तरह हरिहरादि में शोभा को प्राप्त नहीं होता। इस पद्य में हरिहरादिक पद से ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवों का कथन किया गया है। इनमें वीतरागता का अभाव होने से इन्हें दिव्य कैवल्यज्ञान की प्राप्ति कैसे हो सकती है? ।
इस स्तोत्र के इक्कीसवें पद्य में भी वीतरागी जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन की प्रशंसा ब्याजोक्ति अलंकार द्वारा की गयी कि आपके पहले सभी हरिहरादि देवों को देख लेने से आपके प्रति मन में संदेह नहीं रह पाता। निश्चित ही मानतुंगाचार्य जी के इन निर्मल भावों से सम्यग्दर्शन के निःशंकित अंग की पुष्टि होती है। जननी-प्रशंसा
मानतुंगाचार्य जी ने भक्तामरस्तोत्र के बाइसवें पद्य में उस जननी की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है जिसने तीर्थकर जैसे महान् सुत को जन्म दिया। स्तोत्र परम्परा में जननी प्रशंसा का ऐसा अनुपम उदाहरण अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। तीर्थकर भगवान मोक्ष मार्ग के प्रणेता होते है, उन जैस महान सुत को जन्म देने के कारण से उनकी जननी स्वयमेव ही प्रशंसा की पात्र बन जाती हैं। आचार्य मानतुंग का सामाजिक दृष्टिकोण
आचार्य मानतुंग के पूर्ववर्ती एवं समकालीन आचार्यों और कवियों ने अपने आराध्य की स्तुति में उन्हें सूर्य, चंद्र, पर्वत, सागर, नदी, सरोवर, कमल आदि उपमा प्रदान की है। जो सभी उपमायें प्रकृति की परिधि से ही ग्रहण की गयी थी। वहीं आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र में अपने आराध्य की स्तुति में उन्हें विभिन्न प्रकार की उपमा देकर प्रकृति की परिधि से बाहर निकलने का साहस दिखलाया है।
आचार्य मानतुंग की दृष्टि प्रकृति के मनोरम दृश्यों के साथ-2 तत्कालीन समाज पर थी। इसका उदाहरण हमें भक्तामर स्तोत्र के दसवे पद्य में प्राप्त होता है। दसवें पद्य में मानतुंग
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आचार्य ने भगवन् की स्तुति के फल का वर्णन करते हुए लिखा है कि हे भगवन्! आपकी स्तुति करने वाले भक्त जन आपके समान हो जाते है। इसमें आश्चर्य की क्या बात है। इस कथन को पुष्ट करने के लिए उन्होंने उदाहरण दिया कि जो स्वामी अपने आश्रित सेवक को सम्पति देकर अपने समान नहीं बनाता उसकी सेवा से क्या लाभ है?
इस कथन से तत्कालीन समाज की स्थिति स्पष्ट होती है। दूसरे अर्थों में यह उदाहरण आर्थिक असमानता एवं सामाजिक भेद-भाव पर चोट कर के उसे दूर करने पर बल देता है। आधुनिक समाजवाद की विचार धारा के वृक्ष के बीज भक्तामर स्तोत्र के इस एक उदाहरण में स्पष्ट झलकते हैं। अद्भुत आलंकारिक छटा एवं अनोखा काव्य पक्ष संतुलन
आचार्य मानतुंग जी ने भक्तामर स्तोत्र की रचना के लिए 'वसंततिलका छंद का प्रयोग किया है। यह छन्द संस्कृत भाषा का एक अति ललित छंद है। इस छंद का दूसरा नाम मधुमाधवी भी है। काव्य शास्त्र में वसंततिलका छंद का लक्ष्मण स्पष्ट करते लिखा है कि "ज्ञेयं वसन्ततिलका तभजा जगौ गः"। इस छन्द में क्रमशः तगण, भगण, जगण तथा दो गुरू होते है। इस प्रकार चौदह अक्षरों से इसका निर्माण होता है। भक्तामरस्तोत्र के प्रत्येक पद्य में चार-चार पंक्तियाँ हैं। एवं 56-56 अक्षर हैं। इस प्रकार संपूर्ण स्तोत्र में 192 पंक्तियाँ एवं 2688 अक्षर हैं।
इस सर्वोत्कृष्ट भक्ति-काव्य में अनेक अलंकारों की छटा बिखरी हुई है। इस स्तोत्र में अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक, ब्याजोक्ति आदि विभिन्न अलंकारों का प्रयोग किया गया है। शब्द और अर्थ से समन्वित रचना को काव्य कहते है। इस स्तोत्र के छन्दों में केवल शाब्दिक सूचनायें नहीं है उनमें अर्थ रूपी चित्त एवं भक्ति रस रूपी आत्मा भी है।
भक्तामरस्तोत्र के भाव-पक्ष एवं कला-पक्ष में अनोखा संतुलन नजर आता है। न इसमें अति दार्शनिकता का बोझ है और न ही इसमें अबूझ उपमाओं का संग्रह है।जिस काव्य में अत्यधिक अलंकार, अतिदार्शनिकता एवं अबूझ उपमायें पायी जाती है, वह काव्य जन सामान्य के लिए अग्राव्य हो जाता है। भक्तामर स्तोत्र में काव्य के इन दोनों पक्षों का अद्भुत समायोजन है। इसमें जहाँ एक ओर मनमोहक छंद एवं अलंकारों का प्रयोग किया गया है, वहीं दूसरी ओर इसके प्रत्येक पद्य में जिनेन्द्र-भक्ति के निर्मल भावों की अविरल सरिता प्रवाहित होती है। कला-पक्ष काव्य का शरीर है एवं भाव-पक्ष उसकी आत्मा होती है। किसी काव्य की पूर्णता इन दोनों के सद्भाव से ही संभव है। भक्तामर स्तोत्र एक ऐसा ही संपूर्ण जीवन्त काव्य है। आचार्य मानतुंग ने भक्तामरस्तोत्र के रूप में भव-सागर पर एक ऐसे सेतु का निर्माण किया है, जिसके द्वारा संसारी प्राणी इस दुःखालय से निकलकर सिद्धालय तक की यात्रा पूर्ण कर सकते हैं।
कनिष्ठ शोध अध्येता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणासी (उ.प्र.)
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जैन प्राच्यकालीन-साहित्य के आद्य हिन्दी गद्य टीकाकार : महापण्डित टोडरमल
प्रो. राजाराम जैन
पण्डितप्रवर टोडरमलजी 18वीं सदी की एक महान् विभूति एवं शौरसेनीप्राकृत के कुछ प्रमुख जैन-ग्रंथों के राजस्थानी-हिन्दी के प्रथम गद्य-टीकाकार माने गये हैं। उन्होंने जैन-सिद्धान्तों एवं जैनदर्शन के दुरूह रहस्यों का समकालीन जनभाषा में उद्घाटन कर प्राच्य- जैन-विद्या की महान् सेवाएं तो की ही, साथ ही हिन्दी-गद्य के विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। शौरसेनी-जैनागमों में सूत्र-शैली में वर्णित करणानुयोग, द्रव्यानुयोग एवं चरणानुयोग के विषय अत्यन्त जटिल एवं नीरस समझे जाते रहे हैं, अत: समय-समय पर इनके ऊपर संस्कृत-टीकाएं भी लिखी जाती रही। तत्कालीन दृष्टिकोण से वे भले ही सुबोध नही हों, किन्तु परवर्ती कालों में भाषा-परिवर्तन के अनिवार्य-नियमों के कारण वे पुनः दुर्बोध सिद्ध होने लगी। इस कारण आगमों का अध्ययन एवं स्वाध्याय सीमित होने लगा था। इस परिस्थिति में पण्डित टोडरमल जी ऐसे प्रथम विद्वान् थे, जिन्होंने युग की आवश्यकता को समझा और अपने सभी प्रकार के ऐहिक सुख-भोगों को जिनवाणी-माता की पुण्यवेदी पर समर्पित कर उक्त आगम आदि ग्रंथों की व्याख्या लोकप्रचलित जन-भाषा-राजस्थानी-हिन्दी में प्रस्तुत की और इस प्रकार स्वाध्याय की परंपरा को लुप्त होने से बचा लिया। पारिवारिक परिचय
पण्डित जी का जन्म जयपुर के एक सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत खण्डेलवाल जैन गोदीका-गोत्रीय परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम जोगीदास एवं माता का नाम रम्भा देवी था। पण्डितजी के हरिचन्द एवं गुमानीराम नाम के दो पुत्र थे और दोनों ही अध्ययनशील एवं कवि थे। पण्डित जी को जन्मजात दैवी-प्रतिभा का वरदान मिला था। उनकी प्रतिभा तथा प्रत्युत्पन्नमतित्व से प्रभावित होकर जयपुर-राज्य के तत्कालीन लोकप्रिय दीवान अमरचन्द्र ने कुछ समय तक अपने पास में रखकर उन्हें विद्याध्ययन कराया था। छोटी आयु में ही उन्हें संस्कृत, प्राकृत एवं कन्नड-भाषाओं का ज्ञान ही नहीं हो गया, बल्कि उन्होंने जैन एवं जैनेतर मूल-ग्रंथों का अध्ययन भी कर लिया था। स्मृति-शक्ति इतनी विलक्षण थी कि उन्हें सैकड़ों सन्दर्भ-वाक्य कण्ठस्थ हो गये थे। उन्हें कुल आयुष्य लगभग 27 वर्षों का ही मिला था। उनकी जन्म एवं मुत्यु की निश्चित तिथियों का जानकारी तो नहीं मिलती किन्तु उन्होंने गोम्मटसार की टीका वि. सं. 1818 में (सन् 1761 ई.) कर ली थी तथा पुरुषार्थसिद्ध्युपाय की अपूर्ण-टीका को पं. दौलतराम ने वि.सं.
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1827 में पूर्ण की थी। अत: बहुत संभव है कि इसके 2-3 वर्ष पूर्व उनका स्वर्गवास हो चुका होगा। इन प्रमाणों के आधार पर डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुमान से उनका जन्म वि. सं. 1797 और मृत्यु वि.सं. 1824(सन् 1740-1767) माना जा सकता है। फिर भी, उतने से अल्पकाल में ही उन्होंने जो सारस्वत-कार्य किये, वे उनकी असाधारण-प्रतिभा के अभूतपूर्व प्रेरक-उदाहरण बन गये। प्रकृति का ऐसा कुछ नियम भी है कि जो असाधारण प्रतिभा संपन्न होते हैं, उनका आयुष्य लगभग 40 वर्ष के आगे नहीं बढ़ पाता। कलिंगाधिपति जैन-सम्राट खारवेल, स्वामी शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद एवं सुप्रसिद्ध गणितज्ञ रामानुजन् आदि इसके साक्षात् उदाहरण हैं। जनभाषा के अनन्य सेवक
पं. टोडरमलजी परम निष्ठावान्, सात्त्विक-चरित्र, निरभिमानी, लोकोत्तर-प्रतिभा के ध नी एवं मनस्वी व्यक्ति थे। उनकी जिह्वा पर सरस्वती का साक्षात् निवास था। राष्ट्रभाषा-हिन्दी के वे परम भक्त थे। प्राचीन भारतीय भाषाएँ उनके लिये प्रेरणा की अजन-स्रोत थी अवश्य, किन्तु युग के साथ-साथ चलना वे आत्म-हित एवं पर-हित की दृष्टि से श्रेयस्कर समझते थे। अतः जन-भाषा को वे कभी नहीं भूले। प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की परंपरा को उन्होंने नतमस्तक होकर अवधारण किया तथा जन-सामान्य को लाभान्वित कराने हेतु उन्होंने जन-भाषा अथवा देश-भाषा का सहारा लिया। जैसा कि उन्होंने स्वयं भी कहा है -
यथा- हमारै हूं किंचित् सत्यार्थ पदनि का ज्ञान भया है। बहुरि इस निकृष्ट समय वि. हम सारिखे मंद बुद्धीनितें भी हीन बुद्वि के धनी जन अवलोकिए है। तिनकौं तिनि पदनि का अर्थ-ज्ञान होने के अर्थि धर्मानुराग के वश” देशभाषामय ग्रंथ तैयार करने की हमारे इच्छा भई, ताकरि हम यह ग्रंथ बनावें हैं। सो इस वि. भी अर्थ सहित तिनिही पदन का प्रकाशन हो हैं। इतना तो विशेष है जैसे प्राकृत, संस्कृत-शास्त्र विषै प्राकृत-संस्कृत-पद लिखिए हैं, तैसे इहाँ अपभ्रंश लिये वा यथार्थपना को लिये देश भाषारूप पद लिखिये है, परन्तु अर्थविर्षे व्यभिचार किछु नाही' ।
टोडरमलजी की भाषा ऐसे युग में प्रारंभ होती हैं, जब प्रारम्भिक हिन्दी-गद्य का नवोन्मेष हो रहा था। यद्यपि छिटपुट रूप में टोडरमलजी के कुछ ही समय पूर्व के हिन्दी-गद्य के रूप मिल जाते हैं किन्तु उनसे, गद्य ही उस समय के विचारों के वाहन का मुख्य साधन था, यह नहीं कहा जा सकता। हिन्दी-साहित्य के इतिहासकारों ने, गद्य की समस्त विधाओं से युक्त प्राचीन से प्राचीन गद्य-ग्रन्थ 1800 ई. के बाद का ही उल्लिखित किया है। इससे यह निश्चयपूर्वक माना जा सकता है कि हिन्दी-गद्य के निर्माण एवं रूप-स्थिरीकरण में पं. टोडरमल का प्रमुख योगदान रहा है। उनकी टीकाओं के प्रवाहपूर्ण गद्यों में वही मनोरमता, सरसता एवं स्वाभाविकता है, जो पर्वतीय निर्मल-स्रोतों में। हिन्दी-गद्य के विकास के इतिहास में उनका स्थान निस्सन्देह ही अग्रगण्य माना जायगा।' समर्थ व्याख्याकार एवं लेखक
पण्डित-प्रवर के समय भारत में मुद्रणालयों का प्रारम्भ नहीं हुआ था। उस समय तक
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प्राचीन आर्ष-ग्रन्थों का संकलन, अध्ययन, मनन-चिन्तन एवं लेखन सभी सहज कार्य न थे। यातायात के साधन भी विकसित न थे। इन सभी कठिनाइयों के अतिरिक्त भी, और पण्डितजी ने अत्यन्त अल्पायु प्राप्त होने पर भी, जो अनोखे कार्य किये, उन्हें देखकर आश्चर्य में डूब जाना पड़ता है। द्रव्यानुयोग, करणानुयोग एवं चरणानुयोग के संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश के कुछ प्रमुख ग्रंथों की राजस्थानी-हिन्दी-टीकाएँ लिखकर उन्होंने जैन-जगत् में तत्त्वज्ञान के स्वाध्याय के अवरुद्धप्राय-प्रवाह को अपनी सरल सुबोध वचनिकाओं से पुनः प्रवाहित किया। कर्म-सिद्वान्त की चर्चा करना केवल प्राकृत-संस्कृत एवं अपभ्रंश-भाषाओं के ज्ञाता-पण्डितों तक ही सीमित न रहा, टोडरमलजी की रचनाओं को पढ़कर तथा उनका नित्य स्वाध्यायकर हिन्दी के साधारण ज्ञाता जिज्ञासु नर-नारियाँ भी जैन-धर्म-दर्शन एवं अध्यात्म के मूल-सिद्धांतों को आत्मसात् कर पाने में समर्थ हो सके। ___पं. टोडरमल के सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय प्राकृत-ग्रंथ हैं:- सिद्वान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र (10वीं सदी) कृत कर्मफिलोसोफी के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ-गोम्मटसार-कर्मकाण्ड तथा जीवकाण्ड, जिन पर उन्होंने गोम्मटसार-वचनिका, लिखी, जिसमें लब्धिसार और क्षपणासार नामक ग्रंथ भी सम्मिलत है। दूसरा ग्रंथ है- जैन-भूगोल एवं जैन-खगोल का वर्णन करने वाला प्राकृत ग्रंथ- त्रिलोकसार, जिस पर उन्होंने लिखीत्रिलोकसार-भाषा-वचनिका।
उनका तीसरा ग्रंथ है आचार्य गुणभद्र (10वीं सदी) कृत अत्यन्त हृदयग्राही और आध्यात्मिक-रस में सरावोर कर देने वाला संस्कृत-भाषात्मक "आत्मानुशासन" नामक ग्रंथ, जिस पर उन्होंने लिखी- आत्मानुशासन-भाषा-वचनिका। अन्य ग्रंथ है आचार्य अमृतचन्द्र कृत संस्कृत भाषात्मक पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, जिसकी भाषा-वचनिका अपूर्ण रहने के कारण पं. टोडरमल के परमभक्त तथा अनेक ग्रंथों की भाषा-वचनिकाओं के लेखक पं. दौलतराम जी काशलीवाल ने उसे पूर्ण करके महाकवि त्रिभुवन-स्वयम्भू, आचार्य जिनसेन, आचार्य गुणभद्र, महाकवि सिंह एवं भट्टारक यश:कीर्ति के सत्कार्यों का पावन-स्मरण दिला दिया है।
इनके अतिरिक्त भी उनके द्वारा लिखित अन्य तीन स्वतंत्र रचनाएँ भी हैंरहस्यपूर्ण-चिट्ठी, मोक्षमार्ग-प्रकाशक एवं गोम्मटसार-पूजा। ___गोम्मटसार-जीवकाण्ड, गोम्मटसार-कर्मकाण्ड, लब्धिसार एवं क्षपणासार पर लिखित टीकाओं के समग्र रूप का नाम "सम्यग्ज्ञान-चन्द्रिका" रखा गया है, जो विवेचनात्मक गद्य-शैली में है। प्रारंभ में 71 पृष्ठों की पीठिका है, जो एक प्रकार से उसकी भूमिका या प्रस्तावना कही जा सकती है। इसके अध्ययन से उक्त चारों ग्रंथों का वर्ण्य-विषय स्पष्ट हो जाता है। अध्येताओं के अनुसार इसे 65000 श्लोक प्रमाण बतलाया गया है।
गोम्मटसारादि की टीकाओं में उन्होंने जो घोर परिश्रम किया है, उसे तो वही समझ सकता है, जिसने उस प्रकार के कार्य किये हों। वस्तुतः स्वतंत्र ग्रंथ लिखना आसान है, किन्तु किसी मूल-ग्रंथ का अनुवाद, भाष्य या टीकादि लिखना सहज नहीं। सच्चा भाष्य
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वही है, जिसमें मूल ग्रंथ के अन्तरंग भाव की यथावत् सुरक्षा बनी रहे और यह तभी संभव है जब ग्रंथ एवं उसके मूल प्रणेता की अन्तर्भावभूमि का मर्म भलीभांति जान लिया जाय। इसके लिए वर्ण्य विषय का गंभीर - ज्ञान, भाषा का ज्ञान, एकाग्रता, एवं सूक्ष्मदृष्टि की अनिवार्यता होती है। पण्डितजी साहित्य साधना के मार्ग को अच्छी तरह समझते थे। इतिहास जानता है कि किस प्रकार उन्होंने जीवन भोगों को तिलांजलियाँ दी थीं। उनकी साहित्य लेखन की तन्मयता इसी से जानी जा सकती है कि उन्हें वर्षों तक भोजन में लोनी अलोनी का भी भेदभाव न रहा था। टोडरमलजी के साधनापूर्ण जीवन को देखकर हमें “भामती' के लेखक पण्डित वाचस्पति मिश्र की पुण्य स्मृति आ जाती है, जिन्होंने अपनी साहित्य-साधना के समय लगातार बारह वर्षो तक रात-दिन, जाड़ा-गर्मी बरसात, भूख-प्यास एवं निद्रा अनिद्रा का भेदभाव भुला दिया था। पण्डित टोडरमलजी ने भी ऐसे ही कठोर साधना-काल में भोजन की रसता और विरसता को भूलकर गोम्मटसारादि की विशाल टीकाएं लिखी हैं। इस प्रकार की एकान्त - साधना की भावभूमि में उक्त जटिल ग्रंथों के रहस्योद्घाटनों को करने में भला वे समर्थ क्यों नहीं होते ?
लोकोत्तर- प्रतिभा के धनी : निरभिमानी व्यक्ति
पण्डितजी का विद्याध्ययन अढाई वर्ष की आयु से प्रारंभ हुआ। उसी समय से अपनी विलक्षण प्रतिभा एवं स्मरण शक्ति से उन्होंने अपने गुरुजनों को अचम्भे में डाल दिया था। जैनेन्द्र- महाव्याकरण जैसे कठिन व्याकरण- ग्रंथ का अध्ययन उन्होंने 10-11 वर्ष की आयु में ही कर लिया और इसी समय मुलतान (वर्तमान पाकिस्तान) में जैन समाज के नाम उन्होंने एक "रहस्यपूर्णचिट्ठी लिखी थी, जो एक गहन चिन्तन पूर्ण आध्यात्मिक पत्र है, जो लघ्वाकार है किन्तु है वह उच्च कोटि का। उसमें सविकल्पक द्वारा निर्विकल्पक परिणाम होने का विधान करते हुए बतलाया गया है कि
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"वही सम्यकत्वी कदाचित् स्वरूप ध्यान को उद्यमी होता है वहाँ प्रथम भेदविज्ञान स्व-पर का करे, नोकम, द्रव्यकर्म, भावकर्म रहित केवल चैतन्य - चमत्कार मात्र अपना स्वरूप जाने, पश्चात् “पर" का भी विचार छूट जाय केवल स्वात्मविचार ही रहता है। वहां अनेक प्रकार निजस्वरूप में अहंबुद्धि धरता है। चिदानंद हूँ शुद्ध है, सिद्ध हैं, इत्यादिक विचार होने पर सहज ही आनन्द तरंग उठती है, रोमांच हो आता है तत्पश्चात् ऐसा विचार भी छूट जाय, केवल चिन्मात्र स्वरूप भासने लगे, वहाँ सर्वपरिणाम उस रूप में एकाग्र होकर प्रवर्तते हैं, दर्शन-ज्ञानादिक का व नय प्रमाणादिक का भी विचार विलय हो जाता है। चैतन्य स्वरूप का जो सविकल्प से निश्चय किया था, उस ही में व्याप्त व्यापक रूप होकर इस प्रकार प्रवर्तता है जहाँ ध्याता - ध्येयपना दूर हो गया । सो ऐसी दशा का नाम निर्विकल्प अनुभव है। बडे (बृहत् ) नयचक-ग्रंथ में ऐसा ही कहा है।
तच्चाणेसणकाले समयं बुज्झेहि जुत्तिमग्गेण ।
णो आराहण समए पच्चक्खो अणुहवो जम्हा ॥ ( गाथा 266)
तात्पर्य यह कि शुद्ध आत्मा को नय-प्रमाण द्वारा अवगत कर जो प्रत्यक्ष अनुभव करता है वह सविकल्प से निर्विकल्प स्थिति को प्राप्त होता है। जिस प्रकार रत्न को खरीदने में
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 अनेक विकल्प करते हैं किन्तु जब उसे प्रत्यक्ष पहनते हैं, तब विकल्प नहीं रहता । पहिनने का सुख अलग ही है। इस प्रकार सविकल्प के द्वारा निर्विकल्प का अनुभव होता है। ( दे. ती.म.आ. परंपरा भाग - 4 पे 287-88 )
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14 वर्ष की आयु में गोम्मटसार जैसे आगम ग्रंथों की भाषा- वचनिका लिखी । आजकल 14वर्ष की उम्र में बच्चों के ज्ञान से तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें कैसी दिव्य-प्रतिभा प्राप्त थी। उनका पाण्डित्य क्रमशः निखरता गया और यश भी गगन चूमने लगा था। सोना देखकर चाहे सुन्नू हो या मुन्नू, सभी के मुख में पानी आ जाता है, फिर, यदि राज-सम्मान भी मिलने लगे, तब तो कहना की क्या ? ऐसे लोग प्रायः अहंकारी बन जाते हैं और चन्द्रलोक से बातें करने लगते हैं। लेकिन, एक सच्चे तपस्वी एवं मूक साधक की स्थिति ठीक इसके विपरीत होती है। टोडरमलजी विनयगुण, शीलरूप, भद्र परिणाम एवं आत्मानुशासन से ही ज्ञान की सार्थकता मानते थे। उन्होंने अपने पाण्डित्य एवं यशोवृद्धि के कारण कभी भी अभिमान नहीं किया। त्रिलोकसार जैसे करणानुयोग के कठिन ग्रंथ की सुन्दर एवं सुबोध टीका लिखकर भी उन्होंने अपने को मन्दमति ही माना है। यथा - " इस शास्त्र की संस्कृत टीका जदपि पूर्वे भई है तदपि तहां संस्कृत गणितादिक का ज्ञान बिना प्रवेश होई सकता नाहीं तात स्तोक ज्ञान वालों के त्रिलोक के स्वरूप का ज्ञान होने के अर्थि तिस ही अर्थ काँ भाषाकरि लिखिए है या वि मेरा कर्त्तव्य इतना ही है, जो क्षयोपशम के अनुसारि तिस शास्त्र का अरथ कों जानि धरमानुराग तैं औरनि के जानने के अर्थि जैसे कोई मुखर्ते अच्छर उच्चारि करि देशभाषा रूप व्याख्यान करै तैसें मै अच्छरनि की स्थापना करि लिखोंगा बहुरि छंदनि का जोड़ना, नवीन युक्ति, अलंकारादि का प्रकट करना इत्यादि नवीन ग्रंथकारनि के कार्य हैं, तेती मोतें बने ही नाहीं तातै ग्रंथ का कर्तापना मेरे हैं नाहीं।"
साहित्यिक मर्यादाओं के प्रतिपालक
साहित्य के क्षेत्र में जिस नैतिक मर्यादा एवं साहित्यिक ईमानदारी की आवश्यकता होती है, श्रद्धालु मन से वे उसके प्रतिपालक थे। जो विषय उन्हें अधिक स्पष्ट नहीं होता था, अथवा जिस विषय पर वे अधिक प्रकाश नहीं डाल पाते थे, उस विषय में वे अपनी कमजोरी व्यक्त कर क्षमा-याचना कर लेते थे। उन्होंने त्रिलोकसार की भूमिका (पृ.3) में लिखा है- "इस श्रीमत् त्रिलोकसार नाम शास्त्र के सूत्र नेमिचन्द्र नामा सिद्धान्त चक्रवर्ती करि विरचित हैं, तिनकी संस्कृत टीका का अनुसार लेइ इस भाषा टीका विषै अरथ लिखोंगा। कहीं कोई अरथ न भासैगा ताको न लिखोंगा कहीं समझाने के अर्थि बधाय करि लिखोंगा। ऐसैं यहु टीका बनेगी ता विषै जहाँ चूक जानों तहां बुधजन संवारि शुद्ध करियों छद्मस्थ के ज्ञान सावर्ण हो हैं तात चूक भी परै जैसे जाकों धोरा सूझे अर वह कहीं सिम मारग विषै स्खलित होई तौ बहुत सूझने वाला वाकी हास्य न करै..... ऐसे ही विचारतें इस टीका करने विषै मेरे उत्साह वर्ते है ।
निस्सन्देह ही महाकवि बनारसीदास जी, जिन्होंने कि अपने हिन्दी के सर्व प्रथम लिखित
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जीवन-चरित 'अर्धकथानक" में अपनी अच्छी-बुरी सभी बातें विस्तार-पूर्वक लिखकर जिस प्रकार अपनी साहित्यिक-ईमानदारी का परिचय दिया था और साहित्य-जगत् का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था, उसी प्रकार पं. टोडरमल जी भी उसी श्रेणी के विश्वसनीय एवं मर्यादाप्रतिपालक प्रतिभा-पुत्र हैं। इस दिशा में वे नवीन पीढ़ियों के लिये आदर्श हैं, इसमें संदेह नहीं। यथोगाथा दिग-दिगन्त में समा गई
सारा समाज पं. टोडरमल को अपना शिरोमणि मानता था और उनके उपदेशामृत का पान करते हुए लालायित रहता था, उनकी दैवी-प्रतिभा, एवं अगाध विद्वत्ता के प्रति अनन्य श्रद्धानिष्ठ समानधर्मी पं. रायमल्ल ने जयपुर में आयोजित इन्द्रध्वज-पूजा-विधान के समय सर्वत्र प्रेषित निमंत्रण-पत्र में उनके विषय में जो लिखा था, वह उसका एक प्रेरक उदाहरण है। वह अंश निम्न प्रकार है -
“यहाँ घणां भायां अउर घणी वायां व्याकरण व गोम्मटसारजी की चर्चा का ज्ञान पाइये हैं। सारा ही विसैं भाईजी टोडरमलजी के ज्ञान का क्षयोपशम अलौकिक है जो गोम्मटसारादि ग्रंथों की संपूर्ण लाख श्लोक टीका विणाई और पाँच-सात ग्रंथों का टीका वणायवे का उपाय है। न्याय, व्याकरण, गणित, छंद, अलंकार आदि का ज्ञान पाइये हे। ऐसे पुरुष महन्त बुद्धि का धारक ईकाल विर्षे होना दुरलभ है। ता” यासू मिलें सर्व संदेह दूरि होय है। घणी लिखवा करि कहा आपणां हेत का वांछीक पुरुष शीघ्र आप यांसू मिलाप करो।" मुल्तान की जिज्ञासु जैन समाज के लिये लिखित उनकी "रहस्यपूर्ण चिट्ठी" की लोकप्रियता से विदित होता है कि उनके यश की सुरभि अतिशीघ्र ही जयपुर की परिधि लॉघकर पंचनद (अखण्ड-पंजाब) के अंचल में मुलतान (वर्तमान में पाकिस्तान) तक तथा वहाँ से मानों मौसमी मानसूनों के साथ ही पूर्व, उत्तर एवं दक्षिण-भारत तक पहुंच गई। वह सुरभि आज भी दिग-दिगन्त में व्याप्त है। टोडरमलकालीन जयपुर
जैन सिद्धान्त भवन आरा (बिहार) के प्राच्य शास्त्र-भण्डार में सुरक्षित शान्तिनाथ-पुराण की एक पाण्डुलिपि-प्रशस्ति में पं. टोडरमल के कृतित्व एवं व्यक्तित्व को प्रकाशित करने वाला तथा उनके समकालीन राजस्थान के अन्य कुछ मनीषियों के उल्लेख इस प्रकार मिलते है। -
वासी सिरि जयपुर तनौं टोडरमल क्रिपाल। ता प्रसंग को पाय के गहयौ सुपंथ विशाल। गोमटसारादिक तनैं सिद्धांतनि में सार। प्रवर बोध जिनके उर्दै महाकवि निरधार। फुनि ताके तट दूसरो राजमल्ल बुधराज। जुगल मल्ल जब ये जुरे और मल्ल किह काज? देश ढूंढाहउ आदि दै संबोधे बहुदेश। रचि रचि गिरंथ कठिन किये टोडरमल्ल महेस।
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 पं. रायमल्ल का ऐतिहासिक पत्र - जयपुर की शानदार परम्परा के संवाहक -
18वीं सदी मे जिस समय पं. टोडरमलजी जयपुर में अपने प्रवचनों से जैनधर्म की अमृतवर्षा कर रहे थे, उस समय के धार्मिक और आध्यात्मिक वातावरण का वर्णन उनके एक भक्त रायमल्ल ने अपने एक मित्र को पत्र में लिखा था, जो इस प्रकार है - ___“यहाँ दस-बारा लेखक सदैव सास्तर में जिनवाणी लिखे हैं अऊर सोधे हैं अऊर एक बिराहमन (ब्राह्यण) महिंदर को चाकर राख्या है सो बीस लड़कों खों न्याय, व्याकरण, गणित-शास्त्र पढावै है। अऊर पचास भाई वा बाइयाँ (महिलाएं) धरम-चरचा करे अऊर व्याकरण अध्ययन करैं हैं। नित्य सौ पचास जायगा जिण पूजण होई है इत्यादि। इहाँ जिनधर्म की विसेस महिमा जाननी।
अऊर ई नग्र विर्षे सात व्यसनन का अभाव है। ई नग्र विषै कलाल, कसाई व वेस्या न पाइये हैं। अऊर जीवन हिंसा की मनाही है। राजा का नाम माधवसींग है। अऊर दरबार के मुतसद्दी सब जैनी हैं जदपि अऊर लोग भी हैं पर गौणता रूप से है। मुख्यता कर नाहीं है। दस हजार जैनी बसै हैं। अइसा जैनी लोगों का समूह दूसरे नग्र विषै नाहीं। अइसा नग्र वा देस बहुत ही निरमल अऊर पवित्तर है। तातें यह पुरुषन के बसने का उत्तम स्थान है। अवर तो ए साक्षात धरमपुरी ही है।" पं. देवीदास गोधा के विचार
पं. टोडरमल की प्रभावक-विद्वत्ता एवं शास्त्र प्रवचन-शक्ति के विषय में राजस्थान के एक पण्डित देवीदास गोधा ने लिखा था -
“सो दिल्ली पढिकर बसुवा आय पाछै जयपुर में थोड़ा दिन टोडरमलजी महाबुद्धिमान के पासि शास्त्र सुनने को मिल्या...... सो टोडरमलजी के श्रोता विशेष बुद्विमान् दीवान रत्नचन्दजी, अजवरायजी, तिलोकचन्द पाटणी, महारामजी, विशेष चरचावान् ओसवाल, क्रियावान उदासीन तथा तिलोकचन्द सोगाणी, नयनचन्दजी पाटनी इत्यादि टोडरमलजी के श्रोता विशेष बुद्धिमान तिनके आगे सास्तर का तो व्याख्यान किया। (दे, पं. देवीदास गोधा द्वारा लिखित सिद्धांतसागर संग्रह वचनिका की भूमिका) __ वस्तुतः निर्व्यसनी सात्त्विक जीवन एवं अहिंसक-वृत्ति युगों-युगों से भारतीय संस्कृति की अपनी विशेष पहिचान रही है इसीलिये भारत जगद्गुरू के रूप में विख्यात रहा है और विदेशी पर्यटकों- आईक, मेगास्थनीज, फाहियान, ह्यूनत्सांग, अलवेरूनी, जान फ्रायर, सर विलियम जोन्स, जेम्स टॉड, हर्मन याकोवी प्रभृति ने उसकी प्रशंसा में जो लिखा है, उसे देखकर गौरव का अनुभव होता है। सुप्रसिद्ध चीनी-पर्यटक फाहियान ने सन् 396 से 414 तक भारत में भ्रमण किया था। उसने अपनी डायरी में लिखा था- भारत में चाण्डालों के अतिरिक्त अन्य कोई भी जीवित प्राणी का वध नहीं करता, न मादक पेय पीता है, न जीवित पशुओं का व्यापार करता है। कसाईखाने तथा मदिरा की दुकानें भारत में नहीं हैं।" इसी प्रकार योरूपी पर्यटक जान-फ्रायर ने भी सन् 1678 से 1681 तक भारत-भ्रमण किया था, उन्होंने लिखा था- "भारतवासी हिन्दू लोग कन्दमूल,
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साग- पत्ती, चॉवल तथा सभी प्रकार के फलों पर निर्वाह करते हैं। वे किसी जीव को मारकर नहीं खाते और न अण्डे जैसी कोई चीज ही खाते है। सिर्फ मुसलमानों में कुर्बानी के नाम पर हिंसा होती है। (सन्मति संदेश 2/8/पृ.30)
गोम्मटसार पूजा का रहस्य
गोम्मटसार नामक ग्रंथ की पूजा पण्डितजी ने जिस तन्मयता के साथ लिखी, वह भी एक रहस्य है। उक्त पूजा के माध्यम से आचार्य - प्रवर ने गौतम गणधर एवं उनकी परवर्ती आचार्य - परंपरा, समस्त द्वादशांग वाणी आदि का भाव-विभोर होकर इतिहास - समन्वित स्तवन किया है। जिस प्रकार ओम् - "ॐ" के उच्चारण से पंच परमेष्ठी एवं सारे ज्ञान-विज्ञान का एक साथ स्मरण हो जाता है, पण्डित जी की गोम्मटसार के प्रति भी वही विराट कल्पना थी।
गौरव ग्रन्थ- मोक्षमार्ग प्रकाशक
"मोक्षमार्ग-प्रकाशक" पण्डितजी का स्वतंत्र ग्रंथ होते हुये भी उसमें जैन वाङ्मय का सार-तत्त्व निहित है। इस सबके अतिरिक्त भी आचार-विचार में व्याप्त शिथिलता, ढोंग, पाखण्ड आदि की तीव्र आलोचना एवं जैन सिद्धान्तों तथा दर्शन पर व्यर्थ के लगाये गये
-
लांछनों का समुचित उत्तर उसमें दिया गया है। यह ग्रंथ लिखते समय उनसे प्रश्न किया गया था कि पूर्वाचार्यों के बड़े-बड़े ग्रंथ उपलब्ध हैं ही, फिर इस ग्रंथ के लिखने की आपको क्या आवश्यकता आन पड़ी ? तब इसके उत्तर में पण्डितजी ने कहा था कि 'पूर्वाचार्यों के ग्रंथों को समझने के लिये प्रखर बुद्धि एवं भाषा, व्याकरण, न्याय, छंद, अलंकार आदि का ज्ञान आवश्यक है जो ऐसे हैं, वे तो उन्हें पड़ सकते हैं, किन्तु जो अल्पबुद्धि हैं, उनका प्रवेश उन ग्रंथों में सहज संभव नहीं। अतः उन्हीं मन्दगति सामान्यजनों के हितार्थ यह ग्रंथ लिखा जा रहा है।"
सीधी-सादी, सरस, विवेचनात्मक गद्य शैली में लिखित एवं अत्यन्त लोकप्रिय उक्त मोक्षमार्ग प्रकाशक में निम्नलिखित नौ अधिकार है। यथा
प्रथम अधिकार में आत्म-सुख-संतोष-प्राप्ति के हेतु तथा श्रमण संस्कृति, मूल आराध्य-अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं सर्वसाधु रूप पंच परमेष्ठी के स्वरूप का विशद् विवेचन किया गया है।
दूसरे अधिकार में संसार की स्थिति का चित्रण, आत्मा एवं कर्म - सिद्वान्त का विवेचन, अष्टकर्मों के फलदान में निमित्तनैमित्तिक संबन्ध आदि का विवेचन।
तीसरे अधिकार में संसार दुःख तथा मोक्ष सुख का का विशद विवेचन और उससे निवृत्ति के उपायों पर प्रकाश ।
चौथे अधिकार में मिध्यात्व का विशद विवेचन और उससे निवृत्ति के उपायों पर प्रकाश
पांचवें अधिकार के वर्ण्य विषय का अध्ययन करने से पं. टोडरमलजी के ज्ञान-विज्ञान के गम्भीर अध्ययन मनन एवं चिन्तन तथा सार्थक तर्कणा - शक्ति का पता
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 चलता है। उसमें विविध दार्शनिक एवं धार्मिक मान्यताओं की समीक्षा प्रस्तुत कर पण्डितजी ने अपनी अनेकान्त-दृष्टि का परिचय दिया है।
छठवें अधिकार में बतलाया गया है कि मोक्षाभिलाषियों के लिये मुक्ति-विरोधी-तत्त्वों से निरंतर दूर रहना चाहिये क्योंकि उनके सेवन से सत्य के दर्शन नहीं हो सकते।
सातवें अधिकार में जैनाभास, व्यवहाराभास के विवेचन के बाद तत्त्व एवं ज्ञान के स्वरूप का कथन किया गया है। रागादिभावों का घटना निर्जरा का कारण तथा रागादि भावों का होना ही बंध है। इस विषय का सुन्दर विवेचन किया गया है।
आठवें अधिकार में चतुर्विध अनुयोग-प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग के स्वरूप एवं उनके वर्ण्य-विषय का विवेचन।
नौवें अधिकार में सम्यक्त्व के अष्टांगों का मार्मिक विवेचन एवं मोक्ष-मार्ग का स्वरूप संक्षेप में कहा जाय तो मोक्षमार्ग-प्रकाशक संवेदनशील जिज्ञासुजनों के लिये एक ऐसा आकर्षक प्रभावक गुलदस्ता है, जिसमें सृष्टि-विद्या के प्रायः सभी मूल सिद्धांतों एवं दर्शन, अध्यात्म, आचार, भूगोल एवं खगोल संबंधी मान्यताओं को सीधी सादी सरल भाषा में प्रवाहपूर्ण गद्य-शैली में प्रस्तुत किया गया है।
कहीं-कहीं प्रासंगिक प्रश्नोत्तरों के माध्यम से वर्ण्य-विषय का सुन्दर प्रतिपादन किया गया है। इसकी लोकप्रियता का इसी से आभास मिलता है कि उसके दर्जनों संस्करण निकल चुके हैं। और यह कहावत प्रसिद्ध है कि कोई भी पण्डित जब तक मोक्षमार्ग-प्रकाशक का गहन अध्ययन नहीं कर लेता, तब तक उसका पाण्डित्य अधूरा ही रह जाता है। इस ग्रंथ के लिखने में उन्हें श्वे. एवं दिगम्बर जैनागमों, अनुआगम-साहित्य तथा वैदिक, बौद्ध, इस्लाम प्रभृति संप्रदायों के ग्रंथों का गहन अध्ययन करना पड़ा था। प्राप्त संदर्भो के अनुसार उन प्रयुक्त ग्रंथों की वर्गीकृत सूची निम्न प्रकार है - वैदिक-धर्म-ग्रंथ - 1. ऋग्वेद (मोक्षमार्ग प्रकाशक की पृ. 208) 9. ब्रह्मपुराण
- 163 2. यजुर्वेद - 208, 209 10. गणेशपुराण
- 205 3. छान्दोग्योपनिषद्
11. प्रभासपुराण
- 206 4. मुण्डकोपनिषद् 139
12. नारदपुराण (भवावतार-रहस्य) 5. कठोपनिषद् 139
13. काशी खण्ड
- 206 6. विष्णुपुराण - 148,163 14. मनुस्मृति
- 208 7. वायुपुराण
148 15. महाभारत
- 210 8. मत्स्यपुराण
- 149 16. हनुमन्नाटक
-204 17. दशावतार-चरित्र - 206 24. वैराग्यशतक
- 201 18. व्याससूत्र 1 - 205 25. नीतिशतक
- 282 19. भागवत पुराण - 163,164 26. दक्षिणामूर्तिसहस्रनाम
- 139
___ -207
- 203
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27. वैशम्पायनसहस्रनाम 28. महिम्नस्तोत्र(दुर्वासाकृत) - 204 29. रुद्रयामलतन्त्र
- 205
34. मीमांसा-दर्शन 35. जैमिनीय-शास्त्र 36. चार्वाक-दर्शन
- 192 - 193 - 196
39. वि. वि.
- 193,194
20. गीता
- 150,181,369 21. अवतारवाद - 162 22. योगशास्त्र
- 167 23. योगवाशिष्ठ भारतीय दर्शन शास्त्र -
30. वेदान्त परीक्षा - 181 31. सांख्य-कारिका - 182 32. न्यायदर्शन - 185
33. वैशेषिक-दर्शन - 188 इस्लाम
37. कुरानशरीफ - 196 बौद्ध-ग्रंथ -
38. अभिधर्मकोष - 193, 194 श्वेताम्बर-जैन-ग्रंथ
40. आचारांग-सूत्र - 212 41. भगवती-सूत्र - 237 42. उत्तराध्ययन-सूत्र - 223
43. जीवाजीवाभिगम - 288 दिगम्बर जैन ग्रंथ -
48. षट्पाहुड - 262,266-68 49. पंचास्तिकाय - 326 50. प्रवचनसार - 33, 272,344 51. रयणसार - 277 52. धवल-ग्रंथ - 387 53. जयधवल-ग्रंथ - 488 54. परमात्म-प्रकाश - 269 55. श्रावकाचार योगीन्द्रदेवकृत- 350 56. गोमटसार - 319, 387 57. लब्धिसार - 385 58. क्षपणासार - 385 59. रत्नकरण्ड श्रावकाचार - 394
44. वृहत्कल्पसूत्र
- 223 45. उपदेश सिद्धांत रत्नमाला-260,264 46. संघपट्ट
- 265 47. ढूंढारी पंथ
-232
60. बृहत्सवयम्भू स्तोत्र 61. ज्ञानार्णव
- 439 62. धर्म- परीक्षा __- 399 63. सूक्ति - मुक्तावली - 413 64. आत्मानुशासन - 24,81,269 65. तत्त्वार्थसूत्र - 310,329,338 66. समयसार-कलश - 286, 287 67. नाटक-समयसार - 305 68. पद्मान पच्चीसी - 295 69. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय - 372 70. आयुर्वेद के ग्रंथ- 412,413, 439, 443 71. पाहुडदोहा
- 24,25
मोक्षमार्ग प्रकाशक वस्तुतः एक विशाल अमृत-कलश है। उसका एक-एक विषय सरस एवं मधुर है। जिस प्रकार “रामचरितमानस" में सुखी-दुखी, गरीब-धनवान, भाई-बहन, पति-पत्नी, माता-पिता, शत्रु-मित्र, रिश्तेदार आदि सभी प्राणी अपनी-अपनी
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 इच्छित वस्तु प्राप्त कर प्रसन्नता से झूम उठते हैं, "मोक्षमार्ग प्रकाशक" भी सामान्य मुमुक्षुजनों के लिये उसी औपन्यासिक-शैली में लिखा गया एक अनूठा ग्रंथ है। व्यर्थ का विस्तार उसमें नहीं किया गया किन्तु संक्षेपीकरण में कोई विषय अस्पष्ट भी नहीं रहा। यद्यपि पं. टोडरमल स्वयं ही ग्रंथ की विषय-गंभीरता एवं लोक-प्रियता से परिचित थे फिर भी, उन्होंने इसका नाम "मोक्षमार्ग-प्रकाश' न रखकर "मोक्षमार्ग प्रकाशक" रखा। व्याकरण के लघ्वर्थे कः के नियमानुसार उन्होंने उसे "प्रकाशक" कहकर सिद्ध किया है कि द्वादशांग-वाणी के सम्मुख मेरी यह रचना नगण्य है। इस कथन से उनकी निरभिमानता सूचित होती है। मोक्षमार्ग-प्रकाशक के आद्योपान्त अध्ययन करने से निम्नलिखित तथ्य सम्मुख आते हैं - 1. मुद्रणालयों के प्रचलन के अभाव में भी बड़े ही कष्ट पूर्वक प्राचीन हस्तलिखित नागरी एवं कन्नड़ लिपियों की पाण्डुलिपियों को उपलब्ध कर उनका गहन अध्ययन, मनन एवं चिन्तन करना सामान्य प्रतिभा वाले व्यक्ति के लिए संभव न था। असामान्य प्रतिभावाले पं. टोडरमलजी के लिये ही वह संभव था, जो
अल्पायुष्य में भी ऐसा महान् कार्य कर सके। 2. मोक्षमार्ग-प्रकाशक में उपलब्ध मूल उद्धरणों का मिलान आधुनिक मुद्रित ग्रंथों के साथ पाठालोचन की दृष्टि से करने से उपयोगी सिद्ध होगा। अतः मुद्रित एवं अमुद्रित दोनों के तुलनात्मक अध्ययन करने से उन ग्रंथों के पुनः नवीन प्रामाणिक
संस्करण तैयार किए जा सकते है। 3. जैन-धर्म की प्राचीनता सिद्ध करने हेतु पण्डितजी ने मोक्षमार्ग-प्रकाशक में
वैदिक-शास्त्रों से जो उद्धरण प्रस्तुत किये हैं, नवीन मुद्रित ग्रंथों में उनका प्रायः अभाव या वे कुछ परिवर्तित रूप में मिलते हैं। टोडरमलजी द्वारा प्रस्तुत सभी ग्रंथ जयपुर के शास्त्र-भण्डारों में अवश्य होंगे। हस्त-लिखित प्राचीन ग्रंथ होने के कारण उनकी प्रामाणिकता में संदेह भी नहीं है। अतः उनका पुनः तुलनात्मक अध्ययन
होना चाहिये तथा प्राप्त तथ्यों का प्रकाशन होना चाहिये। 4. पण्डितजी द्वारा प्रयुक्त जैन ग्रंथों में से जिनका प्रकाशन अभी तक न हुआ हो, उन्हें
अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समझकर उनका सानुवाद, सभाष्य प्रकाशन तत्काल होना
चाहिये। दार्शनिक चिन्तन-निश्चय एवं व्यवहार
शौरसेनी-जैनागमों मे निश्चय-नय एवं व्यवहार-नय की चर्चाएं प्रमुख रूप से मिलती हैं। इन विषयों को लेकर विद्वानों में आजकल बड़ा शास्त्रार्थ चल रहा है। कोई निश्चय-नय को ही यथार्थ मानता है और कोई निश्चय एवं व्यवहार दोनों नयों को ही उपादेय मानता है किन्तु पं. टोडरमल के अनुसार निश्चय एवं व्यवहार दोनों ही नयों को उपादेय मानना भ्रम है, क्योंकि दोनों नयों का स्वरूप परस्पर विरुद्ध है। व्यवहार-नय- सत्य-स्वरूप का निरूपण नहीं करता किन्तु किसी अपेक्षा से उसे उपचार से वह अन्यथा ही निरूपण करता है। मोक्षमार्ग-प्रकाशक में उन्होंने लिखा है- “निश्चय नय करि जो निरूपण किया
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होय ताकौ तों, सत्यार्थ मानि ताका श्रद्धान अंगीकार करना, अर व्यवहार नय कर जो निरूपण किया होय ताकौ असत्यार्थ मानि ताका श्रद्धान छोड़ना"। आगे उन्होंने समयसार-कलश एवं षट्पाहुड के उद्धरणों से अपने पक्ष का समर्थन भी किया है
और उपसंहार वचनों में पुनः लिखा है - तातै व्यवहार नय का श्रद्धान छोड़ि निश्चय नय का श्रद्धान करना योग्य है। व्यवहार नय स्व द्रव्य और पर द्रव्य कौं वा तिनके भावनिकौं वा कारण-कार्यदिक कौं काहू कौं काहू विर्षे मिलाय निरूपण करै है। सो ऐसे ही श्रद्धान” मिथ्यात्व है। तातैं याका त्याग करना। बहुरि निश्चय नय तिनही को यथावत् निरूपै है, काहू विषै न मिलावै है। ऐसे ही श्रद्धान तें सम्यक्त्व हो है। तातैं याका श्रद्धान करना। रत्नत्रय
रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र की व्याख्या कितने सरस, सरल और रोचक शैली में प्रस्तुत की गई है- "तातै बहुत कहा कहिए जैसे रागादि मिटावने का श्रद्धान होय सो ही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। बहुरि जैसे रागादि मिटावने का ज्ञान होय सो ही श्रद्धान सम्यग्ज्ञान है। बहुरि जैसे रागादि मिटै सो ही आचरण सम्यग्चारित्र है। ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है। मूर्तिपूजा
पण्डितजी मूर्तिपूजा को जैनाचार का एक आवश्यक अंग मानते थे। उनके अनुसार जिनमूर्ति सजीव अथवा शुद्धात्मा की प्रतिच्छाया है। अतः उन्होंने इसका समर्थन किया तथा "भगवती-सूत्र का अध्ययन कर उसमें प्राप्त “चैत्य" शब्द के अर्थो में असंगति देखकर लिखा है' - "भगवती-सूत्र विषै........"जाय तत्थ चैत्यनिकौं वंदइ" ऐसा पाठ है। याका अर्थ यहु-तहाँ चैत्यनिकौं बंद है। सो चैत्य नाम प्रतिमा का प्रसिद्ध है। बहुरि वै हठकरि कहै है-चैत्य शब्द के ज्ञानादिक अनेक अर्थ निपजैं, सो अन्य अर्थ है। प्रतिमा का अर्थ नाहीं। याकौ पूछिये है- मेरूगिरि नन्दीश्वर द्वीप विषै जाय तहा चैत्यबंदना करी, सो उहां ज्ञानादिक की वंदना तो सर्वत्र संभवै। जो वंदने योग्य चैत्य उहीं ही संभवै, अर सर्वत्र न संभवै, ताकौ तहां वंदना, करने का विशेष संभव, सो ऐसा सम्भवता अर्थ प्रतिमा ही है। अर चैत्य शब्द का मुख्य अर्थ प्रतिमा ही है, सो प्रसिद्ध है। इस ही अर्थकरि चैत्यालय नाम संभव है। याकौं हठ करि काहे कों लोपिए"। शिथिलाचार एवं गुरूडम का विरोध
पण्डित टोडरमलजी पाखण्ड, ढोंग, आडम्बर एवं गुरूडम के घोर विरोधी थे। शिथिलाचारी भट्टारकों ने अपने गुरूपद को सुरक्षित रखने के लिये मनमानी करना प्रारंभ कर दिया था और सिद्धांतागम ग्रंथों को पढ़ना बन्द कर दिया था। जैन मंदिरों में स्वाध्याय कराने हेतु पेशेवर पण्डितों की नियुक्तियाँ करा दी तथा मंदिरों में सिंहासन पर आसीन होने लगे। तात्पर्य यह कि जब भट्टारक स्वं मठाधीश बन गये तथा पण्डितजी यह देख ना सके
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तो इनका विरोध करने के लिये उन्होंने कमर कस ली। यद्यपि उनके पूर्व महाकवि बनारसीदास, सन्त कबीर की तरह ही शिथिलाचारियों को डॉट-फटकार लगाकर उन्हें झाड़ चुके थे। किन्तु उसका असर कम होने लगा था। अत: पं. टोडरमलजी ने दुगुनी शक्ति से उनका विरोध किया। उनका यह विरोध जैनाचार के क्षेत्र में जबर्दस्त क्रान्ति थी। यदि उस समय पण्डितजी क्रान्ति का स्वर न फूंकते, तो आज सच्चे साधुओं के स्थान पर शिथिलाचारी एवं सरागी तथाकथित साधुओं की ही पूजा होती। मोक्षमार्ग-प्रकाशक में उन्होंने स्वयं लिखा है -जहाँ मुनि कै धात्रीदूत छयालीस दोष आहारादि विषै कहे हैं, तहां गृहस्थिनि के बालकनिकौं प्रसन्न करना, समाचार कहना, मंत्र, औषधि, ज्योतिषादि कार्य बतावना इत्यादि। बहुरि किया कराया अनुमोधा भोजन लैंणा इत्यादि किरिया का निषेध किया है। सो अब कालदोषइनहीं दोषनिकौं लगाय आहारादि ग्रहैं हैं........नाना परिग्रह राखै हैं। बहुरि गृहस्थ धर्मवि भी उचित नाहीं वा अन्याय लोकनिध पापरूप कार्य तिनिकौं करते प्रत्यक्ष देखिये है। बहुरि जिनबिम्ब शास्त्रादिक सर्वोत्कृष्ट पूज्य तिनका सौं अविनय करैं हैं। बहुरि आप जिनौं भी महंतता राखि ऊँचा बैठना आदि प्रवृत्ति कौं धारें है। इत्यादि अनेक विपरीतिता प्रत्यक्ष भासै अर आपकौं मुनि मानें, मूलगुणादिक के धारक कहावै। ऐसे ही अपनी महिमा करावै। बहुरि गृहस्थ भोले, उनकरि प्रशंसादिक् करि ठिगे हुये ध म का विचार करै नाहीं। उनकी भक्ति विर्षे तत्पर हो हैं। सो बड़े पापकौं बड़ा ध र्म मानना, इस मिथ्यात्व का फल कैंसू अनन्त संसार न होय। एक जिनवचनकौं अन्यथा माने महापापी होना शास्त्रविर्षे कहा है। यहां तो जिनवचन की किछू बात राखी ही नाहीं। इस समान और पाप कौन है? आदि आदि ।" जैन-गणित के व्याख्याता
प्राच्यकालीन गणितज्ञों के अनुसार जैन-गणित स्वयं में परिपूर्ण एक वैज्ञानिक अंकविद्या है। करणानुयोग में भूगोल-खगोल के साथ-साथ अंकविद्या भी प्रमुख रूप से वर्णित है। जैनाचार्यों ने इस क्षेत्र में अद्भुत कार्य किये हैं। उनका अन्तः परीक्षण कर देश-विदेश के कई विद्वानों ने इसे ग्रीक-पूर्व-प्राचीन गणित सिद्ध किया है। पं. टोडरमलजी उस अलौकिक जैन एवं लौकिक गणित के धुरन्धर विद्वान् थे। उन्होंने जन-सामान्य के हितार्थ कुछ महत्वपूर्ण समस्याओं पर गुर Formulae लिखे थे। उन्हें देखकर स्पष्ट हो जाता है कि हर विषय में उनकी कितनी गहरी पैठ थी तथा दूसरों को समझाने की कैसी अद्भुत क्षमता थी। त्रिलोकसार' की भूमिका में उन्होंने लिखा है- सर्व शास्त्रनिका ज्ञान होने को कारणभूत दो विद्या है। एक अच्छरविद्या एक अंकविद्या। सो व्याकरणादि करि अच्छर ज्ञान भए अर गणित-शास्त्रनि करि अंकज्ञान भऐ शास्त्रनि का अभ्यास सुगम होहै।" जैन-गणित का वर्गीकरण
जैन-गणित का वर्गीकरण करते हुये पण्डितजी ने लिखा है- "बहुरि परिकर्माष्टक को
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सीखना सो संकलन, व्यवकलन, गुणाकार, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, धन, धनमूल इनको परिकर्माष्टक कहिए है।" ___ लम्बी संख्या का भाग करना प्रायः कठिन होता है लेकिन पण्डितजी ने उसे हल करने के लिए एक नया गुर (सिद्धांत) ही बना दिया और सोदाहरण उसका विश्लेषण भी कर दिया। यथा- "भाज्य राशि के अंतादिक जेते अंकनि करि भाज राशि” प्रमाण वधता होइ तितने अंकरूप राशि कौं भाजक का भाग दीजिये। बहुरि जिस अंककरि भाजक कौं गुणें जाकौं भाग दीया था तामैं घटाइ अवशेष तहां लिख दीजिये अरवह पाया अंक जुदा लिख दीजिये। बहुरि जैठे भाज्य के अंक रहे तिनके अंतादि अंकनिकौं तैसें ही भाग देइ जो अंक आवै ताकौं तिस पाया अंक के आगें लिखिये। ऐसैं ही यावत्सर्व भाज्य के अंक निशेष होई तावत विधान करें तहां पाए अंकनिकरि जो प्रमाण आवै सो तहां भाग दीए जो राशि भया ताका लब्धराशि है ताकर प्रमाण जानना।"
उक्त सिद्धान्त के स्पष्टीकरण के लिये उन्होंने एक उदाहरण दिया है, जैसे-8192 में 64 का भाग देना है। आधुनिक रीति से तो 8192 : 64 करने में जटिलता अधिक है। किन्तु पण्डितजी के सिद्धान्त के अनुसार भाज्य 8192 में से उसकी आदि की दो संख्या-81 में से भाजक 64 घटा दिया तब शेष रहा 1792 इस संख्या का आदि अंक 1 अलग लिख दीजिए। फिर 1792 की प्रथम तीन संख्याओं (अर्थात् 179) में भाजक 64 का भाग कर भजनफल 2 को उक्त 1 के साथ (अर्थात् 12) लिख दीजिये। शेष 51 बचा। उसे फल(2) के साथ लिखकर (512) पुनः भाजक का भाग दिया और पूर्वोक्त 12 के साथ इस भजनफल (8) को मिला देने से 129 संपूर्ण भजनफल हो गया। यथापण्डितजी की पद्धति
नवीन प्रचलित पद्धति 8192
64 8192 128
64
-------
1
179
64 ---- 12
128
179
5
Pror
64
----128
उत्तर लब्धांक - 128
उत्तर- लब्धांक-128 राजस्थानी-हिन्दी गद्य के विकास में योगदान
पं. टोडरमलजी एक ओर जैन आध्यात्मवाद के विश्लेषक थे, तो दूसरी ओर साहित्यिक गद्य-शैली के निर्माता भी। शास्त्रीय ग्रंथों के टीकाकार होते हुए भी उन्होंने हिन्दी गद्य-शैली के विकास में अद्भुत योगदान किया है। समकालीन परिस्थतियों में गद्य को आध्यात्मिक चिन्तन का माध्यम बनाना, साहित्यिक कौशल एवं अत्यन्त श्रमसाध्य कार्य था। उनकी गद्य-शैली लौकिक दृष्टान्तों से युक्त प्रश्नोत्तरी शैली वाली प्रवाहपूर्ण और
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 रोचक है। वह न तो एकदम शास्त्रीय है और न आध्यात्मिक सिद्धियों और चमत्कारों से बोझिल, जिसका प्रत्यक्ष दर्शन उनके मोक्षमार्ग-प्रकाशक में होता है। संक्षिप्त वाक्य-रचना और तार्किक प्रतिपादन-शैली उनकी अपनी विशेषता है। डॉ. प्रेमप्रकाश गौतम के अनुसार "उनकी गद्य-शैली में उनके चिन्तक का चरित्र और तर्क का स्वभाव स्पष्ट झलकता है। एक आध्यात्मिक लेखक होते हुए भी उनकी गद्य-शैली में व्यक्तित्व का प्रक्षेप उनकी अपनी मौलिक विशेषता है। (राज. का जैन-साहित्य पृ.252) अपने कार्यो के माध्यम से वे अजर-अमर रहेंगे
"साहित्य-सेवा तो घर फूंक तमाशा है" यह एक लोक-प्रचलित कहावत प्रसिद्ध है। पूर्वाचार्यो पर यह उक्ति लागू होती है अथवा नहीं यह कहना तो कठिन है किन्तु भारतीय साहित्य के हिन्दीकाल में ऐसा देखा जाता रहा है। टोडरमल के ऊपर तो वह कहावत शतशः लागू होती है। उन्हें साहित्य-सेवा का जो फल मिला, उसे इतिहास जानता है। उनकी मृत्यु संबन्धी दुर्घटना के स्मरण-मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते है तथा सॉस सँधने लगती है। मानवता के दुर्भाग्य से उन्हें वही पुरस्कार मिला जो सहस्रों वर्ष पूर्व मानव-संस्कृति के महाविश्लेशक परमऋषि सुकरात, ईसा एवं नवयुग-निर्माता तथा उपेक्षितों, पीड़ितों दलितों और अमेरिका को गणतंत्र का रूप देने में प्राणपण से प्रयत्नशील अब्राहम लिंकन और राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी एवं मार्टिन लूथर किंग को मिला। वस्तुतः उनके जीवन की वही खरी परीक्षा भी थी और उसमें उन्होंने सर्वोपरि उत्तीर्णता प्राप्त की। आज ग्रह-नक्षत्रों के साथ उनकी दिव्यात्मा दैदीप्यमान है और सृष्टि के अन्त तक निष्पक्ष एवं निर्भीक विवेकीजन उन्हें भुला न सकेंगे। एक राष्ट्रकवि के अनुसार - He belongs to the ages अर्थात् “यावच्चन्द्रदिवाकरौ" उनका स्मरण किया जाता रहेगा।
सन्दर्भ :
1. मोक्षमार्ग प्रकाशक (दिल्ली, 1950) पृ. 17 2. हजारी प्रसाद द्विवेदी कृत हिन्दी साहित्य, (दिल्ली, 1952) पृ. 364-65 3. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, पृ. 180 4. मोक्षमार्ग प्रकाशक (दिल्ली, 1950) पृ. 368 5. मोक्षमार्ग प्रकाशक (दिल्ली, 1950) पृ. 368 6. मोक्षमार्ग प्रकाशक (दिल्ली, 1950) पृ. 368 7. मोक्षमार्ग प्रकाशक (दिल्ली, 1950) पृ. 369 8. मोक्षमार्ग प्रकाशक (दिल्ली, 1950) पृ. 369 9. मोक्षमार्ग प्रकाशक (दिल्ली, 1950) पृ. 270-271
- बी-5/40 सी सैक्टर-34
धवलगिरि, पो. नोएडा (उ.प्र.) 201301
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सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट तीर्थ का वैभव
डॉ. संगीता मेहता संसाराब्धेरपारस्य तरणे तीर्थमिष्यते।' आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में कहा है कि जो इस अपार संसार समुद्र से पार करे उसे तीर्थ कहते हैं। ऐसा तीर्थ जिनेन्द्र भगवान का चरित्र ही हो सकता है। अत: जिनेन्द्र भगवान का चरित्र तीर्थ है।
_ 'पावनानि हि जायन्ते स्थानान्यपि सदाश्रयात्'। वादीभसिंह सूरि ने क्षत्रचूड़ामणि मे लिखा है कि सत्पुरुषों के स्पर्श से स्थान पवित्र हो जाते हैं जैसे- पारस के स्पर्श से लोहा स्वर्ण बन जाता है।
तीर्थ धर्म की स्थापना करने वाले तीर्थकर और जितेन्द्रिय महर्षियों ने दर्शन, ज्ञान और चारित्र की आराधना कर जिस पुण्यभूमि से सिद्धत्व प्राप्त किया ऐसे पावन स्थल साक्षात् तीर्थ बन जाते हैं। पवित्रता के मूर्तिमंत पर्याय तीर्थकर और तीर्थ हमारी आस्था और निष्ठा के केन्द्र है। ये पुण्य संचय के अक्षय स्रोत हैं। विद्वान् मनीषियों की प्रबुद्व मेधा ने तीर्थ की पवित्रता और तीर्थंकरों की अमृतवाणी को जनकल्याण के लिए लिपिबद्ध किया तो दूसरी ओर कुशल शिल्पियों ने अपनी अद्भुत कल्पना और सृजनशीलता से उसे पाषाण में उत्कीर्ण कर मूर्तिमंत और जीवन्त कर दिया। अध्यात्म और कला का समन्वित रूप ये तीर्थ न केवल श्रमण संस्कृति की अपितु भारतीय संस्कृति की अनमोल धरोहर हैं।
सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट तीर्थ ऐसी ही अनमोल धरोहर है। यह भारत की हृदयस्थली मध्यप्रदेश के पूर्वी निमाड़ (खण्डवा) जिले में पंथिया ग्राम के निकट सुरम्य शैल शिखर पर मान्धाता दीप के ईशान्य में रेवा (नर्मदा) और कावेरी के संगम पर स्थित है। यह
ओंकारेश्वर रेलवे स्टेशन से 11 कि.मी. दूर है। खण्डवा से यह 77 कि.मी. दूर है। ___ तीर्थ सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट की भौगोलिक स्थिति, सिद्धत्व और महत्त्व अभिव्यक्ति निर्वाण काण्ड (प्राकृत) की इस गाथा में दृष्टव्य है -
रेवा णइए तीरे पच्छिम-भायम्मि सिद्धवर कूडे
दो चक्की दह कप्पे आहढ्य कोडि णिव्वुदे वन्दे॥ गाथा क्र.11 अर्थात्
रेवा नदी सिद्धवरकूट पश्चिम दिशा देह जहँ छूट। द्वय चक्री दस कामकुमार, ऊठ कोडि वन्दो भव पार॥
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 रेवा नदी के पश्चिम में स्थित सिद्धवर कूट से दो चक्रवर्ती दस कामदेव तथा साढ़े तीन करोड़ मुनि तथा रावण के पुत्र मोक्षगामी हुए। अत: यह निर्वाणस्थली वन्दनीय है। ___ बोधप्राभृत की गाथा 27 की व्याख्या में भट्टारक श्रुतसागर ने क्षेत्र का नाम सिद्धकूट बताया है। भट्टारक गुणकीर्ति, विश्वभूषण आदि लेखकों ने भी सिद्धकूट के रूप में ही इसका उल्लेख किया है। साढ़े तीन करोड़ मुनियों का सिद्धिस्थान होने के कारण इस पर्वत-शिखर और क्षेत्र का नाम ही सिद्धवरकूट हो गया।
दो चक्रवर्ती श्री मघवा चक्रवर्ती व श्री सनतकुमार चक्रवर्ती हैं। दस कामकुमार के नाम इस प्रकार हैं:- श्री सनतकुमार, श्री वत्सराज, श्री कनकप्रभ, श्री मेघप्रभ, श्री विजयराज, श्री श्रीचन्द्र, श्री नलराज, श्री बलिराज, श्री वासुदेव तथा श्री जीवन्धर कुमार कामदेवा'
सिद्धवरकूट से प्राप्त सबसे प्राचीन मूर्तियों पर तेरहवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी तक की तिथियाँ अंकित हैं। तीर्थकर चन्दप्रभ की मूर्ति की आधारशिला पर ई.स.1222 का लेख है।' ऐतिहासिक दृष्टि से काल के विषय में अद्यापि गहन शोध अपेक्षित है।
भट्टारक महेन्द्रकीर्तिजी ने संवत् 1935 में स्वप्न देखकर खोज की तो संवत् 1545 की तीर्थंकर चन्द्रप्रभ भगवान की मूर्ति तथा आदिनाथ भगवान की विक्रम संवत् 11 की मूर्ति प्राप्त हुई एवं विशाल खण्डित मंदिर परिसर दिखाई दिया। जीर्णोद्धार के पश्चात संवत् 1951 में प्रतिष्ठा द्वारा यह क्षेत्र प्रकाश में आया।
भट्टारकजी के अथक प्रयत्न, संतों की वाणी, धर्मानुरागियों और श्रेष्ठियों की आस्था और सतत प्रयासों से क्षेत्र का जीर्णोद्धार तथा निरंतर विकास होता रहा है। वर्तमान में यहाँ 13 मन्दिर, 1 कुण्ड, प्राचीन पाण्डुक शिला तथा महावीर वाटिका है। वर्तमान में प्रस्तावित योजनाओं में आचार्य श्री विद्यासागर हॉल तथा तेरह द्वीप एवं 458 चैत्यालय निर्माण क्रियाशील है। दर्शनक्रम के अनुसार मंदिरों का परिचय इस प्रकार है
मंदिर नं.1:- मंदिर में सफेद संगमरमर से निर्मित तीर्थकर नेमिनाथ की 1फुट 7 इंच उन्नत पद्यमासन् प्रतिमा है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् 1951 में हुई। यहाँ अष्टधातु से निर्मित 1फुट 3इंच की आदि तीर्थंकर ऋषभदेव तथा तीर्थकर श्री चन्द्रप्रभ की मनोज्ञ प्रतिमाएँ विराजमान है। मंदिर में श्री गजकुमार, सुकुमाल मुनि तथा भगवान नेमिनाथ के वैराग्य के समय के आकर्षक चित्र भी बने हुए हैं।
मंदिर नं.2:- में तीन वेदियाँ है। मूल वेदी में श्री शांतिनाथ की पद्मासनस्थ श्वेत पाषाणमयी 3फुट 2इंच की प्रतिमा है तथा पास में कृष्णवर्णी श्री पार्श्वनाथ तथा श्वेतवर्णी श्री आदिनाथ की मनोहर प्रतिमा है। दूसरी वेदी में भगवान महावीर तथा तीसरी वेदी में भगवान बाहुबलि व मुनिसुव्रतनाथजी तथा चन्द्रप्रभ भगवान की आकर्षक प्रतिमाएँ हैं। इस मंदिर में शास्त्र भंडार है जिसमें आचार्य कुंद-कुंद का शास्त्र लिखते हुए का सुन्दर चित्र भी है।
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मंदिर नं.3:- में संगमरमर से निर्मित सुन्दर छत्री है। जिसमें दो चक्री तथा दशकामकुमार के चरण चिह्न हैं। ___ मंदिर नं.4:- में श्वेतवर्णी संगमरमर से निर्मित भगवान बाहुबली की सवा सात फुट उत्तुंग प्रतिमा विराजमान है।
मंदिर नं.5:- में सफेद संगमरमर से निर्मित मानस्तंभ के ऊपर चौमुखी मंदिर में तीर्थकर महावीर की मनोज्ञ प्रतिमाएं स्थापित हैं। इस स्तंभ की दीवार पर नीचे पाषाण में आकर्षक चित्र भी उत्कीर्ण है।
मंदिर नं.6:- में सोलहवें तीर्थंकर श्री शांतिनाथजी की अष्टधातु निर्मित पद्मासन प्रतिमा है। इसके आसपास सिद्धवरकूट के मोक्षगामी दो चक्री और दस कामकुमार मुनियों की तपस्यारत अष्टधातु से निर्मित मनोहारी मूर्तियाँ स्थापित है। इस मंदिर की वेदी और शिखर पर अत्यन्त मनोहारी स्वर्णमयी चित्रकारी की गई है।
मंदिर नं.7:- में श्यामवर्णी पाषाण से निर्मित तीर्थकर पार्श्वनाथ की 2फुट 11इंच उन्नत पद्मासन प्रतिमा अतिशयकारी और मनमोहक है जो संवत् 1951 में भट्टारक महेन्द्रकीर्तिजी द्वारा प्रतिष्ठित है। यहाँ अखंड ज्योति व श्री क्षेत्रपालजी भी स्थापित है। ___ मंदिर नं. :- इसी परिसर में एक छोटा सा मंदिर है। इसमें देशी पाषाण की 1फुट 2इंच खड्गासन मुद्रा में श्री आदिनाथजी की प्रतिमा है तथा दो चक्री दस कामकुमार मुनियों के प्राचीन चरणचिह्न विराजमान है। संवत् 1951 में भट्टारक श्री महेन्द्रकीर्तिजी के समय प्रतिष्ठित अति प्राचीन तीर्थकर महवीर की खड्गासन प्रतिमा है। पार्श्व में श्री भगवान पद्मप्रभुजी तथा श्री मल्लिनाथजी पद्मासन प्रतिमाएं विराजित हैं। ___मंदिर नं.9:- में भगवन् महावीर की 4फुट उन्नत मूगिया वर्ण की खड्गासन प्रतिमा है। यह भी संवत् 1951 में ही प्रतिष्ठित है। इसी वेदी पर भूरे एवं श्वेतवर्णी पाषाण की श्री पद्मप्रभ एवं श्री मल्लिनाथ की प्रतिमाएं विराजमान है।
मंदिर नं.10:- में मूलनायक भगवान महावीर स्वामी की कृष्णवर्णी पाषाण से निर्मित पद्मासन अतिप्राचीन प्रतिमा है। इसके पादपीठ पर कोई लेख अंकित नहीं है। संभवत: यह खोज के समय भट्टारकजी को प्राप्त तथा संवत 1951 में प्रतिष्ठित हुई है इसके पार्श्व में तीर्थकर आदिनाथ तथा श्री चन्द्रप्रभजी कृष्णवर्णी पद्मासन मूर्तियाँ हैं।
मंदिर नं.11:- में मूल नायक श्री अजितनाथजी की 1फुट 6इंच श्वेतवर्णी पद्मासनस्थ प्रतिमा है पास में श्री चन्द्रप्रभजी की 9इंच उन्नत प्रतिमाएँ विराजमान है।
मंदिर नं.12:- में बड़े मंदिर के ऊपर के छत पर एक वेदी में जिसमें आदिनाथजी की संवत् 11 की कृष्णवर्णी पद्मासनस्थ अतिप्राचीन प्रतिमा है। इसकी चरणचौकी पर नागरी लिपि में लेख भी उत्कीर्ण है। वेदी में श्वेतवर्णी पद्मासन में तीर्थकर पार्श्वनाथ श्री चन्द्रप्रभु, श्री आदिनाथ और श्री पार्श्वनाथ की (फनरहित) प्रतिमाएँ हैं। इन मूर्तियों की
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 स्थापना 12 नवम्बर 1962 संवत् 2019 में की गई।
मंदिर नं.13:- यह बड़े मंदिर के नाम से विख्यात है। यहाँ क्षेत्र के मूल नायक श्री संभवनाथजी की 3फुट 1इंच श्वेताश्म पद्मासन मुद्रा में ध्यानावस्थित अतिप्राचीन भव्य प्रतिमा वि.सं. 1951 में प्रतिष्ठित है। पार्श्व में भगवन् संभवनाथ तथा चन्द्रप्रभु की श्वेतवर्णी प्रतिमा सहित अष्टधातु की 37 प्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित है। यहाँ पांच वेदिया है। यहाँ भट्टारक श्री महेन्द्रकीर्तिजी की गादी भी विद्यमान है तथा गणिनी, आर्यिका, ज्ञानमति की प्रेरणा से निर्मित हस्तिनापुर के जम्बुदीप रचना की प्रतिकृति स्थापित है।
कष्ट निवारक कुंड तथा प्राचीन पाण्डकुशिला:- सिद्धवरकूट क्षेत्र के समीप सर्वरोगमुक्ति तथा कष्ट निवारक कुण्ड स्थित है। कुण्ड के समीप ही अति प्राचीन पाण्डुकशिला है जो पुरातत्त्व की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
महावीर वाटिका:- सिद्धवरकूट क्षेत्र के मुख्य द्वार के सामने महावीर वाटिका है। इस मनोहर वाटिका में मुनि श्री 108 बाहुबली सागर महाराज की समाधि पर सुन्दर चरण और छत्री बनी हुई है। यह मुनिश्री 108 आनन्दसागर जी महाराज का भी समाधिस्थल है।
स्थापत्य और मूर्तिकला की दृष्टि से सिद्धवरकूट अनुपम है। प्रतिमाओं के भव्य रूप में भावाभिव्यंजना का भी सजीवांकन है। मंदिर के उन्नत शिखर अत्यन्त मनोज्ञ है। मंदिर में चित्रों का अंकन और वर्णसंयोजन नयनाभिराम है। मंदिर की वेदियां, द्वार, यक्ष-यक्षी, शासनदेवी, चंवरधारी, लांक्षन, चिह्न आदि का शिल्पांकन चित्ताकर्षक है।
सांस्कृतिक दृष्टि से भी यह क्षेत्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यहाँ प्रतिवर्ष फाल्गुन चतुर्दशी से प्रारंभ होकर त्रिदिवसीय मेला लगता है। इसमें ध्वजारोहण, पूजन, विधान, प्रवचन तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं। असंख्य यात्री दर्शनलाभ लेते हैं। आबालवृद्ध नौकाविहार का आनन्द लेते हैं। ओंकारेश्वर बाँध बनने से यह सुन्दर प्राकृतिक पर्यटन स्थल बन गया है। यहाँ बना हुआ झूला पुल तथा बाँध पर बना हुआ पुल दर्शनीय है। यहाँ विशाल जलाशय भी बन रहा है। पनबिजली योजना का कार्य क्रियाशील है।
त्यागी व्रतियों एवं मुनियों हेतु समुचित व्यवस्था है। यात्रियों के आवास की भी सर्वसुविधायुक्त संपूर्ण व्यवस्था है।
नर्मदा के एक तट पर सिद्धवरकूट है तो दूसरे तट पर ओंकारेश्वर। जैन सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट का वैदिक परंपरा के तीर्थ एवं द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक ओंकारेश्वर से गहरा ऐतिहासिक संबंध है। संपूर्ण क्षेत्र पूर्व में मांधाता के नाम से प्रख्यात था, इक्ष्वाकुवंशी राजा मान्धाता तथा चक्रवर्ती मघवा संभवतः एक ही हो सकते हैं। ओंकारेश्वर की पहाड़ी पर प्राचीन मंदिरों के भग्नावशेष है जो पुरातत्त्व विभाग के अन्तर्गत है । जहाँ खुदाई से जैन कलावशेषों के प्रचुर प्रमाण मिलना संभावित है। पुरातात्विक, ऐतिहासिक और साहित्यिक साक्ष्य एकत्र कर सिद्धवरकूट के समग्र वैभव को ज्ञात करना गहन शोध का विषय है।
सिद्धवरकूट सिद्धत्व और साधना के सर्वोच्च शिखर पर आसीन है। मूर्ति एवं मंदिर
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शिल्प का तो यह मनोहर उदाहरण है ही आत्माराधना का श्रेष्ठ केन्द्र भी है। यहाँ पर्वत
की ऊँचाईयाँ, नदियों की प्रवाहशीलता, वायु की शीतलता, बाह्य प्रकृति का अर्न्तजगत् के साथ एकत्र स्थापित करती है।
सिद्धवरकूट के पौद्गलिक पर्यावरण का कण कण अध्यात्म की सुरभि से सुवासित है। यह सिद्धों की तपोभूमि रही है। यहाँ केवल रेवा और कावेरी का संगम ही नहीं अपितु सिद्धत्व और पावनत्व का संगम है। अध्यात्म और धर्म का संगम है। घण्टानाद एवं पूजन की स्वरलहरियों का संगम है। पुरातत्व और कला का संगम है। वैदिक एवं श्रमण संस्कृति का संगम है। प्राकृतिक ओंकारमय यह स्थली सिद्धत्व की पर्याय है। सत्यम् शिवम् और सुन्दरम् की मनोरम अभिव्यक्ति है।
सन्दर्भः
1. आ. जिनसेन आदिपुराण 4/8 2. वादीभसिंह सूरि -क्षत्रचूड़ामणि 6/4 3. सुहावना सिद्धवरकूट-राजेन्द्र जैन 'महावीर' पृ.12, 4. मध्यप्रदेश का जैन शिल्प, नरेश कुमार पाठक पृ.36 5. भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ भाग-3 -बलभद्र जैन, पृ.319-20 6. सुहावना सिद्धवरकूट -राजेन्द्र जैन महावीर पृ.10 से 14
अ) "संवत....11 ऐकन ऐकनपै वैसाष मासे शुक्ल पक्षे तिथौ 9 गुरूवासरे मूलसंघे गणे बलात्कार श्री कुन्दकुन्दचारचारीय आमनाय तत् उपदेसात् श्री हेमचन्द्र असारीय नग्र सीदपुर. हूबड़ ग्याति लगूसा साषा भवेरज गोत्र साहाजि दयचन्दजी भारीया सुरीबाई बीजा दीच वषप
नीटाकमीनी।" भारत के दि. जैन, पं बलभद्र जैन पृ.322 आ) भारतीय दिगम्बर जैन अभिलेख और तीर्थ पश्चिम मध्यप्रदेश: 13 वी शती तक डॉ. कस्तूरचन्द्र जैन सुमन पृ-47 प्रकाशक - दिगम्बर जैन साहित्य संस्कृति संरक्षण समिति
दिल्ली 8. सिद्धवरकूट कतिपय तथ्य, श्री सूरजमल बोबरा, का लेख अर्हत्वचन, पृ. 33-36,
वर्ष 19, अक 3 जु. सि. 2007 9. भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ भाग-3 -बलभद्र जैन पृ. 321
- 'मयंक', ई.एच.37 स्कीम नं.54, इन्दौर,
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आचार्य ज्ञानसागर के संस्कृत महाकाव्यों में अनेकान्तवाद
डा० चन्द्रमोहन शर्मा
अनेकान्तवाद सिद्धान्त जैनदर्शन की आधार शिला है। इस सिद्धान्त के बिना जैनदर्शन को समझ पाना कठिन है। यह सिद्धान्त सकल विश्व के मत-भेदों, संप्रदायों, वर्गो, जातियों के मध्य भेद की संकीर्ण दीवारों को तोड़कर उनमें सामंजस्य स्थापित करने में सक्षम है।
अनेकान्त शब्द 'अनेक और अन्त' इन दो शब्दों के सम्मेलन से बना है। अनेक का अर्थ होता है एक से अधिक, नाना तथा अन्त का अर्थ होता है धर्म। यद्यपि अन्त का अर्थ विनाश, छोर आदि भी होता है किन्तु वह यहाँ अभिप्रेत नहीं है। जैनदर्शन के अनुसार वस्तु परस्पर विरोधी अनेक गुण-धर्मों का पिण्ड है। वह सत् भी है असत् भी, एक भी है अनेक भी, नित्य भी है अनित्य भी। इस प्रकार परस्पर विरोधी धर्म युगल वस्तु में अन्तर्गर्भित है। उसका परिज्ञान हमें एकान्त दृष्टि से नहीं हो सकता, उसके लिए अनेकान्तात्मक दृष्टि चाहिए।
बीसवीं शताब्दी में शुष्क होती हुई संस्कृत काव्यधारा को पुनजीवित करने वाले महाकवि ज्ञानसागर जी के जयोदय, सुदर्शनोदय, वीरोदय ये तीन महाकाव्य त्रिरत्न के रूप में सुशोभित हैं उनके काव्यों में जैनदर्शन के अनेक सिद्धांतों के साथ ही अनेकान्तवाद का विस्तार से वर्णन हुआ है। आचार्य ज्ञानसागर जी के अनुसार वस्तु में रहने वाला विशेष धर्म भी दो प्रकार का है-व्यतिरेक रूप और पर्याय रूप। एक पदार्थ में जो असमानता या विलक्षणता पायी जाती है उसे व्यतिरेक कहते हैं और प्रत्येक द्रव्य प्रति समय जो नवीन रूप को धारण करता है उसे पर्याय कहते हैं। जैन धर्म वस्तु को नित्यानित्य मानता है। इसका वर्णन करते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी ने कहा है कि द्रव्य की अपेक्षा वस्तु नित्य है और पर्याय की अपेक्षा वह अनित्य है यदि वस्तु को सर्वथा नित्य कूटस्थ माना जाये तो उसमें अर्थ क्रिया नहीं बनती है और यदि सर्वथा कथञ्चित् नित्य कथञ्चित् अनित्य मानना पड़ता है अन्यथा लोक व्यवहार कैसे संभव होगा इसलिए लोकव्यवहार के संचालनार्थ हम पवित्र अनेकान्तवाद का ही आश्रय लेते हैं। इसी बात को जयोदय में दृष्टांत द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा गया है -हे आत्मभूप ! नित्यैकता का परिहार करने वाला मेघ है और मेघ से उत्पन्न हुआ शब्द क्षणस्थिति-अनित्यैकता का प्रतिबोध करने वाला है। प्रत्यभिज्ञान से नित्य और अनित्य की सिद्धि होती है अर्थात् जिसके विषय में यह ज्ञान हो
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 कि यह वही है जिसे पहले देखा गया था, वह नित्य है और जिसके विषय में यह वह नही है' इस प्रकार का बोध हो वह अनित्य है। मेघ अकस्मात् उत्पन्न होता है और अकस्मात् विलीन हो जाता है इससे पदार्थ की अनित्यता का बोध होता है और मेघ से उत्पन्न हुआ शब्द अनेक क्षण तक विद्यमान रहता है, इससे पदार्थ सर्वथा अनित्य नहीं है यह सिद्ध होता है। तात्पर्य यह है कि पदार्थ नित्यानित्यात्मक है, द्रव्य दृष्टि से नित्य, पर्याय दृष्टि से अनित्य है।
वस्तु की एकानेकात्मकता का वर्णन करते हुए आचार्य ज्ञानसागर ने कहा है-सत् सर्वथा एक नहीं है क्योंकि वह अनेक गुणों का संग्रह रूप है। घृत, शक्कर और आटा आदि मिलाकर लड्डू बनाया जाता है अत: वह देखने में एक प्रतीत होता है, परन्तु जिन पदार्थो के संग्रह से बना है, उनकी ओर दृष्टि देने से वह अनेक रूप हो जाता है परन्तु जीवादि द्रव्य रूप सत् अनेक गुणों के संग्रह रूप होने से लड्डू की तरह अनेकरूपता को प्राप्त नहीं होता क्योंकि घृत, शर्करा आदि पदार्थ अपना पृथक्-पृथक् अस्तित्व लिए लड्डू में संग्रहीत होकर एक रूप दिखते हैं। इस प्रकार जीवादि द्रव्यों में रहने वाले ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदिगुण अपनी पृथक् सत्ता नहीं रखते और न कभी जीवादि द्रव्यों से पृथक् थे। इसलिए सत् में जो अनेकत्व है वह उसमें अनेक गुणों के साथ तादात्म्य होने से हैं, संग्रहरूप होने से नहीं। अनेक गुणों की ओर दृष्टि देने से जीवादि सत् अनेक रूप जान पड़ते हैं परन्तु उन सबमें प्रदेश भेद न होने से परमार्थ से एकरूपता है। इसी को और स्पष्ट करते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी कहते हैं कि जिसे 'सेना' इस एक नाम से कहते हैं उसमें अनेक हाथी, घोड़े और पयादे होते हैं। जिसे 'वन' इस एक नाम से कहते हैं उसमें नाना जाति के वृक्ष पाये जाते हैं, एक स्त्री वाची दार शब्द को एक स्त्री के रहने पर भी 'दाराः' इस बहुवचन से जल को 'आपः' इस बहुवचन में कहते हैं उसी प्रकार सत् भी एक होकर भी अनेक रूपता को प्राप्त होता है। वैयाकरणों ने जिस प्रकार "रामश्च रामश्च रामश्चेति रामाः" इस एकशेष द्वन्द्व समास में अनेक राम शब्दों को एक राम शब्द में समाविष्ट कर अनेक में एकत्व को प्रकट किया है उसी प्रकार पर्यायगत अनेक रूपता को गौण कर द्रव्यों में भी आचार्यों ने एकरूपता स्वीकृत की है। तात्पर्य यह है कि सत् एक भी है और अनेक भी। अर्थात् एक ही वस्तु में एकत्व व अनेकत्व की प्रतीति होती है। इसलिए उक्त व्यवहार को देखते हुए अनेकान्त तत्त्व को स्वीकार करना ही चाहिए।
वस्तु की भेदाभेदात्मकता का वर्णन करते हुए महाकवि ज्ञानसागर जी ने लिखा है कि हे अर्हन् ! आपके द्वारा कथित पदार्थ को जब मैं पूर्ण रूप से ग्रहण करना चाहता हूँ तब पत्नी को पुत्र के समान कह नहीं सकता हूँ। तात्पर्य यह है कि पुरुष की पत्नी को उसका पुत्र माता कहता है और पति पत्नी कहता है, उसे सर्वथा न माता रूप कहा जा सकता है और न पत्नी रूप, क्योंकि उसमें माता और पत्नी का व्यवहार पुत्र और पति की अपेक्षा से है इसी तरह किसी वस्तु को भेद और अभेद दोनों रूप कहा जाता है। प्रदेशभेद न होने के कारण वस्तु अपने गुण से अभेदरूप है और संज्ञा लक्षण आदि की अपेक्षा भेद रूप है। दो रूप वस्तु को एकान्तरूप से एकरूप कहना तलवार से आकाश को खण्डित करने के
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 समान अशक्य है। इसी को और स्पष्ट करते हुए महाकवि ज्ञानसागर जी कहते हैं किहे प्रभो ! अवयव और अवयवी में ऐक्य अभेद नहीं है पृथक्ता ही है, ऐसा कहना ठीक नहीं जान पड़ता परन्तु आपका अभेद कथन शतपत्र के समान सत्य है जैसे कि सौ पत्रों (कलिकाओं) का समूह शतपत्र अर्थात् कमल कहलाता है। यहाँ सौ पत्रों व कमल में भेद नही है- अभेद है क्योंकि एक-एक पत्र के पृथक् करने पर शतपत्र कमल ही नष्ट हो जाता है यही बात गुण और गुणी में भी है। प्रदेश भेद न होने से गुण-गुणी के साथ समवाय संबन्ध को प्राप्त होता है उनके मत में समवाय के एक होने के कारण संकर, अनवस्थिति तथा प्रतिज्ञाहानि रूप दोष आते हैं।' बौद्ध केवल अभाव को तत्त्व मानते हैं वे अभाववादी है लेकिन जैन दर्शन वस्तु के भाव-अभाव दोनों रूपों को मानता है। वस्तु के भावाभावात्मकता का वर्णन करते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी लिखते हैं कि यदि अन्योन्याभाव के माध्यम से घट में पट का अभाव न माना जाये तो पट के इच्छुक मनुष्य की घट में प्रवृत्ति होनी चाहिए, पर नहीं होती, इससे जान पड़ता है कि घट में पट नहीं है और पट में घट नहीं है। एक पर्याय का दूसरे पर्याय में होना अन्योन्याभाव कहलाता है। एक द्रव्य का दूसरा द्रव्य रूप न होना अत्यन्ताभाव कहलाता है। कार्यो त्पत्ति के पूर्व पर्याय में कार्य का अभाव होना, प्रागभाव कहलाता है और वर्तमान पर्याय के नष्ट होने को प्रध्वंसाभाव कहते हैं। उपर्युक्त चारों अभावों को जिनागम में स्वीकृत किया गया है इसीलिए पदार्थ भाव-अभाव दोनों रूप है।
जैन दर्शन वस्तु को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त मानता है वस्तु की उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मकता का वर्णन करते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी ने कहा है- कि प्रत्येक वस्तु प्रतिसमय अपने पूर्व रूप (अवस्था) को छोड़कर अपूर्व (नवीन) रूप को धारण करती है फिर भी वह अपने मूल रूप को नहीं छोड़ती, ऐसा ज्ञानी जनों ने कहा है, सो हे सज्जनों ! आप लोग भी वस्तु की यह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकता त्रिरूपता एक-एक काल में ही अनुभव कर रहे हैं। जो वस्तु स्वरूप से अनभिज्ञ है, ऐसे बाल (मूर्ख) जन ही इसके विपरीत स्वरूप वाली वस्तु को कहते हैं अर्थात् जो केवल उत्पाद या व्यय या ध्रौव्य रूप ही वस्तु को मानते हैं वे अज्ञानी हैं। इसे विभिन्न उदाहरण देकर स्पष्ट करते हुए महाकवि कहते हैं कि दूध के सेवन से आमशक्ति बढ़ती है, उसी दूध से बने दही का प्रयोग आमशक्ति को नष्ट करता है किन्तु उस दूध व दही दोनों में गोरसपना पाया जाता है। अत: समस्त वस्तुजाति उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप है। जीर्णज्वर वाले पुरुष ही दूध में, अतिसार वाले पुरूष की दही में और रोग-रहित भूखे मनुष्य की दोनों में रुचि का होना उचित ही है किन्तु उपवास करने वाले पुरुष की उन दोनों में किसी पर भी रुचि उचित नहीं मानी जा सकती। एक अन्य उदाहरण से इस स्पष्ट करते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी लिखते हैं
काष्ठं यदादाय सदा क्षिणोति हलं तटस्थो रथकृत करोति।
कृष्टा सुखी सारथिरेव रौति नैकस्त्रिधा तत्त्वमुरीकरोति॥2 अर्थात् कोई बढ़ई लकड़ी लेकर सदा छीलता है, छीलता हुआ यदि वह स्वेच्छा से
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हल बना देता है तो किसान सुखी हो जाता है और रथ का इच्छुक सारथि दु:खी हो जाता है और बढ़ई तटस्थ रहता है अर्थात् हर्ष-विषाद कुछ भी नहीं करता क्योंकि वह आजीविका की दृष्टि से काष्ठ को छील ही रहा था। यह देखकर ऐसा कौन बुद्धिमान् है जो वस्तु को उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य रूप स्वीकृत न करे। इन उदाहरणों से सिद्ध होता है कि वस्तु त्रयात्मक- उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। ___ अद्वैतवादी मान्यता का विरोध करते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी लिखते हैं कि यदि एक अद्वैतवाद को ही स्वीकृत किया जाये तो वह परिणाम-परिवर्तन से रहित होगा। परिणाम का कारण स्वीकृत किये बिना स्वयं परिणाम हो नहीं सकता और परिणाम का कारण स्वीकृत किया जावे तो अद्वैतवाद समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार यदि यह माना जाये कि संसार में सब पदार्थ पहले से ही विद्यमान है, अदृष्टवस्तु कुछ भी नहीं, तो यह मान्यता भी प्रत्यक्ष दिखने वाली विचित्रता का विरोध करने वाली है नित्य नयी-नयी वस्तुएं उत्पन्न होती है, इसका विरोध होगा। परिणाम नवीन विचित्र वस्तुओं की उत्पत्ति का कारण माना जाय तो अद्वैतवादी मान्यता में विरुद्धता रूप नदी के प्रवाह में पुल क्या होगा? विरुद्धता का परिहार कौन करेगा?
वस्तुतः अनेकान्त पूर्णदर्शी है और एकान्त अपूर्णदर्शी, जो एकान्तवाद में विश्वास करने वाले हैं तथा दूसरों के सत्यांश स्वीकार नही करते वे तत्वरूपी नवनीत को प्राप्त नहीं कर सकते। हम एकान्त दृष्टि से वस्तु के एक अंश को ही जान सकते हैं। सत्यांश कभी भी पूर्ण सत्य नहीं हो सकता वस्तु के विभिन्न दृष्टिकोणों पर विचार करने पर ही अच्छे ढंग से समझाने के लिए जैन ग्रंथों में एक हाथी वाला दृष्टांत प्रचलित है जो इस प्रकार है -
किसी गाँव में पहली बार एक हाथी आया। गाँव के लोगों ने उससे पूर्व हाथी नहीं देखा था। उस गाँव में पाँच अन्धे व्यक्ति रहते थे। हाथी के आने का समाचार सुनकर वे भी उसके पास पहुंचे। अन्धे होने के कारण वे हाथी को देख नहीं सकते थे। अतः हाथी को छू-छूकर देखा। हाथी को छूने पर सभी को अलग-अलग अनुभव हुआ। उनमें से एक ने पूंछ को छूआ तो कहने लगा कि 'हाथी रस्सी जैसा है', दूसरे ने सूण्ड को छुआ और कहा- 'यह तो कोई झूलने वाली वस्तु की आकृति का प्राणी है', तीसरे ने पैर को छुआ और कहा "हाथी तो खम्भे जैसी आकृति का प्राणी है-, चौथे ने हाथी के पेट को छुआ और कहा 'हाथी तो दीवार की तरह है', पाँचवे ने उसके कान को छुआ तो कहा 'हाथी तो सूप (छाज) की आकृति वाला प्राणी है'। इस प्रकार उन पाँचों ने अलग- अलग अनुभवों के आधार पर उस हाथी के संदर्भ में अलग- अलग निष्कर्ष निकाला। पाँचों ने हाथी को अंशों में जाना था। परिणामतः पाँचों हाथी के स्वरूप को लेकर परस्पर झगड़ने लगे। सब अपनी अपनी बात पर अड़े थे। इसी बीच एक आँखों वाला समझदार व्यक्ति वहाँ आया वह उनके विवाद का कारण समझकर बोला- भाईयों ! झगड़ते क्यों हो? तुम सब अज्ञानी हो, तुममें से किसी ने हाथी को पूर्ण नहीं जाना। हाथी के केवल एक अंश को जानकर उसी को पूर्ण हाथी समझ बैठे हो, जो तुम्हारे विवाद का कारण है। मैं तुम्हें
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 हाथी का पूर्ण स्वरूप बताता हूँ ध्यान से सुनो-कान, सुण्ड, पैर, पेट और पूँछ आदि सभी अवयवों को मिलाने पर हाथी पूर्ण रूप होता है। कान पकड़ने वाले ने समझ लिया कि हाथी इतना ही और ऐसा ही है सूण्ड, पैर, पेट आदि पकड़ने वालों ने भी ऐसा ही समझा है। लेकिन तुम सब कूपमण्डूक के समान हो। कुएँ का मेंढक भी संसार को कुँए के समान समझता है। हाथी का स्वरूप भी केवल कान, पैर आदि ही नहीं है किन्तु कान, पैर सूड आदि अवयवों को मिला देने पर ही हाथी पूर्ण रूप बनता है । अन्ध अच्छी तरह समझ में आ गयी और अपनी एकान्त दृष्टि पर पश्चाताप हुआ और हाथी के स्वरूप का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर संतोष को प्राप्त हुए। आज पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एकान्त व संकीर्ण दृष्टि के कारण वाद-विवाद, क्लेश आदि की वृद्धि हो रही है क्योंकि एकान्तवादी व्यक्ति केवल अपनी ही बात पर आग्रह करता है जबकि अनेकान्तवादी अपनी बात के साथ दूसरों की बात भी सही है, इस नीति को अपनाता है। यदि संसार इस अनेकान्तवादी नीति को अपना ले तो सारे झगड़े ही समाप्त हो जायें ।
सन्दर्भ
1. जैनधर्म और दर्शन, मुनि प्रमाणसागर, पृ. 307
2. वीरोदय, 19/20-21
3. जयोदय,
26/79
4. जयोदय, 26/84
5. वीरोदय, 19/23, जयोदय, 26/85
6. जयोदय, 26/78
7. जयोदय, 26/81-82
8. वही, 26/87
9. वीरोदय, 19/2
10. वीरोदय, 19/3
11. सुदर्शनोदय, सर्ग 6/ दैशिक सौराष्ट्रयोराग:, तीसरा गीत, पृ. 91
12. जयोदय, 26/90
13. वही, 26/86
जे. एल. एन. इण्टर कॉलेज
रखापुरी, सठेड़ी, मुजफ्फरनगर
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'दश धर्म'
-डॉ. बसन्त लाल जैन
आचार्य उमास्वामी ने उत्तम क्षमादि दश धर्म को संवर का हेतु मानते हुए लिखा है कि - ___ 'उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्म:।' अर्थात् उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तमशौच, उत्तमसत्य, उत्तमसंयम, उत्तमतप, उत्तमत्याग, उत्तमआकिंचन्य और उत्तमब्रह्मचर्य- ये दशधर्म संवर के हेतु हैं। दश धर्मों को संवर के हेतु का कथन समितियों में प्रवृत्ति करने वाले के प्रमाद का परिहार करने के लिए किया गया है। ___ संवर पूर्वक होने वाली निर्जरा ही मोक्ष का कारण है। सभी जीवों को संवर एक समान नहीं होता है। जो आत्मा जितना विशुद्ध होता है, वह उतना अधिक संवर का अधिकारी होता है। इसलिए हमें अपनी आत्मा को विशुद्ध करने के लिए उत्तम क्षमादि भाव को धारण करना चाहिए। ये उत्तम भावों को दर्शाने वाले क्षमादि दश धर्म आत्मा के भावनात्मक परिवर्तन से उत्पन्न विशुद्ध परिणाम हैं, जो आत्मा को अशुभ कर्मो के बंध से रोकने के कारण संवर हेतु हैं।
1. उत्तम क्षमा धर्म - उत्तम क्षमा आत्मा का निजी गुण है। जिस प्रकार अग्नि में उष्णत्व, जल में शीतलत्व गुण है, वैसे ही आत्मा में क्षमा गुण है। इसे आत्मा का स्वभाव भी कहते हैं। गुण और गुणी में जो संबन्ध है वही संबन्ध क्षमा और आत्मा का है। गुण को छोड़कर गुणी तथा गुणी को छोड़कर गुण कभी अकेले नहीं रहते। इन दोनों का परस्पर में तादात्य संबन्ध है। पर कर्मो के निमित्त से आत्मा में विभाव रूप परिणति होती है। जिससे क्रोध भाव उत्पन्न होता है। जिसके कारण कर्मो का बंध होता है। क्रोधोत्पत्ति के साक्षात् बाह्य कारण मिलने पर भी अल्प मात्र भी क्रोध न करना, न वैसे परिणाम लाना उत्तमक्षमा है। क्षमा-तितिक्षा, सहिष्णुता और क्रोध निग्रह - ये शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। क्षमाभाव धारण की विधि यह है कि- क्रोध उत्पन्न होने के जो कारण हैं, उनके सद्भाव और अभाव - दोनों का अपने में चिन्तन करना चाहिए। क्योंकि उन कारणों के अस्तित्व या नास्तित्व का बोध हो जाने से इस धर्म क्षमा भाव की सिद्धि हो सकती है।
आचार्य पूज्यपाद स्वामी क्षमा भाव का स्वरूप निरूपण करते हुए लिखते हैं कि "शरीर स्थिति हेतु मार्गणार्थ परकुलान्युपगच्छतो भिक्षोर्दुष्टजना क्रोशप्रहसनावज्ञा ताडनशरीरव्यापादनादीनां सन्निधाने कालुष्यानुत्पत्तिः क्षमा
अर्थात् शरीर की स्थिति हेतु आहार के लिए निकले हुए साधु परघरों में जा रहे हैं
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अनेकान्त 62/3, जुलाई सितम्बर 2009 उस समय नग्न देखकर दुष्ट जन उन्हें गाली देते हैं, उपहास करते हैं, तिरस्कार करते हैं, मारते-पीटते हैं, और शरीर को पीड़ित करते है तो भी उस किसी प्रसंग में अपने परिणामों मे कलुषता की उत्पत्ति न होना क्षमा है।
सम्यकदृष्टि के द्वारा की गई क्षमा ही वास्तव में उत्तमक्षमा है। वह भय, आशा, स्नेह व लोभ के कारण क्षमावान् नहीं है वह तो वस्तु तत्त्व का यथार्थ वेत्ता है। यद्यपि उदय की तीव्रता के कारण क्रोध का भाव आता है किन्तु सम्यग्ज्ञान के बल से वह उसका ज्ञाता ही रहता है, कर्त्ता नहीं।
इस क्षमा गुण के बिना पूजा, व्रत, तप आदि दान सभी व्यर्थ रूप से फलित होते हैं। तथा क्रोध के कारण सभी गुण मिट्टी में मिल जाते हैं। जैसे द्वीपायन मुनि के क्रोध के निमित्त से ही द्वारिका नगरी मुनि सहित भस्म हो गयी थी।
ज्ञानी पुरुषों का आभूषण क्षमाभाव है, इसलिए कहा भी गया है.
"नरस्याभरणं रूपं, रूपस्याभरणं गुणाः ।
गुणस्याभरणं ज्ञानं ज्ञानस्याभरणं क्षमा।"
अर्थात् मनुष्य का आभरण रूप है, रूप का आभरण गुण है, गुण का आभरण ज्ञान है और ज्ञान का आभरण क्षमा है। अतः क्षमा सर्वश्रेष्ठ गुण / धर्म है।
मुनि संघ अपने प्रतिक्रमण एवं सामायिक पाठ में निगोदिया जीव से लेकर पंचेन्द्रिय जीव तक सभी से क्षमा भाव माँगते हुए कहते हैं कि
"खम्मामि सव्वजीवानं सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती में सव्वभूएषु, वैरं मज्झं ण केण वि ॥"
अर्थात् सभी जीव मेरे को क्षमा करें, और मैं भी सभी जीवों को क्षमा करता हूँ, मेरा सभी जीवों के प्रति मैत्रीभाव है, किसी जीव से मेरा वैर भाव नहीं है।
उत्तमक्षमा से युक्त मनुष्य, देव और विद्याधरों से नमस्कृत ऐसा अगणित उत्तम ऋषियों ने अविनश्वर केवलज्ञान को प्राप्त कर भव दुःख भंजन करके सिद्ध - निरजंनपद को प्राप्त कर लिया है।
2. उत्तम मार्दव धर्म - यह गुण / धर्म कषाय के अभाव में प्रकट होता है। 'मृदोर्भावः मार्दवम्' अर्थात् मृदुया नम्र भावों का होना मार्दव धर्म है अथवा अत्यन्त कोमल परिणाम को मार्दव कहा जाता है। " मृदोर्भावो मार्दवं जात्यादिमदावेशादभिमानाभावः । अर्थात् जाति, कुल, रूप, ज्ञान, तप, वैभव, प्रभुत्व, ऐश्वर्य संबन्धी अभिमान या मद का अभाव तथा मृदुभावों का सद्भाव ही मार्दव गुण है। मान कषाय को जीतना उत्तम मार्दव कहलाता है। उत्तम ज्ञान और तपश्चरण में प्रधान तथा समर्थ होने पर भी अपनी आत्मा को मान कषाय से मलिन न होने देना उत्तम मार्दव कहलाता है। 7
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यह मार्दव गुण जाति, कुल, बलादि आठ प्रकार के मद से रहित है और चार प्रकार की विनय से संयुक्त है। यह विनय ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार की अपेक्षा चार प्रकार का है। ज्ञान विनय के शब्दशुद्धि अर्थशुद्धि, उभय शुद्धि, काल शुद्धि, विनय उपधान, बहुमान और अनिन्हव- ये आठ भेद हैं। इनका पालन करना और ज्ञानी पुरुष की विनय करना ज्ञानविनय गुण कहलाता है। दर्शन के निःशंकित आदि आठ अंगों का पालन करना और दर्शनधारी की विनय करना दर्शन विनय गुण है चारित्र के अतिचारों को दूर कर चारित्रधारी की विनय करना तथा गुरु की प्रत्यक्ष - परोक्ष में मन-वचन-काय से विनय करना चारित्र विनय गुण है। गुरुओं की वैयावृत्ति करना, उनके अनुकूल प्रवृत्ति करना उपचार विनय गुण है। यह विनय कायिक, वाचिक और हृदय से की जाती है ।" 'मार्दव' शब्द के साथ उत्तम लगा हुआ है जो सम्यक्त्व का द्योतक है। अर्थात् सम्यक्त्व स कोमल परिणामों का होना उत्तम मार्दव है। यह धर्म मान का मर्दन करने वाला विमल धर्म है, जो सभी जीवों का हितकारक है। मार्दव गुण के धारण करने से आत्म- परिणाम निर्मल होता है।
3. उत्तम आर्जव धर्म मन, वचन और काय से कपटपूर्ण भावों का सर्वथा अभाव तथा सरल भावों का सद्भाव आर्जव धर्म कहलाता है। यथा -
'ऋजोर्भावः आर्जवं मनोवाक्कायानामवक्रता ।"
अर्थात् कुटिल एवं मायाचारी युक्त योग परिणामों से रहित होकर शुद्ध हृदय से चारित्र का पालन करना आर्जव धर्म है।" भाव या परिणामों की विशुद्वि तथा विसंवाद रहित प्रवृत्ति को भी आर्जव धर्म कहा जाता है।
-
भावविशुद्धिरविसंवादनं चार्जवलक्षणम्'
मन, वचन और काय की क्रिया में एकरूपता लाना आर्जव है। जो भाव या विचार ह्रदय से परिणति करता है, अर्थात् काय से भी तदनुसार ही कार्य किया जाता है, तो यह आर्जव धर्म कहलाता है। इसके विपरीत दूसरे को धोखा देना, अधर्म है, जिसके कारण मनुष्य नरकगति का बंध करता है। 2 उत्तम आर्जव धर्म में उत्तम विशेषण है अर्थात् जिन भावों में किचितमात्र भी छल कपट, मायाचारी आदि विभाव न हो वही भाव आर्जव भाव-गुण होता है। यह भाव आत्मा का गुण है।
आर्जव धर्म मन को स्थिर करने वाला धर्म है, पाप को नष्ट करके सुख का उत्पादक है। इसलिए इस भव में इस आर्जव धर्म को आचरण में लाना चाहिए- उसी का पालन करना चाहिए उसी का श्रवण करना चाहिए क्योंकि यह धर्म भव का क्षय करने वाला है।
4. उत्तम शौच धर्म- 'शुचेर्भाव: शौचम्' अर्थात भावों का शुद्ध होना ही शौच धर्म है। "लघोर्भावो लाघवं अनतिचारत्वं शौचं प्रकर्षप्राप्तलोभनिवृत्तिः " अर्थात् आत्म परिणामों की मलिनता दूरकर अतिचार रहित अवस्था का नाम लाघव - शौच धर्म है। लोभ की पूर्णत:
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 निवृत्ति तथा संतोष के भाव को शौच कहते हैं। 'प्रकर्षप्राप्तलोभान्निवृत्तिः शौचम्" अर्थात् प्रकर्षता को प्राप्त ऐसे लोभ का अभाव करना शौच धर्म है। चित्त जो परस्त्री और परध न की अभिलाषा न करता हुआ षट्काय जीवों की हिंसा से रहित हो जाता है, उसे ही दुर्भेद्य अभ्यन्तर कलुषता को दूर करने वाला उत्तम शौच धर्म कहा जाता है।'
उत्तम शौच धर्म में उत्तम विशेषण है जो किंचित् मात्र भी जिसके अन्दर मलिनता नहीं है, ऐसे साधु ही इसे पूर्ण रूप से पालन करते हैं। यह धर्म आत्मा का स्वभाव है। लोभादि का अभाव होना ही शौच है। भावों की शुद्धता के बिना व्रत, जप, तप आदि सभी निरर्थक माने जाते हैं। जो समभाव और संतोष रूपी जल से तृष्णा और लोभरूपी मल के समूह को धोता है तथा भोजन में गृद्धता नहीं रखता उसके निर्मल शौच होता है। शुद्धि मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है- बाह्य और आभ्यंतर। जल आदि से बाह्य शरीर आदि के मल का नाश होता है और लोभ कषाय आदि के त्याग से अन्तरंग-पवित्रता होती है। इष्ट वस्तुओं में राग का न होना और अनिष्ट वस्तुओं में द्वेष का न होना शौचधर्म है। इस संसार में प्राणी इस लोभ कषाय के काण ही दुःख उठाते हैं। जिसने इस लोभ कषाय को जीत लिया है वही उत्तम शौच धर्म का धारी है।
5. उत्तम सत्य धर्म - वस्तु का यथार्थ ज्ञान होना और उसको अपने आत्मा में अवधारण करना उत्तम सत्य धर्म है। सत्य धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण है। दूसरों के मन में संताप उत्पन्न करने वाले निष्ठुर कर्कश कठोर वचनों का त्याग करके सबके हितकारी प्रिय वचन बोलना, सत्य धर्म है। पर संतापकारी वचन न बोलना, निन्दा कलह आदि से पूर्ण भाषण से निवृत्त होना सत्य धर्म है। आगमों के कहे हुए आचार को पालन करने में असमर्थ होते हुए भी जो जिन वचन का ही कथन करता है, उसके विपरीत कथन नहीं करता तथा जो व्यवहार में झूठ नहीं बोलता है, वह सत्यवादी है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने कहा है कि- 'सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधुवचनं सत् मित्युच्यते।।' अर्थात् सत्-प्रशस्तजनों में अच्छे वचन बोलना सत्य है। सत् अर्थात् समीचीन और प्रशस्त वचन सत्य कहलाते हैं। सत् स्वभावी आत्मा में जो शांति-स्वरूप वीतराग परिणति उत्पन्न होती है उसे ही उत्तम सत्य की संज्ञा दी जाती है। इसी सत्य धर्म का प्रतिपादक वचन सत्य वचन है जब तक यह आत्मा अपने निज स्वरूप का सच्चा स्वरूप नहीं समझेगा और उसे यथावत् अवधारण नहीं करेगा तब तक सत्य धर्म प्रकट नहीं होगा।
पदार्थ की सत्ता को स्वीकार करना ही सच्चा ज्ञान है और उसको यथार्थ जानकर उसको अपने अनुभव में लाना सच्चा चारित्र है। इस सच्चरित्र का राग द्वेष रहित शुद्ध अनुभव वीतरागता है और यही उत्तम सत्य धर्म है। दूसरे शब्दों में आत्मा का सत् स्वरूप का पहचानना सम्यग्ज्ञान है उसको वैसा ही मानना सच्ची श्रद्धा है इसी का यथार्थ कथन करना सत्य वचन है। इस प्रकार के श्रद्धावान् ज्ञान के द्वारा वीतराग भावों को प्रकट होना सत्य-धर्म है। यथार्थ जानना, यथार्थ मानना और उसी में रम जाना उत्तम सत्य धर्म है। इसका कथन करना सत्य वचन है। ये ही जिन-वचन है। इनका कहना ही सत्य वचन है।
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इस सत्य धर्म से मनुष्य शोभित होता है, सत्य से ही पुण्यकर्म बंधता है, सत्य से संपूर्ण गुणों का समूह महानता को प्राप्त हो जाता है और सत्य से ही देवगण सेवा करते हैं।
6. उत्तम संयम धर्म - संयम का अर्थ है- जीवों की रक्षा करना। 'समितिषु वर्तमानस्य प्राणींद्रियपरिहारस्संयमः। 20 अर्थात् समिति में प्रवृत्त हुए मुनि जो प्राणी हिंसा और इन्द्रिय विषयों का परिहार करते हैं सो संयम है। धर्मवृद्धि के लिए समिति-पालन में तत्पर श्रमण द्वारा प्राणी रक्षा, इन्द्रिय और कषायों का निग्रह करना संयम है।। पंच महाव्रतों का पालन, पाँच समितियों का पालन, कषाय-निग्रह, मन-वचन-काय इन तीन दण्डों का त्याग
और पंचेन्द्रिय विषयों पर विजय का नाम संयम है। जो मुनि जीवों की रक्षा करने में तत्पर है, गमनागमन करते में तृण मात्र का भी छेद नहीं करना चाहते हैं, उस साधु को संयम धर्म होता है। सम्यक्त्व से युक्त भाव लिंगी मुनि को ही यह उत्तम संयम होता है। संयम धारण करने के कारण ही मुनि को संयमी कहा जाता है। संयत मुनियों में प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम की अपेक्षा दो भेद हैं। पाँच स्थावर और त्रस ऐसे षट्काय जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है और पाँच इन्द्रिय तथा मन का जय करना इन्द्रिय संयम है। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण और मन को वश में करना तथा पृथ्वी कायिक, जलकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक ओर त्रसकायिक जीवों की रक्षा संयम है। जो ईर्या, भाषा, एषणा आदान-निक्षेपण ओर प्रतिष्ठापना- इन पाँचों समितियों को पालता है वह संयमी है।
___यद्यपि मुनि का व्यावहारिक जीवन तो पूर्णतया संयममय ही होता है किन्तु यदि अन्तरंग में वीतरागता का भाव नहीं है और कषायों का निग्रह नहीं हुआ तो बाह्य संयम उत्तम संयम नहीं कहलावेगा। उत्तम संयम के लिए तो साधु को अपने जीवन में कषायों का निग्रह करना तथा वीतराग धर्म को अपने जीवन में उतारना होगा। व्यवहार संयम का पालन तो केवल संयम ही कहलावेगा, उत्तम संयम नहीं। सम्यक्त्व सहित पाँचों समितियों का पालन, आठों शुद्धियों का संरक्षण, राग-द्वेष घटाकर वीतरागता की अभिवृद्धि ही उत्तम संयम है। संयम का प्रकरण केवल मुनियों के लिए ही नहीं समझना चाहिए बल्कि संयम की साधना व्यक्ति का पुनीत कर्तव्य है।
7. उत्तम तप धर्म - 'कर्मक्षयार्थ तप्यते इति तप: अर्थात् कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है, वह तप है। कर्मक्षय के लिए शरीर और इन्द्रियों को तप्त करना तप है। रागादि समस्त परभाव तथा इच्छाओं के त्याग से स्व-स्वरूप में प्रतपन-विजयन करना तप है। वस्तुतः तप करना मनुष्य गति में ही संभव है, क्योंकि नरक, व देवलोक में औदारिक शरीर का उदय तथा पाँच महाव्रत नहीं होते। त्रिर्यचों में भी महाव्रत आदि का पालन संभव नहीं है। अत: वीतरागता की सिद्धि के लिए धीर-वीर साधुओं को तप का नित्य संचय करना चाहिए।
यह तप अनशन, उनोद आदि के भेद से बारह प्रकार का है। चार प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन तप है। भूख से कम खाना उनोदरतप है। भिक्षा के इच्छुक मुनि का एक घर या दो घर आदि का संकल्प करना वृत्ति-परिसंख्यान तप है। आशा की निवृत्ति
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इसका फल है। इन्द्रियों के दर्प का निग्रह करने के लिए निद्रा पर विजय पाने के लिए तथा सुखपूर्वक स्वाध्याय करने के लिए गरिष्ठ रसों का त्याग- रसपरित्याग नाम का चौथा तप है। एकान्त में जन्तुओं की पीड़ा से रहित, शून्य स्थान में तथा निर्बाध ब्रह्मचर्य पालन के लिए शयनासन करना- विविक्तशयनासन तप है। आतापन योग, प्रतिमास्थान, वृक्षमूल में निवास इत्यादि काय- क्लेश करना छठा कायक्लेश तप है। प्रमाद जन्य दोषों के परिहार के लिए प्रायश्चित करना, प्रायाश्चित तप है। पूज्य गुरुओं के आदर-सत्कार को विनय तप कहा जाता है। शरीर की थकान या शारीरिक पीड़ा के निवारण के लिए वैयावृत्ति करना वैयावृत्य तप है। आलस्य को छोड़कर ज्ञानार्जन करना स्वाध्याय तप है। अहंकार और ममकार का त्यागकर शरीर से ममत्व छुड़ाने को व्युत्सर्ग तप कहते हैं। चित्तवृत्ति का एकाग्र होना और उसके विक्षेप का त्याग करना ध्यान तप है। - इस प्रकार ये बारह तप साधु के लिए उपादेय है। यदि ये तप सम्यग्दर्शन के साथ किये जाते हैं तो उत्तम तप श्रेणी में आ जाते हैं।
8. उत्तम त्याग धर्म - आचार्य पूज्यपाद स्वामी जी लिखते हैं कि:- "संयतस्य योग्य ज्ञानादिदानं त्यागः।" अर्थात् संयत के योग्य ज्ञान आदि का दान करना त्याग है। निग्रंथ मुनि के लिए ज्ञानोपकरण शास्त्रादि, संयमोपकरण- पिच्छी और शौचोपकरण -कमण्डलु आदि का दान करना त्याग है। जो श्रमण मिष्ट भोजन राग द्वेष उत्पन्न करने वाले उपकरण तथा ममत्वोत्पादक वसतिका को छोड़ देता है उसे त्याग धर्म होता है। श्रमण योग्य ज्ञानादि का दान करना त्याग धर्म है। सदाचारी पुरुष द्वारा मुनि को प्रीतिपूर्वक आगम का व्याख्यान करना, शास्त्र देना, संयम पालन में साधनभूत पिच्छी-कमण्डलु आदि देना भी त्याग धर्म है। रत्नत्रय का दान देना प्रासुक त्याग कहलाता है। आचार्यों ने ज्ञान दान को त्याग धर्म माना है। यद्यपि ज्ञान दान की वस्तु नहीं है फिर भी इसको दान करने के लिए कहा है क्योंकि ज्ञान-दान करने से स्वयं का ज्ञान रूपी मद का त्याग हो जाता है और शिष्य को आत्म बोध भी हो जाता है। यदि ज्ञान का दान न दिया जाय तो गुरु की मानकषाय बढ़ जायेगी और शिष्य आत्म ज्ञान से वंचित रह जायेगा। वास्तव में त्याग और दान में अन्तर है, क्योंकि दान पर-वस्तुओं का होता है किन्तु त्याग स्वयं की वस्तु का होता है। मोह राग, द्वेष जो अनादि काल से भरा हुआ है, उसका त्याग करना वास्तव में त्याग है, जो वस्तु पराई है, उसका त्याग क्या होगा? वह तो पहले से ही त्यक्त है। औषधि, शास्त्र, अभय
और आहार दान करने के लिए धन की आवश्यकता होती है बिना धन के चारों दान संभव नहीं है। अर्थात् जितने भी दान देने योग्य कार्य है।, वे सब धन से ही संबन्ध रखते हैं, फिर भी इन चारों दान को त्याग क्यों कहा जाता है ? जब धन परवस्तु है तब उसका त्याग कैसे संभव है ? पर-वस्तु में त्याग और ग्रहण कैसे संभव है ? इसका उत्तर यह है कि धन-पर वस्तु के प्रति आसक्ति भाव का त्याग करके दान किया जाता है तब वह त्याग कहलाता है। जब धन में राग-भाव नहीं होगा तो धन के माध्यम से किया गया दान त्याग कहलाता है। वास्तव में वस्तु के प्रति राग-भाव का त्याग ही सच्चा त्याग है। यदि आहारादि देने से मान, माय, लोभ-कषाय का त्याग होता है तभी वह दान सार्थक होता है। जब हम
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क्रोधादि विकारी भावों का त्याग तथा विपरीत मान्यता स्वरूप मिथ्यात्व का त्याग करते हैं तभी वह त्याग, त्याग धर्म माना जायेगा। यदि यही त्याग सम्यक्त्व से जुड़ जाता है तो वह उत्तम त्याग कहलाता है।
9. उत्तम आकिंचन्य धर्म - आकिंचन्य धर्म की भावना यह है कि यह आत्मा शरीर से भिन्न है, ज्ञानमयी है, उपमा रहित है, वर्ण रहित है, सुख संपन्न है, परम उत्कृष्ट है, अतीन्द्रिय है, भय रहित है, इत्यादि प्रकार से आत्मा का ध्यान करना आकिंचन्य है।
"उपात्तेष्वपि शरीरादिषु संस्कारापोहाय ममेदमित्यभिसंधि निवृत्तिराकिंचन्यम्।" अर्थात्, जो शरीर आदि अपने द्वारा ग्रहण किये हुए हैं उनमें संस्कार को दूर करने के लिए 'यह मेरा है' इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग करना आकिंचन्य है। 'नास्य किंचन्यस्यास्त्यकिंचनः, तस्यभावःकर्मवा आकिंचन्यम्।" इसका कुछ नहीं है वह अकिंचन है और अकिंचन का भाव या कर्म आकिंचन्य है।
ममत्व के परित्याग को आकिंचन्य कहते हैं। घर, द्वार, धन-दौलत, बन्धु-बान्धव आदि यहां तक कि शरीर भी मेरा नहीं है, इस प्रकार का अनासक्ति भाव उत्पन्न होना आकिंचन्य है। सब कुछ त्याग करने के बाद भी उस त्याग के प्रति होने वाले ममत्व का भी त्याग करना आकिंचन्य धर्म है। जो मुनि लोक-व्यवहार से विरक्त चेतन-अचेतन परिग्रह को अपने मन,वचन,काय से सर्वथा छोड़ देता है उसी को निग्रंथपना तथा आकिंचन्य धर्म होता है।
किचित् मात्र भी पर-पदार्थ मेरा नही है और मैं भी किसी पर पदार्थ का नहीं हूँ, अपितु अकिंचन हूँ- ऐसा चिंतन करना आकिंचन्य कहलाता है। यह धर्म सामान्य रूप से गृहस्थ के और विशेष रूप से मुनि के ही होता है।
महामुनि दिगम्बर होने के पूर्व पूजा-दान, सम्मान, प्रतिष्ठा, विवाह आदि लौकिक कार्य से विरक्त हो जाते हैं और जमीन, जायदाद, संपत्ति, स्त्री, पुत्र, दास-दासी, स्वर्ण-रजत, धन-धान्य इत्यादि चेतन और अचेतन सभी प्रकार के परिग्रह से भी विरक्त हो जाते हैं। फिर भी श्रमण संघ से तथा संघस्थ व्यक्तियों से राग पीच्छी, कमण्डलु शास्त्र आदि से लगाव-प्रेम हो सकता है, महामुनि इन सभी से विरक्त होकर आकिंचन्य धर्म का पालन करते हैं। वस्तुत: आकिंचन्य धर्म के माध्यम से जीवन में बाह्य वस्तुओं के प्रति अनासक्ति भाव उत्पन्न करना होता है। "शरीर धर्मोपकरणादिषु निर्ममत्वमाकिंचन्यम्। अर्थात् शरीर तथा धर्मोपकरणों आदि में भी ममत्व भाव का सर्वथा अभाव आकिंचन्य धर्म कहलाता है। संक्षेप में कह सकते कि- सर्वपरिग्रह से निवृत्त होना आकिंचन्य है। शुभ ध्यान करने की शक्ति का होना आकिंचन्य है। ममत्व रहित होना आकिंचन्य है, और रत्नत्रय में प्रवृत्ति होना आकिंचन्य है।
10. उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म - ब्रह्म का अर्थ है - निर्मल-ज्ञान-स्वरूप आत्मा और उसमें लीन होना ब्रह्मचर्य है। अर्थात् निर्मल ज्ञान स्वरूपी आत्मा में वास करना ब्रह्मचर्य है। दूसरे शब्दों में- आत्मा ही ब्रह्म है उस ब्रह्म स्वरूप आत्मा में चर्या करना ब्रह्मचर्य है।
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 रागोत्पादक साधनों के होने पर भी उन सबसे विरक्त होकर आत्मोन्मुखी बने रहना उत्तम ब्रह्मचर्य है। व्यावहारिक रूप से स्त्रीसंगति नहीं करना, उनके रूप आदि को देखने में कोई रुचि नहीं रखना तथा काम आदि कथाएं नहीं करना, सुनना, उनको नवधा ब्रह्मचर्य होता है। अनुभूत स्त्री का स्मरण, उनकी कथाओं का श्रवण और उनसे संसक्तशयन, आदि का त्याग करना ब्रह्मचर्य है। अथवा स्वतंत्र वृत्ति का त्याग करने के लिए गुरुओं के पास रहना ब्रह्मचर्य है। आचार्य शुभचन्द्र जी के अनुसार- जो अपने शुद्ध-बुद्ध स्वरूप में स्थित होता है, परमानन्दमय अमृतरस का आस्वादन करता है, परमानन्द में विचरण करता है, उसमें ठहरता है, उसका अनुभव करता है तथा उसके अमृतरस का पान करता है उसका आस्वादन करता है, उसका उपभोग करता है, वह ब्रह्मचर्य का धारक कहलाता है। जिसके परिपालन से अहिंसादि गुणों की अभिवृद्धि होती है वह ब्रह्मचर्य कहलाता है। ब्रह्मचर्य की आधारशिला पर ही दया, ज्ञान, तप, सत्य, अचौर्य, सम्यक् दर्शन आदि श्रेष्ठ गुण विकसित होते हैं। व्रत, जप-तप, साधना आदि श्रेष्ठ गुणों का प्राण (आधार) ब्रह्मचर्य ही है।
इस प्रकार उत्तम क्षमादि दशधर्म संवर के हेतु रूप में कथन किया गया है। धर्म शब्द वस्तु का स्वभाववाची है। अतः आत्मा का धर्म समतारूपी ही है। क्षमादि दशधर्म तो इसके चिन्ह हैं। जो धर्म लौकिक प्रयोजन की सिद्धि के लिए किये जाते हैं, वे उत्तम धर्म नहीं कहे जा सकते और ऐसे धर्म कभी भी संवर के कारण नहीं हो सकते। अतः आध्यात्मिक प्रयोजन मोक्ष की सिद्धि के लिए विशिष्ट रूप से उत्तम क्षमादि गुणों को जीवन में धारण करना चाहिए।
संदर्भ :
1. आचार्य उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 9, सूत्र 6 2. आर्यिका अभयमती, दशधर्म विवेचन, पृ. 17 3. स्वामी कार्तिकेय - कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा, 394 4. तत्त्वार्थभाष्य 9/6, पृ. 384 5. आचार्य पूज्यपादस्वामी, सवार्थसिद्धि, अध्याय 9 सूत्र 6 6. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन (मूलाचारवृत्ति 11/5) 7. स्वामी कार्तिकेय जी - कार्तिकेयानुप्रेक्षा 395 8. गणिनी आर्यिका ज्ञानमती - दशधर्म पृष्ठ 33 9. मलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन (मूलाचार वृत्ति 11/5) 10. आचार्य कुन्द कुन्द - वारसाणुवेक्खा 63 11. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन ( तत्त्वार्थाधिगमभाष्य 9/6/3) 12. आचार्य पद्मनन्दि -पदमनन्दिपंचविंशतिका - 89 13. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन (मलाचार वृत्ति 11/5) 14. आचार्य पूज्यपाद स्वामी - सर्वार्थसिद्धि 9/6 15. आO पद्मनन्दि - पदमनन्दि पंचविंशतिका - 94 16, स्वामी कार्तिकेय - कार्तिकेयानुप्रेक्षा 397
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17. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन (मूलाचार वृत्ति 11/5) 18. स्वामी कार्तिकेय - स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्ष्या 389 19. आ. पूज्यपाद - सर्वार्थसिद्धि 9/6/412/ 20. आ. पूज्यपाद - सर्वार्थसिद्धि 9/6/ 21. आचार्य वीरसेन - धवला 2, 1, 3, 22. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन (पंच संग्रह प्राक़त 12) 23. स्वामि कार्तिकेय - स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा 399 24. आ. पूज्यपाद - सर्वार्थसिद्धि 9/6 25. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन (मूलाचार वृत्ति 11/5) 26, मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन(प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति 79/100/12) 27. आ० पूज्यपाद - सर्वार्थसिद्धि 7,9,7. 28. कार्तिकेय स्वामी - स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्ष्या 401. 29. आचार्य पद्मनन्दि जी, पंचविंशतिका 1/101/40 30. मुनि प्रमाण सागर, जैन तत्त्वविद्या, पृ. 188 31. कार्तिकेय स्वामी, स्वामिकार्तियानुप्रेक्षा, 402 32. तत्त्वार्थधिगम भाष्य 9/6/10 33. कार्तिकेय स्वामी, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 403 34. आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि 9/6
- कोहॅडार, इलाहाबाद
दिनांक 27 दिसम्बर 2009 रविवार को प्राच्य विद्या महार्णव पं. जुगलकिशोर 'मुख्तार' के जन्म जयन्ती के पावन प्रसंग पर संस्था सभागार में पं. जुगलकिशोर मुख्तार स्मृति व्याख्यानमाला का आयोजन किया जा रहा है। सुधी पाठको से अनुरोध आप इस व्याख्यानमाला में सम्मिलित होवें।
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बुन्देलखण्ड के जैन तीर्थो में जैन संस्कृति और कला की व्यापकता
प्रतिष्ठाचार्य पं. विमलकुमार जैन सोरया
बुन्देलखण्ड अपने सांस्कृतिक गौरव के लिए सदैव कीर्तिमान रहा है। बुन्देलखण्ड शिल्पकला, संस्कृति, शिक्षा, साहस शौर्य एवं अध्यात्म का धनी, प्राकृतिक सौन्दर्य और खनिज पदार्थों का केन्द्र रहा है। यहां के जनमानस में सदैव सदाचरण की गंगा प्रवाहित होती रही है। कला और संस्कृति के अद्वितीय गढ़ यहां की गौरव गरिमा के प्रतीक बने हैं। यहां का कंकर कंकर शंकर की पावन भावना से धन्य है। जहां विश्व में भारत अपनी आध्यात्मिक गरिमा और संस्कृति-सभ्यता में सदैव अग्रणी रहा है वहां बुन्देलखण्ड भारत के लिए अपनी आध्यात्मिक परंपरा और संस्कृति में इतिहास की महत्त्वपूर्ण भूमिका करने में अग्रणी रहा है।
अध्यात्म की प्रधानता हमारे देश की परंपरागत निधि रही है तथा भारतीय संस्कृति में अध्यात्म की मंगल ज्योति सदैव प्रकाशवान रही है। भारत का दर्शन साहित्य, भाषा, मूर्तियां, वास्तुकलाएं और सामाजिक परंपराएं सभी में अध्यात्म की आत्मा प्रवाहित है। धार्मिक भावनाओं को शाश्वत बनाये रखने के लिए मूर्तियों और मंदिरों का निर्माण किया गया। मंदिरों की रचना और उनमें चित्रित कलाएं उस युग की सामाजिक और धार्मिक परंपराओं की थाती हैं। हमें इतिहास की साक्षी ओर संस्कृति का स्वरूप इन्हीं वास्तुकला के प्रतिमानों से उपलब्ध हुआ है।
भारत के प्राचीन धर्मायतन, तीर्थस्थल, मंदिर और वास्तुकला की कलाकृतियां आज इस तथ्य के साक्षी हैं कि जैन धर्म प्राचीनकाल से भारत में व्यापक रूप से सर्वत्र प्रचलित रहा है। बुन्देलखण्ड जिसका भूभाग वर्तमान में मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के भागों में आवंटित कर दिया गया है। सदैव से जैन संस्कृति का जीता जागता प्राणवान गढ़ रहा है। बुन्देलखण्ड भारत की प्राचीन संस्कृति और वास्तुकला को आज भी अपने आपमें संजोए भारतीय संस्कृति और अध्यात्म को प्राणवान बनाए है।
शिल्प की दृष्टि से बुन्देलखण्ड की जैन कला अपना विशिष्ट महत्त्व रखती है। यहाँ की कला और स्थापत्य में युग का सामाजिक और सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक जीवन सदैव इतिहास की उज्ज्वल आभा लिए हुए विकसित रहा है। कला, साहित्य, लिपि, वेशभूषा, भाषा, शिक्षा आदि की पर्याप्त जानकारी के लिए बुन्देलखण्ड का अपना महत्त्व रहा है। यदि हमें भारतीय संस्कृति की यथार्थ ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध करना है तो बुन्देलखण्ड की वास्तुकला के प्रतिमानों का बारीकी से अध्ययन करना होगा।
बुन्देलखण्ड में स्थापत्यों, शिल्पियों, कलाकारों एवं कलाप्रेरकों ने अध्ययन प्रधान
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कृतियां निर्मित की, उनका झुकाव प्रायः कला की अपेक्षा परिणामों की ओर विशेष रहा है। अतः कलागत विलक्षणता इने-गिने स्थानों में ही देखने को मिलती है।
आदिमयुगीन एवं प्रागैतिहासिक काल की संस्कृति का जीता जागता चित्रण यदि भारत में आज भी जीवन्त है- तो वह बुन्देलखण्ड ही में है। उस युग के चित्र एंव कलाएं आज भी गुफाओं में विद्यमान हैं। यहां के मठ मंदिर मूर्ति और गुफाएं तथा बीजक शिलालेख आदि इस बात के साक्षी हैं कि भारतीय परंपराओं में जनजीवन सामाजिक व्यवस्था और धार्मिक परंपरा कहां कब और कितनी पल्लवित और फलीभूत हुई। बुन्देलखण्ड की जैन संस्कृति और उससे संबन्धित आध्यात्मिक, सामाजिक नैतिक एवं प्राकृतिक वैभव के परिप्रेक्ष्य में विपुल ऐतिहासिक तथ्यों का अध्ययन किया जा सकता है। ___ऐतिहासिक दृष्टि से हम आदिमयुगीन समय से लेकर वर्तमान काल तक जैन संस्कृति का पर्यवेक्षण इतिहास क्रम के आधार पर छह विभागों में विभक्त कर सकते हैं।
(१) प्रागैतिहासिक काल - जो ईस्वी पूर्व 6 सौ वर्ष से भी पहले माना गया है में भी मंदिरों के निर्माण होने के प्रमाण साहित्य में उल्लिखित हैं।
(२) मौर्य और शक काल - इस काल में मंदिरों का प्रचुर मात्रा में निर्माण कार्य हुआ इस युग की मुद्राओं पर अंकित मंदिरों के चिन्ह इस तथ्य के साक्षी हैं। विदिशा जो बुन्देलखण्ड का एक ऐतिहासिक नगर है की खुदाई के समय प्राप्त अवशेष ईस्वी पूर्व 200 वर्ष के हैं। मौर्य कालीन-ब्राह्मी का भी प्रयोग यहां के तीर्थो व शिला फलकों में देखने को मिलता है।
(३) शक सातवाहन काल - ईसा पूर्व 200 वर्ष तक इस काल की परिगणन की गई है। इस युग में जैन मंदिरों का विपुल मात्रा में निर्माण होना पाया जाता है। इस युग में बने मंदिरों के अवशेष अनेक प्राचीन तीर्थो पर आज भी पाए जाते हैं।
(४) कुषाण काल - ईसा की तीसरी शताब्दी तक का काल है। इस काल में मंदिरों के साथ-साथ राजाओं की प्रतिमाओं का भी निर्माण हुआ जिन्हें देवकुल की संज्ञा से अभिहित किया जाता था। इस काल के मंदिर मथुरा, अहिक्षेत्र, कम्पिल, हस्तिनापुर के साथ बुन्देलखण्ड के कुछ स्थलों में देखे गए हैं। इस युग की प्रतिमाएं तो बुन्देलखण्ड में आज भी अनेक जगह पाई जाती हैं।
(५) गुप्तकाल - ईसा की चौथी शदी से छठवीं शताब्दी तक का समय इस काल में आता है। गुप्तकाल में मंदिरों की कलाकृति सुन्दरता के रूप में प्रतिष्ठित हुई। बुन्देलखण्ड के तीर्थो में देवगढ, चन्देरी, मदनपुर, खजुराहो, शिवपुरी आदि स्थानों में इस युग के मंदिर पाए गए हैं। द्वार स्तम्भों की सजावट तोरण द्वार पर देव मूर्तियां लघु शिखर एवं सामान्य गर्भगृह युक्त मंदिर इस युग की शैली के प्रतिमान रहे हैं। विशिष्ट प्रकार की मूर्तियों का निर्माण इस युग की विशेषता है। जो प्रायः बुन्देलखण्ड के अधिकांश प्राचीन तीर्थ स्थलों में मिलती हैं।
(६) गुप्तोत्तर काल - ईसा की 7वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक के समय को इस श्रेणी में अभिव्यक्त कर सकते हैं। वर्द्धनकाल गुर्जर प्रतिहार काल-चन्देली शासनकाल युगल मराठा काल एवं अंग्रेजी शासनकाल तक का समय गुप्तोत्तर काल अन्तर्गत परिगणित
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किया गया है। इस युग के प्रत्येक काल में एक शैली विशेष का अभ्युदय हुआ तदनुसार मंदिरों आदि का निर्माण किया गया। इस युग के मंदिरों की साज-सज्जा पर विशेष महत्त्व दिया गया है। इस काल में चार प्रकार की शैली मुख्य रूप से प्रचलित हई।
iगुर्जर प्रतिहार शैली - इस शैली के अन्तर्गत निर्मित मंदिरों के भीतर गर्भगृह और सामने मण्डप बनाया जाता था बुन्देलखण्ड में इस शैली के मंदिर बहुमात्रा में प्राचीन नगरों तीर्थो में पर्याप्त मात्रा में अवस्थित हैं। कला और स्थापत्य की पर्याप्त संवृद्धि इस समय हुई। ___ii कलचुरी शैली - इस शैली के मंदिरों के बाहरी भागों की साज-सज्जा विशेष रूप से पाई जाती है। तथा मंदिरों के शिखर की ऊँचाई भी बहुत होती है। बुन्देलखण्ड में इस शैली के मंदिरों का निर्माण बहुत स्थानों पर हुआ है। इस युग के मंदिरों की बाह्य भित्ति कला अपने आप में अद्वितीय है।
iii चन्देल शैली- इसमें मंदिर की शिखर शैली उत्कृष्ट रूप को प्राप्त हुई रति चित्रों का विकास भी इस शैली के बने मंदिरों में हुआ। जो मंदिर की बाह्य दीवालों पर गढ़ें गए। इस शैली के मंदिर खजुराहो, देवगढ़, चन्देरी आदि स्थानों में पर्याप्त मात्रा में स्थित हैं। ___iv कच्छपघात शैली- इस शैली के मंदिर कला के अद्वितीय नमूने रहे हैं। इस शैली के बने मंदिरों में ऐसा कोई भी भाग शेष नहीं रहता था जो कला से वेष्टित न हों।।
काल विभाजन के इस क्रम में जैन संस्कृति और कला का निरंतर विकास हुआ। बुन्देलखण्ड की जैन वास्तुकला का अध्ययन की दृष्टि से कोई ठोस प्रयत्न नहीं हुआ अन्यथा बुन्देलखण्ड से आज भी प्राचीन इतिहास के साथ जैन संस्कृति और वास्तुकला पर अद्वितीय जानकारी प्राप्त होती। यहां की कला में जैन संस्कृति की अविच्छिन्न धारा प्रवाहित होती रही है। वास्तुकला का तो यह महत्त्वपूर्ण गढ़ रहा है।
भारत में मूर्तिकला की गरिमा बुन्दलेखण्ड में देखने को मिलती है। मूर्तिकला के सर्वोत्कृष्ट गढ़ और मूर्ति निर्माण के केन्द्र स्थल बुन्देलखण्ड में ही विद्यमान है। यहां की मूर्तिकला एक सी नही है। भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-2 प्रकार की मूर्तिकला के उत्कृष्ट नमूने हैं। अनेक प्रकार की आसनों सहित स्वतंत्र तथा विशाल शिला पट्टी पर उकेरित विशालकाय मूर्तियां बहुधा इस क्षेत्र में उपलब्ध हैं। कुछ मूर्तियां आध्यात्मिक दृष्टि से और कुछ लौकिक दृष्टि से निर्मित हुई हैं। लौकिक दृष्टि से बनी मूर्तियां कला के बेजोड़ नमूने हैं। उनमें सामाजिक रहन-सहन आचार-विचार तथा प्रवृत्तियां एवं भावनाओं का तलस्पर्शी परिज्ञान प्राप्त होता है। मूर्तिकला की विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए यह अनुभव होता है कि बुन्देलखण्ड में बाहरी कलाकारों ने आकर भी मूर्ति निर्माण का कार्य संपन्न किया
और अपनी अनूठी कला का परिचय दिया है। वास्तुकला के इन प्रतिमानों को हम मुख्यतः निम्नांकित रूपों में वर्गीकृत कर सकते हैं। जो कला संस्कृति अध्यात्म एवं सामाजिक व्यवस्था के अध्ययन की दृष्टि में महत्वपूर्ण हैं।
(अ) तीर्थकर की मूर्तियां- बुन्दलेखण्ड के पुरातन तीर्थों मंदिरों गहरों में चौबीस तीर्थकरों में प्रायः आदिनाथ, अभिनन्दननाथ, चन्द्रप्रभ, शीतलनाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर तीर्थकरों की मूर्तियां व्यापक रूप में विद्यमान हैं।
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भारत की मूर्तिकला में बुंदेलखण्ड का योगदान सर्वोत्कृष्ट है। विभिन्न देवी देवताओं की तुलना में जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां बहुत बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। अनेक जगह विशालकाय शिलापट्टों पर उत्कीर्ण द्वि मूर्तिकाऐं ( भरत - बाहुबलि ) त्रिमूर्तिकाऐं (शान्ति कुन्धु अर) और सर्वतोभद्रकाएं मौजूद हैं। त्रिमूर्तिकाऐं भगवान शान्ति कुन्धु-आर जिन की हैं। क्योंकि यह तीनों चक्रवर्ती और कामदेव के साथ साथ तीर्थंकर जैसे महापद के धारी हुए तीर्थंकरों की मूर्तियां प्रायः पद्मासन एवं कायोत्सर्ग अवस्था में ही उपलब्ध है। कुछ ऐसी मूर्तियां हैं जिनकी जटाएं लटकी हुई हैं। अनेक मूर्तियां भ. पार्श्वनाथ की सहस्र फणवाली फणावली एवं सर्प कुण्डलीयुक्त हैं जो विशेष उल्लेखनीय है चतुर्विंशतिपट्ट, मूर्ति ऑकित स्तंभ एवं सहस्रकूट शिलापट्ट प्रायः इस क्षेत्र में अनेक जगह अवस्थित हैं।
(ब) देवदेवियों की मूर्ति जैन परंपरा में प्रत्येक तीर्थंकर की यक्षयक्षिणी की जानकारी मिलती है जो शासन देवता के रूप में माने जाते हैं। यक्षों में धरणनेन्द्र और यक्षिणियों में पद्मावती, चक्रेश्वरी अम्बिका की मूर्तियां विशेष रूप से पाई जाती है। विद्या देवियों में महाकाली, महामानसी, गौरी, सरस्वती, लक्ष्मी, नवग्रह, गंगा-यमुना, इन्द्र-इन्द्राणी, कीचक द्वारपाल, क्षेत्रपाल आदि की मूर्तियां पर्याप्त मात्रा में अनेक जगह विद्यमान हैं। इ संबन्ध मंदिर स्थापत्य से ही रहा है तथा उनके पद के अनुसार मंदिर के विभिन्न भागों में इन्हें स्थान दिया गया है।
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(स) विद्याधर की मूर्तियां जो अपनी विशेष साधना एवं तपस्या के फलस्वरूप विद्याएं सिद्ध कर देते हैं। ऐसे व्यक्ति विद्याधर की कोटि में गिने गए है। प्रायः इन्हें आकाश गामनी विद्याएं सिद्ध होती हैं। और आकाश मार्ग से यह अपनी प्रेयसी के साथ आमोद-प्रमोद पूर्वक घूमा करते हैं। इस प्रकार के स्थापत्तीय भित्ति चित्र अनेक जगह पाए जाते हैं।
(द) साधू साध्वियां अनेक जगह आचार्यों को उपदेशरत दिखाया गया है। उनकी समीप साधुवर्ग एवं हाथ में ग्रंथ लिए उपाध्याय तथा भक्तियुक्तनत श्रावकगण ऐसे संघों की वंदना में रत दिखाए गए हैं। बुन्देलखण्ड के बहुतीर्थों में तोरणद्वारों, शिलाफलकों, गुफाओं तथा भित्ति पर उत्कीर्ण ऐसी मूर्तियां अनेक रूपों में पाई जाती हैं। मूर्तियों में भावात्मक प्रधानता विशेष रूप से लक्षित होती हैं।
(य) श्रावक-श्राविका श्राविकाओं में आर्यिका या तीर्थंकर की माता ही विशेष रूप से पाई जाती हैं जो इन्द्राणियों द्वारा बहु प्रकार से सेवित है। इसके अलावा साधु संतों में उपदेशामृत सुनते हुए अथवा स्तुति करते हुऐ अनेक जगह श्रावक श्राविकागण दर्शाए गए हैं। । इन मूर्तियों से उनके वस्त्राभूषण, अलंकार, केस, सज्जा, भावभंगिमा एवं भक्ति वंदना की परंपराओं का परिज्ञान होता है।
(र) युग्म स्थापत्य में युग्मों और मंडलियों का निर्माण सामाजिक धार्मिक एवं सांस्कृतिक परंपरा को प्रस्तुत करने के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हुआ है। इनमें अलंकरण का बाहुल्य है। काम शास्त्र को साकार मूर्तिरूप में प्रयुक्त कर भोगविलास रागरंग का चित्रण मंदिर की बाह्य भित्तियों पर दर्शाए मंदिर के अंदर शांत और पावन वातावरण में प्रवेश कराने की प्रवृत्ति का अनुकरण बुन्देलखण्ड के अनेक तीर्थों में देखने को मिला है। खजुराहो इसका जीता जागता गढ़ है रति चित्रों के यह युग्म प्रेमासक्त और संभोग रत
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अनेकान्त 62/3, जुलाई सितम्बर 2009 के रूप में पाए जाते हैं। शारीरिक रूप लावण्य साजसज्जा के अलावा मनोभावों की अभिव्यक्ति इन मूर्तियों से ऐसे प्रगट होती है जैसे यह जीवित रूप में अपनी अभिव्यक्ति प्रगट कर रहे हों। कलाकार के कला की अद्वितीयता इन युग्मों में देखने को मिलती है। राग रंग के प्रतीक अनेक नृत्य, वाद्य संगीत मंडलियों का मूर्तिगत बनाने की अनूठी कला भी इनमें देखने को मिलती है। इस अद्वितीय कला को देखकर पत्थर को भी मोम बनाने वाली यहां कला है की उक्ति चरितार्थ होती है।
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(ल) प्रतीक मानवीय संस्कृति की समुन्नति में प्रतीक का अभ्युदय आरंभ से ही नाना रूपों में आगे आया। आरंभ में सकारात्मक पुनः अतदाकार और बाद में तदाकार के रूप में यह अपने विकासक्रम में आई, जैन परंपरा में प्रतीक का अस्तित्व आरंभ से ही रहा। ध र्मचक्र, ध्वजा, चैत्य, वृक्ष, पुष्प, पात्र, स्वस्थि, स्तूप, मानस्तंभ, अष्ट मंगल, अष्ट प्रातिहार्य, सोलह स्वप्न आदि अनेक प्रकार के प्रतीक शुभ माने गए हैं। यह प्रतीक धर्म संस्कृति और आधेय आधारों की एक ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि अपने आप में समाहार किए हुए हैं।
(व) पशु-पक्षी इनको मूर्तिगत बनाने का कारण मात्र अलंकरण ही था तीर्थकरों के चिन्हों के रूप में या देवी-देवताओं के आसन के रूप में इनका निर्माण किया गया। हाथी, सिंह, वृषभ, अश्व, बंदर, कुत्ता, सर्प, मत्स्य, कच्छप आदि मूर्तिरूप अनेक जगह देखने को मिलते हैं जो भित्तियों द्वारा अथवा मूर्ति के आसनों में गढ़े गए हैं।
आसन और मुद्राऐं तथा प्रकृति चित्रण तीर्थंकर की मूर्तियाँ तो मात्र कायोत्सर्गासन अथवा पद्मासन के रूप में ही प्राप्त होती हैं परन्तु देवी देवताओं के आसन अनेक प्रकार के पाए गए हैं। कमल, अशोकवृक्ष, कल्पवृक्ष, लताएँ आदि के अंकन में कलाकारों ने आद्वितीय सफलता प्राप्त की है। इन आयामों से हम कला के विभिन्न विकासक्रमों का अध्ययन प्राप्त कर सकते हैं।
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सामाजिक और धार्मिक चेतना के इन पुरातन गढ़ों में जैन धर्म के विकास और उसकी संस्कृति की समुन्नति में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। बुन्देलखण्ड आज भी भारत के हीलिए नहीं अपितु विश्व के लिए अपनी अनूठी कला और संस्कृति की गरिमा का पान करा रहे हैं। बुन्देलखण्ड में ऐसे शताधिक पुरातन क्षेत्र हैं जहां वास्तुकला के वर्णित आयामों का स्वरूप दर्शन हमें देखने को मिलता है। मुख्य रूप से बुन्देलखण्ड के उन ऐतिहासिक पुरातन स्थलों को हम स्मरण करेंगे जिनसे जैन संस्कृति और कला का अतुल भंडार भरा है। ऐसे स्थलों में मुख्य रूप से खजुराहो, बूढ़ी चन्देरी, मदनपुर, देवगढ़, बालावेहट, थूवौन, रेदीगिरि (नैनागिरि) बजरंगढ़, पवा, विठला, रखेतरा, आमनचार, गुटीलीकागिरि, स्वर्णगिरि (सोनागिरि), नारियल कुंड विदिशा, बरूआसागर मठखेरा कन्नौज, नोहटा, विनैका, पाली, त्रिपुरी, अमरकंटक, बानपुर, सोहागपुर, पचराई, कुंडलपुर, अहार, पपौरा, झांसी संग्रहालय, द्रोणगिरि, निसई, उदमऊ, कोनीजी, नवागढ़, पाटनगंज, करगुंवा, ग्यारसपुर, गोलाकोट, जहाजपुर इवई, चांदपुर, सीरोन, सेरोन, कारीतलाई वितहरी पठारी विदिशा, बड़ागांव, भेड़ाघाट, ललितपुर, जतारा, बंधा आदि प्रमुख हैं।
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प्रधान संपादक- वीतरागवाणी (मासिक), टीकमगढ़ (म.प्र.)
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तीर्थकर का श्रीविहार वैचारिक धरातल पर
-डॉ. धर्मेन्द्र जैन
संसार सागर को स्वयं पार करने तथा दूसरों को पार कराने वाले महापुरुष तीर्थकर कहलाते हैं। दर्शनविशुद्धि आदि आत्मा की पवित्र सोलह भावनाओं द्वारा ही यह उत्कृष्ट तीर्थकर पद प्राप्त होता है। जैन दर्शन में इसे “षोडशकारण भावना भाने से तीर्थकर प्रकृति का बंध होता है" के रूप में जाना जाता है।
तीर्थकर जैनधर्म का विशेष शब्द है। "तीर्थ करोतीति तीर्थकरः"। जो धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं वे तीर्थकर हैं। श्री अपराजितसूरि भगवती आराधना की विजयोदया टीका में तीर्थकर का लक्षण बताते हुए कहते हैं- "तरन्ति संसारं येन भव्यास्तत्तीर्थम् कैश्चन (कंचन) तरन्ति श्रुतेन गणधरैर्वालम्बनभूतैरिति श्रुतं गणधरा वा तीर्थम्। तदुभयात्तीर्थकरः अथवा तिसु तिठदित्ति तित्थं इति व्युत्पत्तै तीर्थशब्देन मार्गोत्रयात्मक: उच्यते तत्करणात्तीर्थकरो भवति। जिसके आश्रय से भव्य जीव संसार से पार उतरते हैं- मुक्त होते हैं- वह तीर्थ कहलाता है। कितने भी भव्य श्रुत अथवा गणधरों के आश्रय से तरते हैं अतः श्रुत और गणधर भी तीर्थ कहलाते हैं। इसलिए श्रुत व गणधर रूप तीर्थ को जो करते हैं वे तीर्थकर कहलाते हैं। इस विषय में अन्यत्र भी कहा है- "तित्थयरे भगवंते अणुत्तरपरक्कमे अमियनाणी तिण्णे सुगइगइगए सिद्धियहपदेसए वंदे" । जो अनुपम पराक्रम के धारक-क्रोधादि कषायों के उच्छेदक, अपरिमितज्ञानी-केवलज्ञानी, तीर्थ- संसार समुद्र के पारंगत, सुगतिगतिगत-उत्तम पंचम गति को प्राप्त और सिद्धपथ के उपदेशक हैं, वे तीर्थकर कहलाते हैं। इस प्रकार जैन दर्शन के महापुरुषों में तीर्थंकर भगवान् को सर्वोत्कृष्ट महापुरुष माना गया है। पूज्य मुनिश्री प्रमाणसागर जी शास्त्रसारसमुच्चय की व्याख्या जैनतत्वविद्या में तीर्थंकर के बारे में लिखते हैं- तीर्थ शब्द का एक अर्थ घाट भी होता है। तीर्थकर सभी जनों के लिए संसार समुद्र से पार उतारने हेतु धर्म रूपी घाट का निर्माण करते हैं। तीर्थ का अर्थ मूल या सेतु भी होता है, कितनी ही बड़ी नदी क्यों न हो, सेतु द्वारा निर्बल से निर्बल व्यक्ति भी उसे सुगमता से पार कर सकता है। तीर्थकर संसार रूपी सरिता
को पार करने के लिए धर्मशासनरूपी सेतु का निर्माण करते हैं। इस धर्मशासन के अनुष्ठान द्वारा आध्यात्मिक साधना कर जीवन को परम पवित्र और मुक्त बनाया जा सकता है। तीर्थकर मानव जगत् को शिवपथ दिखाकर उस पर चलने की प्रेरणा और बल प्रदान करते हैं।'
जैन दर्शन में मान्य एवं अत्यन्त पूजनीय सर्वोत्कृष्ट महामना तीर्थंकर का धर्मोपदेश तथा विश्वकल्याण का संदेश तीर्थकर के श्री विहार बिना संभव नहीं है। पूर्णज्ञान के बिना तीर्थकर भगवान् अपने आपको विश्वकल्याण तथा धर्मोपदेश में असमर्थ मानते हैं, संभवतः इसी कारण तीर्थकर दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त होने तक मौन धारण करते हैं। तीर्थकर
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 को केवलज्ञान होने पर विश्वकल्याण का धर्मोपदेश समस्त संसारी जीवों को समय-समय पर मिलता रहता है। तीर्थकर का धर्मोपदेश प्रधान योग्य श्रोता के बिना प्रारंभ ही नहीं होता है। इस प्रमुख योग्य श्रोता को गणधर कहते हैं। प्रत्येक तीर्थकर के गणधर होते हैं। भगवान् महावीर को केवलज्ञान होने के बाद 66 दिन तक प्रमुख योग्य श्रोता/गणधर न मिलने से धर्मोपदेश प्रारंभ ही नहीं हुआ था। विश्वकल्याण का यह धर्मोपदेश एक धर्म सभा में प्राप्त होता है, जिसे जैन आगमों एवं पुराणों में समवशरण कहा गया है। जिनसभा, जिनपुर, जिनावास आदि तीर्थंकरों की धर्मसभा के नामान्तर भी प्राप्त होते हैं। ये सभी पर्यायवाची है। जहाँ पर तीर्थकर साक्षात् विराजमान होकर संसारी जीवों को कल्याण का मार्ग बताते हैं। उसका नाम समवशरण है। समवशरण में प्रत्येक प्राणी को समानता पूर्वक धर्मोपदेश सुनने की शरण मिलती है, इसलिए समवशरण यह सार्थक नाम है। समवशरण में कोई भेद भाव नहीं होता है। प्रत्येक जीव को बैठने के लिए समान स्थान मिलता है। तीर्थकर परमात्मा की यह धर्मसभा अतिविशिष्ट धर्मसभा बहुत ही विस्तृत क्षेत्र में होती है।
तीर्थकर आदिनाथ का समवशरण योजन विस्तार वाला था। शेष तीर्थकरों का 2-2 कोस कम होता गया। भगवान् महावीर का समवसरण 1/4 योजन विस्तार वाला था। इस समवसरण का स्वरूप वर्णन करते समय आचार्य यतिवृषभ प्रारंभ में कहते हैं -
उवमातिदं ताणं को सक्कइ वण्णिदुं सयलरूवं।
एण्हिं लवमेत्तं साहेमि जहाणुपुव्वीए॥ अर्थ - उन समवसरणों के संपूर्ण अनुपम स्वरूप का वर्णन करने में कौन समर्थ है। अब मैं यतिवृषभाचार्य आनुपूर्वी क्रम से उनके स्वरूप का अल्पमात्र कथन करता हूँ। ऐसी अनुपम धर्मसभा रूप समवसरण का जैन आगमों एवं पुराणों में संक्षिप्त वर्णन प्राप्त होता है। मुख्यता से समवसरण का वर्णन तिलोयपण्णति, आदिपुराण, हरिवंशपुराण में उपलब्ध है। समवसरण का अत्यंत सुन्दर वर्णन इन तीन ग्रंथों में ही विस्तार से वर्णित है। आचार्य जिनसेन समवसरण का वर्णन प्रारंभ करने से पूर्व ही भव्य जीवों को इस वर्णन सुनने से क्या लाभ होगा। इसको मनोहारी शब्द छटा द्वारा कहते हैं- "श्रुतेन येन संप्रीति भजेद् भव्यात्मनां मनः"| जिस समवसरण का वर्णन सुनने मात्र से भव्यजीवों का मन प्रसन्नता को प्राप्त होता है।
यह समवसरण पृथ्वी तल से पाँच हजार धनुष ऊपर आकाश में निर्मित होता है। इसका निर्माण सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर विक्रिया द्वारा अद्भुत रूप में करता है।
ताहे सक्काणाए जिणाण सयलाण समवसरणाणिं।
विक्किरियया धणदो विरएदि विचित्तरूवेहि।।' इस धर्म सभा की रचना गोलाकृति में होती है। उसकी चारों दिशाओं में आकाश में बीस बीस हजार सीढ़ियां बनी हुई होती हैं। इन सीढ़ियों पर सभी लोग सहज रूप में चढ़ जाते हैं, यह समवसरण की विशेषता होती है। प्रत्येक दिशा में सीढ़ियों से लगी एक एक चौड़ापथ बना होता है जो समवसरण के केन्द्र में स्थित गन्धकुटी के प्रथम पीठ तक जाता है।"
समवसरण में क्रम से 1. चैत्य प्रासाद भूमि 2. खातिकाभूमि 3. लतावन भूमि 4.
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उपवनभूमि 5.ध्वजभूमि 6.कल्पवृक्षभूमि 7.भवनभूमि 8.श्रीमण्डप भूमि होती है। उसके बाद प्रथमपीठ, द्वितीय पीठ, तृतीय पीठ बनी होती है। समवसरण के बाहरी भाग में सबसे पहले धूलिसाल कोट होता है। यह समवसरण की सीमा दीवार कही जा सकती है। यह धूलिसालकोट पाँच वर्णवाला, विशाल, समानगोल मानुषोत्तर पर्वत के आकार सदृश है। इसमें जगह-2 पताकाएं हैं। इसकी सुन्दरता तीनों लोकों को आश्चर्य चकित करती है। आचार्य यतिवृषभ ने तो इसके लिए 'तिहुवण विम्हयजणणी" शब्द का प्रयोग किया है। आचार्य जिनसेन तो इसे मानो इन्द्रधनुष ही धूलिसाल के रूप में समवसरण की सेवा कर रहा हो" के रूप में वर्णित किया है। आदि पुराण में इसे कई वर्णवाला कहा है। जैसेधूलिसाल कहीं पर तो सुवर्ण के समान पीला है, कहीं मूंगा के समान लाल है आदि-आदि। धूलिसाल कोट की चारों दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित ये चार द्वार है। ये तोरण द्वार अत्यन्त सुन्दर हैं। इन द्वारों के बाहर मंगल द्रव्य, नवनिधिधूपघट आदि युक्त पुतलियाँ स्थित हैं। प्रत्येक द्वार के मध्य दोनों बाजुओं में एक एक नाट्यशाला होती है। इस नाट्यशाला में देवांगनाएं नृत्य करती रहती हैं। धूलिसाल के चारों गोपुरों में से प्रत्येक के हाथ में उत्तम रत्नदण्ड को लिए हुए ज्योतिष्क देव द्वार रक्षक होते हैं।
इन द्वारों के अन्दर प्रवेश करने पर कुछ आगे जाने पर चारों दिशाओं में चार मान स्तम्भ होते हैं। प्रत्येक मानस्तम्भ चारों ओर से दरवाजे सहित तीन परकोटों से परिवेष्टित होता है। ये मानस्तंभ तीन पीठिका सहित वेदी पर अवस्थित होते हैं। इन मानस्तम्भों पर घण्टा, ध्वज, चामर आदि कलात्मक वस्तुएं उत्कीर्ण होती हैं। मानस्तंभों के मूल और ऊपरी भाग में चारों दिशाओं में अष्ट प्रतिहार्य सहित अरिहन्त भगवान की प्रतिमाएं विराजमान होती हैं। मानस्तंभों के चारों ओर चार-चार वापिकाएं होती हैं। एक एक वापिका के प्रति दो-दो कुण्ड होते हैं, इन कुण्डों में देव, मनुष्य तिर्यंच पैर धोकर ही आगे प्रवेश करते हैं। ये मानस्तंभ अपने अपने तीर्थंकर के समय उनकी ऊँचाई से बारह गुणा अधिक ऊँचाई वाले होते हैं। मानस्तंभ नाम की सार्थकता सिद्ध करते हुए आचार्य यतिवृषभ कहते हैं- मानस्तंभ को दूर से ही देखने पर अभिमानी मिथ्यादृष्टियों का अहंकार दूर हो जाता है इसलिए इसे मानस्तंभ कहते हैं। उसके बाद चैत्य प्रासाद भूमि है। वहाँ एक चैत्य प्रासाद है जो वापिका, कूप, सरोवर, वन, खण्डों से मण्डित पांच-पांच प्रासादों से सहित है। चैत्य प्रासाद भूमि के आगे रजतमय वेदी बनी रहती है। वह धूलिसाल कोट की तरह आगे गोपुर द्वारों से मण्डित है। ज्योतिषी देव द्वारों पर द्वारपाल का काम करते हैं। उस वेदी के भीतर की ओर कुछ आगे जाने पर कमलों से व्याप्त अत्यंत गहरी परिखा होती है जो कि वीथियों सड़कों को छोडकर समवसरण को चारों ओर से घेरे हुए होती है। परिखा के दोनों तटों पर लतामण्डप बने होते हैं। लतामण्डपों के मध्य चन्द्रकान्तमणि मय शिलाएँ होती हैं। जिन पर देवगण विश्राम करते हैं। इसे खातिका भूमि कहा गया है। यह खातिका भूमि फूले हुए कुमुद, कुवलय, कमल वनों तथा हंसादि पक्षियों सहित होती है। खतिका भूमि के आगे रजतमय एक वेदी होती है। यह वेदी पूर्ववत् गोपुर द्वारों आदि से सहित होती है। इस द्वितीय वेदी से कुछ आगे जाने पर लताभूमि होती है। इसमें पुन्नाग, तिलक, बकुल, माधवी, इत्यादि नाना प्रकार की लताऐं
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अनेकान्त 62/3, जुलाई सितम्बर 2009 सुशोभित होती है। लता भूमि में लतामण्डप बने हुए होते है। लताभूमि के कुछ आगे जाने पर एक स्वर्णमय कोट होता है। यह कोट भी धूलिसाल की तरह गोपुर, द्वारों, मंगलद्रव्यों, नवनिधियों और धूप घंटों आदि से सुशोभित रहता है उसके आगे पूर्वादिक चारों दिशाओं में क्रमश: अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र नामक चार उद्यान होते हैं। इन उद्यानों में इन्हीं नाम वाला एक चैत्यवृक्ष भी होता है। यह वृक्ष तीन कटनी वाली वेदी पर होता है। उसके पास में मंगलद्रव्य स्थापित होते हैं, ध्वजाएँ फहराती रहती हैं तथा वृक्ष के शीर्ष पर मोतियों की माला से युक्त तीन छत्र होते हैं। इस वृक्ष के मूल भाग में अष्टप्रातिहार्यं युक्त अर्हंत भगवान की चार प्रतिमाएँ विराजमान होती हैं। इसी का नाम उपवन भूमि है। इस भूमि पर स्थित वापिकाओं में स्नान करने मात्र से जीवों को एक भव दिखाई देता है तथा वापिकाओं के जल में देखने से सात भव दिखाई देते हैं। उसके आगे पुनः वेदी होती है। इस वेदी के आगे ध्वजभूमि होती है। ध्वजभूमि में माला वस्त्र, मयूर, कमल, हंस, गरुड़, सिंह, बैल, हाथी और चक्र से चिन्हित दश प्रकार की स्वर्ण ध्वजदण्ड सहित निर्मल ध्वजाएँ होती हैं। ध्वजभूमि के बाद में एक स्वर्णमय कोट है । इस कोट में भी पूर्व के समान चार दरवाजे होते हैं। यह कोट नाट्यशालाऐं तथा सुगन्धित धुँआ निकलता हुआ धूप घटों से व्याप्त है। यहाँ नागेन्द्र द्वारपाल के रूप में खड़े रहते हैं।
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उसके आगे कल्पभूमि होती है। कल्पभूमि में कल्पवृक्षों का वन होता है। इन वनों में कल्पनातीत सौन्दर्य सहित दश प्रकार के कल्प वृक्ष होते हैं। ये कल्पवृक्ष नाना प्रकार की बल्लियों तथा वापिकाओं से व्याप्त हैं। यहाँ देव, मनुष्य तथा विद्याधर क्रीड़ा करते रहते हैं। कल्पभूमि में पूर्वादि चारों दिशाओं में क्रमश: नमेरू, मन्दार, सन्तानक और पारिजात नामक चार सिद्धार्थ वृक्ष होते हैं। सिद्धार्थ वृक्षों की सुन्दरता चैत्यवृक्षों के समान है परन्तु इनमें अहंत की जगह सिद्ध की प्रतिमाएँ विराजमान हैं। कल्पभूमि के आगे पुनः एक स्वर्णमय वेदी बनी हुई होती है। इस वेदी के द्वार पर भवनवासी देव द्वारपाल के रूप में खड़े रहते हैं। इस वेदी के आगे जाने पर भवनभूमि है। भवन भूमि में एक से एक सुन्दर कलात्मक और आकर्षक बहुमंजिले भवनों की पंक्ति रहती है। देवों द्वारा निर्मित इन भवनों में देव गीत, संगीत, नृत्य, जिनाभिषेक, जिनस्तवन आदि करते हुए सुखपूर्वक रहते हैं। भवनों की पंक्तियों के बीच में वीथियों गालियाँ बनी होती हैं। वीथियों के दोनों पार्श्व में नव-नव स्तूप बने होते हैं। पद्मरागमणिमय इन स्तूपों में अर्हत और सिद्धों की प्रतिमाएँ विराजमान रहती हैं। इन स्तूपों पर बन्दनमालाएँ लटकी हुई होती हैं मकराकार तोरणद्वार होते हैं। छत्र लगे हुए होते हैं। मंगल द्रव्य रखे होते हैं और ध्वजाऐं फहराती रहती हैं। यहाँ विराजमान जिन प्रतिमाओं की देवगण पूजन और अभिषेक करते हैं । भवनभूमि के आगे स्फटिक मणिमय चतुर्थ कोट आता है। इस कोट के गोपुर द्वारों पर कल्पवासी देव खड़े रहते हैं। इसके पश्चात् अनुपम, मनोहर, उत्तमरत्नों के स्तंभों पर स्थित और मुक्ताजालादि से शोभायमान आठवीं श्री मण्डप भूमि होती हैं। इस भूमि में निर्मल स्फटिक से निर्मित सोलह दीवालों के मध्य वारह कोठे (कोट्ठा) होते हैं। इन कोठों के भीतर पूर्वादिकप्रदक्षिण क्रम से पृथक् बारह गण बैठते हैं। इन बारह कोठों में से प्रथम कोठे में गणधरादि
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मुनि जन विराजते है। दूसरे कोठे में कल्पवासिनी देवियां, तीसरे कोठे में आर्यिका एवं श्राविकाएं, चौथे कोठे में ज्यातिषी देवियाँ, और पांचवें कोठे में व्यन्तर देवियाँ, छठे कोठे में भवनवासिनी देवियां, सातवें कोठे में भवनवासीदेव, आठवें कोठे में व्यन्तरदेव, नवें कोठे में ज्योतिषीदेव दसवें कोठे में कल्पवाली देव, ग्यारहवें कोठे में चक्रवर्ती आदि मनुष्य, बारहवें कोठे में सिंह, हाथी, व्याघ्र आदि तिर्यन्च जीव बैठते हैं। यहां पर बैठे तिर्यंच जीव पूर्व वैर को छोड़कर शत्रु भी उत्तम मित्र भाव से संयुक्त होते हैं।
इन बारह कोठों में मिथ्यादृष्टि, अभव्य, असंज्ञी जीव कदापि नहीं होते हैं तथा अनध्यवसाय से युक्त, सन्देह से संयुक्त और विविध प्रकार की विपरीतताओं वाले जीव भी नहीं होते हैं। इसके आगे पांचवी वेदी होती है। इस वेदी के आगे एक के ऊपर एक क्रमशः तीन पीठ होते हैं। प्रथम पीठ के ऊपर उपर्युक्त बारह कोठों में से प्रत्येक कोठे के प्रवेश द्वार में एवं समस्त चारों वीथियों के सम्मुख सोलह-सोलह सोपान होते हैं। इस पीठ पर चूड़ी सदृश गोल तथा नाना प्रकार के पूजा द्रव्य एवं मंगल द्रव्यों सहित चारों दिशाओं में धर्म चक्र को सिर पर रखे हुए यक्षेन्द्र स्थित रहते हैं वे गणधर देवादिक बारह गण में से प्रत्येक गण का प्रमुख - प्रमुख इस पीठ पर चढ़कर तीर्थकर भगवान् की प्रदक्षिणा देकर बार-बार पूजा करते हैं। तथा सैकड़ों स्तुतियों द्वारा कीर्तन कर कर्मो की असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा करके प्रसन्नचित्त होते हुए अपने अपने कोठों में प्रवेश करते हैं अर्थात् अपने अपने नियत स्थान पर जाकर बैठ जाते हैं। प्रथम पीठ के ऊपर दूसरी पीठ होती है। द्वितीय पीठ पर चढ़ने के लिए प्रत्येक दिशा में पाँच वर्ण वाली रत्ननिर्मित आठ-आठ सीढ़ियाँ होती हैं। इस पीठ के ऊपर मणिमय स्तम्भों पर लटकती हुई सिंह, बैल, कमल, चक्र, वस्त्र, गरुड़ और हाथी इन चिह्नों से युक्त ध्वजाऐं शोभायमान होती है।। द्वितीय पीठ पर धूपघट, नवनिधियाँ, पूजाद्रव्य और मंगल द्रव्य स्थित रहते हैं। द्वितीय पीठ के ऊपर तृतीय पीठ होती है। इसमें भी चारों ओर आठ आठ सीढ़ियाँ होती हैं। तीसरी पीठ के ऊपर एक गंधकुटी होती है। यह गंधकुटी, चामर, किंकिणी, वन्दनमाला एवं हारादिक से रमणीय गोशीर, मलयचन्दन और कालागरु इत्यादिक धूपों की सुगंध से व्याप्त, प्रज्वलित रत्नदीपकों से सहित तथा नाचती हुई विचित्र ध्वजाओं की पंक्तियों से संयुक्त होती हैं। सुगंध से व्याप्त होने के कारण इसका नाम गंधकुटी है। गंधकुटी के मध्य पादपीठ सहित स्फटिक मणियों से निर्मित एवं घण्टाओं के समूहादिक से रमणीय सिंहासन होता है। लोक अलोक को प्रकाशित करने के लिए सूर्य सदृश भगवान् तीर्थंकर अरहंतदेव सिंहासन के ऊपर आकाश में चार अंगुल के अन्तराल से विराजमान होते हैं। ___ तीर्थकर को केवलज्ञान होने के बाद कुछ विशेषताएं स्वतः प्रकट होती हैं तथा कुछ विशेषताएं देवों द्वारा नियत होती हैं। तदनन्तर ये विशेषताएं तीर्थंकर के श्रीविहार सहित सदाकाल रहती हैं। पुराण और आगमों में इन्हें केवलज्ञान के अतिशय तथा देवकृत अतिशय कहा गया है। इन विशेषताओं को संक्षेप में इस प्रकार समझ सकते हैं (1) जहाँ जहाँ तीर्थकर का श्रीविहार होता है वहाँ - वहां तीर्थकर के विराजित स्थान के चारों दिशाओं में सौ-सौ योजन तक सुकाल होता है। (2) केवलज्ञान के बाद तीर्थंकर का श्रीविहार सदैव
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आकाश में ही होता है। (3) तीर्थकर के श्रीविहार के चारों ओर हिंसा का अभाव (4) केवलज्ञान के बाद तीर्थकर का कवलाहार नहीं होता है। (5) उपसर्ग का अभाव (6) मुख एक होने पर चारों ओर मुख दिखाई देना। (7) स्वयं की छाया न पड़ना (8) निर्निमेष दृष्टि (9) विद्याओं की ईशता (10) शरीर में नखों एवं बालों का न बढ़ना। (11) अट्ठारह महाभाषा, सात सौ लघु भाषाओं में भी जो संज्ञी जीवों की समस्त अक्षर-अनक्षरात्मक भाषाएं हैं उनमें तालु, दाँत, ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से रहित होकर एक ही सम एक साथ भव्यजनों को उपदेश देना। तिलोयपण्णति में केवलज्ञान के ये ग्यारह अतिशय कहे हैं। अन्तिम अतिशय विशेष है। उधर देवकृतअतिशय पुनः 13 ही हैं। दोनों अतिशयों में संख्या का न्यूनाधिक होना ति. प. के वर्णन की विशेषता है।
भगवान् जिनेन्द्र की स्वभावतः अस्खलित तथा अनुपम दिव्यध्वनि तीनों सन्ध्याकालों में नवमुहूर्तो तक खिरती है और एक योजन पर्यन्त जाती है। ति. प. में इस प्रकार तीन बार ही दिव्य ध्वनि खिरने का उल्लेख है। जबकि गोम्मटसार जीवकाण्ड की संस्कृत टीका में - तीर्थकर की ध्वनि पूर्वाह्न, मध्यान्ह, अपरान्ह और अर्धरात्रिकाल में छह छह घड़ी पर्यन्त बारह सभा के मध्य में सहज ही खिरती है। अत: दोनों प्रकार के कथन मिलते हैं। इसके अतिरिक्त गणधरदेव, इन्द्र एवं चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ यह दिव्य ध्वनि शेष समयों में भी खिरती है। यह दिव्य ध्वनि भव्यजीवों को छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्वों का निरूपण नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा करती है।
तीर्थकरों के श्रीविहार का यह भावात्मक तथ्य है कि (1) संख्यात योजनों तक वन प्रदेश असमय में ही पत्रों, फूलों एवं फलों से परिपूर्ण समृद्ध हो जाता है। (2) काँटों और रेती आदि को दूर करती हुई सुखदायक वायु प्रवाहित होती है। (3) जीव पूर्व वैर को छोड़कर मैत्री भाव से रहने लगते हैं। (4) तीर्थकर के श्रीविहार जितनी भूमि दर्पण तल सदृश स्वच्छ एवं रत्नमय हो जाती है। (5) सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से मेघकुमारदेव सुगन्धि त जल की वर्षा करता है। (6) देव विक्रिया से फलों के भार से नम्रीभूत शालि और जौ आदि सस्य की रचना करते हैं। (7) सब जीवों को नित्य आनंद होता है। (8) वायुकुमार देव विक्रिया से शीतल पवन चलता है। (9) कूप और तालाब आदि निर्मल जल से परिपूर्ण हो जाते हैं। (10) आकाश धुआँ एवं उल्कापातादि से रहित होकर निर्मल हो जाता है। (11) संपूर्ण जीव रोग बाधाओं से रहित हो जाते हैं। (12) यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर स्थित और किरणों की भांति उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्म चक्रों को देखकर मनुष्यों को आश्चर्य होता है। (13) तीर्थकर के श्रीविहार के समय उनके चरणों के नीचे चार दिशाओं और चार विदिशाओं में 7-7 की पंक्ति के हिसाब से 56 कमलों की रचना होती है। किन्तु क्रियाकलाप के अनुसार 225 कमलों की रचना होती है। वैभव के प्रतीक 1. ध्वज 2. भृगार, 3.कलश 4. दर्पण 5.पंखा 6.चमर 7.छत्र 8.सुप्रतिष्ठ ये अष्ठ मंगल द्रव्य तीर्थकर के श्रीविहार के समय आगे चलते हैं।
तीर्थकर को जब केवलज्ञान होता है, तब से चारों प्रकार के देव उनकी सेवा में श्रीविहार आदि में सदैव आते रहते हैं। देशना के अष्ट महाप्रतिहार्य होते हैं जो केवलज्ञान
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के बाद से सदा साथ में रहते हैं। प्रातिहार्य तीर्थकर भगवान् के पहिचान के विशेष लक्षण हैं। ये प्रातिहार्य तीर्थकर के सिवाय अन्य किसी भी महापुरुष के नहीं पाये जाते हैं। इन प्रातिहार्यो को धारण करने की योग्यता जिनमें होती है वे अरिहंत कहलाते हैं। ये प्रातिहार्य तीर्थकर परमात्मा के महिमा बोधक चिह्न के रूप में माने जाते हैं। प्रातिहार्य के शब्दार्थ से भी स्पष्ट होते हैं कि "प्रतिहारा इव प्रतिहारा सुरपतिनियुक्ताः देवास्तेषां कर्माणि कृत्याणि प्रातिहार्याणि" प्रातिहार्य की इस युत्पत्ति के अनुसार देवेन्द्रों द्वारा नियुक्त प्रतिहार-सेवक का कार्य करने वाले देवता को तीर्थकर अरिहन्त के प्रतिहार कहते हैं और उनके द्वारा भक्ति हेतु रचित 1.अशोकवृक्ष 2.सिंहासन 3.भामण्डल 4.तीनछत्र 5.चमर 6.सुरपुष्पवृष्टि 7. देवदुन्दुभि 8. देवों द्वारा भक्ति सहित जय-जय ध्वनि को प्रातिहार्य कहते हैं।
(1) जिस वृक्ष के नीचे तीर्थकर को केवलज्ञान होता है वही अशोक वृक्ष है, ऐसा ति.प. में उल्लेख है। किन्तु अन्य ग्रंथकारों के अनुसार समवसरण में विराजमान तीर्थकर के सिंहासन पर अशोकवृक्ष होता है वह पृथ्वीकायिक है तथा देवरचित है। शोक रहित तीर्थकर के मस्तक पर होने के कारण इसका नाम अशोक वृक्ष है। तीर्थंकरों का सान्निध्य प्राप्त करने वाले जीव शोक रहित हो जाते हैं यही अशोक वृक्ष का भावात्मक तथ्य है। तीर्थकर भगवान् जिन वृक्षों के नीचे दीक्षा धारण करते हैं वही उनका अशोकवृक्ष है ऐसा वर्णन भी आदिपुराण में है। तीर्थकर यद्यपि अधर में विराजते हैं तथापि वैभव का प्रतीक (2) उनसे चार अंगुल नीचे सिंहासन रहता है। (3) तीर्थकर परमात्मा के मस्तक के चारों
ओर प्रभामण्डल होता है। प्रभामण्डल के विषय में पूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर जी का भावात्मक चिंतन अत्यन्त रोचक है। शास्त्रसारसमुच्चय की जैनतत्वविद्या व्याख्या में मुनिश्री लिखते हैं -
Occult Science के अनुसार भामंडल (Halo) महान् व्यक्तियों के सिर के पीछे गोलाकर में पीले रंग के चक्र जैसा होता है। तीर्थंकरों का प्रभावलय उनकी परम औदारिक, अनुपम देह से निकलती हुई कैवल्य रश्मियों का वर्तुल मण्डल है। उनकी दिव्य प्रभा के आगे कोटि कोटि सूर्यों का प्रभाव भी हतप्रभ हो जाता है। सामान्य व्यक्तियों के पीछे पायी जाने वाली भावधारा को आभामण्डल कहते हैं। यह सबल और निर्बल दो प्रकार का होता है। जिनका चरित्र अच्छा हो, आत्मबल अधिक हो, उनका आभामण्डल सबल और जिनकी नैतिक भावधारा हीन हो उनका आभामण्डल निर्बल होता है। यह व्यक्ति की भावधारा का प्रतीक है।
सामान्य व्यक्तियों का आभामण्डल परिवर्तनशील होता है। बाध्य तत्त्वों के प्रभाव से उनकी भावधारा सदैव बदलती रहती है। जब कि असामान्य और निर्मल भावधारा वाले व्यक्तियों पर अशुद्ध वायु मण्डल का प्रभाव नहीं पड़ता। यह अपने आप में इतना सशक्त होता है कि अन्य भावधारा से प्रभावित नहीं होता, बल्कि यह अधिक बलवान् होकर अन्यों को अपने से प्रभावित भी करता है। यही कारण है कि महापुरुषों का सान्निध्य हमें अपनी तरंगों से प्रभावित कर प्रसन्नता प्रदान करता है। इससे निकलने वाले तैजस रश्मियाँ अलौकिक और शांत होती हैं। तीर्थकरों के भामण्डल की प्रतिच्छाया में भव्यात्मा अपने अतीत के तीनभव, एक वर्तमान और आगामी तीन भव इस प्रकार सात भवों को देख
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सकता है। (4) तीर्थंकर के मस्तक पर तीन छत्र तीन लोकों के साम्राज्य के सूचक होते हैं। (5) तीर्थकर भगवान के दोनों ओर देवों द्वारा चौसठ चमर ढोरे जाते हैं। चमर सदैव नीचे से ऊपर की ओर ढोरे जाते हैं। ये तीर्थकर के वैभव के प्रतीक है। नीचे से ऊपर की
ओर ढोरने से यह भावपक्ष उजागर होता है कि जो प्रभु को नमस्कार करता है वह उच्चगति को प्राप्त होता है। आचार्य मानतुंग जी भक्तामर स्तोत्र में मनोहारी शब्द चित्र में कहते हैं कि -
कुन्दावदात - चलचामर - चारुशोभं, विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम्। उद्यच्छाशांकशुचिनिर्झरवारिधार,
मुच्चैस्तटं सुरगिरेदिव शातकौम्भम्॥" हे परमात्मा ! आपका स्वर्णिम देह ढुरते हुए चमरों से उसी भांति शोभा दे रहा है जैसे स्वर्णमय सुमेरुपर्वत पर दो निर्मल जल के झरने झर रहे हैं। (6) पुष्पवृष्टि भगवान् के चरण कमलों के मूल में गिरती है। भक्तामरस्तोत्रकार ने इसे चित्ताकर्षक शब्दों में कहा है कि -
मन्दार-सुन्दर-नमेरु-सुपारिजात-, सन्तानकादिकुसुमोत्कर- वृष्टिरुद्धा। गन्धोदबिन्दु शुभमन्दमरुत्प्रपाता
दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिर्वा॥ ये पुष्पों की पंक्ति ऐसी प्रतीत होती है मानो आपके वचनों की पंक्तियाँ फैल रही हो। (7) तीर्थकर के सान्निध्य में ऊपर आकाश में भुवन व्यापी दुन्दुभि ध्वनि होती है। दुन्दुभिनाद सुनते ही आबालवृद्धजनों को अपार आनंद का अनुभव होता है और देवाधिदेव अरिहन्त प्रभु के श्रीविहार की सूचना भी सर्वजनों को एक साथ मिलती है। जगत् के सर्वप्राणियों को उत्तमपदार्थ प्रदान करने में यह दुन्दुभि समर्थ है। यह सद्धर्मराज अर्थात् परम उद्धारक तीर्थकर भगवान् की समस्त संसार में जयघोष कर सुयश प्रकट करती है। यह भावचित्र भक्तामर रचियता का है।
गंभीरतार-खपूरित - दिग्विभागस्, त्रैलोक्यलोकशुभसंगमभूतिदक्षः। सद्धर्मराज- जयघोषण-घोषकः सन्,
खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी॥ (8) गाढ़ भक्ति में आसक्त हाथ जोड़े.. हुए एवं विकसित मुख कमल से संयुक्त संपूर्ण गण (द्वादश) प्रत्येक तीर्थकर को घेर कर स्थित रहते हैं। पुराणों में इस प्रातिहार्य का दूसरा रूप है दिव्यध्वनि। किन्तु ति. प. में उपर्युक्त रूप में ही प्रातिहार्य वर्णित है। ये प्रातिहार्य देवों द्वारा किए जाने से इनमें दिव्यध्वनि के बजाय भक्ति सहित गणों का खड़े रहना या जय-जय ध्वनि होना रूप प्रातिहार्य उपयुक्त है। तीर्थंकर की परम पवित्र भावना
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का परिणाम है कि समवसरण के कोठों के क्षेत्र में यद्यपि जीवों का क्षेत्रफल असंख्यातगुण है तथापि वे सब जीव एक दूसरे से अस्पृष्ट रहते हैं। उनकी भावात्मक चरमोत्कृष्टता से बालक प्रभृति सभी जीव समवसरण में प्रवेश करने अथवा निकलने में अन्तर्मुहूर्तकाल के भीतर संख्यात योजन चले जाते हैं। वहां कभी भी भगदड़ नहीं होती है। समवसरण में सदैव आतंक, रोग, मरण, वैर, कामबाधा, पिपासा तथा क्षुधा की पीड़ा नहीं होती है।"
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तीर्थंकर भगवान का श्री बिहार केवलज्ञान के बाद निर्वाण प्राप्त होने तक अर्थात् आयु पूर्ण होने तक सर्वत्र होता रहता है जैसे महावीर भगवान् ने 30 वर्ष तक श्री विहार किया । पुराणों में अन्यत्र भी इस प्रकार का उल्लेख मिलता है। मुनिसुव्रत भगवान् ने साढ़े सात हजार वर्ष तक श्री विहार किया। 2
घातिया कर्मों का क्षय होते ही तीर्थंकर भगवान् में पर पवित्रता प्रकट हो जाती है। उनके आत्मतेज का प्रसार सारे लोक में होने लगता है। उनका प्रभाव असाधारण हो जाता है। यही कारण है कि तीर्थंकर का जहां भी श्री विहार होता है वहाँ सभी संतुष्ट, सुखी, स्वस्थ तथा संपन्न हो जाते हैं। तीर्थंकर के आत्मप्रभाव से प्रकृति भी प्रफुल्लित हो जाती है। पृथ्वी धनधान्य से परिपूर्ण हो जाती है श्रेष्ठ अहिंसामयी एक आत्मा का यह प्रभाव है। आज के वैज्ञानिक युग में यह बात सिद्ध हो चुकी है कि मनुष्य के भावों का प्रभाव वातावरण पर पड़ता है। पवित्र आत्माओं के शरीर से निकलने वाली तरंगे वातावरण को विशुद्ध बनाती है जबकि अपवित्र आत्माएं वातावरण को विषाक्त बनाती है। तीर्थंकर प्रभु तो परम पवित्र होते हैं। तीर्थंकर भगवान् अहिंसा के देवता हैं। उनके समक्ष हिंसा के परिणाम दूर हो जाते हैं। जहाँ जहाँ पर भी उनका श्री विहार होता है वहाँ वहां सभी को अभय प्राप्त हो जाता है। क्रूर से क्रूर प्राणी भी तीर्थंकर के प्रभाव से करुणामूर्ति बन जाता है। उनके समीप में जन्मजात पैर रखने वाले प्राणी शेर-गाय आदि भी एक घाट पर पानी पीते हैं।
अनन्त चतुष्टय तो उनके अन्तरंग गुण हैं। वे तो शाश्वत उनके साथ ही रहेंगे। तीर्थंकर का श्री विहार तेरहवें गुणस्थान के अन्तर्गत माना गया है। चौथे से चौदहवें तक उत्तरोत्तर विशुद्धि के गुणस्थान है। तेरहवां / चौदहवां गुण स्थान परम विशुद्धि का फल है । अतः तीर्थंकर के भावों की परमपवित्रता के कारण ही ति.प. के अनुसार केवलज्ञान के 11 एवं देवकृत 13, अष्टप्रातिहार्यादि 34 अतिशय विशेष महिमा मण्डित गुण होते हैं।
तीर्थंकर का श्री विहार उनकी इच्छापूर्वक नहीं होता है स्वतः होता है इसी बात को आचार्य श्री कुन्दकुन्द कहते हैं
-
ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो यणियदयो तेसिं अरहंताणं काले मायाचारो व इत्थी।"
स्त्रियों के मायाचार की तरह कर्मोदय के उदयकाल में अरहंतों का स्थान ( रुकना), आसन, विहार एवं धर्मोपदेश नियत होता है। तीर्थंकर का अनैच्छिक श्रीविहार होने पर भी सर्वजीवों का सदैव परम कल्याण करता है।
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सन्दर्भ :
1. भगवती आराधना - विजयोदया टीका - 302 2. आवश्यक नियुक्ति -80 3. जैन तत्त्वविद्या - पृ. 16 4. जैन तत्त्वविद्या - पृ. 39 5. ति.प., भाग-2, गा. 724-725 6. ति.प., भाग-2, गा. 719 7. आदिपुराण भाग-1, पूर्व-22 श्लोक-80 8. ति.प. भाग-2, गा. 713 9. ति.पं. भाग-2, गा. 718 10. ति.प. भाग-2, गा. 728 11. ति.प. भाग-2, गा. 732 12 ति.प. भाग-2, गा. 720-723 13. ति.प. भाग-2, गा. 741-742 14. आदिपुराण भाग-1, श्लोक-81-85 15. ति.प. भाग-2, गा. 741-752 16. ति.प. भाग-2, गा. 769-799 17. ति.प. भाग-2, गा, 790 18. ति.प. भाग-2, गा. 759-763, 800-872 तक 19. ति.प. भाग-1,2, गा. 941 20. ति.प. भाग-2 गा. 877-904 तक 21. ति.प. भाग-2, गा.908-912 22. गोम्मटसार जीवकाण्ड टीका -356/761/0 23. ति.प. भाग-2, गा.913-915 24. ति.प. भाग-2, गा. 916-923 25. ति.प. भाग-2, गा. 924-936 26. जैनतत्त्वविद्या - पृ. 45-46 27. भक्तामर स्तोत्र - श्लोक- 30 28. ति.प. भाग-2, गा. 934 29. भक्तामर स्तोत्र- श्लोक - 33 30. भक्तामर स्तोत्र- श्लोक- 32 31. ति.प. भाग-2, गा. 939-942 32. हरिवंशपुराण सर्ग-64, श्लोक. 12, सर्ग-16, श्लोक-74 33. प्रवचनसार, प्रथम अधिकार, गा. 44
- 59, श्रीपार्श्वनाथ दि0 जैन उदासीन आश्रम
___ महावीर मार्ग, अशोकनगर, उदयपुर - 313001 (राजस्थान)
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आचार्य श्री जयसेन की दृष्टि में स्याद्वाद (समयसार के संदर्भ में)
- डा. सुपार्श्व कुमार जैन
अनेकान्तमयी वस्तु का कथन करने की पद्धति स्याद्वाद है। "स्यात्कथंचित् विवक्षित प्रकारेण अनेकान्तरुपेण वंदनं वादो जल्पः कथनं प्रतिपादनमिति स्याद्वाद:"- अर्थात् स्यात् या कथंचित् विवक्षित प्रकार से अर्थात् अपनी विवक्षा के लिए हुए अनेकान्त रूप से बोलना, कथन करना स्याद्वाद कहलाता है। इस कथन से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि सभी वस्तुएं अनेकान्तमय है। भगवज्जिनेन्द्रदेव का यह शासन संपूर्ण वस्तुओं को अनेकान्तात्मक ही कहता है। प्रत्येक वस्तु पदार्थ में अनन्त धर्म होते हैं, इस प्रकार अनन्त धर्मी वस्तु में वे धर्म पृथक्-पृथक् व एक-एक ही हैं। जब पदार्थों में अनेक धर्मों का अस्तित्व विद्यमान है तो उसका निषेध कैसे किया जा सकता है ? अनेकान्त दर्शन इसी सद्भूत मान्यता पर आधारित है। उस अनेकान्त को व्यक्त करने का नाम स्याद्वाद है, अत: उसे अनेकान्तवाद भी कहा जा सकता है। सप्तभंगी इसी को व्यक्त करने की शैली है, अतः अनेकान्तवाद, सप्तभंगी इसी स्याद्वाद के रुपांतर ही हैं।
अनेकान्त का अर्थ स्पष्ट करते हुए आचार्यश्री कहते हैं- “एक वस्तुनिवस्तुतत्वनिष्पादक अस्तित्वनास्तित्वद्वयादिस्वरूपपरस्परविरूद्धसापेक्षशक्तिद्वयं यत्तस्य प्रतिपादनं स्यादनेकान्तो भण्यते- "- एक ही वस्तु में वस्तुत्व को निष्पन्न करने वाली अस्तित्व-नास्तित्व सरीखी दो परस्पर विरूद्ध सापेक्ष शक्तियों का जो प्रतिपादन किया जाता है, उसका नाम अनेकान्त है। इस प्रकार वस्तु में एक समय अनेको क्रमवर्ती व अक्रमवर्ती विरोधी धर्मों, गुणों, स्वभावों व पर्यायों के रूप में भली प्रकार प्रतीति के विषय हैं। जो वस्तु किसी अपेक्षा नित्य प्रतीत होती है तो वही वस्तु किसी अन्यापेक्षा अनित्य भी प्रतीत होती है। स्वयं आचार्य श्री जिनसेन कहते हैं- कि "आत्मा ज्ञानरूप से तद्रूप है तो ज्ञेयरूप से वही अतद्रूप है, द्रव्यार्थिकनय से एक है तो पर्यायार्थिकनय से वही अनेक है। स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव रूप चतुष्टय के द्वारा जो सद्रूप है, वही पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप चतुष्टय के द्वारा असद्रूप है, द्रव्यार्थिकनय से नित्य है तो पर्यायार्थिकनय से अनित्य है। पर्यायार्थिकनय के द्वारा भेदात्मक है तो द्रव्यार्थिकनय के द्वारा वही अभेदात्मक है इत्यादि अनेक धर्मवाला आत्मा है। इस प्रकार परस्पर विरोधी धर्मों को एकान्त दृष्टि से मानें तब तो ये पारस्परिक विरूद्ध हो जाते हैं किन्तु आचार्य समन्तभद्र स्वामी के अनुसार यदि स्यात् अर्थात् कथंचित् रूप से इन्हें स्वीकार करें तो ये पारस्परिक पोषक बने रहते हैं।
इस तरह 'स्यात्' शब्द किसी अपेक्षा से (कथंचित्) का वाचक है। प्रमाण की दृष्टि से वस्तु तो अनेकान्त रूप है किन्तु नय की दृष्टि में वस्तु परस्पर विरोधी स्वभाव वाली
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 दिखती है फिर भी वस्तु का यथार्थ बोध हो जाता है क्योंकि विवक्षित नय में वस्तु वैसी ही है। जैसे पुत्र की दृष्टि में वह पिता ही है किन्तु पिता में जो पुत्रवत्, पतित्व आदि के धर्म विद्यमान हैं, वे पुत्र की दृष्टि में गौण होते हैं। जो पुत्र है वह पिता भी है, पति भी है-इस प्रकार नय विवक्षा में ऐसा मानने पर कुछ भी विरोध नहीं आता है।
वस्तुतः शब्द में सीमित शक्ति है। जितना जाना जा सकता है, उतना कहा नहीं जा सकता। इसका कारण यह है कि जितने ज्ञान के अंश हैं, उन ज्ञानांशों के वाचक न तो उतने शब्द हैं और न उनको कह डालने की शक्ति जिहवा में है। अत: जिसके बारे में आप कहते हैं तो एक समय में उसकी एक बात कह सकते हैं, उस समय अन्य अनेक बातें कहने से छूट जाती हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे बातें (गुण) उनमें नहीं हैं हैं तो अवश्य किन्तु गौण रुप से विद्यमान हैं। जैसे एक स्त्री में मां, बेटी, पत्नी, बहिन आदि अनेक गुण विद्यमान हैं परन्तु वह अपनी बेटी की अपेक्षा माँ ही है, अन्य नहीं जो कि यथार्थ है। यदि उसमें पुत्री, पत्नी, बहिन आदि का परिचय (गुण) सर्वथा छोड़ दिया जाये तो उसका परिचय अधूरा रहेगा। इस कमी या अधूरेपन को मिटाने के लिए ही आचार्यों ने 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया है। 'स्यात्' शब्द सहित कथन करना स्याद्वाद है ऐसा सिद्ध होता है। जो बात कही जा रही है वह किसी एक अपेक्षा से है, अन्य अपेक्षा या अभिप्राय से उसे अन्य प्रकार भी कहा जा सकता है। इस प्रकार 'स्याद्वाद' हर तरह के विसंवाद समाप्त कर वस्तु तथ्य को प्रकट करता है।
आचार्य जयसेन स्वामी बारहवीं शताब्दी के विद्वान हैं। समयसार के अतिरिक्त प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय पर आपने तात्पर्यवृत्ति टीका लिखी है। इनकी यह टीका सरल एवं हृदयग्राही तो है ही, अध्यात्म शास्त्रों के रहस्य खोलने में भी समर्थ है क्योंकि इन्होंने अपेक्षाओं की अपेक्षा रखकर स्पष्ट किया है। पीठिका अधिकार में स्याद्वाद
प्रारंभ में ही समुदाय पातनिका के अन्तर्गत आचार्यश्री ने भेदनय व अभेदनय की अपेक्षा रत्नत्रय का, निश्चय व व्यवहार की अपेक्षा श्रुतकेवली का तथा 'ववहारोअभूदत्थो' गाथा में निश्चय व व्यवहारनय का वर्णन किया है। नयापेक्षा पदार्थ वैसा ही है, अन्यरुप नहीं है। यथा शुद्ध निश्चयनय में जीव ज्ञायकमात्र है, शुद्ध चैतन्य स्वभाव ही है किन्तु व्यवहार नयापेक्षा भेदरूप है। निश्चय व ववहार श्रुतकेवली का कथन करते हुए कहा कि 'जो भावश्रुत रूप स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा केवल अपनी शुद्धात्मा को जानता है वह निश्चय श्रुतकेवली है और जो केवल बहिर्विषयक द्रव्यश्रुत के विषयभूत पदार्थों को जानता है वह व्यवहार श्रुतकेवली होता है।
सम्यक्त्व का स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य कहते हैं कि 'जीवादि नवपदार्थ जब भूतार्थनय से जाने जाते हैं तब ये ही अभेदोपचारनय से सम्यकत्त्व के विषय होने के कारण व्यवहार-सम्यकत्व के निमित्त होते हैं। निश्चयनय से अपने शुद्धात्मा का परिणाम ही सम्यकत्व है। उन्होंने स्पष्ट किया कि तीर्थ की प्रवृत्ति के लिए प्रारंभिक शिष्य की अपेक्षा
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से नवपदार्थ भूतार्थ कहे जाते हैं किन्तु निर्विकल्प समाधिकाल में वे ही अभूतार्थ / असत्यार्थ ठहरते हैं अर्थात् वे शुद्धात्मा के स्वरूप नहीं होते। इस समाधिकाल में उन नव पदार्थों में शुद्ध निश्चयनय से एक शुद्धात्मा की झलकता है, वही निश्चय सम्यक्त्व है।
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'अस्त्येव' यह कथन एकांतवाची है तो 'स्याद्वस्त्येव' यह कथन अनेकांतवाची है। स्याद्वाद को समझे बिना कोई अध्यवसान को कोई कर्म को, कोई कर्म के फल को कोई नोकर्म को, कोई अनुभाग को और कोई कर्मों के परस्पर संयोग से उत्पन्न जीव को मानते हैं, वस्तुतः व्यवहारनय से रागादि और वर्णादि ऐसे दोनों भाव जीव के हैं किन्तु निश्चयनय से जीव के नहीं है। गाथा 62 की टीका में यह शंका उठाई है कि वर्णादि जो बाहर दिखते हैं उनका तो जीव से क्षीर के समान संयोग संबन्ध है उनको व्यवहार से जीव का कहना ठीक है किन्तु अभ्यन्तर में होने वाले रागादि भावों का ऐसा संयोग सम्बन्ध नहीं हो सकता । इनका सम्बन्ध जीव के साथ अशुद्ध निश्चयनय से कहना योग्य है? इसका आचार्य जयसेन स्वामी उत्तर देते हुए कहते हैं कि रागादि का सम्बन्ध जीव के साथ अशुद्ध निश्चयनय से है ऐसा जो कहा गया है वह तो आत्मा के साथ द्रव्यकर्म का सम्बन्ध बतलाने वाले असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा तारतम्य भेद दिखाने के लिए कहा गया है। वास्तव में अशुद्ध निश्चयनय भी शुद्ध निश्चय की अपेक्षा व्यवहार ही है, ऐसा समझना चाहिए।
कर्तृकर्म महाधिकार में गाथा 79 की टीका में एक प्रश्न के उत्तर में आचार्यश्री बतलाते हैं कि जीव और अजीव दोनों ही कथचत परिणमनशील है। वह कहते हैं कि यह जीव शुद्ध निश्चयनय से अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता तथापि व्यवहार से कर्मों के उदय के वश लेकर राग द्वेषादिक-औपचारिक विकारी परिणामों को ग्रहण करता है। यद्यपि स्फटिक के समान यह जीव रागादि विकारी परिणामों को अंगीकार करता है फिर भी अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता है जबकि इसमें कथचत परिणामीपना सिद्ध है।
आगे गाथा 81 की टीका में स्पष्ट कहा है कि यह आत्मा पुण्य-पापादि कर्मजनित विकारी भावों का निश्चयनय से अकर्त्ता तथा व्यवहारनय से कर्त्ता है।
गाथा 109 की टीका में आया है कि अज्ञानी जीव अशुद्ध उपादान रूप अशुद्ध निश्चयनय से मिथ्यात्त्व, रागादि भावों का ही कर्त्ता होता है, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों का नहीं। आत्मा को द्रव्यकर्म का कर्त्ता असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से कहा गया है। इस कारण अशुद्ध निश्चयनय को निश्चय की संज्ञा दी गई है। तो भी शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा वह व्यवहार ही है। आचार्य श्री ने इस प्रकार सापेक्षता को ध्यान में रखकर उपादान के दो भेद कर दिए अशुद्ध-उपादान, अग्नि के द्वारा गर्म किए हुए लोहे के पिण्ड के समान आत्मा के औपपाधिक भाव, तथा शुद्ध उपादान यथा स्वर्ण का अपना पीतत्त्व गुण, का सिद्ध जीव अपने अनंतज्ञानादि गुणों का है।
जीव के रागादिभाव का कर्त्ता कौन है? कोई द्रव्यकर्म को इसका कर्त्ता कहते हैं तो कोई जीव को । स्याद्वाद की दृष्टि में तो कथंचित् जीव इनका कर्त्ता है, कथंचित् द्रव्यकर्म इनका कर्त्ता है। स्याद्वाद शैली में इसका समाधान आचार्य श्री जयसेन स्वमी ने निम्न प्रकार
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अनेकान्त 62/3, जुलाई सितम्बर 2009 किया है (गाथा 116-119 ) - जैसे स्त्री-पुरूष दोनों के सहयोग से उत्पन्न पुत्र को विवक्षावश माता की अपेक्षा देवदत्त का पुत्र है ऐसा कोई कहते हैं, पिता की अपेक्षा देवदत्त का यह पुत्र है ऐसा कोई कहते हैं, परन्तु इस कथन में कोई दोष नहीं है क्योंकि विवक्षाभेद से दोनों ही ठीक हैं। वैसे ही जीव और पुद्गल इन दोनों के संयोग से उत्पन्न होने वाले मिथ्यात्व रागादि रूप भाव प्रत्यय अशुद्ध उपादान रूप अशुद्ध-निश्चय - नय से चेतन है क्योंकि जीव से संबद्ध हैं किन्तु शुद्ध उपादानरूप शुद्ध निश्चयनय से ये सभी अचेतन हैं। क्योंकि पौद्गलिक कर्म के उदय से हुए हैं। एकांत से न ये जीवरूप ही हैं और न पुद्गलरूप ही हैं किन्तु चूना और हल्दी के संयोग से उत्पन्न कुंकुम की भांति ये संयोगज भाव हैं। वास्तव में तो सूक्ष्मरूप शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में इनका अस्तित्व ही नहीं है। क्योंकि ये अज्ञान द्वारा उत्पन्न हैं अतः कल्पित हैं।
गाथा 152 में पुण्य-पापाधिकार में आचार्य श्री ने कहा कि जब कर्म के हेतु, स्वभाव, अनुभव और बंधरूप आश्रय की अपेक्षा विचार किया जाये तो पुण्य व पाप में कोई भेद नहीं है। यद्यपि व्यवहार की अपेक्षा भेद है तथापि निश्चय नय से शुभ व अशुभ कर्मरूप कोई भेद नहीं है इसलिए व्यवहारी लोगों का पक्ष बाधित होता है ।
गाथा 173 में सम्यग्दृष्टि अबंधक होता है। इसका स्पष्टीकरण यह है कि सम्यग्दृष्टि सराग और वीतराग भेद से दो प्रकार के हैं- वीतराग सम्यग्दृष्टि तो नवीन कर्मबंध को सर्वथा नहीं करता और सराग सम्यग्दृष्टि अपने अपने गुणस्थान क्रम से बंध-व्युच्छिति कर अगले- अगले गुणस्थान में उतने कर्मों का अवन्धक होता है अर्थात् निचले गुणस्थानापेक्षा अबन्धक और ऊपर के गुणस्थानापेक्षा बन्धक होता है। उन्होंने 'अबन्धक' का तात्पर्य सर्वथा अबन्धक नहीं अपितु ईषत् - बन्धक बताया है।
गाथा 180-183 की टीका में कहा है कि यह जीव रागादि भावों के अनुसार नूतन कर्मों को बाँधता है किन्तु अस्तित्व मात्र से पुरातन कर्म नये कर्म के बंधक नहीं होते अर्थात् बिना रागादिक भाव के द्रव्यकर्म विद्यमान होते हुए भी कर्मबन्ध के कारण नहीं होते इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव अबन्धक कहा गया है। आचार्य जिनसेन स्वामी ने टीका में सापेक्षित दृष्टि से स्पष्ट करते हुए कहा है कि अविरत सम्यग्दृष्टि 43 प्रकृतियों की अबन्धक एवं 77 प्रकृतियों का स्वल्प स्थिति अनुभाग का बन्धक होते हुए भी संसार वास का छेद करता है।
यह आत्मा श्रुतज्ञान (मानसिक ज्ञान) में प्रत्यक्ष है। इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन स्वामी गाथा 198 की टीका में कहते हैं कि शुद्ध निश्चयनय से रागादि विकल्प रहित स्वसंवेदनरूप भावश्रुतज्ञान केवलज्ञान की अपेक्षा से परोक्ष ही है तथापि सर्वसाधारण को होने वाला इन्द्रिय मनोजनित सविकल्पज्ञान की अपेक्षा प्रत्यक्ष है। इस कारण आत्मा स्वसंवेदनज्ञान की अपेक्षा प्रत्यक्ष है परन्तु केवलज्ञानापेक्षा वह परोक्ष भी है। सर्वथा परोक्ष ही है ऐसा नहीं कहा जा सकता।
गाथा 202 की टीका में सम्यग्दृष्टि का भोगोपभोग निर्जरा के निमित्त होता है। यहां भी
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सापेक्षवाद का आश्रय लेकर कहा है कि इस ग्रंथ में वीतराग सम्यग्दृष्टि का ग्रहण है किन्तु चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि का कथन यहां गौण है। यदि इसे भी यहां लिया जाये तो मिथ्यादृष्टि प्रथम गुणस्थानवी जीव की अपेक्षा से अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी क्रोधादिजनित रागादिक नहीं है अतः मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि अबंधक है।
आध्यात्मिक ग्रंथ होने के कारण आचार्य श्री जिनसेन स्वामी ने अपनी व्याख्या में प्रधानता से वीतराग सम्यग्दृष्टि का ग्रहण किया है तथा जघन्य सराग सम्यग्दृष्टि को गौण रखा है। गाथा 211-212 में भी 'रागी सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता' का तात्पर्य कर्म प्रकृति की सापेक्षा से स्पष्ट किया है।
रागादि भाव का निमित्त बाह्य वस्तुएं हैं फिर भी बंध का कारण वह बाहृय वस्तु न होकर जीव का रागादि रूप अध्यवसान भाव है। तो फिर बाह्य वस्तु का सद्भाव बन्ध का कारण नहीं है इसलिए उसके त्याग की आवश्यकता भी नहीं है- इस शंका का समाधान गाथा 277 में दिया गया है कि रागादिक भाव नहीं होने देने के लिए बाहृय वस्तु के त्याग की आवश्यकता है। बाहृय वस्तु साक्षात् तो नहीं बल्कि परंपरा से बंध का कारण है। साक्षात् बंध का कारण तो अध्यवसान भाव ही हैं।
गाथा 351-354 की टीका में आचार्यश्री ने अपने स्याद्वाद पक्ष की सिद्धि करते हुए अनेकान्त व्यवस्था से बताया कि द्रव्यार्थिकनय से जो कार्य करता है, वही उस फल को भोगता है किन्तु पर्यायार्थिकनय से अन्य ही कर्ता है अन्य ही भोगता है क्योंकि जीव का स्वरूप नित्यानित्यात्मक स्वभाव वाला है। उन्हीं के शब्दों में - "जिसने मनुष्य जन्म में जो शुभाशुभ कर्म किया, वही जीव द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा देवलोक या नरक में जाकर उसके फल को भोगता है और पर्यायार्थिकनय से उसी भव की अपेक्षा बालकाल में किए गए कर्म को यौवनकाल में भोगता है या अति संक्षेप से अन्तर्महूर्त के बाद भोगता है, भवान्तर की अपेक्षा मनुष्य पर्याय में किए कर्म को देवपर्याय में जाकर भोगता है। इस प्रकार अनेकान्त की व्यवस्थारूप से स्वपक्ष की सिद्धि की।"
गाथा 360-372 की टीकाओं में जीव के रागादिक भावों के कर्ताकर्त्तापन की स्याद्वाद से सिद्धि की है। सारांश में पं. जयचन्द जी कहते हैं- जब तक स्व-पर का भेद विज्ञान न हो तब तक तो रागादिक अपने चेतन रूप भावकर्मों का कार्य मानो। भेद विज्ञान हुए पश्चात् (समाधिकाल में) शुद्ध विज्ञान धन समस्त कर्त्तापन का अभाव कर रहित एक ज्ञाता ही मानो। इस प्रकार एक ही आत्मा मे कर्ता और अकर्ता दोनों भाव विवक्षा के वश से सिद्ध होते हैं। यह स्याद्वाद जैनियों का है तथा वस्तु स्वभाव भी ऐसा ही है, कल्पना नहीं है।
गाथा 438 में टीका में कहा गया है कि व्यवहारनय द्रव्यलिंग की मोक्षमार्ग में उपयोगी और निश्चयनय इस विकल्प को नहीं चाहता। यहां आचार्यश्री जयसेन जी कहते हैं कि यहां जो द्रव्यलिंग को निषिद्ध किया गया है उसे सर्वथा निषिद्ध मत मान लेना बल्कि यहां तो निश्चय रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प रूप जो भावलिंग है उससे रहित होने वाले यतियों
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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 को संबोधित किया है कि द्रव्यलिंग मात्र से ही संतोष मत करना किन्तु द्रव्यलिंग के आधार से निश्चय रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधि रूप भावना को प्राप्त करने की चेष्टा करना। यहां द्रव्यलिंग का निषेध नहीं किया किन्तु भावलिंग रहित द्रव्यलिंग का निषेध किया है। इस प्रकार भावलिंग से रहित मात्र द्रव्यलिंग से मोक्ष नहीं होता किन्तु जो भावलिंग सहित हैं उनका वहां द्रव्यलिंग सहकारी कारण है।
टीका में एक प्रश्न उठाया है कि केवलज्ञान तो शुद्ध होता है और छद्मस्थों का ज्ञान अशुद्ध, वह अशुद्ध रूप ज्ञान शुद्धरूप केवलज्ञान का कारण नहीं हो सकता। स्याद्वाद दृष्टि से समाधान देते हुए आ0 श्री जयसेन जी कहते हैं कि 'ऐसा नहीं है, छद्मस्थ का ज्ञान कथंचित्, शुद्ध, कथंचित अशुद्ध होता है। यद्यपि केवलज्ञान की अपेक्षा शुद्ध नहीं होता तथापि मिथ्यात्व और रागादिरहित होने से वीतराग सम्यकत्व चारित्र सहित होने से वह शुद्ध होता है। अभेदनय से वह छद्मस्थ सम्बन्धी भेदज्ञान आत्मस्वरूप ही होता है इसलिए एक देश व्यक्तिरूप उस ज्ञान के द्वारा सकलदेश व्यक्तिरूप केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है, इसमें कोई दोष नहीं है।
उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि समयसार की टीका में आ. जयसेन जी की सर्वत्र स्याद्वाद दृष्टि है और यही कारण है कि उनकी यह व्याख्या सर्व सामान्य ज्ञानियों के लिए भी रहस्य से अवगत होने के लिए उत्कृष्ट व सहज ज्ञानगम्य बन गई है। नय प्रमाण आदि आगमज्ञान से युक्त अभ्यासी के लिए समयसार जी की यह टीका सहज ही हृदयंगम हो जाती है क्योंकि अनेकान्तवादी को अनेकान्त भाषा शीघ्रता से पकड़ में आ जाती है, एकान्तवादी की ऐकान्तिक भाषा उसकी समझ से परे है।
सन्दर्भ :
1. समयसार / ता. वृ. / स्याद्वादाधिकार 2. वही. 3. वही. 4. वही, उद्धृत 'सर्वथेतिप्रदुष्यान्ति पुष्यन्ति स्वादितीहते'। 5. समयसार गाथा 7 / ता. वृ. 6. वही /गाथा 10/ ता. वृ. 7. वही, नवपदार्थधिकार की पातनिका 8. वही /गाथा 15/ ता. वृ.
180/12, पटेलनगर, नई मण्डी ,
चौड़ी गली, मुजफ्फरनगर (उ.प्र.)
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Book Review RISABHA DEVA - THE FOUNDER OF JAINISM
By Barrister C. R. Jain
Price:P.B. Rs. 200/-, H.B.Rs. 325/- PP 156 Frist Edition 1929
Pubished by : Bhagwan Rishabhdev Granthmala, Second Edition 2008
Sanganer, Jaipur Also Available at: Vir Sewa Mandir, 21, Daryaganj.
New Delhi 110002
Risabha Deva was first written by C.R. Jain in 1929 and has been out-of-print for more than 75 years. This book remains till date one of the most elaborate and authoritative analysis on Risabha Deva. In the original book, photographs and illustrations were in black and white and these have been replaced by 16 coloured photographs in the present edition.
Risabha Deva, the first Tirthamkara of Jains was the founder of Jainism, Jain chronology places him in almost immeasurable antiquity in the past, Risabha was born at the end of the third period in the current regressive half cycle of time (AVASARPANI) when life was no longer ideyllic. In the Hindu Bhagavat-Purana, Risabha is mentioned as an incarnation of God Vishnu. There is sufficient evidence that Risabha Deva was worshipped in the Indus Valley civilisations. Numerous seals of image of bulls (bulls the symbol of Risabha) have been found and also a nude image of male standing in erect posture (Kayotsarga) have been found in Mohenjodaro excavations. The Vedas have mentioned him in Vedic hymns as a long haired sage often associated with Shiva. Some images of Risabha have been found with locks of hair hanging on the shoulders.
C.R.jain has discussed the previous incarnations of Risabha in Jaina canonical literature. The conditions of existence of early life have been explained in this book. His father was Nabhi, one of the patriarchs (Kulkaras) of that era and his mother was Maru-Devi. His father Nabhi appointed him the king who belonged to Kshtriya Varna or ruling class of society. Risabha Deva Organised the society and taught Asi (swordsmanship). Krishi (agriculture), Masi (writing). Vanijaya (commerce), Silpa (crafts) and Vidya (knowledge) to people. He developed alphabets and taught them first to Brahmi and mathematics to his daughter Sundari. These professions changed the earth from the place of enjoyments (Bhogabhumi) to place of action (Karmabhumi). Thus, Jinasen in Adipurana virtually called him Jain Brahma. The importance of Risabha Deva therefore lies in the fact that he created the organisation of human society and was called Prajapati (lord of Creatures), AdiDeva (First Lord) and the World Teacher. He was also the first lawgiver to the society and set up spiritual and secular laws for society and mankind. He also devised the new marriage system.
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At the time of renouncing his household life, he appointed Bharat, his eldest son as a king to succeed him. He also gave portions of his territory to his other sons, including Bahubali. One of the grandsons of Risabha was MARICHI, who after many many births became the 24th and the last Tirthamkara Mahavira.Risabha practised nudity for most of the mendicant life. He meditated in Padmasana and (Standing Still) Kayotsarga posture. Risabha attained liberation or Moksha on Mount Kailasa. The research scholars will find detailed references on Risabha in the Bhagavata Purana, Adipurana, Kalpasutra and the Mahapurana.
Pt. Jugal Kishore Mukhtar also wrote a path breaking article in Hindi in 1907republished in "Jain Tirthamkron Ka Shaasan-Bhed". pp. 67 to 79, in Jain Sahitya ka Itihas (Vir Sewa Mandir, Delhi). Quoting Digamber and Shvetamber sources, Pt. Jugal Kishore Mukhtiar has argued that Risabhadeva and Mahavir taught Pancha Mahavratas (Chedosthapana). Neminath Bhagvan, 22nd Tirthamkara, taught mainly Samayika (Equanimity). Lord Parsvanath taught Chaturyam-Dhrma. Thus depending on times and conditons of existence at different times, different Tirthamkaras have not all taught the same Jain doctrines in the same manner. the different works of C.R. Jain and Pt. Jugal Kishor Mukhtar emphasize the need for further research by scholars in this field and also emphasize that Samayika (Equanimity) and Daya (Compassion along with PANCHAMAHAVRATAS remain the most powerful intergrating teachings of TIRTHAMKARAs of Jains.
The pesent book Risabha Deva by C.R. Jain has summarised the life and teachings of Risabha Deva in Digamber tradition. Since then important works on Risabha Deva have been: (1) Devendra Muni- Risabha Deva: ek parishilan (Hindi) from Agra, Summarises Shevetamber tradition, (2) P.S. Jaini- Jina-Risabha as an Avatar of Vishnu- Collected Papers on Jain Studies, (3) Bharat and Bharat -by Dr. Prem Sagar Jain. (4) Acharya Vidyanand Muni's Jain Dharma, Ahimsa evam Mahtma Gandhi (Kund-Kunda Bharati, Delhi),
These books emphasize that Jainism can be studied only by analysing the contributions of Jinas and TIRTHAMKARAS. The present book remains till today an essential and authentic reading for serious scholars not only on history and antiuity of Jainism, but also on the contribution and philosophy of the Jains.
Prof. M.L. Jain (Advisor-Academics) prof.m.l.jain@gmail.com
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Year-62, Volume-4 October-December 2009
RNI No. 10591/62 ISSN 0974-8768
अनेकान्त
(जैनविद्या एवं प्राकृत भाषाओं की त्रैमासिक शोध पत्रिका)
ANEKANTA
(A Quarterly Research Journal for Jainology & Prakrit Languages)
सम्पादक डॉ. जयकुमार जैन, मुजफ्फरनगर (उ.प्र.)
Editor
Dr. Jaikumar Jain, Muzaffarnagar (U.P.)
Mobile: 09760002389
वीर सेवा मन्दिर, नई दिल्ली-110 002 Vir Sewa Mandir, New Delhi-110 002
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अनेकान्त
ANEKANTA
(जैनविद्या एवं प्राकृत भाषाओं की त्रैमासिक शोध पत्रिका) (AQuarterly Research Journal for Jalnology & Prakrit Languages)
Founder
संस्थापक आचार्य जुगलकिशोर मुखतार 'युगवीर'
Acharya Jugalkishor Mukhtar 'Yugveer'
Editor
Prof. PhoolChand Jain 'Premi', Varanasi,
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सम्पादक मण्डल प्रो. फूलचन्द जैन 'प्रेमी', वाराणसी प्रो. कमलेश कुमार जैन, वराणसी,
प्रो. उदयचन्द जैन, उदयपुर डॉ. हुकुमचन्द जैन, दिल्ली प्रो, एम.एल. जैन, नई दिल्ली
Prof. Udaychand Jain, Udaipur,
Dr. Hukumchand Jain, Delhi,
Prof. M.L. Jain, New Delhi
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This issue - Rs. 20/- Yearly - Rs. 80/
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वीर सेवा मंदिर (जैन दर्शन शोध संस्थान) Vir Sewa Mandir (A Research Institute for Jainology) 21, अंसारी रोड़ दरियागंज, नई दिल्ली-110 002-06 21, Ansari Road, Daryaganj, New Delhi-110002-06 फोन नं. 011-30120522, 23250522, 09311050522
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विद्वान लेखकों के विचारों से सम्पादक मंडल का सहमत होना आवश्यक नहीं हैं। लेखों में दिये गये तथ्यों और सन्दर्भो की प्रामाणिकता के संबंध में लेखक स्वयं उत्तरदायी हैं। सभी प्रकार के विवादों का निपटारा दिल्ली न्यायालय के अधीन होगा।
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अध्यात्म पद
जीव तैं मेरी सार न जानी
जीव तैं मेरी सार न जानी, हम तुम बहुत बार मिल विछुरे, आदि किन्हीं न पिछानी। जीव रौं....॥ पाप, पुण्य के रथ चढ़ि दौरे, नर, सुर, पशु गति छानी, निज स्वरूप निज पंथ न पायो, भ्रम भूले अज्ञानी। जीव तें...॥ रसि, आँख, मुख, कान, हाथ, पग सब तुझ आज्ञा मानी, तुम अपनों हित क्यों नहिं कीन्हों, कब हमने हठ ठानी। जीव रौं...॥ चाकर राखे, काम करावे, देव अन्न और पानी, सब क्यों मोह नीद में सोये ? अब रोये अज्ञानी। जीव रौं...॥ मोह पाय विषियन में राच्यो, भयो नहीं तप ध्यानी, मोह कृतघ्न बतावे चेतन, अपनी भूल न मानी।। जीव तैं....॥ मानव तन को सुरपति तरसें, पावत दीक्षा ठानी, मो पाये बिन कभी मिलैना शिवपुर की रजधानी।। जीव ते....॥ 'द्यानत' मनुष देह धरि धारें, पंच महाव्रत ज्ञानी, तेही पार होय भव दधिरौं मिले मोक्ष रजधानी। जीव ते...॥
- द्यानतराय
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अनुक्रमणिका
विषय
लेखक का नाम
पृष्ठ संख्या
अध्यात्म पद
अनुक्रमणिका सम्पादकीय
- डॉ. जयकुमार जैन 1. जैनधर्म चिन्तन और सामाजिक विज्ञान -प्रो. दयानन्द भार्गव 2. वैदिक संस्कृति एवं श्रमण संस्कृति -प्रो. फूलचन्द जैन प्रेमी 3. समयसार की "ज्ञान ज्योति" टीका का वैशिष्टय
-डॉ. श्रेयांस कुमार जैन 4. ऋजुसूत्रनय और बौद्ध दर्शनः जैन दृष्टि से समीक्षा -डॉ. अनेकान्त जैन 30 5. मण्डल विधान पूजन-जैन आगम के आलोक में
35
-डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' 6. जैनधर्म और राजनीति
- डॉ. रमेशचन्द्र जैन 7. जैन धर्म में स्वातन्त्र्य चेतना -डॉ० मोहन चन्द 8. रत्नत्रय बंधक या अबंधक - श्री पुलक गोयल 9. तीर्थकर दिव्यध्वनि का वैशिष्ट्य -डॉ. अशोक कुमार जैन 10. पूजा के परिप्रेक्ष्य में जैनाचार्यों की विचारधारा -डॉ. कुलदीप कुमार 71 11. जैन दर्शन में काल की अवधारणा - डॉ. सुदर्शन मिश्र 79 12. अहिंसा के सिद्धांतों द्वारा सामाजिक एवं अन्य समस्याओं का निदान
-डॉ. श्रीमती कृष्णा जैन 13. Jaina Studies in Russia
- Natalia Zheleznova समाचार विविधा
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अनेकान्त 62/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2009
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सम्पादकीय
'भिन्नरुचिर्हि लोक:' इस बहुप्रचलित कथन के अनुसार लोगों की रुचि भिन्न- भिन्न होती है सब विषय सभी को रुचिकर लगें, यह संभव नहीं है। फिर भी ' अनेकान्त' के प्रकाशन में हम इस बात का ध्यान रखने का प्रयास कर रहे हैं कि आगम के आलोक में अनुसंधित्सुओं, तत्त्वजिज्ञासुओं एवं आचारमार्गारोहिओं को उनकी रुचि के अनुकूल सामग्री उपलब्ध करायें।
अनादिकाल से भारतवर्ष में दो विचारधारायें सतत प्रवाहमान रही हैं- श्रमण और ब्राह्मण। इन दोनों विचारधाराओं में चिन्तन की दृष्टि से मतभेद तो रहे हैं, परन्तु इन मतभेदों ने सामाजिक सौमनस्य को कभी भी विपरीत दिशा में नहीं जाने दिया है। 'वादे वादे जायते तत्त्वबोधः ' भारतीय दार्शनिकों की विचारणा रही है। इसीलिए विभिन्न दार्शनिकों ने परस्पर खण्डन- मण्डन करते हुए भी प्रायः असहिष्णुता का भाव प्रदर्शित नहीं किया है हाँ कभी ऐसा भी समय था जब 'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैन मन्दिरम्' जैसी असहिष्णु उक्तियाँ भी प्रचलित हुई, किन्तु उन्हें जनमानस ने नकार दिया। आज अन्तःशास्त्रीय अध्ययन, चिन्तन एवं अनुसंधान का समय है अतः ऐसे तथ्यों को समुद्घाटित करने की आवश्यकता है, जिनसे सामाजिक सद्भाव स्थापित हो और विश्व में शान्ति का वातावरण बने। इस दृष्टि से इस अंक में प्रो. दयानन्द भार्गव का आलेख 'जैनधर्म चिन्तन और सामाजिक विज्ञान' दिशानिर्देश कर सकता है। इस अंक में प्रकाशित अन्य अन्तःशास्त्रीय अनुसंधानात्मक आलेखों को तत्त्वबोध की दृष्टि से देखा जाना चाहिए।
हमें यह समझने की अत्यन्त आवश्यकता है कि अभद्र भाषा का प्रयोग न केवल निन्दनीय है, अपितु घिनौना पाप है परमत का खण्डन या स्वमत का मण्डन तो किसी पर कीचड़ उछाले बिना भी किया जा सकता है आजकल 'दिग्विजय' के अभिलाषी कुछ विद्वन्मानी जिस ढंग से अपने ही साधर्मियों पर कुवचनाघात कर रहे हैं, हम चाहते हैं कि उनका ऐसा पुण्योदय हो कि वे सुवचनों का आश्रय लेकर अपनी बात कहें अन्य पक्ष के मानी विद्वानों से भी अनुरोध है कि वे परवादविवर्जित स्वमत प्रतिपादन को अधिक महत्त्व दें और समाज में सौहार्द स्थापित करना भी धर्म समझें। किमधिकं सुविज्ञेषु
जयकुमार जैन
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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009
जैनधर्म चिन्तन और सामाजिक विज्ञान
-प्रो. दयानन्द भार्गव सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि ___1.1 हमारी किसी भी क्रिया अथवा विचार से हम स्वयं भी प्रभावित होते हैं और संपर्क में आने वाले दूसरे प्राणी भी प्रभावित होते हैं। जब हम क्रोध करते हैं तो उस क्रोध से स्वयं हमारे अन्दर भी कुछ परिवर्तन आते हैं और जिस पर हम क्रोध करते हैं उसमें भी हमारे क्रोध की कुछ प्रतिक्रिया होती है। ___1.2 हमारी क्रिया अथवा विचार का हम पर क्या प्रभाव पड़ा- इसका विवेचन धर्म करता है। हमारी क्रिया अथवा विचार का दूसरों पर क्या प्रभाव पड़ा- इसका विवेचन सामाजिक विज्ञान करता है। इस प्रकार धर्म चिंतन और सामाजिक विज्ञान का परस्पर घनिष्ठ संबन्ध होता है।
1.3 जैन परम्परा दो नयों की चर्चा करती है- निश्चयनय और व्यवहारनय। आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार निश्चय स्वाश्रित अथवा आत्माश्रित है और व्यवहार पराश्रित हैआत्माश्रितो निश्चयः, पराश्रितो व्यवहारः। __1.4 धर्म क्योंकि आत्माश्रित दृष्टि से देखता है अतः उसके लिये निश्चय परमार्थ है
और व्यवहार अभूतार्थ है। लेकिन यह सत्य का एक आयाम है। सत्य का दूसरा आयाम यह है कि धर्म का प्रतिपादन प्राणी के लिय है और प्राणी न केवल आत्मा है, न केवल शरीर। आत्मा की स्थिति स्वाश्रित है, किन्तु शरीर पराश्रित है। हमारा शरीर वायु के बिना नहीं टिक सकता। उसके लिए जल और भोजन भी आवश्यक है। अतः हमारे शरीर की स्थिति पराश्रित ही है। अतः प्राणी के लिये जिस धर्म का प्रतिपादन किया जाये उस धर्म में केवल आत्मा की चिन्ता ही नहीं रहेगी अपितु पर की चिन्ता भी रहेगी। जैनधर्म का चिंतन भी इसका अपवाद नहीं है अन्यथा उमास्वाति जीवों के परस्पर उपग्रह की बात न
करते- परस्परोपग्रहो जीवानाम्। ___1.5 और प्राणियों को छोड़कर अभी हम मनुष्य पर अपना ध्यान केन्द्रित करें। मनुष्य दो धरातलों पर जीता है- आत्मा के धरातल पर और शरीर के स्तर पर। आत्मा के धरातल पर वह यह अनुभव करता है कि वह अकेला है; उसके सुख दु:ख का दायित्व स्वयं उस पर है- अप्पा कत्ता विकत्ता य सुहाण य दुहाण या शरीर के स्तर पर वह अनुभव करता है कि उसे निरंतर दूसरों का सहयोग चाहिए। एक अनुभव से उसमें स्वावलम्बन का भाव जागता है, दूसरे अनुभव से उसमें संविभाग का भाव जागता है।
1.6 'मुझे किसी का सहारा नहीं चाहिये'-यह अनुभूति इस अनुभूति से मेल नहीं
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खाती कि 'मुझे दूसरों का सहारा चाहिये।' इससे आपाततः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आत्मधर्म का समाजविज्ञान से विरोध है। किन्तु जैनदर्शन दो विरोधी धर्मों के विरोध का परिहार अनेकान्त के द्वारा करता है। अत: जैनधर्म चिंतन में सामाजिक विज्ञान का समावेश होना चाहिये, न कि बहिष्कार।
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2.1 आत्मा का स्वरूप नहीं बदलता, अतः आत्मधर्म स्थिर है, शाश्वत है। परिस्थिति के साथ समाज का स्वरूप बदलता है अतः समाज विज्ञान एक विकासशील शास्त्र है। जैनधर्म ध्रुवता का परिणामिता के साथ समन्वय का पक्षधर है। इस दृष्टि से भी आत्मधर्म और समाजधर्म क्रमशः नित्य तथा परिणामी होने के नाते, एक दूसरे के पूरक ही सिद्ध होते हैं, न कि विरोधी अपितु यह कहना चाहिये कि आत्मधर्म और समाजधर्म मिलकर एक जात्यन्तर को जन्म देने वाले बनने चाहिए न कि एक दूसरे से अलग रहकर केवल ऊपरी तौर पर एक दूसरे से जुड़ने चाहिये। विज्ञान की भाषा में कहें तो उनका संबन्ध भौतिक (Physical) न होकर रासायनिक (Chemical) होना चाहिये।
2.2 इसीलिये आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चय के बिना व्यवहार को व्यवहाराभास और व्यवहार के बिना निश्चय को निश्चयाभास माना है। आज की भाषा में कहें तो कहना होगा कि समाजविज्ञान के बिना आत्मधर्म आत्मधर्माभास है और आत्मधर्म के बिना समाज विज्ञान समाजविज्ञानाभास है।
व्यवहारिक पृष्ठभूमि
3.1 ऊपर हमने सैद्धान्तिक दृष्टि से चर्चा की है। जैन परंपरा में व्यवहार में क्या हुआ यह भी विचारणीय है। जैन परंपरा में चतुबिंध संघ की व्यवस्था है। संघ समाज का ही स्थानापन्न है। संघ एक धार्मिक संस्थान है और समाज एक लौकिक संस्थान है- यह भेद होने पर भी संघ और समाज दोनों सामुदायिक व्यवस्थाऐं हैं- यह समानता भी दोनों में है।
3.2 संघ चतुर्विध है। उसमें साधु- संघ धार्मिक है किन्तु श्रावक संघ धार्मिक होने के साथ लौकिक भी है। साधुसंघ और श्रावक संघ का पारस्परिक संबन्ध अन्योन्याश्रय रूप है। श्रावक को आगम साधु के मुख से ही सुनना है । इस दृष्टि से श्रावक साधु का मुखापेक्षी है। वह साधु से सुनकर धर्म को जानता है, इसीलिये वह 'श्रावक' कहलाता है। दूसरी ओर साधु अपनी आहारचर्या के लिये श्रावक का मुखापेक्षी है वह अकिञ्चन है। उसे अपनी सभी भौतिक आवश्यकताओं के लिये श्रावक के सम्मुख हाथ पसारना पड़ता है। इस प्रकार श्रावक और साधु में परस्परोपग्रह का भाव है।
3. 3 तीर्थंकर की अवधारणा विचारणीय है। तीर्थंकर स्वयं केवल ज्ञान प्राप्त करके कृतकृत्य हो चुके होते हैं फिर भी समवशरण में देशना देकर दूसरों के कल्याण का अनु कार्य करते रहते हैं। यद्यपि सिद्ध अपने कर्मों का क्षय कर चुके होते हैं और अरिहंतों के अभी चार अघाती कर्म शेष रह जाते हैं तथापि नमस्कार महामंत्र अरिहंतों को सिद्धों से भी पहले नमस्कार करता है क्योंकि परोपकार करने के कारण अरिहंतों का सिद्धों की भी अपेक्षा पूज्यतर स्थान बन जाता है।
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3.4 यह स्पष्ट है कि जहाँ सैद्धान्तिक आधार पर जैनधर्म का चिंतन सामाजिक विज्ञान को साथ लेकर चलने वाला सिद्ध होता है वहाँ व्यवहार में भी जैन परंपरा आत्मधर्म के साथ साथ सामाजिक दृष्टि को महत्त्व देकर ही चलती रही है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
4.1 प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने आत्मधर्म का प्रतिपादन करने के पहले असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प का प्रतिपादन अपनी गृहस्थ अवस्था में किया। जब तक समाज व्यवस्थित न हो, तब तक क्या साधु-धर्म का पालन भी समीचीन रूप से हो सकता है? साधु भी अपनी चर्या का पालन तब ही तो कर पाता है जब गृहस्थ अपने अतिथि-संविभाग व्रत का पालन करने के प्रति सजग हो और गृहस्थ भी अपने अतिथि संविभाग-व्रत का पालन तब ही तो कर पायेगा जब किसान कृषि द्वारा भूमि को सस्य-श्यामला बनाये रखे। जैन परंपरा के इतिहास में अकाल के समय धर्मपालन की दुष्करता का विस्तृत वर्णन है। ___4.2 आदि तीर्थंकर ऋषभदेव ने कृषि की ही नहीं, असि की भी शिक्षा दी। बहुत बाद में चाणक्य ने कहा था कि 'शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्र शास्त्रचर्चा प्रवर्तते'। चीन ने जब बल प्रयोग द्वारा तिब्बत में धार्मिक स्वतंत्रता का अपहरण किया तो दलाई लामा को वहाँ से पलायन करने के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं मिला। अपराधी मनोवृत्ति वाले व्यक्तियों को केवल उपदेश द्वारा प्रशासित नहीं किया जा सकता। वहाँ दण्डनीति भी बरतना आवश्यक हो जाता है। सिक्ख गुरु भक्तिवादी थे। उनका कार्य आत्मचिंतन ही था किन्तु औरंगजेब के सम्मुख उन्हें तलवार भी उठानी पड़ी। जहाँ समाज है वहाँ शस्त्र अन्यायी के हाथ में पड़कर अनिष्ट कर सकता है किन्तु न्याय-व्यवस्था की सुरक्षा के लिए धारण किये जाने वाला शस्त्र समाज की अपरिहार्यता है। 'हा' 'मा' और 'धिक्' जैसे शब्दों के प्रयोग-मात्र से पाप-निवृत्ति वाले समाज की अवधारणा जैन-परंपरा ने हमें दी, किन्तु वह वर्तमान समाज के लिये पर्याप्त नहीं मानी गयी है।
4.3 असि और कृषि हमारे अस्तित्व के लिये आवश्यक हो सकते हैं, किन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है। मसि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प सभ्यता के विकास के उपकरण हैं। विकसित सभ्यता के वृक्ष पर ही अध्यात्म के फल-फूल खिलते हैं। इतिहास में असभ्य जातियों के बीच अध्यात्म-साधना कहीं भी फलती फूलती नजर नहीं आती। आदि तीर्थंकर ने अध्यात्म का प्रतिपादन करने के पूर्व सभ्यता के विकास के सभी सूत्र दे दिये। तदनतर उन्होंने अध्यात्म साधना का भी मार्ग प्रशस्त किया। इस उभयविध योगदान के लिये ऋग्वेद से लेकर श्रीमद्भागवत तक के जैनेतर-परंपरा के ग्रंथों ने भी उनका नाम अत्यंत श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है।
5.1 पण्डित सुखलाल संघवी ने अपने ग्रंथ 'चार तीर्थकर' में कहा- किसी समय में जैनधर्म के मूल उद्गम में निवृत्ति-प्रधान स्वरूप को स्थान नहीं मिला था बल्कि उसमें प्रवृत्ति-प्रधान स्वरूप का ही स्थान था।
यह टिप्पणी चौंकाने वाली है क्योंकि जैन-अजैन प्रायः सभी चिंतक जैनधर्म को
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निवृत्ति प्रधान मानते रहे हैं। प्रश्न है कि ऋषभदेव ने जो योगदान षट्कर्मों के प्रतिपादन द्वारा अपनी गृहस्थ अवस्था में दिया, वह जैन परम्परा का अंग है अथवा नहीं ? यदि हम उसे जैन परम्परा का अंग मानें तो जैन धर्म चिंतन का सामाजिक विज्ञान के साथ संबन्ध स्वतः ही स्थापित हो जाता है और पण्डित सुखलाल जी संघवी की उक्त टिप्पणी की व्याख्या करना भी आसान हो जाता है।
5.2 इस संबन्ध में आचार्य हेमचन्द्र का वक्तव्य महत्त्वपूर्ण है कि स्वामी (ऋषभदेव) ने अपना कर्तव्य समझकर लोकानुकम्पा की दृष्टि से यह सब कुछ सावध होने पर भी प्रतिपादित किया।
एतच्च सर्वसावद्यमपि लोकानुकम्पया
स्वामी प्रवर्तयामास जानन् कर्त्तव्यमात्मनः
(त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित 1.2 )
आचार्य हेमचन्द्र की दुविधा यहाँ स्पष्ट हो रही है। वे ऋषभदेव के इस योगदान को 'सावद्य' भी बता रहे हैं और 'लोकानुकम्पा' भी कह रहे हैं तथा इसे उनको 'कर्तव्य' भी बता रहे हैं।
5.3 क्या कोई चीज लोकानुकम्पा' और 'कर्तव्य' होने पर भी 'सावद्य' हो सकती है ? यही वह बिन्दु है जहाँ जैनधर्म के चिंतन के सामाजिक विज्ञान के साथ संबन्ध पर विचार-विमर्श की शुरुआत होती है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने शुभ-अशुभ दोनों को ही 'अशुद्ध' कहा है। परमतत्त्व पाप-पुण्यातीत है-यह मीमांसा दर्शन के अपवाद को छोड़कर सभी जैन- जैनेत्तर भारतीय दर्शनों को मान्य है।
आचार्य भिक्षु के सामने जब यह प्रश्न आया और उन्होंने सभी लौकिक कर्तव्यों को सावध बताया तो उन्होंने कोई नयी बात नहीं कही बल्कि आचार्य हेमचन्द्र की ही बात दोहरायी थी।
डॉ. नथमल टाटिया सूत्रकृतांग की साक्षी के आधार पर कहा करते थे कि यदि कोई व्यक्ति किसी को कुछ दान दे रहा हो तो साधु न तो उसका निषेध करें न उसका अनुमोदन करे यदि साधु निषेध करता है तो प्रतिगृहीता का वृत्ति-विच्छेद होता है और यदि अनुमोदन करता है तो राग का पोषण होता है।
5.4 आचार्य महाप्रज्ञ ने इस समस्या का यह समाधान प्रस्तुत किया कि थोड़ी-बहुत परिग्रह - भावना के बिना समाज चल ही नहीं सकता । परिग्रह को प्रशस्त तो कोई जैन चिंतक मानेगा नहीं किन्तु समाज संचालन के लिये परिग्रह की अपरिहार्यता से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
5.5 आचार्य सोमदेव सूरि ने सारे विवाद का समाहार इस प्रकार किया कि जैन के लिये
वे सभी लौकिक विधि स्वीकार्य है जिनमें व्रत दूषित न होता हो और सम्यक्त्व पर आंच न आयेसर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः ।
यत्र सम्यक्त्वहानिनं यत्र न व्रतदूषणम् ॥
5.6 आचार्य सोमदेव सूरि के उपर्युक्त वक्तव्य में तीन शब्द विचारणीय हैं। (i) सम्यक्त्वहानि (ii) और व्रतदूषण
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लौकिक विधि
(अ) जैन को लौकिक विधि का पालन करना है अर्थात् उसे कानून का पालन (Law abinding) करना चाहिए। यह नियम साधु-श्रावक सब पर लागू होता है।
(ब) इस लौकिक विधि के पालन में सम्यक्त्व दूषित नहीं होना चाहिए। यह नियम कभी-कभी साम्प्रदायिक कट्टरता के रूप में परिणत हो सकता है। उदाहरणतः जैनों के चार उपसंप्रदाय मुख्य हैं। कभी कभी एक उपसंप्रदाय का व्यक्ति दूसरे उपसंप्रदाय के साधु को नमस्कार करने में सम्यक्त्व का दूषित होना मान लेते हैं। वस्तुतः सम्यक्त्व एक आन्तरिक मन:स्थिति है और उसकी रक्षा के लिये सामान्य शिष्टाचार का पालन न करना सामाजिक दृष्टि से अभीष्ट नहीं है। हम अपनी श्रद्धा को सुरक्षित रखते हुए भी सामान्य शिष्टाचार का पालन करें तो कोई हानि नहीं है।
(स) व्रतदूषण' से अभिप्राय अणुव्रत ही लेना चाहिये। महाव्रत की दृष्टि से किसी भी लौकिक विधि का पालन अशक्य ही है। अतः गृहस्थ को अपने अणुव्रतों की रक्षा करते हुए सामाजिक कार्य करने चाहिये। महाव्रती तो लौकिक कार्य करता ही नहीं है।
निष्कर्ष यह है जैन गृहस्थ एक सामाजिक प्राणी है, असामाजिकता से उसे हर हालत में बचना है।
5.7 कठिनाई यह है कि सोमदेव सूरि ने लौकिक विधि की चर्चा तो कर दी किन्तु जैन परंपरा कोई लौकिक विधि इदमित्थम्तया निर्दिष्ट नहीं कर पायी। फलस्वरूप जैन परंपरा ने प्रायः भारत के बहुसंख्यक हिन्दुसमाज की ही समाज व्यवस्था को अंगीकार कर लिया।
6.1 प्रमाणस्वरुप आचार्य हेमचन्द्र की अर्हन्नीति को लिया जा सकता है। यह ग्रंथ विशुद्ध राजनीति का है। इसके प्रारंभ में ही भगवान् ऋषभ द्वारा वर्णाश्रमविभाग की बात की गयी है
वर्णाश्रमविभागं वै तत्संस्कार विधिं पुनः। प्रायश्चकार भगवान् लोकानां हितकाम्यया।। इतना ही नहीं उन्होंने चार आर्य वेद भी बनायेआर्यवेदचतुष्कं हि जगत्स्थित्यै चकार सः। पुरुषार्थार्जने दक्षा: यतः स्युर्निखिलाः प्रजाः॥
6.2 जैन परंपरा ने कोई अपनी स्वतंत्र राजनीतिशास्त्र नहीं दिया- इसके दो पक्ष है। प्रथम तो इसे जैन परंपरा की न्यूनता के रूप में देखा जा सकता है। दूसरी दृष्टि से इसे जैन परंपरा का गुण मानना चाहिये कि उन्होंने किसी मजहबी राज्य की कल्पना नहीं की। राज्य में जैन अजैन रहते हैं। अतः प्रजा पर किसी जैन संप्रदाय के नियम का साक्षात् अथवा परोक्ष रूप में थोपा जाना पक्षपात पूर्ण ही माना जायेगा। वास्तव में भारत के किसी भी धर्म ने सांप्रदायिक अथवा मजहबी राज्य स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया। सम्राट अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी तथा प्रशंसक था किन्तु उसने बौद्धेतर संप्रदायों को अपनी मान्यतानुसार जीवन जीने की पूर्ण स्वतंत्रता दी।
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11 6.3 जहाँ कुमारपाल जैसे जैन राजा हुए, उनके मार्गदर्शन हेतु हेमचन्द्र जैसे आचार्यों ने राजनीति के ग्रंथ भी लिखे किन्तु उनको किसी प्रकार के जैन संप्रदाय का रंग देने का प्रयत्न कदापि नहीं हुआ। इस प्रकार जैन परंपरा ने सम्प्रदायनिरपेक्ष राज्य की ही कल्पना की।
6.4 अर्हन्नीति जैसे ग्रंथों का वर्ण्य विषय दो भागों में विभक्त हो सकता है- राजधर्म और राजनीति। राजधर्म राजा में अपेक्षित नैतिक गुणों का वर्णन करता है। ये गुण सार्वभौम हैं और किसी भी राजा से उनकी अपेक्षा की जा सकती है भले ही वह राजा जैन हो या न हो। राजा के ऐसे 36 गुणों का वर्णन अर्हन्नीति में है किन्तु उनमें से एक भी गुण ऐसा नहीं जिसके अपेक्षा अजैन राजा से न की जा सके। यहाँ तक मांस मदिरा आदि के त्याग अथवा रात्रि भोजन के त्याग जैसा भी कोई चर्चा इस सूची में नहीं है। इसका यह अभिप्राय तो नहीं माना जा सकता हेमचन्द्र जैन राजा से इन नियमों के पालन की आशा न रखते रहे होंगे। किन्तु ये नियम राजा के व्यक्तिगत जीवन के लिये है अतः इन्हें नृप के गुणों में परिगणित किया जाना उचित नहीं समझा गया। ____ 6.5 जहाँ तक राजनीति का संबन्ध है, जैन आचार्यों ने उसमें साम, दाम, दण्ड, भेद नामक चार नीतियों का उसी प्रकर का वर्णन किया है जिस प्रकार का मनुस्मृति आदि ग्रंथों में है। युद्ध इनमें से अन्तिम उपाय है।
साम्ना दाम्ना च भेदेन जेतुं शक्या यदारयः। तदा युद्धं न कर्त्तव्यं भूपालेन कदाचन।। किन्तु ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि आत्मरक्षा के लिये ही युद्ध करना चाहिये। आक्रमणकारी बन कर नहीं। यद्यपि ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि राजा को दूसरे का राज्य हड़पने के लिये युद्ध करना चाहिये
यदि केनाप्युपायेन परस्त्यजति नो रणम्। तथा वीक्ष्यमिथः साम्यं युद्धायैवोद्यतो भवेत्॥
निरपराध पर प्रहार न करने की बात जैन आचार्यों ने की किन्तु यह कोई उनकी ही विशेषता नहीं थी।
6.6 इसी प्रकार दण्डनीति के संदर्भ में जैन परंपरा मध्यकालिक व्यवस्था का अनुकरण करती रही है जिसमें नजरबन्दी, और कारावास के साथ साथ अंगभंग का तथा फाँसी का भी विधान है। यह विधान स्थानांग सूत्र के अनुकरण पर किया गया है जहाँ कहा गया है किसत्तविहा दंडनीई पणत्ता तं जहा (1) हक्कारे (2)मक्कारे (3) धिक्कारे (4) परिभासे (5) मंडली बन्धे (6) कारागारे (7) छविछेदेय। अत्र छविछेद इति वधाद्युपलक्षणम्।
6.7 दण्डनीति में लिंग तथा वर्ण के आधार पर स्त्री, विप्र तथा तपस्वियों को अंगछेद तथा वध से मुक्त रखा गया है
जाते महापराधेऽपि स्त्रीविप्रतपस्विनाम्। नांगछेदो वधोनैव कुर्यात्तेषां प्रवासनम्॥ अभिप्राय यह है कि राजनीति तथा दण्डनीति में कोई विशेषता जैन परंपरा ने प्रदर्शित
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नहीं की, मुख्यधारा का ही न्यूनाधिक मात्रा में अनुकरण किया। आधुनिक परिप्रेक्ष्य
7.1 आज के समय में समाज विज्ञान के प्रश्न पर जैन चिन्तकों ने काफी विस्तार से चर्चा की। आचार्य महाप्रज्ञ जैसे आचार्य तथा डॉ. सागरमल जैन जैसे गृहस्थों ने इस विषय पर पर्याप्त विचार किया। इस विचार-विमर्श के दो पक्ष हैं
(i) जैन धर्म का चिंतन समाज के लिये शोधन का कार्य करता है। अणुव्रतों के अतिचार इस बात के सूचक हैं कि जैन गृहस्थ को कोई भी असामाजिक कार्य नहीं करना है। आचार्य तुलसी ने इन अणुव्रतों को ही आधुनिक रूप देकर और व्यापक बनाया। उन्होंने इन अणुव्रतों को केवल जैनों के लिये न मानकर सर्वग्राह्य माना। यह अणुव्रतों का समाज के साथ संबन्ध जोड़ने का ही एक उपक्रम था।
(ii) डॉ. सागरमल जैन अथवा डॉ. कमलचन्द सोगानी जैसे विचारकों ने ठाणं में उल्लिखित राष्ट्रधर्म, नगर धर्म, ग्राम धर्म जैसे लौकिक पक्षों पर तो बल दिया ही; वात्सल्य जैसे सम्यग्दर्शन के अंग को भी साधर्मी वात्सल्य तक सीमित न रखकर सबके प्रति वात्सल्य में परिणत करने पर बल दिया।
इसके अतिरिक्त स्वयं मैने भी श्रम, स्वावलम्बन, वैयावृत्य, स्थिरीकरण और वात्सल्य को समाजदर्शन का आधार बनाने पर बल दिया।
7.2 यह सब प्रयत्न किये जाने पर भी अभी यह प्रश्न अनुत्तरित ही है कि क्या जैन परंपरा कोई ऐसी सर्वांगीण लौकिक व्यवस्था देती है जिसके अन्तर्गत आज की समस्याओं का हल ढूँढा जा सके। इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले हमें यह देखना होगा कि क्या सामाजिक व्यवस्थायें सार्वकालिक होती हैं ?
7.3 राज्य व्यवस्था को लें भगवान् ऋषभदेव ने राजतंत्र दिया, स्वयं भगवान महावीर एक गणतंत्र के राजवंश से सम्बद्ध थे, गुप्तकाल में सम्राट् हुए आज संसदीय प्रजातंत्र है। कल अमरीकी शैली की राष्ट्रपति शासन प्रणाली आ सकती है। आर्थिक दृष्टि से पहले अनुसूचित जाति के लोग कुछ व्यवसाय नहीं कर सकते थे। आज उनके लिये नौकरियों में आरक्षण है। अभिप्राय यह है कि सामाजिक व्यवस्थायें बदलती हैं। कल तक बहुपत्नी प्रथा थी और मुस्लिम समुदाय में आज भी है। किन्तु हिन्दु समुदाय के लिये वह गैरकानूनी घोषित हो चुकी है।
7.4 ऐसी परिस्थिति में किसी एक व्यवस्था को निर्धारित करना जैन-अजैन किसी के लिये भी संभव नहीं है। परन्तु हमारे अनुभव के आधार पर कुछ व्यापक नियम अवश्य बनाये जा सकते हैं । ऐसे कुछ नियमो की ओर संकेत करना अनुचित न होगा। भविष्य के लिए कतिपय विचारणीय बिन्दु ।
8.1 आज समानता पर बल है। ऐसे में सेव्य-सेवक भाव नहीं चल सकता। शिक्षा के विस्तार के साथ सेवक घरेलू नौकर दिन पर दिन कम होते जायेंगे। ऐसे में कोई भी व्यवस्था अधिकाधिक स्वालम्बन पर टिकी हुई होनी चाहिए। सामन्तवादी युग की
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8.2 साम्यवादी व्यवस्था ने पूंजीवादी व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाया। स्वयं साम्यवादी व्यवस्था भी कारगर सिद्ध नहीं हुई। उधर निरकुंश भोग की प्रवृत्ति पर्यावरण के लिये भी खतरा बन गयी। ऐसे में अपरिग्रहवादी व्रती समाज को महत्त्व देना होगा। व्रती समाज का अर्थ है अपने भोग की वृत्ति पर स्वेच्छा से अंकुश लगाना। साम्यवादी व्यवस्था भोग अथवा संग्रह पर बलपूर्वक अंकुश लगाती है किन्तु उससे व्यक्ति की स्वतंत्रता का अपहरण होता है। अपरिग्रह अथवा अन्य व्रत व्यक्ति की मूर्छा को तोड़ते और उसे वास्तविक अर्थ में स्वतंत्र बनाते हैं।
8.3 आणविक शस्त्रों के युग में युद्ध का विकल्प छोड़ना होगा क्योंकि आज युद्ध का अर्थ सर्वनाश है, शत्रु का नाश नहीं। महात्मा गाँधी ने विदेशी शक्ति का अहिंसक ढंग से मुकाबला करना सिखाया। हमें ऐसा उपाय ढूँढना होगा कि राज्य, समूह विशेष, व्यवस्था विशेष अथवा व्यक्ति विशेष द्वारा किये गये अन्याय तथा शोषण का प्रतिकार अहिंसक ढंग से हो सके। ____8.4 आर्थिक व्यवस्था में जहाँ एक ओर समृद्धवर्ग को स्वेच्छा से परिग्रह का नियंत्रण करना होगा वहाँ राज्य को ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि मूलभूत आवश्यकताएं सबकी ही पूरी हों। अभाव में भ्रष्टाचार ही नहीं, आतंकवाद भी बढ़ता है। दूसरी ओर अतिभोग स्वच्छंदता का पर्यायवाची है।
8.5 शिक्षा में अधिकारों पर बल देने के साथ-साथ यह भी सिखाना होगा कि कर्त्तव्य पालन में तत्परता बरते बिना किसी को अपने अधिकार नहीं मिल सकते । ____8.6 स्पर्धा ने हमें तनाव दिया। इससे कुछ भौतिक समृद्धि तो बढ़ी, पर सुख नहीं बढ़ा। सभी धर्म संतोष पर बल देते हैं। एक समय मनुष्य को परिवार तथा समाज पर भरोसा था कि मुसीबत में वे सहारा देंगे। आज मनुष्य अकेला पड़ गया है। अतः वह संकट के लिये निरंतर संग्रह करता रहता है। स्पर्धा के स्थान पर सहयोग की भावना को प्रतिष्ठित करना होगा।
8.7 जैन परंपरा की एक आचार मीमांसा है जो मोक्षोन्मुखी है। उस आचार-मीमांसा का सामाजिक महत्त्व भी है। वह आचार-मीमांसा सार्वभौम है। उसका धार्मिक मूल्यांकन तो हुआ किन्तु अब उसका सामाजिक मूल्यांकन भी होना चाहिये। अहिंसा व्यक्ति को राग-द्वेष से बचाकर उसकी आत्मा को निर्मल बनाती है किन्तु साथ ही सुरक्षा प्रदान कर समाज को निश्चिन्तता भी देती है। सत्य पर आधृत व्यवहार अभय का कारण है। जहाँ प्रामाणिकता है वहाँ व्यक्ति में आत्मविश्वास जागता है और न्याय की स्थापना होती है। ब्रह्मचर्य से समाज में स्त्री/पुरुष का सम्मान बढ़ता है क्योंकि वह भोग की वस्तु नहीं रहकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करती है। अपरिग्रह विषमता मिटाता है। इस प्रकार सभी आध्यात्मिक मूल्यों का एक सामाजिक पक्ष भी है।
- जी-1, पैराडाइट अपार्टमेंट डी-148, दुर्गा मार्ग, बनी पार्क, जयपुर
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वैदिक संस्कृति एवं श्रमण संस्कृति
___-प्रो. फूलचन्द जैन 'प्रेमी' हमारी गौरवमयी भारतीय संस्कृति अनेक संस्कृतियों के सम्मिश्रण का सर्वोत्तम उदाहरण है। इसमें मुख्यतः श्रमण एवं वैदिक-इन दो प्राचीन संस्कृतियों का व्यापक प्रभाव स्पष्ट है। यद्यपि वैदिक संस्कृति को इस देश की सर्व प्राचीन संस्कृति माना गया है, किन्तु वैदिक तथा अन्य साहित्यिक, पुरातात्त्विक आदि साक्ष्यों के आधार पर कुछ इतिहासकारों के मत से यह सिद्ध है कि श्रमण संस्कृति भी काफी प्राचीन है, कम से कम उतनी तो अवश्य, जितनी की वैदिक संस्कृति। वैदिक वाड्.मय में श्रमण संस्कृति से संबन्धित संदर्भो का उल्लेख काफी मात्रा में सुरक्षित है। वस्तुतः सामान्यतया वेदों से अधिक प्राचीन साहित्यिक प्रमाण अपने देश में नहीं है। इस दृष्टि से इन संदर्भो का श्रमण संस्कृति की प्राचीनता सिद्ध करने लिए, काफी महत्त्व है। अतः इन प्राचीन संदर्भो और प्रमाणों को सुरक्षित बनाये रखने के लिए श्रमण परंपरा वैदिक साहित्य की सदा कृतज्ञ और आभारी रहेगी।
यह स्वाभाविक है कि जब दो संस्कृतियाँ लम्बे काल से एक साथ रहती आई हैं तो वैचारिक तथा परंपरागत आदि रूपों में एक दूसरे से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकतीं। यही बात पूर्वोक्त दोनों संस्कृतियों के विषय में भी कहा जा सकता है। अतः दोनों में आचार-विचार गत मूल्यों का आदान-प्रदान काफी मात्रा में हुआ है। इसीलिए आज जो भारतीय संस्कृति का स्वरूप देखने को मिलता है, उसमें वैदिक एवं श्रमण- ये दोनों संस्कृतियाँ रस्सी की तरह एक में गुंथीं (मिलीं) हुई अपने प्रिय भारतवर्ष को सुदृढ़ एवं अखण्ड आधार प्रदान किये हुए हैं।
यद्यपि श्रमण संस्कृति में जैन एवं बौद्ध- ये दोनों सम्मिलित हैं, किन्तु श्रमण जैन संस्कृति बौद्ध से काफी प्राचीन हैं, क्योंकि जैन संस्कृति तीर्थकर ऋषभदेव से महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकरों में से प्रथम आद्य तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव आदिनाथ द्वारा प्रवर्तित है, जबकि बौद्ध धर्म के प्रणेता भगवान बुद्ध हैं, जोकि जैन धर्म के अन्तिम एवं चौबीस तीर्थकर भगवान् महावीर के समकालीन (ईसापूर्व छठी सदी के) हैं।
इस प्रकार वैदिक एवं श्रमण- इन दोनों संस्कृतियों का तुलनात्मक अध्ययन-अनुसंधान बहुत आवश्यक तो हैं ही, महत्त्वपूर्ण भी हैं। वैदिक साहित्य में उल्लिखित अर्हत्, शिश्नदेव, व्रात्य, यति, हिरण्यगर्भ, वातरसना मुनि, केशी, निग्रंथ, पणि आदि शब्द तथा तीर्थंकरों के नामोल्लेख श्रमण संस्कृति के उत्कर्ष का द्योतन करते हैं। अतः इनका अध्ययन- आदि अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।
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जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित श्रमण संस्कृति को अपने इस प्यारे देश का 'भारतवर्ष' यह नामकरण ऋषभदेव के ही ज्येष्ठपुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम से करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इतना ही नहीं अपितु इस देश का प्राचीन “अजनाभवर्ष" - यह नामकरण भी ऋषभदेव के पिता नाभिराज के नाम पर प्रचलित रहा। "भारतवर्ष नामकरण के ये उल्लेख अनेक वैदिक पुराणों में उपलब्ध हैं। यथा-श्रीमद् भागवत पुराण (स्कन्ध पुराण 5, अध्याय 4) में कहा है कि भगवान् ऋषभदेव को अपनी कर्मभूमि "अजनाभवर्ष" में सौ पुत्र प्राप्त हुए, जिनमें से ज्येष्ठ पुत्र महायोगी "भरत" को उन्होंने अपना राज्य दिया और उन्हीं के नाम से इस देश का नाम “भारतवर्ष" कहने लगे। -येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीद् येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति। इसी प्रकार लिंगपुराण (47/21-24) में भी कहा है-हिमाद्रेर्दक्षिणं वर्ष भरतस्य न्यवेदयत्। तस्मात्तु भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः।। विष्णु पुराण (अंश 2, अध्याय 1, श्लोक 28-32) वायुपुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण में भी यही बात कही गयी है।
इस प्रकार ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित यह श्रमण संस्कृति भारत की प्राचीनतम संस्कृतियों में से अन्यतम है।
प्रो. विमलदास कौन्देय के ज्ञानोदय पत्रिका (सितं.1949) में प्रकाशित 'श्रमण संस्कृति' शीर्षक लेख में कहा है- वैदिक आर्यों का धर्म प्रकृति के तत्त्वों की पूजा करना था। वे अच्छे धनुर्धारी थे। वे महत्त्वाकांक्षी भी थे, उन्होंने विजितों को दास बनाया और उनके मुखिया का नाम "सुदास" रखा, जिसका वर्णन ऋग्वेद में है। इनका प्रथम उपनिवेश आज का पश्चिमी पाकिस्तान था। वहाँ वे बड़े-बड़े यज्ञ करते, सोम पीते गीत गाते तथा आनन्द से जीवन व्यतीत करते थे। उनकी संस्कृति उच्च वर्ग के लिए पृथक् थी और दासों के लिए पृथक् थी। संभवतः जाति (वर्ण) व्यवस्था का जन्म यहीं से प्रारंभ हुआ था और पुरुषसूक्त में कालपुरुष की अवधारणा कर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की क्रमशः उसके सिर, छाती, उरू और पैरों में स्थापना कर जाति को अपरिवर्तनीय बना दिया है। __इसके विपरीत हस्तिनापुर, अयोध्या, काशी और मगध आदि राज्यों के आसपास के रहने वाले किसी अन्य (जो कि श्रमण संस्कृति रही होगी, वे उस) संस्कृति के धारक प्रतीत होते हैं। इन प्रांतों के रहने वाले मनुष्यों की संस्कृति का मूल तत्व था “आत्मा"। वे आत्मा के विकास में विश्वास करते थे। जबकि वैदिक आर्यों में वर्ण व्यवस्था, यज्ञ, कर्मकाण्ड, देवता आदि पर जोर दिया जाता था इसके विपरीत मूल भारतीय संस्कृति में मानवीय समानता, आत्मविकास, गुणपूजा और परलोक, कर्मफल आदि पर अधिक जोर दिया जाता था, जो सर्वथा स्वाभाविक था।
श्रमण संस्कृति के बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत के काल में भी इस संस्कृति के मानने वालों को "व्रात्य' कहा गया, पश्चात् उनको 'व्रषण' कहा गया। उन्हें अयज्वन, क्रव्याद आदि भी आर्य लोगों द्वारा कहा जाता था, किन्तु जब वे उनकी तपस्या, आचार-विचार, अहिंसा, सत्य आदि से अधिक प्रभावित हुए, तब उन्होंने उनका नाम "श्रमण" रखा।
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अनेकान्त 62/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2009 वैदिक परंपरा में " श्रमण " शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख हमें "माण्डूक्योपनिषत्" में मिलता
है।
इन तथ्यों से स्पष्ट होता है कि उस समय और उसके पहले अनेक आर्येतर जातियाँ थीं, जिनकी समृद्ध और सुसंस्कृत परंपरायें थीं वे वातरसना (वायुरूप वस्वधारी अर्थात् नग्न दिगम्बर, शिश्नदेव (नग्न देवों), व्रात्य, निर्ग्रथ, अर्हत्, आदि को अपना पूज्य (इष्टदेव) मानते थे, जिनके विषय में विशेष जानकारी हमें वेदों से प्राप्त होती है फिर भी भारत की इन मूल प्राचीन परंपराओं की उपेक्षा भी कुछ विद्वानों और इतिहासकारों ने कम नहीं की। इसीलिए प्रो. हायकिन्स ने अपनी पुस्तक "रिलीजन ऑफ इण्डिया ( पृष्ठ 4-5 ) में ठीक ही लिखा है कि “भारत की धार्मिक क्रान्ति के अध्ययन में जो विद्वान् अपना सारा ध्यान आर्यजाति की ओर ही लगा देते हैं और भारत के समस्त इतिहास में द्रविडों ने जो बड़ा भाग लिया है, उसकी उपेक्षा कर देते हैं, वे महत्त्व के तथ्यों तक पहुँचने से रह जाते हैं।
इसलिए आज बहुत आवश्यक है कि विद्वान् और इतिहासकार उपलब्ध साहित्यिक पुरातात्त्विक एवं भाषा वैज्ञानिक आदि विपुल साक्ष्यों की अनदेखी न करते हुए श्रमण संस्कृति की एक विशाल मूलधारा की महत्ता की उपेक्षा न कर, उसे भी साथ लेकर चलें, ताकि परस्पर के आदान-प्रदान उनकी भावनात्मक एकता आदि सूत्रों आदि के आधार पर संपूर्ण भारतीय संस्कृति के यथार्थ स्वरूप और गौरव को समझा जा सके।
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ऋग्वेद में भगवान् ऋषभ तथा वातरशन मुनियों का स्पष्ट उल्लेख है ककर्दवे वृषभो युक्त आसीद (10/102/6) " मुनयो वातरशना: ( 10/136/ 2-3 ) श्रीमद् भागवत पुराण (5/3 वाक्य 20 पृ. 207-208) में भी कहा है " बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षमयया तदवरोधायने मरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणा मूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तन्वावततार " - अर्थात् भगवान् विष्णु ने राजा नाभि (तीर्थंकर ऋषभदेव के पिता) का प्रिय करने के लिए महारानी मरूदेवी के गर्भ में ऋषभदेव के रूप में अवतार लिया था, जिसका उद्देश्य था वातरशना ( श्रमण ऋषियों ) के धर्म को प्रकट करना। भगवान ऋषभदेव चौदह मनुओं की पीढ़ी में पाँचवीं पीढ़ी के मनु थे प्रथम स्वायम्भुव मनु के बाद दूसरे प्रियव्रत, तीसरे आग्नीघ्र, चौथे नाभि और पाँचवें मनु ऋषभ हुए। (भागवत पुराण)
वेदों तथा अन्यान्य वैदिक साहित्य में विशेषकर अथर्ववेद के पन्द्रहवें "व्रात्यकाण्ड" में वर्णित "व्रात्यों" का स्वरूप विवेचन श्रमण संस्कृति के अध्ययन के परिप्रेक्ष्य में विशेष महत्त्व रखता है। ये व्रात्य श्रमण संस्कृति के आदर्श प्रतीत होते हैं।
डॉ. जगदीशदत्त दीक्षित (नई दिल्ली) ने अपनी पुस्तक "ब्राह्मण तथा श्रमण संस्कृतियों का दार्शनिक विवेचन" (भा. विद्या भवन प्रकाशन) में (पृ. 75) पर व्रात्यों की स्वरूप विवेचना में लिखा है कि व्रात्य किसी जाति विशेष का नाम नहीं है, अपितु जो निजी जीवनचर्या में व्रतों का कठोरता के साथ पालन करते थे, उन्हें व्रात्य कहा जाता
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था। वस्तुतः व्रात्य यज्ञ विरोधी थे। व्रतों तथा आत्म-साधना में उनका दृढ़ विश्वास था। उनकी दिनचर्या कठिन थी। इन व्रात्यों की बस्तियाँ आर्यों से चारों ओर से घिरी हुई थीं। जब आर्य लोग इन व्रात्यों के संपर्क में आए तो उन्होंने इनके आध्यात्मिक ज्ञान, साधना तथा उच्च मान्यताओं को देखा, समझा तो इनकी प्रशंसा की और इनसे प्रभावित भी हुए। अथर्ववेद के व्रात्य काण्ड में व्रात्य के विषय में कहा गया है कि जो देहधारी आत्मायें हैं, जिन्होंने आत्मा को देह से ढका है- इस प्रकार के जीव समस्त प्राणधारी चैतन्य सृष्टि के स्वामी है, वे व्रात्य कहलाते हैं। व्रात्यों ने तप के द्वारा आत्म साक्षात्कार किया।
दार्शनिकों की यह धारणा कि सांख्य के आदि मूल स्रोत व्रात्यों की उपासना में निहित थे। अथर्ववेद में व्रात्य की महत्ता इस प्रकार से वर्णित है कि यदि यज्ञ करते समय व्रात्य आ जाय तो याज्ञिक को चाहिए कि व्रात्य की इच्छानुसार यज्ञ करे। विद्वान् ब्राह्मण व्रात्य से इतना ही कहे कि जैसा आपको प्रिय है, वैसा ही किया जायेगा। आत्मसाक्षात् द्रष्टा महाव्रात्य को नमस्कार है। (अथर्ववेद 1/33/5, 1/10/1/1. 1/130/8, 7/104/2, 303,917)
वैदिक साहित्य के अध्ययन का इतना विकास हो चुका है कि उसमें प्रतिपाद्य विषय अब किसी के लिए अनभिज्ञ नहीं रहे। पर यह अवश्य अनुसंधान का विषय है कि वेदों में प्रतिपादित देवों, प्रकृति तत्त्वों की स्तुतियों और यज्ञ-यागादि की ही प्रधानता के बाद उपनिषद् साहित्य का निर्माण आध्यत्मिक धरातल पर किन कारणों और परिस्थतियों में कैसे संभव हो गया ? अनेक अध्ययनों से ये तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आये हैं कि यह सब भारत की अध्यात्मवादी एवं निवृत्ति प्रधान श्रमण संस्कृति के ही प्रभाव से संभव हुआ।
वस्तुतः वैदिक साहित्य का मुख्य भाग "यज्ञ" था। उसका विकास उत्तरोत्तर होता रहा। समूचा यजुर्वेद उसी से अनुप्राणित है। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ की परंपरा और आगे बढ़ गयी थी। औपनिषदिकधारा, जिसे श्रमणों की धारा कहा जा सकता है, यज्ञों का विरोध करती थी। उसका प्रवाह अध्यात्म-विद्या की ओर था। हम कौन हैं ? कहाँ से आए हैं ? क्यों आए हैं ? कहाँ जायेंगे ? आदि आदि प्रश्नों पर विचार किया जाता था। (केनोपनिषद-1) अध्यात्मविद्या श्रमण साहित्य की कसौटी थी।
वस्तुतः जब ब्रह्म एवं आत्मा-विषयक चिन्तन में गति आगे बढ़ी तो सहज ही था कि वेद वर्णित यज्ञ-याग एवं क्रियाकाण्ड के प्रति श्रद्धा की मंदता हो। क्योंकि यज्ञ-यागों के नाम पर हिंसा काफी बढ़ चुकी थी, वैदिकी हिंसा- हिंसा न भवति जैसे गर्हित सूत्र तक गढ़ लिये गये थे। "स्वर्गकामो यजेत्" के रूप में स्वर्ग का प्रलोभन तक खड़ा कर दिया गया। यज्ञ के नाम पर पशु तो पशु, वाजसनेयी संहिता (30) के अनुसार तो पुरुष यज्ञ में पुरुषों तक वध किया जाने लगा था। ऐसे समय में यज्ञ यागादि से ऊबकर आत्मविद्या, जिसे उपनिषदों में परा-विद्या कहा है, तत्त्वचिंतन की प्राचीन परंपरा के पुनरुज्जीवन से लोगों में जीवन का संचार हुआ।
इसीलिए आज जिसे हम वैदिक-साहित्य मानते हैं, वह सारा वैदिक नहीं है, अपितु
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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 अनेक धाराओं का संगम है। इसीलिए उसमें अनेक विरोधी धारायें परिदृष्ट हो रही हैं। इन्हीं के संगम से प्राचीन उपनिषदों की रचना हुई। अत: उपनिषद् पूर्णत: वैदिक नहीं है क्योंकि वैदिक क्रियाकाण्ड के विरुद्ध हैं। मुण्डकोपनिषद में तो वेदों को अपराविद्या कहा है, जिसे शंकराचार्य ने "अविद्या" माना है, जबकि ब्रह्मविद्या या आत्मविद्या, जिसकी मूल-भित्ति पर श्रमण संस्कृति आधारित है, उस 'परा' विद्या को उत्कृष्ट विद्या कहा है। इसीलिए उपनिषद् काल में अध्यात्म विद्या के प्रति लोगों की रुचि बढ़ी, तथा प्रचार-प्रसार बढ़ा।
"संन्यास" की मूल अवधारणा और परंपरा को श्रमण संस्कृति की देन कहा जाता है। क्योंकि आत्मजिज्ञासा के बिना संन्यास का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। उपनिषदों से प्रारंभ आत्मजिज्ञासा पर आधारित संन्यास श्रमणों की दीर्घकालीन परंपरा का महत्त्वपूर्ण तत्त्व रहा है और यह आत्मविद्या भी श्रमण परम्परा की मूल धरोहर है। क्योंकि वैदिक काल में तो ब्रह्मचर्य और गृहस्थ- ये दो का ही व्यवस्था-क्रम मिलता है। जबकि संन्यास-व्यवस्था भी उपनिषद् काल से ही मान्य दिखलाई देती है। श्रमण जैन धर्म में आरंभ से ही संन्यास नितांत आत्मवाद पर आधारित है। इसीलिए आचारांग (1.1.1.5) में कहा गया है कि आचार की आराधना वही कर पाता है, जो आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी होता है। ___ मुण्डकोनिषद् (1/2/7-11) के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि ब्रह्म और आत्मा विषयक चिन्तन के प्रति आकर्षण से यह स्वाभाविक था कि यज्ञ-याग और क्रिया काण्ड के प्रति श्रद्धा में कमी आये। क्योंकि चिंतकों ने उसे "अपरा विद्या" या "अविद्या" तक कह दिया था और “परा विद्या" को ज्ञान-विद्या, आत्म-विद्या, ब्रह्म विद्या, योग विद्या कहकर उसे यज्ञ-यागदि से भी श्रेष्ठ कह दिया गया था। कठोपनिषद् (1/2/2-3) में यही बात "नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेध्या न बहुना श्रुतेन"- इस रूप में कही गयी है।
जब इस तरह की विचार-धारायें आगे बढ़ी तो वेदों के अपौरुषेयत्व, अनादित्व आदि के विषय में विरोधी स्वर उठने लगे। ये स्वतंत्र विचारक अतीन्द्रिय विषयों पर एकान्त-शान्त-कान्त-कानन में विचार करते और अधिकांश समय मौनपूर्वक चिंतन में लीन रहते थे। इसीलिए ऐसे साधनारत स्वतंत्र चिंतक "मुनि" कहलाने लगे। वेदों में भी ऐसे वातरसना चिन्तकों को "मुनि" कहा गया है, जो कि श्रमण संस्कृति के ही प्रतिनिधयों के रूप में प्रतिष्ठित थे।
वन में रहने वाले ऐसे मुनियों का जीवन साधना, तपश्चरण, अहिंसा, आर्जव, सत्य, दानादि, सिद्धान्तों से ओतप्रोत था। हम वैदिक साहित्य का अध्ययन करें तो उसी से सिद्ध होता है कि यज्ञ-संस्था का प्रतिरोध प्रारंभ से ही होता रहा। उन्हें देव-विरोधी और यज्ञ-विरोधी भी कहा गया है। यतिवर्ग यज्ञ-विरोधी थे। इन्द्र ने उसे सालावृकों को समर्पित किया था। (ताण्ड्यमहाब्राह्मण(13/4) इस प्रकार के और भी अनेक वर्ग थे, जिन्होंने वैदिकधारा को प्रभावित किया था। श्रमण-(जैन-बौद्ध) साहित्य में यज्ञ के प्रति जो अनादर का भाव मिलता है, वह उनकी चिरकालीन यज्ञविरोधी धारणा का परिणाम है। श्रमण परंपरा के उत्तराध्ययन सूत्र में इस प्रकार के अनेक प्रसंग दृष्टव्य हैं। उस समय श्रमण यज्ञ के
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बाड़ों में भिक्षार्थ जाते थे और यज्ञ की व्यर्थता तथा आत्मिक यज्ञ की सफलता का प्रतिपादन भी करते थे।
यज्ञ का प्रतिरोध श्रमण ही नहीं, अपितु इनसे प्रभावित आरण्यक और औपनिषदिक ऋषि भी करने लगे थे। प्रतिरोध की थोड़ी रेखायें ब्राह्मणकाल में भी खिच चुकी थीं। ऐतरेय आरण्यक (3/2/6) में ऋषि कावषेय कहते हैं कि "हम वेदों का अध्ययन किसलिए करें? और यज्ञ किसलिए करे? क्योंकि वाणी का उपरम होने पर प्राणवृत्ति का विलय होता है और प्राण का उपर होने पर वाणी का उद्भव होता है। प्राण की प्रवृत्ति होने पर वाणी विलीन हो जाती है । "
इसी तरह उपनिषदों में पुनर्जन्म और कर्मसिद्धांत इन सिद्धांतों के प्रवेश के पश्चात् वैदिक धर्म की रूपरेखा में बहुत परिवर्तन हुआ । वैदिक यज्ञ और देवताओं का प्रभुत्व जाता रहा। उपनिषत् काल में ही यह मत अमल में आने लगा कि मोक्ष पाने के लिए ज्ञान के पश्चात् वैराग्य से कर्म संन्यास करना चाहिए।
सिद्धांताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने (जैन साहित्य का इतिहास पूर्वपीठिका में) लिखा है कि- आत्मा, पुनर्जन्म, अरण्य, सन्यास, तप और मुक्ति (मोक्ष) – ये सारे तत्त्व परस्पर में सम्बद्ध हैं। आत्मविद्या का एक छोर पुनर्जन्म है तो दूसरा छोर मुक्ति है और संन्यास से लेकर अरण्य में तप करना, पुनर्जन्म से मुक्ति का उपाय है ये सब तत्व वैदिकेतर संस्कृति से वैदिक संस्कृति में प्रविष्ट हुए हैं।
श्रमण जैन धर्म के अनुसार आत्मविद्या के प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव हैं। आत्मविद्या योगविद्या आदि विद्याओं के आद्य प्रवर्तक होने के कारण इन्हें ब्रह्मा, शिव, आदिनाथ प्रथम जिन, हिरण्यगर्भ, वातरसना, व्रात्य, योगात्मा, महायोगी आदि विशेषणों से भी जाना जाता है। इन्हीं ऋषभदेव की परंपरा के सभी तीर्थकरों ने आत्मविद्या का व्यापक प्रचार-प्रसार किया।
यद्यपि जैनधर्म में निवृत्ति प्रधान होने से आध्यात्मिक मूल्यों पर विशेष जोर दिया गया है किन्तु यहाँ अपने इष्ट सच्चे देव (अर्हतादि), सच्चे शास्त्र (जिनागम) तथा सच्चे गुरु (निग्रंथ) की पूजा भक्ति का विधान भी विशेष महत्त्वपूर्ण है। प्राचीन काल में यद्यपि पूजा का स्वरूप आज जैसा नहीं रहा, अपितु प्राचीनकाल में इष्टदेव का गुणस्तवन, भक्ति, ध्यान आदि रूप था, किन्तु कालक्रम से अन्यान्य संस्कृतियों के प्रभाव से यहाँ भी पूजा पद्धति में बाह्य क्रियाकाण्ड और आडम्बर जुड़ता गया। ईश्वर अकर्तृत्ववादी होने के बाद भी श्रमण परंपरा में अन्य प्रभावों से पूजा भक्ति में भी सांसारिक कामनाओं की पूर्ति की भावना ने प्रवेश पा लिया। यद्यपि सैद्धान्तिक दृष्टि से ईश्वर एवं सृष्टि-कर्तृत्व, वर्ण एवं जाति व्यवस्था का पुरजोर खण्डन ही मुख्य रहा, किन्तु व्यावहारिक धरातल पर भी पूर्वोक्त प्रवृत्तियों का भी जोर रहा है और है भी
यद्यपि यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि वैदिक आर्य मूलतः अग्नि के उपासक थे अतः इस संस्कृति में यज्ञों आदि का प्रधान रूप में महत्व प्रारंभ से ही रहा है। यहाँ का
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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 कर्मकाण्ड मूलक ब्राह्मण साहित्य मूलतः यज्ञ विधियों आदि के ज्ञानार्थ लिखा- गया, इसीलिए वैदिक परंपरा में "इज्या" शब्द यज्ञार्थ बोधक है, जबकि जैन परंपरा में "इज्या" शब्द “पूजा" के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। आदिपुराण (पर्व 38 पद्य 26) में आचार्य जिनसेन ने "पूजा पूजार्हतामिज्या" कहकर पूजा के अर्थ में "इज्या" शब्द का प्रयोग किया गया है महापुराणकार (38/34) ने भी कहा है कि -
एवंविधविधानेन या महेज्या जिनेशिनाम्। विधिज्ञास्तामुशन्तीज्यां वृत्तिं प्राथमकल्पिकीम्॥
अर्थात् विधि- विधान से जिनेन्द्रदेव की जो महापूजा की जाती है, उसे विधिवेत्ता आचार्य, श्रावक के षट्कर्मों में सर्वप्रथम की जाने वाली "इज्जा" वृत्ति कहते हैं।
डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने अपनी पुस्तक "भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान" में लिखा है कि "पूजा पद्धति और संन्यास श्रमण-परंपरा की देन है, क्योंकि दक्षिण भारत, जो कि श्रमण संस्कृति का केन्द्र रहा है, में भक्ति की उत्पत्ति हुई है। जब आर्य श्रमणों के साथ मिश्रित हो गये तो संन्यास और पूजा-विधि दोनों ही धार्मिक अनुष्ठान आर्य-संस्कृति में भी प्रतिष्ठित हो गये, क्योंकि जब आर्यों की यज्ञ-विधियाँ आत्मतुष्टि का साधन न रह सकीं, तो वैदिक आर्यों ने श्रमणों से भक्ति या पूजा विधि ग्रहण की। इसका एक सबल प्रमाण "श्रीमदभागवत" जैसे प्राचीन ग्रंथ का वह प्रसंग है, जिसमें भक्ति नारद से कहती है
उत्पन्ना द्राविडे साहं वृद्धि कर्णाटके गता। क्वचित्क्वचिन्महाराष्ट्र गुर्जरे जीर्णतां गता।
अर्थात् मेरा जन्म द्रविड देश में हुआ, कर्णाटक में मैं बड़ी हुई, महाराष्ट्र देश में कुछ काल तक वास किया और गुजरात में आकर मैं जीर्ण (बूढ़ी) हो गई हूँ। __डॉ. शास्त्री ने आगे लिखा है कि वैदिक आर्य यज्ञ संपादन करते थे और श्रमण लोग पूजा करते थे। अर्धमागधी प्राकृत आगम के मूलसूत्र "उत्तराध्ययन सूत्र" (12/42) में यज्ञ विधियों का अहिंसापरक अर्थ किया है और आध्यात्मिक संकेत प्रस्तुत किये हैं। उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि श्रमण आध्यात्मिकता द्वारा वैदिक आर्यों से समन्वय करने का प्रयास कर रहे थे। उत्तराध्ययन में श्रमण और वैदिक आर्यों के संघर्ष और समन्वय के अनेक प्रमाण उपलब्ध होते हैं। इन तथ्यों से भी यह निष्कर्ष निकलता है कि श्रमण पूजा विधि के आरंभ से ही समर्थक थे। मूर्तिपूजा भी श्रमण परम्परा की देन है स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने प्रमुख ग्रंथ "सत्यार्थ प्रकाश' में इस तथ्य को स्वीकृत और प्रतिपादित भी किया है।
वैदिक परंपरा के पद्मपुराण (भूमिखण्ड श्लोक 17-21) में वैदिक धर्म के लक्षणों के अभाव को ही जैनधर्म का लक्षण बतलाया गया है। उसमें एक निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैन मुनि के वेषधारी मुनि से राजा वेन के पूछे जाने पर उन्हें जैनधर्म के लक्षण बतलाते हुए
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इस प्रकार वर्णित कया गया है
अर्हन्तो देवता यत्र निग्रंथों दृश्यते गुरुः॥ दया चैव परो धर्मस्तत्र मोक्षः प्रदृश्यते॥ दर्शनेस्मिन्न सन्देह आचारान्प्रवदाम्यहम्। यजनं याजनं नास्ति वेदाध्ययनमेव च। नास्ति सन्ध्यातपो दानं स्वधास्वाहाविवर्जितम्। द्रव्यकव्यादिकं नास्ति नैव यज्ञादिका क्रिया। पितृणां तर्पणं नास्ति नातिथिर्वैश्यदेवकम्।
क्षपणस्य वरा पूजा अर्हतो ध्यानमुत्तमम्॥ अयं धर्म समाचारो जैनमार्गे प्रदृश्यते।
एतत्ते सर्वमाख्यातं जिनधर्मस्य लक्षणम्॥
अर्थात् जहाँ अर्हन्त को देवता और निग्रंथ मुनि को गुरु मानते हैं, अहिंसा परमधर्म है और मोक्ष की प्राप्ति परम लक्ष्य है। जिस धर्म में यजन-याजन नहीं होता, न ही वेदों का अध्ययन, न सन्ध्या करते हैं, न (ब्राह्मण जैसा) तप और दान। वे देवताओं को स्वाहापूर्वक हवि प्रदान भी नहीं करते और स्वाध्याय पूर्वक पितरों का तर्पण नहीं करते। वैश्वदेव अतिथि नहीं होते। जिस धर्म में क्षपणक (निग्रंथ जैन मुनि) की पूजा और अर्हन्त का ध्यान ही श्रेष्ठ माना जाता है। ये ही उस जैन धर्म के अपने लक्षण हैं।
इस प्रकार वैदिक एवं श्रमण संस्कृति- इन दोनों का तुलनात्मक अध्ययन- भारतीय संस्कृति की प्राचीनता, समन्वयशीलता, एवं महत्ता समझने की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। इस हेतु विस्तृत अध्ययन-अनुसंधान अपेक्षित है। किन्तु मैंने यहाँ मात्र कुछ ही बिन्दुओं पर विचार प्रस्तुत किये हैं।
- अनेकांत विद्या भवनम् बी-23/45-पी.6, शारदानगर कालोनी,
खोजवाँ, वाराणसी
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समयसार की "ज्ञान ज्योति" टीका का वैशिष्टय
-डॉ. श्रेयांस कुमार जैन अध्यात्म की अजस्र स्रोतस्विनी प्रवाहित करने वाला श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य विरचित समयसार आत्मतत्त्व निरूपण करने वाले ग्रंथों में सर्वश्रेष्ठ है। इस ग्रंथराज पर असाधारण प्रतिभाशाली आचार्य श्री अमृतचन्द्र सूरि ने दण्डान्वय प्रक्रिया का आश्रय लेकर "आत्मख्याति" नामक टीका लिखी, जिसकी भाषा समास बहुल है और दार्शनिक प्रकरणों की अधिकता के करण सामान्यजनों को दुरूह है। इसमें समयसार को नाटक का रूप दिया गया है। नाटकीय निर्देशों को पूरा पूरा स्थान दिया है। यथा पीठिका परिच्छेद को पूर्वरंग कहा गया है। ग्रंथ को नाटक के समान 9 अंकों में विभक्त किया गया है। (1) जीवाजीव (2) कर्ताकर्म (3) पुण्य-पाप (4) आस्रव (5) संवर (6) निर्जरा (7) बन्ध (8) मोक्ष (9) सर्वविशुद्धज्ञान। नवम अंक के अन्त में समाप्ति सूचक पंक्तियाँ इस प्रकार है "इति श्री अमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यामामख्यातौ सर्वविशुद्धज्ञानप्ररूपको नवमोंकः" नवम अंक के बाद नयों का सामञ्जस्य उपस्थित करने के लिए स्याद्वादाधिकार तथा उपायोपेय भावाधिकार नामक दो स्वतंत्र परिशिष्ट जोड़ दिए हैं। यह आत्मख्याति टीका चार सौ पन्द्रह गाथाओं पर लिखी गयी है उसी के मध्य 278 कलश काव्यों के माध्यम से सारभूत विषयों को प्रस्तुत किया है। कलशकाव्य भावपूर्ण एवं रोचक हैं।
आचार्य अमृतचन्द्रसूरि का अनुगमन करते हुए विलक्षण प्रतिभावान् आचार्यवर्य श्री जयसेन स्वामी ने समयसार के ऊपर अत्यन्त सरल और सुबोध संस्कृत में तात्पर्यवृत्ति टीका लिखी। इसमें गुणस्थान विवक्षा से कथन किया गया है कि किस गुणस्थानवर्ती की क्या पात्रता होती है। इससे आचार्य जयसेन स्वामी को विशेष प्रसिद्धि मिली। इन्होंने पदखण्डना विधि को अपनाया है। टीका लिखने की इनकी विशेष विधि है। मूल की सुरक्षा की है। इसीलिए यह विधि श्रेष्ठ है। कुन्दकुन्दाचार्य के मूल शब्दों की संरक्षा में प्राकृत शब्दानुसारी इस टीका का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह 439 गाथाओं पर लिखी हुई तात्पर्यवृत्ति समयसार को दस अधिकारों में विभक्त करती है। आचार्य अमृतचन्द सूरि ने जीवाजीवाधिकार की टीका एक साथ कर एक अंक माना है किन्तु जयसेन स्वामी ने उसको दो अधिकारों में विभक्त कर टीका की है। अन्त में स्याद्वाद अधिकार रूप से ग्रंथ समाप्ति के बाद जोड़ा है। आचार्य जयसेन की विशेषता है कि प्रत्येक अधिकार या उपपरिच्छेद के प्रारंभ में इन्होंने इस अधिकार का विश्लेषण विषय वस्तुओं के अनुसार उत्थानिका के रूप में गाथाओं की संख्या को भी उपस्थित कर दिया। इस टीका ने अध्यात्म और सिद्धांत में रुचि रखने वालों को प्रभावित किया है।
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समयसार की आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति दोनें टीकाओं का सम्यक् स्वाध्याय कर संस्कृति संवाहिका अध्यात्मविद्या प्रवीणा आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माता जी ने दोनों टीकाओं को एक साथ विविध रहस्योद्घाटन के साथ प्रस्तुत करने का विचार बनाया। दोनों संस्कृत टीकाओं का अक्षरशः अनुवाद करते हुए विशेषार्थ भावार्थ सहित "ज्ञानज्योति " नामक टीका लिखी। ज्ञान ज्योति रथ का संपूर्ण देश में प्रवर्तन चल रहा था और गणिनी प्रमुख आर्यिका श्री का समयसार टीका लिखते हुए आत्मरथ प्रवर्तित था अतः टीका क नाम " ज्ञान ज्योति" रखा गया।
समयसार पर हिन्दी भाषा में अनेक टीकाएँ लिखी जा चुकीं थीं उनमें विशेषार्थ आदि द्वारा विषयों को भी स्पष्ट किया गया था फिर भी आर्यिकारत्न को व्याख्या लिखने की आवश्यकता महसूस हुई क्योंकि कोई भी टीका आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति तथा अध्यात्मअमृत कलश के हिन्दी भाषा सहित एक साथ नहीं थी । स्वाध्यायियों को अध्यात्म और सिद्धांत के विषय स्पष्ट नहीं हो पाते थे। जो विषय आत्मख्याति से स्पष्ट नहीं होता वह तात्पयवृत्ति स्पष्ट करती है। दोनों टीकाओं का एक साथ अर्थ देखने पर विषय की स्पष्टता हो जाती है इसीलिये माता जी ने दोनों टीकाओं को सार्थ एक साथ तैयार किया। आत्मख्याति टीका के बाद विशेषार्थ और तात्पर्यवृत्ति के पश्चात् भावार्थ लिखकर निश्चयव्यवहार परक अर्थ को सुस्पष्ट कर वर्तमान में व्यवहार को असत्यार्थ और हेय कहने वाले लोगों के भ्रम का निवारण करने और सम्यक् बोध कराने का प्रयत्न किया है। यथा गाथा संख्या आठ' की आत्मख्याति टीका में श्री अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है कि " इति वचनात् व्यवहारनयो नानुसर्तव्य:" इस कथन से व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं किन्तु वही आगे 11वीं गाथा की टीका के अन्त मे कहते हैं " अथ च केषाञ्चित्कदाचित् सोऽपि प्रयोजनवान्'' अर्थात् किन्हीं लोगों को व्यवहार प्रयोजनीभूत है पुनः 12वीं गाथा की टीका में स्वयं श्री अमृतचन्द्र सूरि कह रहे हैं कि जो सोलह ताव से तपे शुद्ध स्वर्ण के समान परमभाव का अनुभव करते हैं, उनके लिए निश्चयनय प्रयोजनवान है, उसके पहले एक दो आदि से लेकर पन्द्रह ताव तक शुद्ध होते हुए सुवर्ण के समान अपरमभाव में स्थितजनों को व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है इसका अर्थ स्पष्ट है कि पूर्ण शुद्ध हुए बारहवें गुणस्थानवर्ती के लिए अथवा जिनके बुद्धिपूर्वक राग का अभाव है ऐसे शुद्धोपयोगी निर्विकल्प ध्यानी मुनि के लिए निश्चय प्रयोजनीभूत है। शेष चतुर्थ, पंचम, षष्ठ, सप्तम गुणस्थानवर्ती जनों को व्यवहार पूर्णतः कार्यकारी हैं। क्योंकि इतनी स्पष्टता अन्य टीकाओं में देखने को नहीं मिलती है।
सम्यक्त्व के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने कहा है
भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च ।
आसवसंवरणिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥13॥ (अ.)
भूतार्थ से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नव पदार्थ ही सम्यकत्व है।
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इस गाथा से एक प्रश्न खड़ा हो गया है कि भूतार्थ की विवक्षा से ये नव पदार्थ कैसे होंगे क्योंकि भूतार्थ तो शुद्धनय है। शुद्धनय से जीव के साथ कर्म का संबन्ध हो नहीं सकता है। तब भूतार्थ से क्या अर्थ लिया जाय? इसका समाधान टीका कर्त्री ने बहुत सुन्दर किया है कि यहाँ पर 'भूतार्थ' शब्द से अशुद्ध निश्चयनवरूप भूतार्थ को लेना चाहिए इसी गाथा की तात्पर्यवृत्ति में व्यवहार के भूतार्थं और अभूतार्थं और निश्चय के भूतार्थ- अभूतार्थ किये गये हैं। भूतार्थं के शुद्ध निश्चय और अशुद्ध निश्चय दो भेद करना चाहिए। शुद्ध निश्चय से नव पदार्थ की व्यवस्था नहीं बन सकती है किन्तु अशुद्ध निश्चय से अवश्य बनेगी।
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इस टीका की यह भी विशेषता है कि जो विषय सामान्यतः स्पष्ट न हो रहा हो उसे माता जी ने प्रश्नोत्तर शैली में समझाकर स्पष्ट कर दिया जैसे कि- नवपदार्थ सम्यक्त्व कैसे होंगें? क्योकि आत्मा का श्रद्धान रूप भाव सम्यग्दर्शन होता है ? इसका समाधान करते हुए बताया है कि यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके अभेदोपचार से इन नवतत्वों को ही सम्यग्दर्शन कह दिया है। चूंकि ये नवतत्त्व जो श्रद्धान रूप सम्यक्त्व हैं उसके लिए कारण हैं अथवा उसके विषय हैं। इस दृष्टि से भी विषय, नवतत्त्व और विषयी सम्यक्त्व इनमें अभेद करके अभेदोपचार से इन्हें ही सम्यक्त्व कह दिया है।
इस प्रकार स्पष्टीकरण करना टीका की अपनी विशेषता है। इसकी विशेषताओं को गिनाया नहीं जा सकता है यह टीका हर दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इसमें समग्रता के दर्शन होते हैं। आत्मख्याति के अंगभूत कलशकाव्य साथ में दिए गये हैं उनका काव्यार्थ रूप में अर्थ उपस्थित किया गया है। विशेषार्थ को अन्य ग्रंथों के प्रमाण देकर लिखने से प्रामाणिक बनाया गया है। सम्यक्त्व के प्रकरण में कलश काव्य का मुक्तक रूप में छायानुवाद दृष्टव्य 兼
जिस तरह वर्णमाल कलाप में स्वर्ण निमग्न रहा जानो।
यह आत्मज्योति वैसे ही नव तत्वों के मध्य छिपी मानो ॥
सब द्रव्यों से जो भिन्न सदा है एक रूप घेतन देखा।
हर पर्यायों में 'आत्मज्योति' चिच्चमत्कार भासित लेखो ॥
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इसके द्वारा 'आत्म ज्योति" के स्वरूप को जनसाधारण को समझाने में रोचकता उत्पन्न की गई है। इसी प्रकार आत्मख्याति के अनुवाद के साथ कलशों का काव्यार्थ और उनका भी भावार्थ देकर टीका को अध्यात्मरसिक विद्वानों के लिए स्पृहणीय बना दिया गया है।
आचार्य जयसेन स्वामी सम्यक्त्व की प्रतिपादिका उक्त गाथा से ही जीवाधिकार का प्रारंभ करते है। जयसेनाचार्य के कथ्य को बहुत सरल में आर्यिका श्री ने प्रस्तुत किया है। कि ये नव पदार्थ अभेद रत्नत्रय लक्षण निर्विकल्पध्यान में अभूतार्थ है इसके पहले तक भूतार्थ हैं। इससे भूतार्थ का प्रयोजनीभूत यह अर्थ सुघटित हो जाता है और इससे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि शुद्धोपयोग के पहले पहले यह निश्चय सम्यक्त्व भी स्पष्ट हो
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25 जाती है। यहाँ पर भी जो भूतार्थ को निश्चय नय कहा है उससे अशुद्ध निश्चयनय ही ठीक लगता है क्योंकि शुद्ध निश्चयनय से तो जीव त्रिकाल शुद्ध सिद्ध ही है। ऐसे ही प्रमाण नय आदि भी छठे गुणस्थान तक प्रयोजनीभूत ही हैं।'
इस प्रकार से भावार्थ और विशेषार्थ लिखकर माता जी ने इस टीका को सर्वजन बोध्य बना दिया इसीलिए जबसे यह टीका प्रकाश में आयी स्वाध्यायियों ने इसे स्वाध्याय का विषय बनाया है। इसमें गाथाओं का पद्यानुवाद भी अपना महत्व रखता है। लेखिका ने काव्य रचना के माध्यम से पूजा साहित्य की जो अभिवृद्धि की है, वैसी अद्यावधि अन्य किसी कवि या कवियित्री के द्वारा नहीं हुई है। अध्यात्म ग्रंथों का पद्यानुवाद भी अनूठा है, जो गाथाओं के पूर्ण अर्थ को प्रगट करता है। टीका में अन्य मतों का पक्ष रखते हुए उनका खण्डन भी बड़ी कुशलता से किया है। यद्यपि श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य अजीवाधिकार के प्रारंभ में पांच गाथाओं में अन्य मतावलम्बियों की आत्माविषयक मान्यताओं को दर्शाते हैं आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति भी उन्हें स्पष्ट करती हैं किन्तु पांचों गाथाओं का सार संक्षेप में आर्यिकाश्री ने विशेषार्थ द्वारा दर्शाकर आत्माविषयक मान्यताओं को सहज में बता दिया। जैसे गाथा में आचार्य देव ने पूर्व पक्ष की तरफ से आठ मान्यताएँ रखी हैं 1. रागद्वेष आदि विभाव परिणाम ही जीव है। 2. कर्म ही जीव है, 3. तीव्र-मन्द अनुभाग से सहित परिणामों की परंपरा ही जीव है, 4. शरीर रुप नो कर्म ही जीव है, 5 पुण्य- पापकर्मों का समूह ही जीव है, 6. साता असातारूप से सुख-दुख का अनुभव ही जीव है, 7. आत्मा और कर्म ये दोनों मिलकर ही जीव हैं, 8. आठों कर्मों का संयोग ही जीव है।'
इस प्रकार से अन्य मान्यताओं को बताकर आचार्यदेव की कथनी को सरल शब्दों में बता दिया है कि जीव और पुद्गल अनादिकाल से एक क्षेत्रावगाही होकर संसारी बने हुए हैं विकास सहित अनेक अवस्थाओं में परिणमन करते हैं। इत्यादि रूप से जीव-अजीव अधिकार संबन्धी सभी गाथाओं को स्पष्ट कर भेद विज्ञान को समझा दिया है। व्यवहार-निश्चय की परस्पर मैत्री रूप मीमांसा अद्भुत है। निश्चयाभासी एकान्तवादियों के लिए आंखें खोलने वाली है उनके मिथ्यात्व को गलाकर सम्यक्त्व की ज्योति प्रदान करने वाली है।
इस "ज्ञानज्योति" टीका में शुद्धोपयोग की स्वामित्व विवक्षा पर विशेष चिंतन है। इसमें अनेक गाथाओं के विशेषार्थों में इस विषय को विस्तार से खोला गया है। शुद्धात्म स्वभाव में तल्लीन रहने वाला ही शुद्धोपयोगी होता है। शुद्धोपयोग के बल से ही आस्रवभवों को नष्ट करता है। समयसार की कर्तृकर्माधिकार की 78वीं गाथा में स्पष्ट किया गया है कि शुद्धोपयोग के द्वारा ही जीव विचारता है कि मैं निश्चय से एक हूँ, शुद्ध हूँ? ममता रहित हूँ और ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण हूँ। अतः इसी स्वभाव में स्थित होता हुआ एवं चैतन्य के अनुभव में लीन होता हुआ मैं इन क्रोधादि समस्त आस्रव भावों का क्षय करता हूँ। आचार्य जयसेन ने भूताविष्ट और ध्यानाविष्ट दृष्टान्तों द्वारा समझाया है कि जैसे किसी पुरुष के भूत आदि ग्रह लग गया हो तो वह भूत में और अपने आप में भेद को नहीं जानता हुआ मनुष्य से न करने योग्य बड़ी
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भारी शिला उठाना आदि रूप आश्चर्यजनक व्यापार को करता हुआ दीख पड़ता है, उसी प्रकार यह जीव भी वीतरागमय परम सामायिक भाव में परिणत होने वाला शुद्धोपयोग है लक्षण जिसका ऐसे भेदज्ञान के न होने से कामक्रोधादिभावों में प्रवृत्ति करने वाला होता है। और भेदज्ञान होने पर शुद्धात्मा के सुखानुभवरुप स्वसंवेदन ज्ञान वाला होता है।'
वर्तमान में कुछ लोग अविरत सम्यक्त्व के काल में शुद्धात्मा के सुखानुभव रूप स्वसंवेदन का समर्थन करते हैं उन्हें समझाते हुए कहा है कि स्वसंवेदन भी सराग और वीतराग के भेद से दो प्रकार का है अर्थात्- विषय सुखानुभव के आनन्दरूप स्वसंवेदन ज्ञान सर्वजन प्रसिद्ध सराग है किन्तु जो शुद्धात्मा के सुखानुभवरूप स्वसंवेदन ज्ञान होता है, वह वीतराग स्वसंवेदन है अतएव यह सर्वत्र माना चाहिए कि वीतराग स्वसंवेदन शुद्धोपयोग के बिना संभव नहीं है और शुद्धोपयोग अप्रयत्न निर्विकल्प समाधि के बिना संभव नहीं है।
शुद्धात्मा की भावना और शुद्धोपयोग को एक मानकर वर्तमान में अनेक लोग भ्रमित हो रहे हैं उनके भ्रम का निवारण करते हुए कहा है कि शुद्धात्मा की भावना व शुद्धोपयोगी में इतना ही अंतर है जितना की विद्यार्थी और अध्यापक में है। शुद्धात्मा की भावना अलब्धोपलिप्सा नहीं प्राप्त हुई वस्तु के प्राप्त करने की उत्सुकता रूप होने से अविरत सम्यग्दृष्टि आदि के भी होती है किन्तु शुद्धोपयोग तो शुद्धात्मा से तन्मयता रूप होता है जैसा कि कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है “जिसने निज शुद्धात्मा आदि पदार्थ और सूत्र को भलीभाँति जान लिया है। जो संयम और तप से युक्त है। राग रहित है जिसको सुख-दुःख समान हैं, वह शुद्धोपयोगी श्रमण कहा गया है।'
इससे स्पष्ट है कि काम क्रोधादि विकारी भावों का मूलोच्छेद करने वाला ही शुद्धोपयोगी है। गृहस्थ को विकारों का मूलोच्छेद कदापि संभव नहीं है, क्योंकि वह कौटुम्बिक कार्यों में फंसा होकर निर्द्वन्दता प्राप्त करने में कैसे समर्थ हो सकता है? अतएव अविरत सम्यग्दृष्टि को शुद्धोपयोगी कहना आगम ओर अध्यात्म का अपलाप है। ___ आर्यिकाश्री ने ज्ञानी के स्वरूप को प्रतिपादित करने वाली गाथा को भावार्थ के द्वारा सहज बोधगम्य बना दिया अर्थात्-जब कर्ता-कर्म का संबन्ध छूट जाता है, तब वह आत्मा ज्ञानी हो जाता है। यह पूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञानी के होता है उससे पूर्व श्रेणी में महामुनि निर्विकल्प ध्यान में अनुभव करते हैं। वे मात्र ज्ञाता दृष्टा ही रहते हैं शिर पर अंगीठी जला देने पर भी उन्हें भान नहीं होता है, वे ही ज्ञानी कहलाते हैं। इससे पहिले श्रद्धान मात्र से अपने आपको ज्ञाता द्रष्टा समझते हैं, विश्वास करते हैं किन्तु राग-द्वेष आदि रूप से तद्रूप परिणत हो जाने से ज्ञानी नहीं हो पाते हैं। कलशकाव्य के द्वारा भी यही बताया गया है।
इस प्रकार उदाहरण आदि के माध्यम से समयसार में वर्णित विषयों को माता जी ने अनूठे ढंग से स्पष्ट किया है। अध्यात्म प्रधान समयसार की यह हिन्दी टीका माता जी की गहरी अध्यात्मिक अभिरुचि की दिग्दर्शिका है। इसमें माता जी ने अपनी बुद्धिबल के आधार पर सूक्ष्म से सूक्ष्म आध्यात्मिक विषयों को जनसामान्य के लिए ग्राह्य बना दिया है। आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव, आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि, आचार्य श्री जयसेन स्वामी द्वारा
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प्रतिपादित सूक्ष्म और गंभीर सिद्धांतों को अपनी सरल भाषा में प्रश्नोत्तर शैली और उदाहरणों के माध्यम से समझाकर जिनवाणी आराधकों का महान् उपकार किया है।
समयसार को पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध दो भागों में टीका के साथ प्रकाशित कराया गया है। पूर्वार्द्ध में जीवाजीवाधिकार, कतृकर्माधिकार, पुण्य-पापाधिकार, आस्रवाधिकार, संवराधिकार का विवेचन है और उत्तरार्द्ध में निर्जराधिकार, बन्धाधिकार, मोक्षाधिकार, सर्वविशुद्धानाधिकार के बाद स्याद्वादाधिकार का वर्णन है परिशिष्ट में दसों अधिकारों की गाथाओं को प्रस्तुत किया गया है। पूर्वार्द्ध में प्रकाशित अधिकारों का अन्वयार्थ भी उत्तरार्द्ध में प्रकाशित किया गया है जिससे स्वाध्याय करने वाले संपूर्ण ग्रंथ को उत्तरार्द्ध एक भाग द्वारा पढ़ सकते हैं। इस टीका में माता जी की बेजोड़ भाषा शैली उनके अध्ययन, चिंतन एवं साहित्य सृजन भाषानुवाद की विलक्षण प्रतिभा पद पर दृष्टिगत होती है।
समयसार "उत्तरार्द्ध" में "पूर्वार्द्ध की तरह ही शैली को अपनाया गया है। निर्जराधिकार में सम्यग्दृष्टि का वर्णन करते हुए निम्न गाथा है
एवं सम्मद्दिटी अप्पाणं गुणादि जाणय सहावं। उदयं कम्मविवागं य मु अदि तच्चं वियाणंतो॥
अर्थात् - इस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा को ज्ञायक स्वभाव जानता है और वास्तविक तत्त्व को जानते हुए उदय स्वरुप कर्म के फल को छोड़ देता है। __ आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी सम्यग्दृष्टि को निज स्वरूप को जानने वाला और कर्मों के उदय के फलस्वरुप से उत्पन्न हुए समस्त परभावों को छोड़ने वाला बताकर उसे ज्ञान वैराग्य संपन्न कहते हैं। कलश के माध्यम कहते हैं कि "मैं सम्यग्दृष्टि हूँ मुझे कभी भी बंध नहीं होता है ऐसा मानकर जिनका मुख गर्व से ऊँचा और पुलकित हो रहा है ऐसे रागी जीव भले ही महाव्रतादि का आचरण करें तथा समितियों का भी उत्कृष्ट रीति से अवलम्बन लेवें तो भी वे अभी भी पापी हैं क्योंकि वे आत्मा और अनात्मा के ज्ञान से रहित होने से सम्यग्दर्शन से ही रिक्त हैं।
इस कलश काव्य के आधार पर जो लोग मुनियों को पापी आदि शब्दों का व्यवहार कर देते हैं उन दुष्ट लोगों के लिए टीकाकी ने विशेषार्थ में समझाया है कि यह ग्रंथ महाव्रत-समितियों में तत्पर मुनियों के लिए ही है वे ही सच्चे भेदज्ञानी होकर सम्यग्दृष्टि बनते हैं वे ही वीतरागी होकर कर्मबन्ध से छूट सकते हैं। महाव्रत और समिति आदि चारित्र में तत्पर हैं फिर भी "मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुझे कदाचित् भी कर्मबन्ध नहीं होता ऐसा अहंकार करके ऊँचा मुख करते हुए अहंकार से चूर हो रहे हैं उनको ही यहाँ पापी कहा है।
अर्यिकाश्री ने स्पष्ट किया है कि सरागसंयमी मुनियों के दसवें गुणस्थान तक अपने अपने गुणस्थानों के अनुसार कर्मों का बंध हो रहा है। जानकार अपने को अबन्धक नहीं कहेगा। जो अहंकार कहे कि मेरे कर्मों का बन्ध नहीं हो रहा है, वह अज्ञानी है। अहंकार करने वाले भी मुनि को आचार्य अमृतचन्द्रसूरि जैसे उनके गुरु उन्हें पापी कह सकते हैं
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न कि गृहस्थ व्यक्ति जो निरंतर सांसारिक भोगों में लिप्त है। जो विरत हैं, वे कहते हैं कि समिति और व्रत पालक मुनि तो पापी हैं और हम सम्यग्दृष्टि हैं, ऐसे लोग संयम द्वेषी हैं, मुनि द्रोही हैं। संयम द्वेषी सम्यग्दृष्टि कदापि नहीं हो सकता।
रागी जीव सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं होता? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने कहा है कि जिसके रागादि भावों का अणुमात्र भी विद्यमान है, वह भले ही संपूर्ण शास्त्रों का ज्ञाता हो, फिर भी आत्मा को नहीं जानता है और वह आत्मा का न जानता हुआ अनात्मा को भी नहीं जानता है, वह जीव-अजीव को नहीं जानता हुआ सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ?"
गाथा संख्या 201 में "सव्वागमधरो वि' पद है जिसका अर्थ अमृतचन्द्रसूरि 'श्रुतकवेली सदृश' करते हैं। श्रुतकेवली भवलिंगी मुनि ही होते हैं, वे तो सम्यग्दृष्टि नियम से होंगे, उनमें सम्यक्त्वपने का सन्देह असंगत है अत: माता जी ने इस विषय को बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण दिया है कि दिगम्बर मुद्राधारी कोई कोई ग्यारह अंग चौदह पूर्व के ज्ञाता श्रुतकेवली होते हैं वे भावलिंगी मुनि ही होते हैं अतः सर्वागम से ग्यारह अंग 10 पूर्व तक का ही ज्ञान लेना चाहिए तथा च. जो राग का अणुमात्र भी न होने से सम्यग्दृष्टि कहा है वे सम्यग्दृष्टि ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में वीतरागी ही होंगे। दसवें गुणस्थान तक के सरागी मुनि कथमपि नहीं होंगे।
इस प्रकार से "ज्ञान ज्योति" नामक इस टीका में अन्य भी अनेक सैद्धांतिक विषयों को स्पष्ट किया गया है। पूरा का पूरा टीका ग्रंथ अपने आप में अद्भुत है। समयसार के हार्द को प्रस्फटित करने में पूर्णरूपेण समर्थ है। माता जी ने इसमें किसी भी रूप में कमी नही रहने दी है। जहाँ माता जी का पूजा साहित्य समृद्ध है, वहाँ उनका टीका साहित्य भी अपूर्व है। संस्कृत काव्य जगत् में टीकाकार के रूप में जो ख्याति मल्लिनाथ को मिली साहित्यशास्त्र के टीकाकार के रूप में अभिनव गुप्त को मिली उनसे भी अधिक संस्कृत और हिन्दी टीका करने में आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माता जी की कीर्ति है। यद्यपि माता जी की दार्शनिक ग्रंथों की टीकाओं ने विद्वानों को उनका चरण चञ्चरीक बना दिया और अध्यात्मिक ग्रंथों में नियमसार की स्याद्वाद चन्द्रिका और हिन्दी टीका महत्वपूर्ण है। समयसार की ज्ञानज्योति टीका की प्रंशसा के लिए शब्द नहीं हैं निश्चित रुप से सुधीजन इसका आदर के साथ पठन-पाठन करके आध्यात्मिक रहस्यों को आत्मसात् करेंगे। अध्यात्म विषयों की प्रतिपादिका यह टीका मुक्ति पथिकों के लिए अत्यधिक उपयोगी है।
संदर्भ (1) ज णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेळं।
तह व्यवहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं ।।8।।समयसार (आ. ता.) (2) ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ।
भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो ।।11।। समयसार (आ.)
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(3) सुद्धो सुद्धादेसो णायव्वो परमभावदरसीहिं।
ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमेट्ठिा भावे।।12।। समयसार (आ.) 4. समयसार, (पूर्वाद्ध) पृ. 79 5. धर्मादि छहो द्रव्य मेरे कुछ भी नहीं हैं उपयोगयी आत्मा निश्चय से कही है। उनको ही धर्म
निर्ममत्व ज्ञानि जन कहें, मुनि शुद्धज्ञानी ही इसे प्राप्त कर सकें- समयसार 37 6. समयसार, पूर्वाद्ध पृ. 179 7. कर्तृकर्माधिकार (स.सा.) गाा. 96 की टीका 8. वही 9. सुविदिदपयत्थसुतो संयम तव संजुदो विगदरागो।
समणोसमसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोव ओगोत्ति ।।14।। प्रवचनसार 10. कम्मस्स य परिणाम णोकम्मस्य य तहेव परिणाम।
ण करेइ एयमादा जो जाणदि सो हवदि णाणी ।।75।। (आ.) 11. समयसार, पूर्वार्द्ध पृ. 287 12. व्याप्यव्यापक भावरूप इक में अन्य स्वरूप नहीं।
द्रव्य औगुण भाव- भावक बिना कर्ता न कर्म स्थिती ।। ऐसा श्रेष्ठ विवेक भेदकर, जो मिथ्यान्धकार नशे।
सो ज्ञानी यह धन्य शोभित अहो कर्तृत्व शून्य कहे ।।49।। कर्तृकर्माधिकार पृ.286 13. सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बन्धो न ये स्या
दित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोप्याचरन्तु। आलम्बतां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा
आत्मानात्मावगमविर हात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः ।।371| अध्यात्मकलश 14. परमाणुमित्तयं पि तु रायादीणं तु विज्जदे जस्स।
णवि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरोवि ।।201|| आ. ता. 211 15. स श्रुतकेवलिकल्योऽपि तथापि ज्ञानमयभावनामभावेन न जानात्यात्मानं
यस्तु अत्मानं न जानाति सोऽनात्मानमपि न जानाति ।।टी. आत्म गा. 201
- मण्डी आनन्दगंज
बड़ौत उ. प्र.
27 दिसम्बर 2009, रविवार, दोपहर 1 बजे वीर सेवा मन्दिर, सभागार में प्राच्यविद्या महार्णव आचार्य जुगलकिशोर 'मुख्तार' के जन्म-जयन्ती के पावन प्रसंग पर आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार स्मृति व्याख्यानमाला का आयोजन किया जा रहा है। सुधी पाठकों से अनुरोध आप इस व्याख्यानमाला में सम्मिलित होकर कार्यक्रम का गौरव बढ़ावें।
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ऋजुसूत्रनय और बौद्ध दर्शन : जैन दृष्टि से समीक्षा
-डॉ. अनेकान्त कुमार जैन वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता को सापेक्ष दृष्टि से अभिव्यक्त करने के अभिप्राय से जैनदर्शन में 'नयवाद' का जन्म हुआ। नयवाद वह अवधारणा है जो वस्तु की परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली शक्तियों को उनकी अपेक्षानुसार उन्हें एक नाम तथा स्थान देता है। जैनदर्शन में इसीलिए प्रमाण के साथ साथ नय को भी पूरा महत्त्व दिया गया है तथा उसकी स्वीकृति प्रमाणांश के रूप में है। अधिगम के भी दो ही उपाय माने गये हैं- प्रमाण और नय। वक्ता तथा ज्ञाता के अभिप्राय को भी नय की संज्ञा दी गयी है। इसी आधार पर यह भी कहा गया है कि वचन के जितने भी प्रकार हो सकते हैं उतने ही नय भी हो सकते हैं। इसके बाद भी उन सभी नयों को मुख्य रूप से दो रूपों में तो देखा ही जा सकता है- (1) द्रव्यार्थिक नय (2) पर्यायार्थिक नय। द्रव्यार्थिक नय द्रव्य को लक्ष्य करके चर्चा करता है तथा पर्याय को गौण रखता है। पर्यायार्थिक नय द्रव्य की पर्याय को ही लक्ष्य करता है तथा द्रव्य दृष्टि को गौण रखता है। इसी आधार पर आध्यात्मिक दृष्टि से आत्माश्रित कथन को निश्चय नय तथा आत्मा से पृथक् पराश्रित कथन को व्यवहार नय कहते हैं।'
जैनदर्शन में सात प्रकार की दृष्टि को लेकर प्रमुखता के कारण सात प्रकार के नयों का विशेष रूप से विवेचन है। ये सात नय हैं- नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरुढ़ तथा एवंभूत' । यहाँ नैगमनय सामान्य तथा विशेष दोनों को ग्रहण करता है तथा संकल्पपूर्वक अपना कथन करता है। संग्रहनय सामान्य को अपना विषय बनाता है तथा भेद-प्रभेद को गौण रखता है। व्यवहार की दृष्टि भेद-प्रभेद करके देखने की है, उस समय वह सत्ता सामान्य की चर्चा भी नहीं करता, उसे गौण रखता है। इन तीनों से भी ज्यादा सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय है जो क्षणमात्र की पर्याय को ही अपना विषय बनाता है। शेष तीनों नयों का संबन्ध शब्दों के प्रयोग, अर्थ तथा व्यापार से है अत: वे भी अपना निर्धारित विषय ही व्यक्त करते हैं तथा अन्य दृष्टियों को गौण रूप से स्वीकारते हैं।
इन सातों नयों में सम्यक् और मिथ्यापना भी है। प्रत्येक नय जब तक अपनी दृष्टि को मुख्य रखकर, अन्य दृष्टियों या धर्मों के प्रति गौणता की दृष्टि रखता है तब तक वह 'सम्यक् नय' कहलाता है। अन्य दृष्टियों को गौण न करके यदि वह उनका निषेध करने लगता है तब वह 'मिथ्यानय' कहलाता है इसे दुर्नय अथवा नयाभास भी कहा गया है।
सात प्रकार के नयों में चतुर्थ नय 'ऋजुसूत्रनय' है। ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से यह आत्मा अनित्य है तथा सब-कुछ क्षणिक है। जैनदर्शन में पर्यायदृष्टि का सिद्धांत ऋजुसूत्र नय के रूप में एक ऐसा सिद्धांत है जिसकी तुलना जैनाचार्यों ने बौद्धदर्शन के क्षणिकवाद आदि प्रमुख सिद्धांतों से की है।
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ऋजुसूत्रनय का लक्षण
अनुयोग सूत्र में ऋजुसूत्रनय का लक्षण करते हुये कहा गया है कि 'ऋजुसूत्रनय' विधि- प्रत्युत्पन्नग्राही अर्थात् वर्तमान पर्याय को ग्रहण करने वाला है।' विशेषावश्यक भाष्य भी इस बात का समर्थन करता है। दर्शन युग के लगभग सभी जैनाचार्यों ने इसी लक्षण को संक्षिप्त तथा विस्तार पूर्वक समझाया है। उनमें वाचक उमास्वामी", आचार्य सिद्धसेन", पूज्यपाद, अकलंक देवा, वीरसेन, विद्यानंद, देवसेना, सिद्धर्षि", माइल्लधवला, वादिराजसूरि, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि', मल्लिषेण तथा उपाध्याय यशोविजय प्रमुख हैं।
लघु अनन्तवीर्य के अनुसार 'प्रतिपक्ष की अपेक्षा रहित शुद्ध पर्याय को ग्रहण करने वाला ऋजुसूत्र नय है। इस प्रकार का लक्षण मात्र इन्होंने ही किया। वैसे यहाँ शुद्धपर्याय से तात्पर्य वर्तमानक्षणवर्ती अर्थपर्याय से ही है जिसका ग्रहण वर्तमान के क्षण मात्र में ही होता है। अत: लघुअनन्तवीर्य का अभिप्राय भी लगभग वही है जो अन्य जैनाचार्यों का है। ऋजुसूत्र नय के भेद
आचार्य सिद्धसेन ने ऋजुसूत्रनय को पर्यायास्तिक नय का मूल आधार कहा है और उसके बाद प्रवृत्त होने वाले शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूतनय को इसी ऋजुसूत्र नय के भेद के रूप में मान्यता दी है।
धवलाकार वीरसेनाचार्य ने सर्वप्रथम ऋजुसूत्रनय के दो भेद किये हैं- (1) शुद्ध ऋजुसूत्रनय (2) अशुद्ध ऋजुसूत्रनय। यहाँ जो सूक्ष्म सत् की स्वतंत्र सत्ता को विषय करता है उसे सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय कहते हैं तथा जो विशेषों की एकता को ग्रहण करके उसकी स्वतंत्र सत्ता को विषय करता है उसे स्थूल ऋजुसूत्रनय करते हैं। अर्थात् शुद्ध ऋजुसूत्रनय अर्थपर्याय को ग्रहण करता है और अशुद्ध ऋजुसूत्रनय व्यञ्जन पर्याय को ग्रहण करता है। आगे के आचार्यों में देवसेन तथा माइल्लधवल इसी प्रकार के भेद करते हैं।
इस प्रकार हम पाते हैं कि पर्याय के जितने भी प्रकार हो सकते हैं उनको नयवाद अपनी एक अभिव्यक्ति देता है। ऋजुसूत्र नय पर्याय को ही विषय करता है उसकी दृष्टि सम्यक् एकांत इसलिए है क्योंकि वह द्रव्य का निषेध नहीं करता बल्कि उसे गौण कर देता है। ऋजुसूत्रनयाभास और बौद्ध दर्शन
सन्मति प्रकरण में आचार्य सिद्धसेन ऋजुसूत्रनय (परिशुद्धपर्यायनय) के लिए कहते हैं कि शुद्धोदन के पुत्र अर्थात् बुद्ध का दर्शन इस नय का विकल्प है। अकलंकदेव के अनुसार ऋजुसूत्रनय पदार्थ की एक क्षण रुप शुद्ध वर्तमानकालवर्ती अर्थपर्याय को विषय करने वाला है। इसकी दृष्टि से अभेद कोई वास्तविक नहीं है चित्रज्ञान भी एक न होकर अनेक ज्ञानों का समुदाय मात्र है। इस तरह समस्त जगत एक दूसरे से भिन्न है। एक पर्याय दूसरी पर्याय से भिन्न है। यह भेद इतना सूक्ष्म है कि स्थूल दृष्टि वालो लोगों को मालूम नहीं होता। जैसे परस्पर में विभिन्न वृक्ष भी दूर से सघन तथा एकाकार रूप से प्रतिभासित होते हैं, ठीक इसी तरह अभेद एक प्रतिभासिक वस्तु है।
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इस नय की दृष्टि में एक या नित्य कोई वस्तु ही नहीं है, क्योंकि भेद और अभेद का परस्पर में विरोध है। इस तरह यह ऋजुसूत्रनय यद्यपि भेद को मुख्य रूप से विषय करता है पर वह अभेद का प्रतिक्षेप नहीं करता। यदि अभेद का प्रतिक्षेप कर दे तो बौद्धाभिमत क्षणिकत्व की तरह ऋजुसूत्राभास हो जायेगा। सापेक्ष ही नय होता है, निरपेक्ष दुर्नय कहलाता है। जिस प्रकार भेद का प्रतिभास होने से वस्तु में भेद की व्यवस्था है उसी प्रकार जब अभेद का प्रतिभास होता है तो उसकी भी व्यवस्था होनी चाहिए। भेद और अभेद दोनों ही सापेक्ष हैं। एक का लोप होने से दूसरे का लोप हो जाना अवश्यंभावी है।
आचार्य विद्यानंद के अनुसार जो नय बाह्य और अन्तरंग द्रव्यों का सर्वथा निराकरण करता है, उसे ऋजुसूत्राभास मानना चाहिए, क्योंकि वह प्रतीति का अपलाप करता है। यही बात आचार्य प्रभाचन्द्र भी कह रहे हैं।
वादिदेवसूरि के अनुसारऋजुसूत्रनय द्रव्य को गौण करके पर्याय को मुख्य करता है, किन्तु ऋजुसूत्राभास द्रव्य का सर्वथा अपलाप कर देता है। वह पर्यायों को ही वास्तविक मानता है और पर्यायों में अनुगत रूप से रहने वाले द्रव्य का निषेध करता है। बौद्धों का मत क्षणिकवाद या पर्यायवाद ऋजुसूत्राभास है। मल्लिषेण भी कहते हैं कि बौद्ध लोग केवल ऋजुसूत्रनय मानते हैं। उपाध्याय यशोविजय भी यही मानते हैं कि केवल वर्तमान पर्याय को स्वीकार करने वाला और त्रिकालवर्ती द्रव्य का सर्वथा निषेध करने वाला ऋजुसूत्रनयाभास है, जैसे-बौद्धमत। बौद्धदर्शन की ऋजुसूत्रनय के संदर्भ में जैनदृष्टि से समीक्षा
ऋजुसूत्र नय की बौद्ध दर्शन से तुलना आचार्य विद्यानंद ने सर्वाधिक विस्तार से की है। उन्होंने बौद्ध दर्शन की समीक्षा करके उसका समावेश ऋजुसूत्रनयाभास में किया है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में आचार्य विद्यानंद कहते हैं कि अन्वयी द्रव्य का सर्वथा निषेध करने पर कार्यकारणपना, ग्राह्यग्राहकपना और वाच्य-वाचकपना नहीं बनता। तब ऐसी दशा में अपने इष्ट तत्त्व का साधन और पर पक्ष का दूषण कैसे बन सकेगा? तथा लोकव्यवहार सत्य और परमार्थ सत्य कैसे हो सकेंगे? जिसका अवलम्बन लेकर बुद्धों का धर्मोपदेश होता है। सामानाधिकरण्य, विशेषणविशेष्यभाव, साध्यसाधनभाव, आधाराधेयभाव ये सब कहाँ से बन सकेंगे? संयोग, वियोग, क्रिया, कारक की स्थिति, सादृश्य, विसदृशता, स्वसंतान और परसंतान की स्थिति, समुदाय, मरणपना वगैरह और बन्ध मोक्ष की व्यवस्था कैसे बन सकेगी?
क्षणिकवादी बौद्ध का मत है कि सभी पदार्थ एक क्षणवर्ती हैं, दूसरे क्षण में उनका सर्वथा विनाश हो जाता है। यदि पदार्थों को एक क्षण से अधिक दो क्षणवर्ती मान लिया जायेगा तो उनका कभी भी नाश न हो सकने से कूटस्थता का प्रसंग आ जायेगा, और तब कूटस्थ पदार्थ में क्रम या अक्रम से अर्थक्रिया न होने से अवस्तुपना प्राप्त होगा। इस प्रकार बौद्ध स्थायी द्रव्य को नहीं मानते हैं। उनकी ऐसी मान्यता ऋजुसूत्रनयाभास है क्योंकि उक्त मान्यता प्रतीति विरुद्ध है।
प्रत्यभिज्ञान प्रमाण से प्रत्येक बाह्य और अन्तरंग द्रव्य पूर्व पर्याय और उत्तर पर्याय में अनुस्यूत
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ही सिद्ध होता है। जैसे मिट्टी के पिण्ड से घड़ा बन जाने पर भी मिट्टीपने का नाश नहीं होता। फिर भी द्रव्य की पर्याय प्रतिक्षण उत्पन्न और नष्ट होती रहती है। अत: वस्तु को द्रव्य रूप से नित्य और पर्याय रूप से अनित्य मानने पर कूटस्थता का प्रसंग नहीं आता और ऐसा होने पर उसमें सर्वथा अर्थक्रिया का भी विरोध नहीं होता जिसमें उसे अवस्तुपना प्राप्त हो। इस तरह द्रव्य का निषेध न करते हुए भी क्षणिक पर्यायों को विषय करने वाला ऋजुसूत्रनय है और सर्वथा निरन्वय क्षणिक पर्यायों को जानने वाला बौद्ध ऋजुसूत्रनयाभासी है।
बौद्ध परंपरा के अंतर्गत ही योगाचार की भी एक विशिष्ट दार्शनिक परंपरा है। वह विज्ञानाद्वैतवादी है, बाह्य पदार्थों को नहीं मानता। उसका कहना है कि वास्तविक दृष्टि से विचार करने पर न कोई किसी का कारण है और न कोई किसी का कार्य और कार्य-कारण भाव का अभाव होने से न कोई किसी का ग्राहक है न कोई किसी से ग्राह्य है, न कोई किसी का वाचक है, न कोई किसी का वाच्य है, और जब कार्यकारण भाव की तरह ग्राह्यग्राहकभाव, वाच्य-वाचकभाव भी नहीं है, तो बाह्य पदार्थ कैसे सिद्ध हो सकता है? अतः योगाचार की यह मान्यता भी ऋजुसूत्रनयाभास है। क्योंकि कार्यकारणभाव आदि को वास्तविक माने बिना योगाचार अपने मत का समर्थन और दूसरे के पक्ष का खण्डन कैसे कर सकेगा? अपने पक्ष के समर्थन में वह जो कुछ बोलेगा, वह वाचक कहा जायेगा और उसका जो अभिप्राय होगा वह वाच्य कहा जायेगा, तभी वह स्वपक्ष का समर्थन कर सकता है और ऐसा होने पर वाव्य-वाचक भाव की सिद्ध होती है। इस बात पर योगाचार का कहना है कि वास्तव में वाच्य-वाचक भाव आदि नहीं हैं, किन्तु लोक व्यवहार में उन्हें माना जाता है। अतः कल्पित लोकव्यवहार से हम स्वपक्ष का साधन और विरोधी पक्ष का दूषण करेंगे। ___ इस विषय में जैनदर्शन का यह पक्ष है कि एक लोकव्यवहार सत्य और एक परमार्थ सत्य- ये दो प्रकार के सत्य भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होते। तब बुद्ध का उपदेश भी वाच्य-वाचक के अभाव में कैसे बन सकता है? धर्म का उपेदश तभी सिद्ध हो सकता है, जब अधर्म के उपदेश में दूषण उठाये जा सकें। ये सब वाच्य-वाचक भाव मानने पर
और लोक व्यवहार को सत्य मानने पर ही सध सकता है अन्यथा नहीं और ऐसा मानने पर योगाचार को द्वैतपने का प्रसंग प्राप्त होगा।
इस प्रकार बौद्धों का चित्राद्वैत अथवा संवेदनाद्वैत को क्षणिक मानना भी ऋजुसूत्राभास है। आधारभूत द्रव्य को न मानने से समानाधिकरण्यभाव का भी अभाव हो जायेगा। दो पदार्थों का समान-अधिकरण में अर्थात् एक वस्तु में ठहरने पर ही समान अधिकरणपना बनता है, क्षणिकवाद में ऐसा होना संभव नहीं है, और सामानाधिकरण्य के अभाव में यह विशेषण-विशेष्य भाव कैसे बन सकता है और विशेषण विशेष्य के अभाव में साध्य साधन भाव भी नही बन सकता तथा द्रव्य के अभाव में संयोग ओर विभाग भी नहीं बन सकता, न क्रिया ही बन सकती है। क्रिया के अभाव में कारकों की व्यवस्था नहीं बन सकती और तब कोई भी वस्तु वास्तव में अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकती।
सदृश और विदृश परिणाम भी नहीं बन सकते, क्योंकि परिणामी द्रव्य बौद्धों को स्वीकृत नहीं। परिणामी के अभाव में परिणाम कैसे हो सकता है? और सदृश तथा विसदृश
सकता
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परिणाम के अभाव में स्व-संतान और पर-संतान की स्थिति नहीं बनती। क्योंकि समानता
और असमानता के आधार पर ही स्वसंतान और परसंतान सिद्ध होती है। समुदाय भी नहीं बनता, क्योंकि समुदायी अनेक द्रव्यों के असमुदाय रूप अवस्था को त्यागकर समुदाय रूप अवस्था को स्वीकार करने पर ही समुदाय बन सकता है। यह बौद्ध को स्वीकार नहीं। इसी से जीवन-मरण, शुभ-अशुभ कर्मों का अनुष्ठान, उनका फल, पुण्य-पाप का बन्ध आदि भी नहीं बनता? अत: बौद्धों का क्षणिकवाद उचित नहीं है, वह जैनदर्शन के ऋजुसूत्रनय की दृष्टि जैसा प्रतीत तो होता है किन्तु अन्य दृष्टि का निषेधक होने से वह ऋजुसूत्रनयाभास माना जा सकता है। संदर्भ :
(1) वत्थुपमाणविसयं णयविसयं हवइ वत्थु एकसं। णयचक्को गा. 171 (2) प्रमाणनयैराधिगमः।- तत्त्वार्थसूत्र 1/6 (3) (i) प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः। वादिदेवसूरि कृत प्रमाणनयतत्त्वालोक 7/1
(ii)योज्ञानुरभिप्रायः। - अकलंक कृत लघीयस्त्रय, 2/30 (4) जावदिया वयण वहा तावदिया चेव होंति णयवादा । -सन्मतिप्रकरण-3/47 (5) सर्वार्थसिद्धि- आचार्य पूज्यपाद, 1/33/241 (6) आत्माश्रितो निश्चयनय:पराश्रितो व्यवहारनयः। -आचार्य अमृचन्द्र, समयसार टीका, गा. 272 (7) तत्त्वार्थसूत्र 1/33 (8) निरपेक्ष नया मिथ्या.....। समंतभद्रकृत आप्तमीमांसा, का. 108 (9) पच्चुप्पन्नग्गाही उज्जुसुओ णयविही मुणेयव्वो। - अनुयोगद्वार, नयनिरुपण, गा.139
तथा विशेषावश्यक भाष्य, भाग-2, गा. 2184 (10) तत्त्वार्थधिगमभाष्य 1/35
(11) सन्मति प्रकरण 1/5 (12) सर्वार्थसिद्धि प्र.अ. /33/प्र.245
(13) राजवार्तिक 1/33 पृ.96-98 (14) जयधवला गा.13-14, प्र. 185 (15) श्लोकवार्तिक 1/33/श्लो.61 (16) आलाप पद्धति-सू. 199
(17)न्यायावतार- का. 29 पर वृत्ति (18) नयचक्र-गा. 210
(19)न्यायविनिश्चयविवरण 3/91 (20) प्रमयेकमलमार्तण्ड तृतीय भाग नय विवेचनम् पृ.662 (21) प्रमाणनयतत्वालोक 7/28-29 (22) प्रमेयरत्नमाला 6/ पृष्ठ 347 (23) सन्मति प्रकरण, 1/5
(24) धवला पृ. 9,4/1/49 कदि अणुयोगद्वारे। (25) सुद्धोअणतणअस्स उ परिसुदो पज्जवविअप्पो। - स. प्र. 3/48 (26) घीयस्त्रय 2/5/43का. तथा 2/6/71 विवृत्ति सहित।। (27) श्लोकवार्तिक 1/33/62 का. (28) प्रमेयकमललमार्तण्ड तृतीय नयविवेचन, पृ.662 (29) प्रमाणनयतत्त्वालोक 7/30-31 (30) स्याद्वादमञ्जरी, श्लोक 28 की टीका, पृ. 248 (31) श्लोकवार्तिक, श्लोक 63 से 67, पृ. 248-249 (32) वही, वृत्ति सहित। पृ. 251 (33) वही चतुर्थखण्ड, सूत्र 1/33 पृ.252 तथा तुलनीय- पं. माणिकचन्द्र कौंदेय की व्याख्या। (34) वही, पृ. 252 तथा पं. कौंदेय की हिन्दी व्याख्या। (35) एतेन चित्राद्वैतं, संवेदनाद्वैतं, क्षणिकमित्यपि मननमृजुसूत्राभासतामायातीत्युक्तं वेदितव्यं।
- वही, पृ. 253 (36) वही, वृत्ति, पृ. 253 (37) वही, पृ. 254 पर वृत्ति तथा तुलनीय पं. कौंदेय की व्याख्या।
- वरिष्ठ व्याख्याता, जैनदर्शन विभाग लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नईदिल्ली -16
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मण्डल विधान पूजन-जैन आगम के आलोक में
डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' किसी भी धर्म के परिपालन हेतु देवता एवं देवालय की अपरिहार्य आवश्यकता होती है। जैन धर्म में मूर्ति पूजा को सर्वप्रथम संसार में स्थान दिया और यह सब जानते हैं कि कालान्तर में अन्य परंपराओं में भी इस व्यवस्था का अनुकरण किया गया। वर्तमान में प्राप्त इतिहास का अवलोकन करें तो यह बात पूरी तरह से सिद्ध हो जाती है कि मूर्ति पूजा का श्रेय जैन धर्मानुयायियों को ही जाता है। जहाँ जिन मूर्ति विराजमान होती है उस भवन को जिनालय कहा जाता है। भरत चक्रवर्ती द्वारा कैलाश पर्वत पर 72 जिनालयों के निर्माण की बात शास्त्र में मिलती है। वर्तमान में भी अनेकानेक उत्कृष्ट जिनालय हैं और उनके निर्माण का क्रम अनवरत जारी है। जिनालयों के निर्माण में संस्कारों की महती भूमिका होती है। यदि वास्तु व्यवस्था एवं धार्मिक संस्कारों के निर्वहन पूर्वक जिनालयों का निर्माण किया जाता है तो वह जीवन एवं जीवों के लिए यथेष्ट फलदायी होता है। चूंकि जिनालयों की गिनती नौ देवताओं में होती है अतः उनका पूरी विधि के साथ निर्माण एवं प्रतिष्ठा होना आवश्यक है। कहते हैं कि खान से निकला हुआ पत्थर भी उचित संस्कारों को प्राप्त कर देवता की संज्ञा को प्राप्त कर लेता है अत: यह जरूरी है कि संस्कारों के आरोपण में किसी प्रकार की कमी न रहे। जिनालय निर्माण के विषय में आचार्य कहते हैं कि
यद्यप्यारम्भतो हिंसा हिंसायाः पापसम्भवः। तथाप्यत्र कृतारम्भो महत्पुण्यं समश्नुते॥ निरालम्बनधर्मस्य स्थितिर्यस्मात्ततः सताम्।
मुक्तिप्रासादसोपानमाप्तरुक्तो जिनालयः॥ अर्थात् जिनालय के निर्माण के आरंभ में हिंसा होती है, हिंसा से पाप लगता है तो भी जिन मंदिर बांधने (निर्माण) में किये जाने वाले आरंभ से महा पुण्य प्राप्त होता है। जिन मंदिर के बिना जिन धर्म की स्थिति नहीं रहती तथा जिन मंदिर मुक्ति रूपी महल में प्रवेश करने के लिए सीढ़ी के समान सहायक होता है। इस व्यवस्था के अनुसार जिन मंदिर का निर्माण आवश्यक है। यह सभी को विदित है कि बिना जिनालय के जिन बिम्ब स्थापना की व्यवस्था कैसे संभव हो सकती है ? ___ हमारे शास्त्रों में जिन बिम्ब दर्शन एवं जिनालय दर्शन की महिमा विशेष बतायी गई है। आचार्य रविषेण ने पद्मपुराण (32/178-183) में बताया है कि -"जो मनुष्य जिन प्रतिमा के दर्शन का चिन्तवन करता है वह बेला का, उद्यम का अभिलाषी होता है, वह
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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 तेला का, जो जाना प्रारंभ करता है वह चौला का, जो जाने लगता है वह पाँच उपवास का, जो कुछ दूर चला जाता है वह बारह उपवास का, जो बीच में पहुंच जाता है वह पन्द्रह उपवास का, जो मंदिर के दर्शन करता है वह मासोपवास का, जो मंदिर के आँगन में प्रवेश करता है वह छहमासोपवास का, जो द्वार में प्रवेश करता है वह वर्षोपवास का जो प्रदक्षिणा देता है वह शतवर्षोपवास का, जो जिनेन्द्र देव के मुख का दर्शन करता है वह सहस्र वर्षोपवास का और स्वभाव से स्तुति करता है वह अनन्त उपवास का फल प्राप्त करता है। वास्तव में जिनेन्द्र भक्ति से बढ़कर उत्तम पुण्य नहीं है। जिनभक्ति से कर्मक्षय को प्राप्त हो जाते हैं और जिसके कर्म क्षीण हो जाते है, वह अनुपम सुख से संपन्न परमपद को प्राप्त होता है।"
इसी तरह आचार्य सकलकीर्ति ने पार्श्वनाथ चरित (7/57-68) में बताया है कि"जिनेन्द्र भगवान् के उत्तम बिम्ब आदि का दर्शन करने वाले धर्माभिलाषी भव्य जीवों के परिणाम तत्काल शुभ व श्रेष्ठ हो जाते हैं, जिनेन्द्र भगवान् का सादृष्य रखने वाली महाप्रतिमाओं के दर्शन से साक्षात् जिनेन्द्र भगवान का स्मरण होता है, निरंतर उनका साक्षात् ध्यान होता है और उसके फलस्वरूप पापों का निरोध होता है। जिनबिम्ब में साम्यता आदि गुण व कीर्ति, कान्ति व शान्ति तथा मुक्ति का साधनभूत स्थित वज्रासन और नासाग्र दृष्टि देखी जाती है, इसी प्रकार धर्म के प्रवर्तक जिनेन्द्र भगवान में ये सब गुण विद्यमान हैं। तीर्थकर प्रतिमाओं के लक्षण देखने से उनकी भक्ति करने वाले पुरुषों को तीर्थकर भगवान् का परम निश्चय होता है। इसलिये उन जैसे परिणाम होने से, उनका ध्यान व स्मरण आने से तथा उनका निश्चय होने से धर्मात्मा जनों को महान पुण्य होता है। जिस प्रकार अचेतन मणि, मंत्र, औषधि आदि विष तथा रोगादिक को नष्ट करते हैं, उसी प्रकार अचेतन प्रतिमायें भी पूजा-भक्ति करने वाले पुरुषों के विष तथा रोगादिक (जन्म-मरण के रोग) को नष्ट करती हैं।"
महाकवि रइधू ने भी पासणाहचरिउ (6/18) में कहा है कि-'यद्यपि जिन प्रतिमा अचेतन है फिर भी उसे वेदन शून्य नहीं मानना चाहिए। संसार में निश्चित रुप से परिणाम या भाव ही पुण्य और पाप का कारण होता है। जिस प्रकार वज्रभित्ति पर कन्दुक पटकने पर उसके सम्मुख वह फट जाती है उसी प्रकार सुख-दु:खकारक निंदा एवं स्तुतिपरक वचनों के प्रहार से यद्यपि प्रतिमा भंग नहीं होती तथापि उससे शुभाशुभ कर्म तुरन्त लग जाते हैं। उनमें से धार्मिक कर्मों को स्वर्ग और परंपरा से मोक्ष का कारण कहा गया है। यह जानकर शुद्ध भावनापूर्वक जिन भगवान् का चिंतन करो और उनकी प्रतिमा का अहर्निश ध्यान करो।" इस तरह जिन बिम्ब दर्शन और जिनालय दर्शन के पीछे निहित भावों का पता चलता है।
जैन समाज में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सवों के माध्यम से जिन बिम्ब संस्कार तथा मंदिर एवं वेदी प्रतिष्ठा, कलशारोहण, ध्वज स्थापना आदि के संस्कार करने की अनिवार्य परंपरा है और जब मंदिर निर्माण एवं मूर्ति प्रतिष्ठा विधि-विधानानुसार संपन्न हो जाती हे
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तब मंदिर एवं मूर्ति दोनों पूज्यता को प्राप्त हो जाते हैं। इस विधि-विधान के करने के लिए योग्य प्रतिष्ठाचार्य होना आवश्यक है। वसुनन्दि श्रावकाचार (388-389 ) में प्रतिष्ठाचार्य का लक्षण इस प्रकार बताया है।
देस-कुल- जाइ सुद्धो णिरुवम अंगो विशुद्धसम्मत्तो पढमाणिओयकुसलो पइट्ठालक्खणविहिविदण्णू ॥ सावयगुणोववेदी उवासयन्झयणत्त्वथिरबुद्धि । एवं गुणो पड़ट्ठाइरिओ जिणसासणे भणिओ ।।
अर्थात् जो देश, कुल और जाति से शुद्ध हो, निरुपम अंग का धारक हो, विशुद्ध सम्यग्दृष्टि हो, प्रथमानुयोग में कुशल हो, प्रतिष्ठा की लक्षण विधि का जानकार हो, श्रावक
गुणों से युक्त हो, उपासकाध्ययन (श्रावकाचार ) शास्त्र में स्थिर बुद्धि हो, इस प्रकार के गुणवाला जिन शासन में प्रतिष्ठाचार्य कहा गया है।
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एक अन्य स्थान पर प्रतिष्ठाचार्य के लक्षण इस प्रकार बताये गये हैं। स्याद्वादधुर्योऽक्षरता निरालसो रोगविहीनदेहः,
प्राय: प्रकर्ता दमदानशीलो जितेन्द्रियो देवगुरुप्रमाणः । शास्त्रार्थसम्पत्ति - विदीर्णवादो धर्मापदेश-प्रणयः क्षमावान् । राजादिमान्यो नययोगभाजी तपोव्रतानुष्ठित-पूतदेहः । पूर्वं निमित्ताद्यनुमापकोऽर्थसंदेहहारी वजनैकचित्तः, सब्राह्मणो ब्रह्मविदां प्रतिष्ठो जिनैकधर्मा गुरुदत्तमंत्रः । भुक्त्वा हविष्यान्नमरात्रिभोजी निद्रां विजेतुं विहितोद्यमश्च, गतस्पृहो भक्तिपरात्मदुःख- प्राणये सिद्धिमनुर्विधिज्ञः ।
कुलक्रमापात सुविद्यया वः प्राप्तोसर्ग परिहर्तुमीशः,
सोयं प्रतिष्ठाविधिषु प्रयोक्ता श्लाघ्याऽन्यथा दोषवती प्रतिष्ठा ।
अर्थात् प्रतिष्ठाचार्य को स्याद्वाद विद्या में निपुण, अक्षर ( बीज एवं मंत्र) वेत्ता, आलस्यहीन, रोग विहीन शरीर वाला, क्रियाओं में कुशल, संयमी (कषायों का दमन करने वाला-दमी), दानशील, इन्द्रियों को जीतने वाला, देव, शास्त्र, गुरु को प्रमाण मानने वाला, शास्त्रार्थ रूपी संपत्ति से युक्त, वाद में कुशल, धर्मोपदेश में पारंगत, क्षमावान् राजा आदि के द्वारा मान्यता प्राप्त, नयों का ज्ञाता, योग का पात्र, तप- व्रत- अनुष्ठान आदि से पवित्र देह वाला, निमित्त आदि के अनुमान करने में अर्थ जानने में कुशल, संदेह का हारक, यज्ञ आदि में दत्तचित्त वाला, सद्-ब्राह्मण (सद्गृहस्थ), आत्मा को जानने वाला, प्रतिष्ठित, एक जिन धर्म से युक्त गुरु से दिया गया है मंत्र जिसको एक बार भोजन करने वाला, रात्रि
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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 भोजन का त्याग करने वाला, निद्रा को जीतने वाला और पुरुषार्थ में कुशल होना चाहिए। इच्छा से रहित, भक्ति परायण, दु:खों को दूर करने में सिद्धि प्राप्त, मनुष्यों के विधान को जानने वाला, कुलक्रमागत सुविद्या से युक्त, जो प्राप्त हुए दैवीय उपसर्गों का दूर करने में कुशल हैं। ऐसा व्यक्ति प्रतिष्ठा विधि को प्रयोग में लाने में कुशल एवं प्रशंसनीय कहा गया है। इससे विपरीत होने पर प्रतिष्ठा दोष से युक्त होगी।
उक्त कसौटी पर हमें वर्तमान प्रतिष्ठाचार्यों को कसना होगा और जो बिना योग्यता लिए इस क्षेत्र में प्रवेश कर गये हैं उन्हें मण्डल विधान, प्रतिष्ठादि कार्यों से दूर करना होगा।
जैन परंपरा में जिन स्थानों पर हम दर्शन, वंदन, पूजन हेतु नहीं जा पाते हैं या जिन आत्मिक गुणों को हम प्रत्यक्ष नहीं देख पाते हैं उन स्थानों और भावों अथवा गुणों की पूजा अपने ही निकटवर्ती स्थान पर तदनुरूप मण्डल की रचना करके योग्य प्रतिष्ठाचार्य/ गृहस्थाचार्य के निर्देशन में करते हैं। अष्टाह्रिका, सोलह कारण, दस लक्षण आदि के अवसरों पर ऐसे मण्डल विधानों की विशेष आयोजना की जाती है तथा इनसे अपेक्षित फल की प्राप्ति भी होते हुए देखी जाती है। कल्पद्रुम विधान, सिद्धचक्र विधान, तीन लोक मण्डल विधान, चतुर्विशति तीर्थकर विधान, सम्मेदशिखर विधान, शान्ति विधान, कर्मदहन विधान, नवदेवता विधान, पंचपरमेष्ठी विधान, रत्नत्रय विधान, सोलह कारण विधान, दस लक्षण विधान आदि विधानों की लम्बी परंपरा है। अतः मण्डल-विधान आदि को करने से पहले हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि इसका लक्ष्य क्या है क्योंकि बिना प्रयोजन कार्य की सिद्धि नहीं होती और कार्य की सिद्धि के लिए पंचपरमेष्ठियों के प्रति भक्ति और उस भक्ति का फल अपेक्षित होता है। आप्त परीक्षा में आया है कि श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः। अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु, ये पंच परमेष्ठी कहे गये हैं, इनकी भक्ति करना चाहिए। इनकी भक्ति करने से असाता कर्मो का नाश होता है। कहा भी है
मंगलमूरति परमपद-पंच धरो नित ध्यान। हरो अमंगल विश्व का, मंगलमय भगवान्। मंगल जिनवर पद नमो, मंगल अर्हत देव। मंगलकारी सिद्धपद, सो बन्दौं स्वयमेव।। मंगल आचारज-मुनि, मंगल गुरु उवझाय। सर्वसाधु मंगल करो, वन्दों मनवचकाय।। मंगलसरस्वतिमात का, मंगल जिनवर धर्म। मंगलमय मंगल करो, हरो असाता कर्म।
जैन परंपरा में रत्नत्रय देव, शास्त्र, गुरु के भक्ति के लिए कहा जाता है। यह भक्ति नास्तिकता के परिहार, शिष्टाचार के पालन और निर्विघ्न पुण्य प्राप्ति; इन तीन बातों के लिए होना चाहिए
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नास्तिकत्वपरीहारः शिष्टाचार-प्रपालनम्। पुण्यावाप्तिश्च निर्विघ्नं, शास्त्रादावाप्तसंस्तवात्।
भक्ति के विषय में कहा जाता है कि- पूज्येषु गुणेषु वा अनुरागो भक्तिः। अर्थात् पूज्य पुरुषों में अथवा उनके गुणों में अनुराग करना भक्ति है। एक अन्य लक्षण के अनुसार मोक्ष प्राप्ति में कारणभूत भक्ति ही महान् होती है। अपने स्वरुप की खोज के लिए (प्राप्ति के लिए) भक्ति कही गयी है
मोक्षकारणसामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी। स्वस्वस्पानुसन्धानं भक्तिरत्यभिधीयते।
1. तीर्थकर भक्ति, 2. सिद्ध भक्ति, 3. श्रुत भक्ति, 4. चारित्र भक्ति, 5. योगि भक्ति, 6. आचार्य भक्ति, 7. निर्वाण भक्ति, 8. पंचगुरु भक्ति, 9. नंदीश्वर भक्ति, 10. शान्तिभक्ति, 11. समाधि भक्ति, 12. चैत्यभक्ति; ये बारह भक्तियां प्राकृत जैन साहित्य में मिलती हैं। भक्ति का लक्ष्य इस प्रकार बताया है कि
दुक्खखओ, कम्मखओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
अर्थात् मेरे दु:खों का नाश हो, कर्मों का नाश हो। बोधि की प्राप्ति हो। सुगति में गमन हो। समाधि मरण हो। मुझे जिन गुण रुपी संपत्ति हो।
हमारे यहां मण्डल विधान, पूजन आदि में शुद्धता पर विशेष ध्यान रखने की परंपरा है। द्रव्य शुद्धि, क्षेत्र शुद्धि, काल शुद्धि, भव शुद्धि और भाव शुद्धि आवश्यक है। जो इनमें से एक को भी दूषित करता है वह अपेक्षित फल को प्राप्त नहीं करता। मात्र कायिक शुद्धता विशेष मायने नही रखती। पूजा पीठिका में कहा गया है कि -
द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरूपं, भावस्य शुद्धिमधिकामधिगन्तुकामः। आलम्बनानि विविधान्यवलम्ब्य वल्गन्, भूतार्थ-यज्ञ-पुरुषस्य करोमि यज्ञम्॥
अर्थात् अपने भावों में परम शुद्धता को पाने का अभिलाषी मैं देश और काल के अनुरूप जल, चन्दनादि द्रव्यों की शुद्धता को पाकर जिन स्तवन, जिनबिम्बदर्शन आदि अनेक अवलम्बनों का आश्रय लेकर भूतार्थ पूज्य अरिहंतादि का पूजन करता हूँ। वर्तमान में इन शुद्धियों पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। कहीं-कहीं तो वस्त्र एवं पूजन द्रव्य तक धुले हुए नहीं होते। ऐसे में हम अपेक्षित फल की प्राप्ति कैसे कर सकते हैं ? __ मण्डल विधान आदि करते हुए पूजक की भावना होती है कि वह अपने जीवन में और साथ में दूसरों के जीवन में मंगल होता देखे। इस भावना से वह भावना करता है कि
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क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपालः, काले काले च सम्यग्वितरतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्। दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके,
जैनेन्द्रं धर्मचक्र प्रसरतु सततं सर्वसौख्य-प्रदायि॥ इसका पद्यानुवाद इस प्रकार है - होवै सारी प्रजा को सुख बलयुत हो धर्म-धारी नरेशा। होवै वर्षा समै पे तिलभर न रहे व्याधियों का अन्देशा। होवै चोरी न मारी सुसमय वरते हो न दुष्काल भारी। सारे ही देश धारै जिनवर वृष को जो सदास सौख्यकारी॥
अर्थात् समस्त प्रजा को सुख हो, राजा बलवान और धर्मात्मा हो, समय-समय पर वर्षा हो, क्षणभर भी रोग-व्याधियां न रहें। प्राणियों को संसार में चोरी और मारी का दु:ख न हो। निरंतर अच्छा समय रहे, बुरा काल न आवे। संपूर्ण देश जैन धर्म को धारण करें, जो सदा सुख करने वाला है। __वर्तमान में भी हमें इसी मंगल भावना के साथ मण्डल विधान पूजन आदि करना चाहिए। इन आयोजनों में जो मात्र बोलियों आदि के माध्यम से धन संग्रह पर ही विशेष बल देते हैं उन्हें चाहिए कि वे धनदान के लिए इन अवसरों का सदुपयोग करें और जो दान के सात प्रमुख क्षेत्र बताये गये हैं उनमें अपने धन का यथाशक्ति, यथाभक्ति उपयोग करें। यदि ऐसा किया तो आज भी आपके सद्भावों को सफल मिल सकता है। हम मण्डल रचना तो करें किन्तु अहंकार और अशुद्धता से बचें ताकि वीतरागता के पोषण का यह मार्ग निरंतर चलता रहे।
जैनम् जयतु शासनम्।
-प्रधान संपादक- पार्श्व ज्योति (मासिक)
मंत्री- अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् एल-65, न्यू इंदिरानगर, बुरहानपुर (म.प्र.)
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जैनधर्म और राजनीति
- डॉ. रमेशचन्द्र जैन जैन राजनीति की यह विशेषता है कि वह धर्म से अनुप्राणित है। धर्म की परिभाषा देते हुए आचार्य समन्तभद्र ने कहा है कि
देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम्।
संसारदुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे॥ रत्नकरण्डश्रावकाचार-2 अर्थात् मैं समीचीन धर्म का उपदेश करूँगा। यह कर्मों का निर्मूलन करने वाला है और प्राणियों को संसार के दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुख में रख देता है। आचार्य श्री ने जैनान् नहीं कहा 'सत्त्वान्' कहा। अतः सिद्ध है कि धर्म किसी संप्रदाय विशेष से संबन्धित नहीं है। धर्म निर्बन्ध है, निस्सीम है, सूर्य के प्रकाश की तरह। सूर्य के प्रकाश को हम बन्धनयुक्त कर लेते हैं, दीवारें खींचकर, दरवाजे बनाकर, खिड़कियाँ लगाकर। आज की राजनीति में भी दीवारें, दरवाजे, ओर खिड़कियाँ लग गई हैं, जिसके कारण जातिवाद, संप्रदायवाद, पूँजीवाद, समाजवाद, प्रांतवाद, क्षेत्रीयवाद आदि विभिन्न वाद उभर कर संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति में अपने को लीन कर रहे हैं। ___गंगानदी हिमालय से प्रारंभ होकर निर्बाध गति से समुद्र की ओर प्रवाहित होती है। उसके जल में अगणित प्राणी किलोंले करते हैं, उसके जल से आचमन करते हैं, उसमें स्नान करते हैं, उसका जल पीकर जीवन रक्षा करते हैं, अपने पेड़-पौधे को पानी देते हैं, खेतों को हरियाली से सजा लेते हैं। इस प्रकार गंगानदी किसी एक प्राणी, जाति अथवा संपद्राय की नहीं है, वह सभी की है। किन्तु उसको यदि कोई अपना बताये तो गंगा का क्या दोष है ? इसी प्रकार भगवान वृषभनाथ व भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म पर किसी जाति विशेष का आधिपत्य संभव नहीं है। धर्म और धर्म को प्रतिपादित करने वाले महापुरुष संपूर्ण लोक की अक्षय निधि हैं। महावीर की सभा में क्या केवल जैन ही बैठते थे ? नहीं। उस सभा में देव, देवी, मनुष्य, स्त्रियाँ, पशु-पक्षी सभी को स्थान मिला हुआ था। अतः धर्म किसी परिधि में बँधा नहीं है, उसका क्षेत्र प्राणिमात्र तक विस्तृत है।'
प्राचीन राजाओं की राजनीति सभी के योग और क्षेम तक विस्तृत थी। आचार्य वादीभसिंह ने राज्य को योग और क्षेम की अपेक्षा विस्तार से तप के समान कहा है; क्योंकि तप तथा राज्य से संबन्ध रखने वाले योग और क्षेम के विषय में प्रमाद होने पर अध:पतन होता है और प्रमाद न होने पर भारी उत्कर्ष होता है। आचार्य गुणभद्र के अनुसार राज्य में राज्य वही है, जो प्रजा को सुख देने वाला हो। चन्दप्रभचरित के अनुसार उत्तम देशों के जो लक्षण प्राप्त होते हैं उनमें उपजाऊ और रमणीय भूमि, स्वच्छ सरोवर, दीर्घिकायें, नदियाँ,
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खनिज का क्षेत्र, उत्कृष्ट धान्य संपदा, वृक्षादि वनस्पति, ईतियों की बाधा न होना, प्रमुदित, सुचरित्र, निर्व्यसनी प्रजा, प्रजापालक राजा उत्तम जलवायु, उत्तम पथ तथा अभिलषित वस्तुओं की प्राप्ति होना प्रमुख है। ये विशेषताएँ उत्तम प्राकृतिक एवं मानसिक पर्यावरण को सूचित करती है।
आचार्य रविषेण कृत पद्मचरित के अध्ययन से राज्य की उत्पत्ति के जिस सिद्धांत को सर्वाधिक बल मिलता है, वह है सामाजिक समझौता सिद्धान्त। आधुनिक युग में इस सिद्धांत को अधिक बल देने वाले हाब्स, रूसो और लॉक हैं। इनमें भी पद्मचरित का राज्य की उत्पत्ति संबन्धी संकेत आधुनिक युग के रूसो और लॉक के सिद्धांत से बहुत कुछ मिलता जुलता है। इस सिद्धांत के अनुसार राज्य दैवीय न होकर एक मानवीय संस्था है, जिसका निर्माण प्राकृतिक अवस्था में रहने वाले व्यक्तियों द्वारा पारस्परिक समझौते के आधार पर किया गया है। इस सिद्धांत के सभी प्रतिपादक अत्यन्त प्राचीन काल में एक ऐसी प्राकृतिक अवस्था के अस्तित्व को स्वीकार करते है, जिसके अन्तर्गत जीवन को व्यवस्थित रखने के लिए राज्य जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी। इस प्राकृतिक अवस्था के विषय में मतभेद है। कुछ इसे पूर्व सामाजिक तथा कुछ इसे पूर्व राजनैतिक अवस्था मानते हैं। इस प्राकृतिक अवस्था के अन्तर्गत व्यक्ति अपनी इच्छानुसार प्राकृतिक नियमों को आधार मानकर अपना जीवन व्यतीत करते थे। कुछ ने प्राकृतिक अवस्था को अत्यन्त कष्टप्रद तथा असहनीय माना है तो कुछ ने इस बात का प्रतिपादन किया है कि प्राकृतिक अवस्था में मानवजीवन आनंदपूर्ण था। पद्मचरित में इसी दूसरी अवस्था को स्वीकार किया गया है। इस अवस्था को त्यागने का कारण साधनों की कमी तथा प्रकृति में परिवर्तन होने से उत्पन्न हुआ भय था। इन संकटों को दूर करने के लिए समय समय पर विशेष व्यक्तियों का जन्म हुआ। इन व्यक्तियों को कुलकर कहा गया राज्य की उत्पत्ति का मूल इन कुलकरों और इनके कार्यों को ही कहा जा सकता है। ___ आदिपुराण के अनुसार पहले भोगभूमि थी। दुष्ट पुरुषों का निग्रह करना और उन्हें दण्ड देना तथा सज्जनों का पालन करना, यह क्रम भोगभूमि में नहीं था, क्योंकि उस समय पुरुष निरपराध होते थे। भोगभूमि के बाद कर्मभूमि का प्रारंभ हुआ। इस समय यह आशंका हुई कि दण्ड देने वाले राज्य का अभाव होने पर प्रजा असत्यन्याय का आश्रय करने लगेगी। अर्थात् बलवान् निर्बल को निगल जाएगा। ये लोग दण्ड के भय से कुमार्ग की ओर नहीं दौड़ेंगे, इसलिए दण्ड देने वाले राजा का होना उचित है और ऐसा राजा ही पृथ्वी जीत सकता है। जिस प्रकार दूध देने वाली गाय से उसे किसी प्रकार की पीड़ा पहुँचाए बिना उसका दूध दुहा जाता है और ऐसा करने से गाय सुखी रहती है, तथा दुहने वाले की भी आजीविका चलती रहती है, उसी प्रकार राजा को भी प्रजा से टेक्स आदि के रूप में उचित धन वसूल करने का विधान है। वह धन पीड़ा न देने वाले करों से वसूल किया जा सकता है। ऐसा करने से प्रजा भी दु:खी नहीं होती और राज्य व्यवस्था के लिए योग्य धन भी सरलता से मिला जाता है, ऐसा सोचकर भगवान् वृषभेदव ने कुछ लोगों को दण्डधर राजा बनाया; क्योंकि प्रजाओं के योग और क्षेम का विचार करना राजाओं के ही आधीन होता
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है। अच्छे राजा के होने पर अन्याय शब्द ही पृथ्ची पर नष्ट हो जाता है तथा प्रजा को भय और क्षोभ नहीं होते हैं।
राज्य का फल धर्म (जिन कर्तव्यों के करने से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति है।'') अर्थ (जिससे मनुष्य के सभी प्रयोजनों की सिद्धि हों'' और काम (जिससे समस्त इन्द्रियोंस्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र में बाधारहित प्रीति हो) की प्राप्ति हे। उक्त फल प्रदाता होने के कारण आचार्य सोमदेव ने उसे नमस्कार किया है।
नीति धर्म की प्रारंभिक भूमिका है। नीतिवेत्ता राजा पृथ्वी को स्त्री के समान वश में कर लेता है। न्यायमार्ग का वेत्ता होने के कारण किसी विषय में विसंवाद होने पर लोग उसके पास न्याय के लिए आते हैं । उत्तम राजा न तो अत्यन्त कठोर होता है ओर न अत्यन्त कोमल, अपितु मध्यम वृत्ति का आश्रय कर जगत को वशीभूत करता है। इसके अतिरिक्त राजा के अनेक कर्त्तव्य बतलाए गए हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं- 1. कुलपालन 2. मत्यनुपालन 3. आत्मानुपालन 4. प्रजापालन 5. मुख्य वर्ग की रक्षा 6. घायल और मृत सैनिकों की रक्षा 7. सेवकों की दरिद्रता का निवारण तथा सम्मान 8. योग्य स्थान पर नियुक्ति 9. कण्टक शोधन 10. कृषि कार्य में योग देना 11. अक्षरम्लेच्छों को वश में करना 12. समञ्जसत्व धर्म का पालन 13. दुराचार का निषेध तथा 14. लोकापवाद से भयभीत होना।
1. कुलपालन- कुलाम्नाय की रक्षा करना और कुल के योग्य आचरण की रक्षा ___ करना।
2. मत्यनुपालन- राजाओं को वृद्ध मनुष्यों की संगति रूपी संपदा से इन्द्रियों पर विजय प्राप्तकर धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र से अपनी बुद्धि को सुसंस्कृत करनी चाहिए।
3. आत्मानुपालन- इस लोक तथा परलोक संबन्धी अपायों, विघ्नों से आत्मा की रक्षा करना।
4. प्रजापालन- प्रजा के कार्य को देखना तथा प्रजा की रक्षा करना।
5. मुख्यवर्ग की रक्षा- जो राजा अपने मुख्य बल से पुष्ट होता है, वह समुद्रान्त पृथ्वी को बिना किसी यत्न के जीत लेता है।
6. घायल और मृत सैनिकों की रक्षा- संग्राम में किसी भृत्य के मर जाने पर उसके पद पर उसके पुत्र अथवा भाई को नियुक्त करना।
7. सेवकों की दरिद्रता का निवारण तथा सम्मान- राजा को चाहिए कि अपनी सेना में किसी योद्धा को उत्तम जानकर उसे अच्छी आजीविका देकर सम्मानित करे। जो राजा अपना पराक्रम प्रकट करने वाले वीर पुरुष को उसके योग्य सत्कारों से संतुष्ट रखता है। उसके भृत्य सदा उस पर अनुरक्त रहते हैं और कभी भी उसका साथ नहीं छोड़ते है।
8. योग्य स्थान पर नियुक्ति- जिस प्रकार ग्वाला अपने पशुओं को काँटों और पत्थरों
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से रहित तथा शीत और गर्मी आदि की बाधा से शून्य वन में चराता हुआ बड़े प्रयत्न से उसका पोषण करता है, उसी प्रकार राजा को भी अपने सैनिक को किसी उपद्रवहीन स्थान पर रखकर उनकी रक्षा करना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो राज्य का परिवर्तन होने पर चोर, डाकू तथा अन्य राजा लोग उसके इन सेवकों को पीड़ा देने लगेंगे।
9. कण्टकशोधन- चोर, चरट (देश से बाहर निकाले गए अपराधी), अन्नप (खेतों या मकानों की माप करने वाले), धमन (व्यापारियों की वस्तुओं का मूल्य निश्चित करने वाले), राजा के प्रेमपात्र, आटविक (वन में रहने वाले भील या अधिकारी) तलार (छोटे छोटे स्थानों में नियुक्त किए हुए अधिकारी), भील, जुआरी, मंत्री और अमात्य आदि अधकारीगण) आक्षशालिक (जुआरी), नियोगि (अधिकारी वर्ग), ग्रामकूट (पटवारी) और वार्द्धषिक (अन्न का संग्रह करने वाले व्यापारी) ये राष्ट्र के कण्टक हैं। उक्त राष्ट्र के कण्टकों में से अन्न का संग्रह करके दुर्भिक्ष पैदा करने वाले व्यापारी लोग देश में अन्याय की वृद्धि करते हैं तथा तंत्र (व्यवहार) एवं देश का नाश कर देते हैं। वार्द्धषिकों (लाभवश राष्ट्र का अन्न संग्रह कर दुर्भिक्ष पैदा करने वाले व्यापारियों) की कर्त्तव्य, अकर्त्तव्य में लज्जा नहीं होती अथवा उनमें सरलता नहीं होती- कुटिल स्वभाव वाले होते हैं। जिस देश में राजा प्रतापी तथा कठोर शासन करने वाला होता है, उसके राज्य में राष्ट्र कण्टक नहीं होते हैं।
10. कृषि कार्य में योग देना- राजा को आलस्य रहित होकर अपने अधीन ग्रामों में बीज देना आदि साधनों द्वारा किसानों से खेती कराना चाहिए। वह अपने देश में किसानों द्वारा भलीभाँति खेती कराकर धान्य संग्रह करने के लिए उनसे न्यायपूर्ण उचित अंश ले। ऐसा होने से उसके भण्डार आदि में बहुत सी संपदा इकट्ठी हो जायेगी। उससे उसका बल बढ़ेगा तथा संतुष्ट करने वाले धान्यों से उसका देश भी पुष्ट अथवा समृद्धिशाली हो जाएगा।
11. अक्षरम्लेच्क्षों को वश में करना- अपने आश्रित स्थानों पर प्रजा को दु:ख देने वाले जो अक्षरम्लेच्छ हैं, उन्हें कुल शुद्धि प्रदान करना आदि उपायों से अपने अधीन करना चाहिए। अपने राजा से सत्कार पाकर वे फिर उपद्रव नहीं करेंगे। यदि राजाओं से उन्हें सम्मान प्राप्त नहीं होगा तो वे प्रतिदिन कुछ न कुछ उपद्रव करते रहेंगे। जो अक्षरम्लेच्छ अपने ही देश में संचार करते हों, उनसे राजा को कृषकों की तरह कर अवश्य लेना चाहिए। जो अज्ञान के बल से अक्षरों द्वारा उत्पन्न अहंकार को धारण करते हैं, पापसूत्रों से आजीविका करने वाले वे अक्षरम्लेच्छ कहलाते हैं। हिंसा करना, मांस खाने से प्रेम रखना, बलपूर्वक दूसरों का धन अपहरण करना और धूर्तता करना, यही म्लेच्छों का आचार है।"
___ 12. समञ्जसत्व धर्म पालन- प्रजा को विषम दृष्टि से न देखना, सब पर समान दृष्टि रखना, समञ्जसत्व धर्म है। इस गुण के द्वारा शिष्ट गुणों का पालन और दुष्ट पुरुषों का निग्रह करना चाहिए। जो पुरुष, हिंसा आदि दोषों में तत्पर रहकर पाप करते हैं, वे दुष्ट कहलाते हैं। जो क्षमा, संतोष आदि के द्वारा धर्मधारण करने में तत्पर हैं, वे शिष्ट कहलाते हैं।
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वरांगचरित में प्रतिपादित राजा के गुण- वरांगचरित में धर्मसेन और वरांग आदि राजाओं का वर्णन किया गया है। इन गुणों को देखने से ऐसा लगता है कि जटासिंहनन्दि उपर्युक्त राजाओं के बहाने श्रेष्ठ राजा के गुणों का ही वर्णन कर रहे हैं। इस दृष्टि से अच्छे राजा के निम्नलिखित गुण प्राप्त होते हैं
राजा को आख्यायिका, गणित तथा काव्य के रस को जानने वाला, गुरुजनों की सेवा का व्यसनी, दृढ़ मैत्री रखने वाला, प्रमाद, अहंकार, मोह और ईर्ष्या से रहित, सज्जनों और भली वस्तुओं का संग्रह करने वाला, स्थिर मित्रों वाला, मधुरभावी, निर्लोभी, निपुण और बन्धु बान्धवों का हितैषी होना चाहिए। उसका आन्तरिक और बाह्य व्यक्तित्व इस प्रकार हो कि वह सौन्दर्य द्वारा कामदेव को, न्यायनिपुणता से शुक्राचार्य को, शारीरिक कान्ति से चन्द्रमा को, प्रसिद्ध यश के द्वारा इन्द्र को, दीप्ति के द्वारा सूर्य को, गंभीरता तथा सहनशीलता से समुद्र को और दण्ड के द्वारा यमराज को भी तिरस्कृत कर दे। अपनी स्वाभाविक विनय से उत्पन्न उदार आचरणों एवं महान गुणों द्वारा वह उन लोगों के भी मन को मुग्ध कर ले, जिन्होंने उसके विरुद्ध वैर की दृढ गाँठ बाँध ली हो। वह कुल, शील, पराक्रम, ज्ञान, धर्म तथा राजनीति में बढ़-चढ़कर हो । राजा को चाहिए कि उसके अनुगामी सेवक उससे सन्तुष्ट रहें तथा प्रत्येक कार्य को तत्परता से करें, उसके मित्र समीप में हो और वह हर समय संबन्धियों पर आश्रित न रहे। प्रबुद्ध और स्थिर होना राजा का बहुत बड़ा गुण है। जो व्यक्ति स्वयं जागता है, वही दूसरों को जगा सकता है। जो स्वयं स्थिर है, वह दूसरों की डगमग अवस्था का अन्त कर सकता है जो स्वयं नहीं जागता है
और जिसकी स्थिति अत्यन्त डाँवाडोल है, वह दूसरों को न तो प्रबुद्ध कर सकता है और न स्थिर कर सकता है। राजा की कीर्ति सब जगह फैली होनी चाहिए कि वह न्यायनीति में पारंगत, दुष्टों को दण्ड देने वाला, प्रजा का हितैषी और दयावान् है। राजा राजसभा में पहिले जो घोषणा करता है, उसके विपरीत आचरण करना अनुपयुक्त तथा धर्म के अत्यन्त विरुद्ध है। इस प्रकार के कार्य का सज्जन पुरुष परिहास करते हैं। राजा धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों का इस ढंग से सेवन करे कि उसमें से किसी एक का अन्य से विरोध न हो। इस व्यवस्थित क्रम को अपनाने वाला राजा अपनी विजय पताका फहरा देता"। राजा की दिनचर्या ऐसी होनी चाहिए कि वह प्रातः से संध्या समय तक पुण्यमय उत्सवों में व्यस्त रहे। अपने स्नेही बन्धु, बान्धव, मित्र तथा अर्थिजनों को भेंट आदि देता रहे। ऐसे राजा की प्रत्येक चेष्टा प्रजा की दृष्टि में प्रामाणिक होती है। अतः वह उस पर अडिग विश्वास रखती है। राजा का विवेक आपत्तियों में भी कम नहीं होना चाहिए। संकट के समय व किसी प्रकार की असमर्थता का अनुभव न करे तथा उसे अपने कार्यों का इतना अधिक ज्ञान हो कि कर्त्तव्य, अकर्त्तव्य, शत्रुपक्ष, आत्मपक्ष तथा मित्र और शत्रु के स्वभाव को जानने में देर न लगे। जिस राजा का अभ्युदय बढ़ता है, उसके पास अच्छे मित्र, बान्धव, उत्तम रत्न, श्रेष्ठ हाथी, सुलक्षण अश्व, दृढ़ रथ आदि हर्ष तथा उल्लास के उत्पादक नूतन साधन अनायास ही आते रहते हैं। राजा का यह कर्त्तव्य है कि राज्य में पड़े हुए निराश्रित बच्चे, बुड्ढों तथा स्त्रियों, अत्याधिक काम लिए जाने के कारण स्वास्थ्य नष्ट हो जाने पर किसी
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भी कार्य के अयोग्य श्रमिकों, अनाथों, अन्धों, दीनों तथा भयंकर रोगों में फंसे हुए लोगों की सामर्थ्य, असामर्थ्य तथा उनकी शारीरिक, मानसिक दुर्बलता आदि का पता लगाकर उनके भरण पोषण का प्रबन्ध करे। जिन लोगों का एक मात्र कार्य धर्मसाधना हो, उसे गुरु के समान मानकर पूजा करे तथा जिन लोगों ने पहिले किए गए वैर को क्षमा याचना कर शान्त करा दिया हो, उनका अपने पुत्रों के समान भरण पोषण करे। किन्तु जो अविवेकी हों तथा घमण्ड में चूर होकर बहुत बढ चढ़कर चलें अथवा दूसरों को कुछ न समझें, उन लोगों को अपने देश से निकाल दें। जो अधिकारी अथवा प्रजाजन स्वभाव से कोमल हों, नियमों का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करें, अपने कर्तव्यों आदि को उपयुक्त समय के भीतर कर दें, उन लोगों को समझने तथा पुरस्कार आदि देने में वह अत्यन्त तीव्र हों। राजा को प्रजा का अत्यधिक प्यारा होना चाहिए। वह सब परिस्थितियों में शान्त रहे और शत्रुओं का उन्मूलन करता हुआ अपनी त्रुटियों का बढ़ाता रहे।''
राजा के उपर्युक्त सभी गुणों को देखने से ज्ञात होता है कि जैनाचार्यों ने जैनधर्म के प्रायः सभी विशिष्ट सिद्धांतों को, जो कि श्रावक पालन कर सकता है, राजाओं के जीवन में उतारने का प्रयत्न किया है। इन सभी सिद्धांतों में प्रेम, मैत्री, क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, इन्द्रियनिग्रह, अहिंसा, मृदुभाषण, शील, प्रबुद्धता, त्रिवर्ग का अविरोध रुप से सेवन, पुण्यार्जन, दान-आहारदान, औषधिदान, अभयदान, ज्ञानदान, आश्रयदान, बड़ों के प्रति सम्मान, पुरस्कार देना, कुल की रक्षा, आत्मानुपालन, दरिद्रता निवारण, कृषि को समुन्नत करना, श्रमिकों की रक्षा करना आदि प्रमुख है। इनका पालन करने से राजा और प्रजा का व्यक्तित्व परिष्कृत होता है ओर जीवन में सुख-शांति होती है। सब प्रकार के उपद्रव दूर होते हैं और समृद्धि वृद्धिंगत होती है। संदर्भः 1. आचार्य विद्यासागर प्रवचनामृत पृ.9, प्रकाशक- श्री चन्द्रप्रभ दि0 जैन मंदिर (अतिशय क्षेत्र)
फिरोजाबाद (उ.प्र.) प्रथमावृत्ति 2. क्षत्रचूड़ामणि 11/
8 3 . उत्तर पुराण 52/40 4. डॉ. विजयलक्ष्मी जैन: जैन राजनैतिक चिंतनधारा पृ. 31 प्रकाशक- आचार्य ज्ञानसागर
वागर्थविमर्श केन्द्र, सेठ जी की नसियाँ, ब्यावर (राज.) प्रथम संस्करण। 5. पुखराज जैन राजनीतिविज्ञान के सिद्धांत पृ. 20 6. पद्मचरित 3/49-63 प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड, नई दिल्ली 7. वही 33/74
8. वही 3/85 9. वही 3/88
10. आचार्य जिनसेनः आदिपुराण 16/251 11. आदिपुराण 16/252-255
12. वही 4/169 13. नीतिवाक्यामृत 1/1
14. वही 2/1 15. वही 3/1
16. वही 1. मंगलाचरण 17. आचार्य जिनसेन : हरिवंशपुराण 17/54 18. वही 17/94
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19. आदिपुराण 4/163
20. वही 42/5 21. वही 38/272
22. वही 42/113 23. वही 17/32
24. वही 42/139 25. वही 42/143
26. वही 42/146-152 27. वही 42/153-152
28. वही 42/161-163 29. आचार्य सोमदेवः नीतिवाक्यामृत 8/21-2430. आदिपुराण 42/174-178 31. वही 42/179-184
32. वही 42/199-203 33. आचार्य जटासिंहनन्दिः वरांगचरित 1/48-4934. वही 1/50 35. वही 1/54
36. वही 2/10 37. वही 2/30
38. वही 13/34 39. वही 15/50
40. वही 19/9 41. वही 24/1, 22/18
42. वही 28/1 43. वही 28/68
44. वही 22/4 45. वही 22/76
46. वही 22/5 47. वही 22/6
48. वही 22/8 49. वही 22/21
- जैन मंदिर के पास,
बिजनौर (उ.प्र.)
पाठकों से अनुरोध है कि आपको अनेकान्त पत्रिका में छपे लेख कैसे लगे ? अपने सुझाव और टिप्पणी से अवगत करावे ताकि हम उसे पाठकीय प्रतिक्रिया के अन्तर्गत प्रकाशित कर सके। वीर सेवा मंदिर (जैन दर्शन शोध संस्थान) के पुस्तकालय का डिजीटलाईजेश्न का कार्य चल रहा है, जिसके अन्तर्गत आगम, प्राचीन हस्तलिखित शास्त्रों, जैन शोध पत्रों, जैन संस्कृति के प्राचीन चित्रों इत्यादि को सुरक्षित किया जा रहा हैं। सुधी पाठकों से अनुरोध है कि यदि उनके पास या निकटस्थ मन्दिरजी में इस प्रकार की कोई सामग्री प्राप्त हो तो संस्था के पते या ई-मेल पर भेजकर या सूचना प्रदानकर प्राचीन धरोहरों को सुरक्षित करने में सहयोग करें।
के पश्चात् उनको वापस भेज दिया जाएगा।
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जैन धर्म में स्वातन्त्र्य चेतना
डॉ० मोहन चन्द व्यक्ति स्वातंत्र्य का विचार आधुनिक युग का अत्यन्त क्रांतिकारी और लोकप्रिय विचार माना जाता है। भारत सहित विश्व के अनेक देशों में व्यक्ति स्वातन्त्र्य का अधिकार (राइट टू फ्रीडम) को संविधान की पुस्तकों में व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा गया है जिसका तात्पर्य है कि धर्म और समाज की परम्परागत मान्यताएं भी कानूनी दृष्टि से संविधान प्रदत्त मनुष्य के इस व्यक्ति स्वातंत्र्य सम्बन्धी मौलिक अधिकार पर किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर सकती हैं। कितनी विडम्बना है कि व्यक्ति स्वातंत्र्य का विचार छठी शताब्दी ई० पूर्व में सर्वप्रथम भगवान् महावीर ने दिया था किन्तु आज पश्चिम के अस्तित्ववादी तथा साम्यवादी दर्शन इसे अपना बताकर भौतिकवाद का प्रचार व प्रसार कर रहे हैं। आज विज्ञान द्वारा आविष्कृत नवीन अवधारणाओं और पश्चिमी संस्कृति के परिवेश में पाली-पोसी गई देहवादी दार्शनिक मान्यताओं के परिणाम स्वरूप ईश्वरवाद
और अध्यात्मचेतना के स्थान पर अब क्रमशः व्यक्तिवाद और भौतिकवादी चेतना को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया जा रहा है। जगद् गुरु के नाम से विख्यात यह भारत जैसे अध्यात्मवादी देश के लिए चिन्ता का विषय होना चाहिए कि धर्म की प्रभावना से समूची मानव सभ्यता को सुसंस्कृत और संस्कारवान बनाने का जो सामाजिक दायित्व हजारों वर्षों से हमारे देश के ऋषि-मुनियों तथा वीतरागी तपस्वियों के द्वारा निर्वाहित किया जाता रहा है, तुच्छ उपभोक्तावाद की जमीन पर उपजने वाले ये भौतिकवादी दर्शन भारतीय धर्म-चिन्तन पर अनेक प्रकार के प्रश्न चिह्न लगा रहे हैं। आज उपभोक्तावादी जीवन दर्शन ने हम सबको इतना संमोहित कर लिया है कि सैक्स और हिंसा को अश्लील एवं बीभत्स रूप से परोसने वाले टी०वी० चैनलों की टी०आर०पी० दिनों दिन बढ़ती जा रही है तथा धर्म और संस्कृति से जुड़े चैनलों का ग्राफ नीचे गिरता जा रहा है। व्यक्ति स्वातंत्र्य के सन्दर्भ में इस प्रश्न पर भी गहराई से विचार किया जाना चाहिए कि भारतवर्ष के तमाम धर्म और दर्शन सत्य, अहिंसा अपरिग्रह आदि सभ्यता के मूल्यों को आज सामाजिक धरातल पर प्रतिष्ठित करने में अप्रासंगिक क्यों सिद्ध हो रहे हैं?
धर्म के प्रति जनसामान्य की अरुचि या उदासीनता के बारे में जैनाचार्य समन्तभद्र ने तीन कारणों की ओर संकेत किया है जिन्हें जानना आधुनिक युग सन्दर्भो में धर्म संस्था के ह्रास को समझने के लिए बहुत जरूरी है। इनमें से पहला कारण है कलिकाल का दुष्प्रभाव जिसके कारण लोक कल्याणकारी सत्य धर्म का प्रसार कठिन होता जा रहा है। दूसरा कारण है रागद्वेष से कलुषित मनोवृत्ति वाले लोगों में आत्मकल्याण के प्रति जिज्ञासा का अभाव, जिसके फलस्वरूप धर्मोपदेशों के प्रति लोगों की रुचि और आस्था कम होती
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जा रही है। तीसरा महत्त्वपूर्ण कारण यह बताया गया है कि धर्म के लोक कल्याणकारी स्वरूप को युग परिस्थितियों के सन्दर्भ में उद्घाटित करने की वक्तृत्व क्षमता धर्मप्रवक्ताओं में शिथिल होती जा रही है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार ये ही तीन मुख्य कारण हैं। जिनकी वजह से व्यक्ति स्वातंत्र्य को सर्वाधिक महत्त्व देने वाला जैन धर्म जैसा सर्वोदयी समाज व्यवस्था से जुड़ा धर्म भी विश्वव्यापी नहीं बन पाया है।
कालः कलियां कलुषाशयो वा श्रोतुः प्रवक्तुर्वचनान् यो वा । त्वच्छासनैकाधिपतित्वलक्ष्मी प्रभुत्वशक्तेरपवादहेतुः ।।'
बीसवीं शताब्दी के युगद्रष्टा, राष्ट्र सन्त आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म की दशा और दिशा का आकलन करते हुए अपने 'उपदेश सार संग्रह' नामक ग्रन्थ में यह उद्गार व्यक्त किया है कि 'जगत का सबसे अधिक लाभ करने वाला, प्राणिमात्र का उद्धार करने वाला, साधारण आत्मा को महात्मा और परमात्मा बना देने की क्षमता रखने वाला, सदाचार को आरम्भ से लेकर सर्वोच्च सीमा तक ग्रहण, धारण, पालन, रक्षण करने की प्रक्रिया स्पष्ट रूप से बनाने वाला धर्म 'जैन धर्म' है। जिसको कि हमारे पूज्य तीर्थङ्करों ने अपने सांसारिक सुखमय राज्य, भोग, परिवार का परित्याग करके शारीरिक मोह से विरक्त होकर वन, पर्वत, गुफा आदि एकान्त प्रान्त में कठोर तपस्या और महान् परिषह संग्रह करने के पश्चात् आत्मा की पूर्ण शुद्धि के अनन्तर स्व-अनुभव से प्राप्त किया था और उस विश्व हितकारी धर्म को जनता के समक्ष बड़ी उदारता के साथ जनसाधारण की वाणी में रखकर उस जैन धर्म का प्रचार किया था।' पर आचार्य श्री ने चिन्ता यह व्यक्त की है कि 'विश्व उद्धारक उस जैन धर्म का प्रचार जिस तरह भगवान् आदिनाथ से लेकर भगवान् महावीर तक हमारे परम पूज्य 24 तीर्थङ्करों ने तथा उनके उत्तरवर्ती उनकी शिष्य परम्परा ने किया और उसे विश्व व्यापक बनाया, वह व्यापक प्रचार आज नहीं पाया जाता है। विभिन्न धर्मानुयायी अपने गुड़ को भी मिश्री के रूप में संसार के सामने अपने अपने धर्म का प्रचार कर रहे हैं तब जैन समाज अपने मिश्री के समान अन्दर-बाहर से पूर्ण मिष्ट जैन धर्म को भी संसार के समक्ष यथेष्ट रूप से रखने में संकोच क्यों कर रहा है?"
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आचार्य श्री देशभूषण जी ने श्री समन्तभद्राचार्य द्वारा निर्दिष्ट उपर्युक्त धर्म के हास से सम्बन्धित तीन कारणों की जांच पड़ताल करते हुए कहा कि पहले दो कारणों का सुधार करना हमारे हाथ में नहीं क्योंकि कलिकाल को हम किसी तरह चौथा काल नहीं बना सकते परन्तु इतना अवश्य है कि इस कलिकाल में भी सत्यखोजी और भद्रपरिणामी सज्जनों की कमी नहीं है जो अपने बहु आयामी धर्म-दर्शन, बहुभाषा ज्ञान तथा प्रभावशाली वक्तृत्व शक्ति के द्वारा जैन धर्म को लोकप्रिय बना सकते हैं। यदि कोई प्रचारक जनता के समक्ष जैन धर्म के सत्य सिद्धान्तों का अच्छे ढंग से प्रचार करे तो इस कलिकाल में भी भद्र जनता जैन धर्म को हृदय से स्वीकार कर सकती है और उस पर आचरण भी कर सकती है।
दरअसल, आचार्य श्री देशभूषण जी आधुनिक युगमूल्यों के सन्दर्भ में जैन धर्म के
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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 जिस प्रचार व प्रसार की बात कर रहे हैं समाजशास्त्रीय दृष्टि से वह धर्म के परिवर्तनशील मूल्यों की युगानुसारी व्याख्या है। सिद्धान्ततः प्रत्येक धर्म में दो प्रकार के मूल्य होते हैं - कूटस्थ मूल्य और परिवर्तनशील मूल्य। वास्तविकता यह है कि विश्व के तमाम लोकप्रिय धर्मों ने युग परिस्थितियों के सन्दर्भ में धर्म के कूटस्थ मूल्यों की रक्षा करते हुए ही धर्म के परिवर्तनशील मूल्यों को युग परिस्थितियों के सन्दर्भ में ढालने का प्रयास किया है। प्रारम्भिकावस्था में जैन धर्म ने वर्णव्यवस्था का सिद्धान्ततः विरोध किया है किन्तु वर्णव्यवस्था की सामाजिक लोकप्रियता को देखते हुए सातवीं शताब्दी में रविषेणाचार्य ने
और नौवीं शताब्दी में जिनसेनाचार्य ने वर्णव्यस्था को शास्त्रीय मान्यता प्रदान कर दी।' सिद्धान्त रूप से जैन धर्म मानववादी और समत्ववादी धर्म है। इस कूटस्थ सत्य को स्वीकार करते हुए भी आचार्य जिनसेन ने अपने आदिपुराण में जीविकोपार्जन जैसे आर्थिक कारणों का हवाला देते हुए जातिव्यवस्था और वर्णव्यवस्था का अनुमोदन किया है -
मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा। वृत्तिभेदाहिताद् भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते॥ ब्राह्मणाः व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात्। वणिजोऽर्थार्जनान्याप्यात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात्॥
प्रारम्भ में जैन धर्म के प्रचार व प्रसार की भाषा प्राकृत भाषा थी किन्तु जैन धर्म को विश्वव्यापी तथा लोकप्रिय बनाने के लिए रविषेणाचार्य ने संस्कृत भाषा में जैन रामायण 'पद्मचरित' की रचना की जो एक प्रकार से प्राकृत भाषा में रचित 'पउमचरिउ' का ही संस्कृत रूपान्तरण था। आचार्य रविषेण तथा आचार्य जिनसेन से प्रेरणा लेते हुए सोमदेवाचार्य ने कूटस्थ और परिवर्तन शील धर्म का दो प्रकार से स्पष्ट विभाजन ही कर दिया - 1. पारलौकिक धर्म और 2. लौकिक धर्म। पारलौकिक धर्म आगमाश्रित होता है और लौकिक लोकाश्रित। इस द्विविध विभाजन के सन्दर्भ में आचार्य सोमदेव ने लौकिक धर्म के अन्तर्गत श्रुति और स्मृति को प्रमाण मान लेने पर भी जैन धर्म के सम्यक्त्व की कोई हानि नहीं मानी है -
सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ॥
इस प्रकार रविषेणाचार्य से लेकर जिनसेनाचार्य और सोमदेवाचार्य के काल तक तथा आधुनिक काल में आचार्य देशभूषण जैसे युगद्रष्टा आचार्य जैन धर्म को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से अत्यन्त उदारतापूर्वक धर्मप्रभावना को दिशा देते आए हैं। पर देखने की बात यह है कि इन आचार्यों ने धर्म के शाश्वत तथा कूटस्थ मूल्यों - सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि सिद्धान्तों के साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं किया है।
जैन धर्म अपने उद्भव काल से ही व्यक्ति और समाज दोनों का हितैषी धर्म रहा है। जैन धर्म को व्यक्ति सापेक्ष और समाज निरपेक्ष धर्म कहना अयुक्तिसंगत होगा। जैन धर्म के 24 तीर्थङ्करों का इतिहास साक्षी है कि एक सर्वोदयी समाज व्यवस्था की अपेक्षा से प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव ने सर्वप्रथम असि, मसि, कृषि आदि का उपदेश देकर मानव
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समाज को सभ्यता का पहला पाठ पढ़ाया। ये आदि तीर्थङ्कर ही थे जिन्होंने लिपिकला, शिल्पकला आदि विविध कलाओं की शिक्षा देकर समाज को सांस्कृतिक मूल्यों के द्वारा संस्कारवान बनाया। धीरे धीरे सभ्य समाज में भी एक दूसरे का धन हड़पने तथा सामाजिक शोषण और उत्पीडन की गतिविधियां बढ़ीं तो जैन धर्म के 23वें तीर्थकर भगवान् पार्श्वनाथ का नया समाजदर्शन सामने आया जिन्होंने सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह नामक चातुर्याम धर्म की स्थापना करके समाज में बढ़ती हिंसा, छल-कपट, धनलोलुपता और आर्थिक अपराधों को नियन्त्रण में लाने के लिए धार्मिक उपाय किए। जैन धर्म के 24वें तीर्थकर भगवान् महावीर ने पूर्वोक्त चार महाव्रतों में ब्रह्मचर्य' महाव्रत को सम्मिलित करके जो नया समाजदर्शन आविष्कृत किया जैन धर्म के इतिहास में उसे एक क्रांतिकारी और सर्वोदयी समाज व्यवस्था के नाम से जाना जाता है। धीरे धीरे यह सर्वोदयी समाज चिन्तन जन-जन में इतना लोकप्रिय हुआ कि भगवान् महावीर एक धर्म विशेष के तीर्थङ्कर न रहकर भारतीय समाज के एक क्रांतिकारी समाज सुधारक कहलाए जाने लगे।
प्रसिद्ध इतिहासकार एच०जी० वेल्स के मतानुसार ईस्वी पूर्व की जिस छठी शताब्दी में वर्धमान महावीर का जन्म हुआ वह धार्मिक और सामाजिक आन्दोलनों को प्रेरित करने वाली महत्त्वपूर्ण शताब्दी थी। इसी समय जहां एक ओर चीन में लाओत्से और कंफ़्यूशियस तथा यूनान में सुकरात और प्लेटो ने अपने देश की रूढ़िवादी परम्पराओं के विरुद्ध वैचारिक आन्दोलनों का सूत्रपात किया, वहीं भारत में भगवान् महावीर और गौतम बुद्ध ने क्रमशः जैन तथा बौद्ध धर्म को जन-आन्दोलन का रूप देकर धार्मिक संस्था के इतिहास में अभूतपूर्व क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त किया। भारत में किसी भी सामाजिक क्रान्ति की शुरुआत धार्मिक आन्दोलनों से हुई है। छठी शताब्दी ई०पूर्व में भी वैदिक धर्म की अन्धरूढ़ियों के विरुद्ध आवाज उठाने वाले दो क्षत्रिय राजकुमार थे। इनमें से एक शाक्यवंशीय राजकुमार गौतम बुद्ध थे जिन्होंने अनात्मवाद का प्रचार कर अष्टांग मार्ग का उपदेश दिया तो दूसरे वैशाली के राजकुमार वर्धमान महावीर थे, जिन्होंने पंच महाव्रतों के उपदेश से मनुष्य मात्र को आत्मकल्याण का मार्ग बताया।
जैन धर्म के सन्दर्भ में व्यक्ति स्वातन्त्र्य की अवधारणा को समझने से पहले यह जान लेना भी बहुत जरूरी है कि आधुनिक व्यक्ति स्वातन्त्र्य का विचार विशुद्ध रूप से एक पश्चिमी विचार है। अस्तित्ववाद तथा साम्यवाद के पश्चिमी विचारकों की यह देन है जिसकी पृष्ठभूमि में उपभोक्तावादी तथा भौतिकवादी चमक दमक के कारण आज अध्यात्मवाद से अघाए भारतवासियों को बहुत तेजी से व्यक्ति-स्वातन्त्र्य का विचार संमोहित कर रहा है। किन्तु वास्तविकता यह है कि यह विचार धर्म तथा आध्यात्मिक हस्तक्षेप का घोर विरोधी है। आधुनिक व्यक्ति स्वातन्त्र्य के विचार का इतिहास मध्ययुगीन युरोप की धर्मचेतना की प्रतिक्रिया का परिणाम है जो धर्म और ईश्वर के नाम पर तरह-तरह के अन्धविश्वास और दुराचार फैलाती आई है। ईश्वर और मनुष्य के मध्य धर्म संस्थाओं से जुड़े बिचौलिए भोली भाली जनता को स्वर्ग या नरक का लालच या भय दिखाकर धर्म संस्था की छवि बिगाड़ते आए हैं। यही कारण है कि साम्यवादी विचारक कार्ल मार्क्स ने मध्ययुगीन धार्मिक आडम्बरों
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तथा पाखण्डी चरित्र को लक्ष्य करके 'धर्म' की कटु आलोचना की है। धर्म की इन्हीं विकृतियों की प्रतिक्रिया स्वरूप आधुनिक विज्ञान ने विश्व और उसकी समस्याओं को समझने के लिए तर्क और परीक्षण का नया रास्ता दिखाया। विज्ञान ने यह स्पष्ट किया कि यह विश्व किसी ईश्वरीय शक्ति की इच्छा का परिणाम नहीं है। विज्ञान ने बताया कि विश्व के सभी पदार्थ कार्य-कारण भाव से सम्बद्ध हैं। विज्ञान की दृष्टि से जगत् में किसी पदार्थ का नाश नहीं होता केवल उसका रूपान्तरण होता है। इसलिए जीव या जगत् को उत्पन्न करने वाली किसी ईश्वर जैसी शक्ति का कोई औचित्य नहीं नजर आता।"
सामान्य रूप से व्यक्ति स्वातंत्र्य की अवधारणा का विचार देने वाले अस्तित्ववादी दर्शनों, विज्ञान की मान्यताओं और जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा में कुछ तथ्यों के बारे में आम सहमति भी है। जैसे ये तीनों की प्रकृति ईश्वरवादी नहीं है। अस्तित्ववादी दर्शनों और विज्ञान की मान्यताओं के समान जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा के केन्द्र में 'ईश्वर' को नहीं बल्कि 'मनुष्य' या जीव को प्रतिष्ठित किया गया है। जैन दर्शन से इनकी असहमति इस दृष्टि से है कि विज्ञान सहित आधुनिक पश्चिमी दर्शन न तो कर्म सिद्धान्त में विश्वास करते हैं और न ही मानव कल्याण का एकमात्र लक्ष्य 'मोक्ष' ही इन्हें स्वीकार्य है। संक्षेप में आध निक व्यक्ति स्वातन्त्र्य का विचार इन्द्रिय सुख और भोग-विलास रूपी बेलगाम घोड़े की ऐसी सवारी है जो अवसर आने पर मनुष्य को पतन के गर्त में डाल सकती है। यहीं से प्रारम्भ होता है जैन दर्शन के व्यक्ति स्वातन्त्र्य का इतिहास।
जैन दर्शन के अनुसार इस संसार में दो पदार्थ हैं जीव और अजीव। जीव चेतन है और अजीव अचेतन। दोनों को जोड़ने वाली कड़ी है कर्म। जीव या मनुष्य मूल रूप से शुद्ध चैतन्य तथा स्वतन्त्र है। किन्तु कर्मों की बेड़ी से बंधा होने के कारण वह परतन्त्र कहलाता है। परतन्त्रता भी इतनी गहरी है कि उठना-बैठना, चलना-फिरना, सोना-जागना, सुख-दु:ख की अनुभूति उसकी स्वतन्त्र अनुभूति नहीं बल्कि अजीव तत्त्व भौतिक पुद्गल पदार्थों पर आश्रित है। जन्म-जन्मान्तरों से पौद्गलिक पदार्थों की पराधीनता के अभ्यस्त जीव या मनुष्य की स्थिति उन पालतू तोतों और कबूतरों की भांति है जिन्हें उनका स्वामी यदि खुले आकाश में मुक्त भी कर देता है तो भी अपनी पराधीनता से गहरा राग और लगाव होने के कारण वे बार-बार उन्हीं पिजरों या दड़बों में कैद होने के लिए खुशी खुशी वापस आ जाते हैं।
भारत की पराधीनता का इतिहास साक्षी है कि देश के कुछ स्वार्थी राजाओं ने अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए विदेशी शासकों के समक्ष आत्म-समर्पण किया था। बाद में उसकी भारी कीमत स्वतंत्रता सेनानियों को चुकानी पड़ी थी। आचार्य श्री देशभूषण जी विदेशी शासकों के समक्ष आत्म समर्पण की इन घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से देख रहे थे और उनके सामने अजीव पौद्गलिक सुखों के समक्ष मनुष्य की पराधीन मानसिकता की तर्ज पर बना जैन तत्त्व मीमांसा का इतिहास भी स्पष्ट था । इन्हीं युग मूल्यों से परिसंवाद करती आचार्य श्री की 'ओ बन्दी देख' नामक काव्य क्षणिका विशोष रूप से उल्लेखनीय है। इस काव्य क्षणिका में मानव मन द्वारा इन्द्रियों की दासता ग्रहण करने की दुर्बलताओं को रेखांकित
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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009 किया गया है। इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषय भोगों से पराभूत होने की मानवीय दुर्बलता को विदेशी शासन की गुलामी के रूपक में बांधा गया है। विदेशी सत्ता का तन और मन दोनों पर अधिकार हो गया है। इस परतन्त्रता की जंजीरों में जकड़ा हुआ, मानव भोग विलास के पुष्प सौन्दर्य से मोहित है और कैद कर लिया गया है। रूप, रस, गन्ध के कंटीले तारों से उसकी स्वतन्त्रता अवरुद्ध हो गई है। स्वतंत्रता, मुक्ति, आलोक, और समता से वंचित मानव मन अपने विषय भोगों की लोलुपता के कारण दासता की जंजीरों में जकड़ता ही जा रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में आचार्य देशभूषण जी के 'उपदेश सार संग्रह' की ये काव्य पंक्तियां दर्शनीय हैं -
ओ बन्दी ! तू पूछता है - पराजय क्या है ? पराजय है विदेशी सत्ता के सामने आत्मसमर्पण ! विदेशी तेरे देश के हर कोने में घुसता जा रहा है
औ सोख रहा है तेरी देह से अनवरत रक्त। यही रक्त सींच रहा है विदेशी शासन के तरुमूल को ताकि उसमें खिल सकें तरह तरह के रंग बिरंगे फूल। देख! यही तेरी परतन्त्रता है। विदेशी किस्म के फल-फूलों ने तुझे इतना लुभाया है देख! यही है तेरी परतन्त्रता का हेतु। विदेशी सेना तुझे एक ऐसे दुर्ग में बन्दी बना चुकी है जिसके पांचों द्वारों में लगे हैं कंटीले तारों के घने जाल।
ओ बन्दी ! माना शासक उदार दिल का है तो बहुत कुछ सुविधाएं भी मिल सकती हैं। फिर भी देख बन्द ही पड़े हैं स्वतन्त्रता के द्वार। फूलों की जिस सेज में तू सोया है इनके केशर में उलझ गए हैं तेरे पैर।
जरा देख बन्द ही पड़े हैं, मुक्ति के द्वार। ___ 'जैन जीवन दर्शन की पृष्ठभूमि' में डॉ० दयानन्द भार्गव का मन्तव्य है कि 'जैन ध म का वास्तविक सन्देश व्यक्ति की स्वतन्त्रता है। समय का प्रभाव, प्रकृति, परिस्थिति, पूर्वकर्म, जन्म ये सब गौण हैं, व्यक्ति प्रधान है। जो व्यक्ति अपनी आन्तरिक शक्ति पर विश्वास खो देता है उसे ये बाह्य परिस्थितियां दबोच लेती हैं। जिस प्रकार मकड़ी अपने द्वारा पैदा किए हुए जाले में स्वयं फंस जाती है, उसी प्रकार व्यक्ति अपनी ही पैदा की हुई परिस्थितियों में स्वयं फंस जाता है और जिस प्रकार वह मकड़ी अपने फैलाए हुए जाल को स्वयं ही समेट सकती है, उसी प्रकार व्यक्ति भी अपनी फैलायी हुई परिस्थितियों का स्वयं ही अन्त कर सकता है। 14
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वस्तुतः स्वतन्त्रता का अर्थ है अपनी इच्छा के अनुसार किसी कार्य को करना या न करना। जैन दर्शन की दृष्टि से यही कर्म है, शेष सब प्रतिकर्म या प्रतिक्रिया कहलाती हैं। कर्मों के कारण ही मनुष्य परिस्थितियों के हाथ की कठपुतली बनता है। एक परिस्थिति उत्पन्न होती है वह एक प्रकार का कर्म कर देता है और दूसरी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं तो उसकी प्रतिक्रिया में वह दूसरा कर्म कर देता है। इस दशा में मनुष्य को स्वतन्त्र कैसे कहा जा सकता है। वह परिस्थिति निरपेक्ष होकर कोई कर्म करता ही नहीं केवल परिस्थितियों का दास बनकर ही सारे कर्म करता है। तब क्या यह माना जाए कि मनुष्य स्वतन्त्र होकर कोई कार्य कर ही नहीं सकता ? ऐसा नहीं है, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन
और सम्यक् चारित्र के ज्ञान-चक्षु से पर्यवेक्षित कर्म मनुष्य को परिस्थितियों का दास नहीं बनाते किन्तु अजीव के संसर्ग से प्रेरित कर्म ही मनुष्य को पराधीन बनाते हैं और उसे बन्धन की बेड़ियों से जकड़ देते हैं। आचार्य श्री देशभूषण जी ने व्यक्ति की स्वतन्त्रता और उसकी पराधीनता को शर्बत तथा शराब के दृष्टान्त द्वारा बहुत अच्छी तरह से समझाया है - 'मनुष्य के सामने शराब और शर्बत दोनों पदार्थ रखे हुए हैं। मनुष्य अपनी इच्छानुसार दोनों में से किसी को भी पी सकता है। पीने से पहले उसको स्वतन्त्रता है किन्तु पी लेने के बाद उसकी इच्छा कुछ परिवर्तन नहीं कर सकती। अतः शराब यदि पी ली है तो मनुष्य को न चाहते हुए भी नशा अवश्य आएगा। शराब का असर उसे भुगतना होगा।15
जैन दर्शन के अनुसार कर्म बांधने से पहले जीव स्वतन्त्र रहता है कि आगामी कर्मबन्ध कैसा भी करे। शुभकर्मों और बुरे विचारों से उसका सौभाग्य बनता है किन्तु अशुभ कर्मों
और बुरे विचार उसे दुर्भाग्य की ओर धकेलते हैं। इस तरह मनुष्य का सौभाग्य और दुर्भाग्य पहले या पिछले समय में बोया हुआ अच्छा या बुरा बीज ही है। यह कर्म का सिद्धान्त कार्यकारणवाद के सिद्धान्त पर आधारित है। जिसका तात्पर्य है जैसा बोओगे वैसा काटोगे। यानी आज हम जो काट रहे हैं हमने अवश्य कभी बोया था और आज जो बो रहे हैं उसे काटना भी अवश्य होगा।
भारत के अनेक दार्शनिक चिन्तक इस मत से पूर्णतः सहमत नहीं हैं कि व्यक्ति स्वतन्त्र है। कुछ व्यक्ति को परिस्थिति का दास मानते हैं तो कुछ के अनुसार ईश्वर जैसी अतिमानवीय सत्ता व्यक्ति के सुख-दु:ख का निर्णय करती है। कुछ विचारक स्वयं व्यक्ति को ही अपने सुख-दु:ख के लिए उत्तरदायी मानते हैं।" श्वेताश्वतरोपनिषद् में इन तीनों वादों का विवेचन क्रमशः परिस्थितिवाद, ईश्वरवाद और आत्मवाद के रूप में आया है। परिस्थितिवाद के अन्तर्गत भी अनेक मत-मतान्तर प्रचलित हैं जिनमें से कुछ काल को, कुछ स्वभाव को, कुछ नियति को, कुछ यदृच्छा को और कुछ भूत को सुख-दुःख का कारण मानते है। किन्तु जैन दर्शन इन सभी वादों के समन्वय पर बल देता है। इस सम्बन्ध में 'गोम्मटसार' का कथन है कि जैनेतर दृष्टियां इसलिए मिथ्या हैं कि वे केवल अपने दृष्टिकोण को ही सत्य मानती हैं। किन्तु ये दृष्टिकोण यदि अन्य दृष्टिकोणों के सत्य पर भी ध्यान दें तो सत्य बन जाते हैं -
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परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होइ सब्वहा वयणा। जैणाणां पुणं वयणं सम्मं खु कहंचि वयणादो ॥ 20
दरअसल, जैन दृष्टि से स्वतन्त्रता मुक्ति की ओर ले जाने वाली एक दार्शनिक अवधारणा है। स्वतंत्रता का अर्थ है कि कोई दूसरा मेरे मार्ग में बाधा न बने और मैं भी किसी के मार्ग में बाधा न बनूँ। मैं दूसरे के मार्ग में द्वेष करके ही बाधा नहीं बनता बल्कि राग करके भी बाधा पहुंचाता हूं। इसी प्रकार दूसरे भी राग या द्वेष से मेरी स्वतन्त्रता में बाधक बन जाते हैं। मैं किसी से न राग की अपेक्षा करूं और न द्वेष की किन्तु यह तभी सम्भव है जब मुझे अपनी स्वयं की शक्ति पर विश्वास हो। इसी स्वावलम्बन को जैन दर्शन में स्वातन्त्र्य चेतना के नाम से जाना जाता है। मनुष्य परावलम्बी इसलिए होता है क्योंकि वह अपने आन्तरिक अभावों को बाह्य पदार्थों के संग्रह द्वारा छिपाना चाहता है। मनुष्य में जब प्रेम का अभाव होता है तो वह स्त्री, पुत्र और सम्बन्धियों से प्रेम सम्बन्ध स्थापित करके प्रेमाभाव की पूर्ति करने का प्रयास करता है। मनुष्य में जब ज्ञान का अभाव होता है तो उसकी पूर्ति के लिए उसे शास्त्रों, गुरुओं तथा ज्ञान के अन्य संसाधनों की शरण में जाना पड़ता है। पर ये सभी बाह्य पदार्थ और संसाधन मनुष्य को परावलम्बी और परतन्त्र बनाते हैं।
आचार्य श्री देशभूषण जी की निम्नलिखित काव्य पंक्तियों में मानव की इसी विवशता अथवा परवशता का वर्णन है जहां मनुष्य स्वतन्त्र या मुक्त होने की लालसा तो रखता है। किन्तु कजरारे आखों की घनघटा और गगनचुम्बी अट्टालिकाओं ने उसके ज्ञान और पारदर्शी सम्यक् दृष्टि को कैद कर लिया है तथा सुनहरे सपनों की मादकता से उसके पैर लड़खड़ा रहे हैं -
ओ सर्वज्ञ! मैं तेरा मार्ग कैसे जानूँ ? देखो न ! ये कजरारे बादल मंडरा रहे हैं ! ढांक दिया है इन्होंने मेरी आंखों के प्रकाश को !
ओ सर्वदर्शिन् ! मैं तुझे अब कैसे देखू ? देखो न इन गगनचुम्बी अट्टालिकाओं को कैद कर ली है इन्होंने मेरी पारदर्शी दृष्टि को
ओ निर्विन ! मैं तेरे पास कैसे आऊँ? तेरे सिंहद्वार पर बैठे हैं भयंकर प्रहरी ! बिछा दिए हैं जिन्होंने कांटों के कंटीले जाल
ओ वीतरागी ! मैं तेरे पथ पर कैसे चलूँ ? उन्मत्त हो चुका हूँ सुनहरे सपनों की मादकता से मैं आना चाहता हूं, मगर पैर लड़खड़ा रहे हैं। आचार्य श्री देशभूषण जी ने अपने 'उपदेश सार संग्रह' में मछियारे की लड़की और
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माली की लड़की का एक दृष्टान्त देते हुए कहा है कि एक दिन मछियारे की लड़की अपनी सहेली माली की लड़की के घर मेहमान बन कर आई तो मछियारे की लड़की को उस घर में व्याप्त फूलों की सुगन्ध से रात को नींद नहीं आई। बाद में जब उसने अपनी मछली की टोकरी को सिरहाने में रखा तो उसकी दुर्गन्ध से उसे तुरन्त नींद आ गई। इसी तरह बुरी आदत संसारी जीवों को पड़ी हुई है जिससे आत्मकल्याण की सुगन्ध उन्हें नहीं सुहाती। आचार्य श्री ने 'संघे शक्तिः कलौ युगे' नामक काव्य क्षणिका में सांसारिक भोग विलास में डूबे हुए लोगों की भेड़चाल की मनोवृत्ति का खुलासा किया है जब भौतिकवादी सुखवाद के शोरगुल में आत्मकल्याण और अध्यात्म चेतना के बोल सुनाई नहीं देते और मनुष्य जानता हुआ भी सांसारिक सुखों में ही आत्मकल्याण मानने लगता है। 'संघे शक्तिः कलौ युगे' की भेड़चाल उसे इस पराधीनता की ओर जबरदस्ती धकेल रही है -
उधर मेरी साथी भी तो खड़े हैं। पुकार पुकार कर कह रहे हैं। अरे ! परलोक किसने देखा है, विजय का आनन्द किसने लूटा है! ये पौद्गलिक सुख हमें प्रत्यक्ष हैं, ये भोग हमारे निःसर्ग हैं। इन्हें पराजय कौन कहता है ? वर्तमान को छोड़ रहा है। भविष्य के लिए दौड़ रहा है, अरे निपट मूर्ख है ! शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्श, सुख-दुःख के हमारे साथी हैं। 22 अपन भी सबके साथ चलेंगे, जो सबके साथ होगा, वही अपन का भी सही।
आज भौतिकवादियों और भोगवादियों के संघव्यूह में व्यक्ति स्वातन्त्र्य अथवा आत्म स्वातन्त्र्य, का बोध अभिमन्यु की तरह घिरता जा रहा है। उसके पास शास्त्र, गुरु, धर्म, दर्शन के अस्त्र-शस्त्र तो हैं किन्तु दुर्योधनी षड्यन्त्र से बाहर निकलने का मार्ग उसके पास नहीं। ऐसे संकटकाल की परिस्थितियों में भगवान् महावीर द्वारा बताया गया मानव कल्याण का क्रांतिकारी विचार ही उसकी रक्षा कर सकता है। वह विचार है 'आत्म स्वातन्त्र्य' का विचार। भगवान् महावीर कहते हैं 'पुरिसा तुममेव मित्तम्' अर्थात मनुष्य तू अपना मित्र स्वयं है। मनुष्य अपने ज्ञान, दर्शन और चारित्र द्वारा उच्चतम विकास अर्थात् मुक्ति के सोपान तक पहुंच सकता है। आत्म स्वातन्त्र्य का यही विचार 'व्यक्ति स्वातन्त्र्य' की अवधारणा के नाम से प्रसिद्ध है। महावीर स्वामी की दृष्टि में दूसरे द्वारा अनुभूत सत्य चाहे वह शास्त्रसम्मत ही क्यों न हो उधार लिया हुआ सत्य है। वह अपना सत्य जब तक नहीं बन जाता तब तक आत्म स्वातन्त्र्य और मुक्ति असम्भव है। भगवान् महावीर ने मनुष्य को स्वावलम्बी बनाने के उद्देश्य से कहा है कि व्यक्ति अपनी साधना के बल से इतना ऊँचा उठ सकता है कि देवता भी उसको नमस्कार करते हैं। महावीर का चिन्तन व्यक्ति स्वातन्त्र्य का चिन्तन होने के साथ साथ सर्वोदयी समाज व्यवस्था का भी चिन्तन है। भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह आदि पंच महाव्रतों के आचरण से व्यक्ति स्वावलम्बी बनता है तथा समाज का चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास होता है।
भगवान् महावीर ने कहा है कि प्रत्येक प्राणी एक स्वतन्त्र आत्मा है। जीव अकेला
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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009 मरता है और अकेला जन्म लेता है। किन्तु प्रत्येक आत्मा इतना शक्तिशाली है कि वह अपने गुणों का विकास करके स्वयं परमात्मा बन सकता है। भगवान् महावीर ने यह भी कहा है कि यदि आत्म कल्याण चाहते हो तो आत्मा के साथ युद्ध करो, बाहरी युद्ध करने से क्या लाभ ??7 महावीर के इन उपदेशों से मनुष्य में जहां एक ओर आत्म विश्वास और आत्म स्वाभिमान की भावना प्रोत्साहित होती है वहां दूसरी ओर उसे ईश्वर जैसी किसी बाहरी सत्ता की पराधीनता से भी मुक्ति मिलती है।
जैन धर्म में पञ्च परमेष्ठी की अवधारणा ईश्वर निष्ठा की अवधारणा नहीं बल्कि आत्मनिष्ठा की अवधारणा है। वैदिक परम्परा में भी परमेष्ठी की अवधारणा इसी रूप में जानी जाती है। 'अथर्ववेद' के अनुसार जो व्यक्ति पुरुष में ब्रह्म को जानता है वही परमेष्ठी को जानता है - 'ये पुरुषे ब्रह्म विदुस्ते विदुः परमेष्ठिनम्। 29 'पञ्चास्तिकाय' में भी कहा गया है कि जिसने आत्म साक्षात्कार नहीं किया चाहे वह पदार्थों का तत्त्वज्ञ भी हो, तीर्थंकरों का भक्त भी हो, शास्त्रों का ज्ञाता हो और संयम तथा तप का पालन भी करने वाला क्यों न हो किन्तु निर्वाण अभी उससे बहुत दूर है। जैन धर्म में व्यक्ति के स्थान पर आध्यात्मिक विकास के आलोक स्तम्भ के रूप में पञ्च परमेष्ठी को उपास्य माना गया है। ये पञ्च परमेष्ठी हैं - 1. अर्हन्त, 2. सिद्ध, 3. आचार्य, 4. उपाध्याय और 5. साधु। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि ये पाचों पद व्यक्तिवाचक न होकर गुणवाचक हैं। इन पञ्च परमेष्ठियों की वन्दना करने वाला जैन धर्म का यह णमोकार मन्त्र भी इसीलिए परम कल्याणकारी मन्त्र माना जाता है -
णमो अरहंताणं। णमो सिद्धाणं। णमो आयरियाणं। णमो उवज्झायाणं। णमो लोए सव्व साहूणं।
इन पांच परमेष्ठियों में अर्हन्त भगवान् जीवन मुक्त परमात्मा हैं, सिद्ध भगवान् पूर्णयुक्त परमात्मा हैं। अर्हन्त तथा सिद्ध भगवान् के पदचिन्हों पर चलने वाले संसार से विरक्त, महाव्रतधारी आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीनों परमेष्ठी भी गुरु तुल्य पूज्य माने जाते हैं। इस संसार में आध्यात्मिक गुणों के विकास के कारण ये पांच परमेष्ठी समस्त संसारी जीवों में श्रेष्ठ होते हैं। आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज के अनुसार आत्मशुद्धि अथवा व्यक्ति स्वातन्त्र्य का इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति इन्हीं पञ्च परमेष्ठियों का आदर्श रखकर आध्यात्मिक विकास की साधना कर सकता है। । सन्दर्भः 1. आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज, 'उपदेश सार संग्रह', भाग-1, जयपुर, वि०सं 2039, पृ० 61 2. वही, पृ० 61 3. वही, पृ० 62 4. डॉ० मोहन चन्द, 'जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज,' दिल्ली, 1989, पृ० 320 5. आदिपुराण, 38.45-46 6. डॉ० गोकुल चन्द जैन, 'यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन,' अमृतसर, 1967, पृ० 59
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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 7. श्रुतिर्वेदमिह प्राहुर्धर्मशास्त्रं स्मृतिर्मता।' - यशस्तिलक, पृ० 278 8. यशस्तिलक, पृ० 373 9. डॉ० मोहन चन्द, 'जैन तत्त्व चिन्तन: आधुनिक सन्दर्भ', सम्पादकीय लेख, 'आस्था और चिन्तन', आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ, दिल्ली, 1987, पृ० 2 10. डॉ. मोहन चन्द, 'सर्वोदयी समाज व्यवस्था का चिन्तन,' महावीर जयंती पर विशेष लेख,
राष्ट्रीय सहारा, 30 मार्च, 2007. 11. डॉ० महावीर सरन जैन, 'विश्व धर्म के रूप में जैन धर्म की प्रासंगिकता', 'जैन तत्त्व चिन्तन:
आधुनिक सन्दर्भ' खण्ड, 'आस्था और चिन्तन,' पृ० 59-60 12. डॉ० दामोदर शास्त्री, 'जैन धर्म एवं आचार,' सम्पादकीय लेख, 'आस्था और चिन्तन, पृ० 1 13. डॉ० मोहन चन्द, 'आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी की काव्य क्षणिकाएं,' 'सृजन संकल्प' खण्ड,
'आस्था और चिन्तन, पृ० 83 14. डॉ० दयानन्द भार्गव, 'जैन जीवन दर्शन की पृष्ठभूमि', जम्मू, 1975, पृ० 75 15. उपदेश सार संग्रह' - भाग-1, पूर्वोक्त, पृ077 16. वही, पृ० 78 17. डॉ. दयानन्द भार्गव, 'जैन जीवन दर्शन की पृष्ठभूमि,' पृ० 57 18. श्वेताश्वतरोपनिषद्, अध्याय 6 19. कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि यो निः पुरुष इति चिन्त्यम्।
संयोग एषां न स्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः।। - श्वेता०, 1.2 20. गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, 835, लखनऊ, 1937 21. 'आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी की काव्य क्षणिकाएं', 'आस्था और चिन्तन', पूर्वोक्त, पृ० 83 22. 'उपदेश सार संग्रह,' भाग-1 पृ० 332 23. 'आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी की काव्य क्षणिकाएं', 'आस्था और चिन्तन', पूर्वोक्त, पृ० 83 24. आचारांगसूत्र, 1.3.3 25, 'एगो य मरदि जीवो एगो य जीवदि सय।' - नियमसार, 101 26. 'जो परमप्पा सो जि हउं जो हउं सो परमप्पु।' - योगसार, 22 27. 'अप्पाणमेव जुज्झहि किं ते जुझेण बझओ।' - उत्तराध्ययनसूत्र, 9.35 28. डॉ० दयानन्द भार्गव, 'जैन जीवन दर्शन की पृष्ठभूमि', पृ० 24 29. अथर्ववेद, 10.7.17 30. 'सपयत्थं तित्थयरं अभिगदबुद्धिधस्स सुत्तोइस्स
दूरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपओत्तस्स।' - पंचास्तिकाय, 170 31. 'उपदेश सार संग्रह,' भाग-2, पृ० 274
-एसोसिएट प्रोफेसर, संस्कृत विभाग
रामजस कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-7
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रत्नत्रय बंधक या अबंधक (पुरुषार्थ देशना के परिप्रेक्ष्य में)
- श्री पुलक गोयल आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी के ग्रंथों के टीकाकारों में अग्रगण्य आचार्य अमृतचन्द्र जी की कृतियां प्राय: आध्यात्मिक शैली में जैनदर्शन का हृदय प्रकट करती हैं। आचार्य अमृतचन्द्र की चरणानुयोग विषयक कृति पुरुषार्थ-सिद्धयुपाय आध्यात्मिक शैली में रचा गया अनुपम मौलिक ग्रन्थ है। ___'पुरुषार्थ-देशना' में आचार्यश्री विशुद्ध सागर जी महाराज की मुखर चिंतनधारा प्रवाहित है, जिसके प्रमुख अंगों में अनेकांत और स्याद्वाद के साथ मधुर आध्यात्मिक फटकार भी है, निश्चयाभासी एकांतवादियों के प्रति ताडना भी है तो निश्चय रत्नत्रय के प्रति प्रामाणिक उद्बोधन भी है। वस्तुतः आध्यात्मिक सत्पुरुष की चर्या विषयक कृति पर आध्यात्मिक प्रकाश का नाम है 'पुरुषार्थ देशना'। विषय प्रवेश :
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को जैनाचार्यों ने आध्यात्मिक उन्नति के लिए अपरिहार्य समझकर 'रत्नत्रय' की उपमा से अलंकृत किया है। यह निर्विवाद सत्य है कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की एकता ही मोक्ष का साक्षात् मार्ग है।' यह रत्नत्रय मुनि अवस्था में ही पूर्णता को प्राप्त होता है। गुणस्थानों की दृष्टि से रत्नत्रय का अस्तित्व 6-14 गुणस्थान तक है। सम्यग्दर्शन और सम्यकज्ञान का प्रारंभ चतुर्थ गुणस्थान से हो जाता है, पंचम गुणस्थान में एकदेश चारित्र है।
द्रव्य और भाव के भेद से दो भेदों में विभक्त बन्ध के जो कर्ता है उन्हें बन्धक कहा जाता है। जो बन्ध का सद्भाव 1-13 गुणस्थान तक पाया जाता है। कषाय सहित जीवों के साम्परायिक आस्रव पूर्वक अधिक स्थिति व अनुभागवाला बंध होता है, कषाय रहित जीवों के ईर्यापथ आस्रव पूर्वक एक समय स्थिति वाला बंध होता है। कषाय रहित अवस्था में योग के कारण 11-13 गुणस्थान में बंध होता है। क्या रत्नत्रय बंधक है ?
जैनाचार्यों ने अपने ग्रंथों के कुछ स्थलों में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को आस्रव व बंध का कारण कहा है। जिनसे यह प्रतिध्वनित होता है कि रत्नत्रय बंधक है। कुछ अंश संकलित है -
1. समयसार जी में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है कि
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जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणो वि परिणमदि। अण्णतं णाणगुणो तेण सु दो बंधगो भणिदो 178॥
अर्थ- क्योंकि ज्ञानगुण जघन्य ज्ञानगुण के कारण फिर से भी अन्य रूप से परिणमन करता है, इसलिए वह कर्मो का बंधक कहा गया है। इसी प्रकार क्र. 177,179,10 आदि में भी उपर्युक्त भाव है।
2. तत्त्वार्थ सूत्र में उमास्वामी ने कहा है कि सम्यक्त्वं च ।।6/21।।
अर्थ- सम्यग्दर्शन भी देवायु के आस्रव का कारण है। इसी प्रकार सूत्र क्र. 06/20 एवं 6/24 में सरागसंयम, संयमासंयम, बालतप आदि को देवायु एवं दर्शनविशुद्धि आदि को तीर्थकर नामकर्म के आस्रव का कारण माना है।
3. आहारक शरीर के बंध में 6-7 गुणस्थान का संयम ही कारण है। उपर्युक्त एवं अन्य कुछ प्रकरणों के कारण श्रमण विरोधी विद्वान रत्नत्रय को भी बंधक घोषित कर मात्र शुद्धात्मानुभूति को ही अबंधक स्वीकार करते हैं। क्या रत्नत्रय अबंधक है ?
तीर्थकर भगवन्तों की दिव्यध्वनि के श्रद्धानी पूज्य जैन आचार्य परंपरा कृत ग्रंथों में रत्नत्रय को अबंधक मानते हुए अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, संयम, संयमासंयम आदि को भी अबंधक ही कहा है, मोक्ष का साधक बताया है। यहाँ कुछ शास्त्रीय प्रमाण संकलित हैं -
1. आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी ने समयसार जी लिखा है कि णत्थि दु आसवबंधो सम्मद्दिट्ठिस्स आसवणिरोहा। संते पुव्वणिबद्धे जाणदि सो ते अबंधंतो 173॥
अर्थ- सम्यग्दृष्टि जीव के आस्रव मूलक नवीन कर्मों का बंध नहीं होता किन्तु उसके आस्रव का निरोध ही होता है और पूर्व में बांधे हुए सत्ता में विद्यमान कर्मो को जानता ही है परन्तु नवीन कर्मबंध नहीं करता है।
2. आचार्य अमृतचन्द्र जी पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय में लिखा है किदर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः। स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बंधः।।216॥
अर्थ- अपने आत्मा का विनिश्चय सम्यग्दर्शन, आत्मा का विशेष ज्ञान सम्यग्ज्ञान और आत्मा में स्थिरता सम्यक्चारित्र कहा गया है, तो फिर इन तीनों से बंध कैसे होता है? अर्थात् नहीं होता।
3. सर्वत्र संयम, संयमासंयम आदि को असंख्यात गुण श्रेणी निर्जरा करने वाला कहा
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आचार्यश्री का मत
इस विषय पर 'पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय' के छन्द क्र. 211 से 223 तक पर प्रवचन करते हुए आचार्यश्री ने 13 बार स्पष्ट रूप से रत्नत्रय को अबंधक घोषित किया है।
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रत्नत्रय से बंध नहीं होता है, रत्नत्रय अबंधक है। आचार्यश्री ने पृ.475 में मधुर स्वर में कठोर ताडना देते हुए कहा है- "अहो मुमुक्षु तुम इसे कैसे बंध मानते हो ? जो दर्शन - ज्ञान - चारित्र से बंध मानता है, उससे अभागा इस विश्व में दूसरा कोई नहीं है। जिन मुद्रा को जो बंध का हेतु कहें, उसे नियम से नरक का बंध हो चुका है। "
आचार्यश्री मानते हैं कि बंध रत्नत्रय से नहीं होता है। बंध राग से होता है। जितने अंश में राग है, उतने अंश में बंध होता है। जितने अंश में वीतरागता रूप रत्नत्रय है, उतने अंश में संवर और निर्जरा है। बंध चार प्रकार का है, इनमें स्थिति और अनुभाग बंध कषाय से होता है, प्रकृति और प्रदेश बंध योग से होता है। रत्नत्रय न तो कषाय है और न हि योग है, अतः रत्नत्रय से बंध संभव नहीं है। रत्नत्रय के सद्भाव में प्रशस्त राग के कारण बंध होता है। रत्नत्रयधारी के बंध संभव है, परन्तु वह बंध रत्नत्रय की अपूर्णता का द्योतक है।
तात्त्विक विमर्श
यहाॅ भिन्न-भिन्न दृष्टियों से आगम प्रमाण को दृष्टिपथ पर रखते हुए विमर्श किया जाता है।
प्रथम दृष्टि
आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी राग को बंध का कारण और विराग से संपन्न मुनि को कर्मों का मोचन करने वाला कहते हैं।
1. रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विराग संपण्णो ।
एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज || 157 ॥ समयसार
अर्थ- रागी जीव कर्मों का बंध करता है, विराग से संपन्न जीव कर्मों से
है। यह जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है। इसलिए कर्मों में राग मत करो।
2. भावो रागादिजुदो जीवेण कदो दु बंधगो होदि ।
रागादिविप्पक्को अबंधगो जागो णवरि ॥174। समयसार
मुक्त होता
अर्थ- जीव के द्वारा किया हुआ राग आदि से युक्त भाव बंधक होता है। राग आदि से मुक्त ज्ञायक जीव अबंधक है।
3. उदयगदा कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया ।
तेसु विमूढो रत्तो दुट्ठो वा बंधमणुभवदि ॥43॥ प्रवचनसार
अर्थ- जिनवरों में श्रेष्ठ वीतराग भगवान् ने उदय अवस्था को प्राप्त हुए कर्मों के अंश निश्चय से कहे हैं। उन उदयागत कर्मों में मोही, रागी अथवा द्वेषी बंध का अनुभव करता है।
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रत्नत्रय राग का मार्ग नहीं है, वीतरागता का मार्ग है। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं, "साधु राग और द्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र को प्राप्त होता है। आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी कहते हैं- "मोह और क्षोभ से रहित आत्म परिणाम रूप समत्व ही चारित्र रूप धर्म है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र राग का प्रतिपक्षभूत है। बंध राग के कारण होता है। अतः सिद्ध होता है कि रत्नत्रय बंधक नहीं है। द्वितीय दृष्टि
आचार्य उपास्वामी ने तत्त्वार्थ सूत्र में बंध के चार प्रकार कहे हैं। 1. प्रकृति बंध, 2.स्थिति बंध, 3.अनुभाग बंध, 4.प्रदेश बंध।' बंध की परिभाषा इस प्रकार बतायी है
सकषायत्वात् जीवः कर्मणो योग्यान् पुदगलानादत्ते स बंधः।।8/2।।
अर्थ- कषाय सहित होने से जीव कर्मो के याग्य पुद्गलों का (कार्मण वर्गणाओं का) जो ग्रहण करता है, वह बंध है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव द्रव्यसंग्रह में लिखते हैंप्रकृतिबंध और प्रदेशबंध योग से होता है तथा स्थितिबंध और अनुभाबंध कषाय से हाता है। आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी कहते हैं- दर्शन-ज्ञान-चारित्र न योग रूप है और न कषाय रूप ही है।'
चार प्रकार के बंध में से प्रकृति और प्रदेश बंध योग के कारण होते हैं तथा स्थिति और अनुभाग बंध कषाय के कारण होते हैं। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र न योग रूप हैं और न कषाय रूप ही हैं। अतः सिद्ध होता है कि रत्नत्रय से बंध नहीं होता है। तृतीय दृष्टि
आचार्य उमास्वामी ने जीव के पाँच असाधारण भाव बताये हैं। 1.औपशमिक भाव 2. क्षायिक भाव 3.क्षायोपशमिक भाव 4.औदयिक भाव 5.परिणामिक भाव। इन पाँचों भावों में से औदयिक भाव को बंधकर कहा गया है। प्रमाण इस प्रकार है
1. ओदइया बंधयरा उवसमखयमिस्सया य मोक्खयरा। भावो दु पारिणामिओ करणोभयवज्जियो होंति॥
धवल पुस्तक 7 पृ. 9; जयधवल पुस्तक 1 पृ. 5 2. मोक्षं कुर्वन्ति मिश्रौपशमिकक्षायिकाभिधाः। बन्धमौदयिको भावो निष्क्रियः पारिणामिकः।।
पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृति पृ. 107; समयसार, तात्पर्यवृति पृ. 347 भावार्थ-औदयिक भाव बंधकर है, औपशमिक भाव, क्षायिक भाव और क्षायोपशमिक भाव मोक्षकर हैं तथा पारिणामिक भाव निष्क्रिय (दोनों कारणों से वर्जित) है।
सभी औदयिक भाव भी बंध में कारण नहीं होते हैं। कहा हैऔदयिका भावा बंधकारणं भवन्ति, परं किन्तु मोहोदयसहिताः।
प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति / पृ.52-53
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अर्थ- औदयिक भाव बंध के कारण होते हैं, परन्तु मोह के उदय से सहित। अर्थात् मोहनीय कर्म के उदय के अभाव में शेष औदयिक भाव नवीन बंध में समर्थ नहीं हैं।
सम्यक्दर्शन तीन प्रकार का होता है। 1.औपशमिक, 2.क्षायिक, 3.क्षायोपशमिक।।
सम्यग्ज्ञान पांच प्रकार का होता है। इनमें से केवलज्ञान क्षायिक भाव है, शेष चार मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान क्षायोपशमिक भाव हैं। सम्यक्चारित्र भी तीन प्रकार का है। 1.औपशमिक, 2.क्षायिक, 3. क्षायोपशमिक।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को किसी भी आचार्य ने औदयिक भाव नहीं कहा है। औदयिक भाव ही बंधकर है। अतः सिद्ध होता है कि रत्नत्रय बंधकर नहीं है। पूर्वपक्ष परिहार
जिज्ञासा- सम्यग्दर्शन, जघन्यता को प्राप्त ज्ञान-गुण, सरागसंयम, संयमासंयम, सम्यक्चारित्र आदि को आर्षग्रंथों में बंधक/ देवायु का बंधक/तीर्थकर प्रकृति एवं आहारक प्रकृति का बंधक क्यों कहा है ?
परिहार-समयसार की तात्पर्यवृति टीका पृ.171-172 पर लिखा है कि "यदि यहाँ कोई शंका करे कि ज्ञान गुण और दर्शन गुण तो आत्मा के गुण हैं अत: वे बंध के कारण कैसे हो सकते हैं ? उसका समाधान करते हैं कि उदय में आये हुए मिथ्यात्वादि द्रव्य प्रत्यय आत्मा के ज्ञान और दर्शन गुण को रागादिमय अज्ञान भाव के रूप में परिणाम देते हैं। उस समय वह अज्ञान भाव में परिणत हुआ ज्ञान और दर्शन बंध का कारण होता है।" ।
इसस ध्वनित होता है कि सम्यग्दर्शन आदि से बंध नहीं होता है, परन्तु अवशिष्ट रागांश से बंध होता है। आचार्य अमृतचन्द्र का उल्लेख अत्यंत स्पष्ट है
येनांशेन सदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति॥212।। येनांशेन ज्ञानं तेनांशेननास्य बन्धनं नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति॥213।। येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति। येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति।।214।।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय भावार्थ- जितने अंश से सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र है, उतने अंश से बंध नहीं है। जितने अंश से राग है, उतने अंश से बन्ध है।
आगे कहते हैं- "तीर्थकर प्रकृति एवं आहारक प्रकृति का जो बन्ध सम्यक्त्व और चारित्र से आगम में कहा है, वह भी नयवेत्ताओं को दोष के लिए नहीं है।
तीर्थकर प्रकृति और आहारक प्रकृति के बंधक योग और कषाय है, सम्यक्त्व और चारित्र के होने पर यह बन्ध होता है और नहीं होने पर नहीं होता है। अतः इस बन्ध में सम्यक्त्व और चारित्र उदासीन है।
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निष्कर्ष -
1. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है, वीतरागता का मार्ग है। अतः रत्नत्रय से संवर, निर्जरा और मोक्ष प्राप्त होता है।
2. कर्मो का आस्रव व बंध रत्नत्रय के प्रतिपक्षभूत राग, द्वेषादि काषायिक भावों से होता है।
3. पुण्य प्रकृतियों का बंध भी रत्नत्रय के कारण नहीं होता है, अपितु अवशिष्ट रागांश के कारण होता है।
4. रत्नत्रय का पालन राग-द्वेषादि को नष्ट करने के लिए किया जाता है। इससे बंध नहीं होता, अपितु बंध का अभाव होता है। अतः सिद्ध है कि रत्नत्रय बंधक नहीं, अबंध क है।
संदर्भः
1. तत्त्वार्थ सूत्र 1/1 2. बन्धस्स दव्वभावभेदभिण्णस्स जे कत्तारा ते बंधया णाम। धवल पुस्तक 14 पृ. 2 3. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा. 3 पृ.175 4. पुरूषार्थ-देशना पृ.470, 472, 473, 475, 476, 477, 478, 482, 484, 485 एवं 488 5. मोहतिमिरापहरणे दर्शन- लाभदवाप्त संज्ञान:।
रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधु:147।। रत्नकरण्डक श्रावकाचार 6. चारित्तं खलु धम्मो जो सो समो त्ति णिहिट्ठो।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।।7।।प्रवचनसार 7. प्रकृति-स्थित्यनुभाग-प्रदेशास्तद्विधय:।18/3|| तत्त्वार्थ सूत्र 8. पयडिट्ठिदि अणुभागप्पदेसभेददो दु चदुविधो बंधो।
जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होति।।33। द्रव्यसंग्रह 9. योगात्प्रदेश बंधः स्थितिबन्धो भवति तु कषायात्।।
दर्शनबोचरित्रं न योगरूपं कषाय रूपं च।।215।। पुरूषार्थ-सिद्वयुपाय 10. औपशमिक-क्षायको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च। 2/1। तत्त्वार्थ सूत्र 11. सवार्थसिद्धि 1/7 पृ. 21 12. तत्त्वार्थ सूत्र 2/4-5 13. राजवार्तिक 1/7 पृ. 41 14. सम्यक्त्व-चारित्राभ्यां तीर्थकराहार-कर्मणो बन्धः।
योअप्युपदिष्टः समये न नयविदां सोपि दोषाय।।217।। पुरूषार्थ-सिद्धयुपाय 15. सति सम्यक्त्व चारित्रे तीर्थंकराहारबन्धकौ भवतः।
योगकषायौ नासति तत्पुनरस्मिन्नुदासीनम।।218।। पुरूषार्थ-सिद्धयुपाय
- जैन होस्टल, वीरोदय नगर
सांगानेर, जयपुर-302029
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तीर्थकर दिव्यध्वनि का वैशिष्ट्य
-डॉ. अशोक कुमार जैन महापुराण में गर्भान्वय क्रिया के वर्णन में तीर्थकर भावना का वर्णन है
"मैं एक साथ तीनों लोकों का उपकार करने में समर्थ बनूं" इस प्रकार की परम करुणा से अनुरंजित अन्तश्चैतन्य परिणाम प्रतिसमय वर्धमान होने से परोपकार का जब आधिक्य होता है उससे दर्शन विशुद्धि आदि 16 भावनायें होती हैं जो परम पुण्य तीर्थकर नामकर्म के बन्ध में कारण होती हैं। ये भावनायें सभी के नहीं होतीं, इनका होना दुर्लभ है। तीर्थकर प्रकृति का बन्ध करने के पश्चात् केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर बिना इच्छा के भगवान अर्हन्त की वाणी खिरती है। चूंकि वे वीतराग होते हैं अत: वहां विवक्षा-बोलने की इच्छा नहीं होती। कहा भी है
यत्सर्वात्त्महितं न वर्णसहितं न स्पन्दितौष्ठद्वयं, नो वाञ्छाकलितं न दोषमलिनं न श्वासरुद्धक्रमम्। शान्तामर्षविषैः समं पशुगणैराकीर्णितं कर्णिभिः, तन्नः सर्वविदः प्रणष्टविपदः पायादपूर्व वचः॥ समवशरण स्तोत्र-30
जो समस्त प्राणियों के लिए हितकर है, वर्णसहित नहीं है, जिसके बोलते समय दोनों ओष्ठ नहीं चलते, जो इच्छा पूर्वक नहीं है, न दोषों से मलिन है, जिनका क्रम श्वास से रुद्ध नहीं होता, जिन वचनों को पारस्परिक वैरभव त्याग कर प्रशान्त पशु गणों के साथ सभी श्रोता सुनते हैं, समस्त विपत्तियों को नष्ट कर देने वाले सर्वज्ञ देव के अपूर्व वचन हमारी रक्षा करें।
आचार्य जिनसेन स्वामी ने महापुराण में लिखा हैदिव्यमहाध्वनिरस्य मुखाब्जान्मधरवानुकृतिर्निरगच्छत्। भव्यमनोगतमोहतमोहन न्नातदेष यथैव तमोऽरिः। एकतयोऽपि च सर्वनृभाषाः सोऽन्तरनेष्ट बहुश्च कुभाषाः। अप्रतिपत्तिमास्य च तत्त्वं बोधयति स्म जिनस्य महिम्ना। एकतयोऽपि तथैव जलौघश्चित्ररसौ भवति द्रुमभेदात्। पात्र विशेषवशाच्च तथा मयं सर्वविदो ध्वनिराय बहुत्वम्।। एकतयोऽपि यथा स्फटिकाश्मा यदयदुपाहितमस्य विभासम्। स्वच्छतया स्वयमप्यनुधत्ते विश्वबुधोऽपि तथा ध्वनिरूच्चैः॥ देवकृतो ध्वनिरि त्यसदेतद् देवगुणस्य तथा विहतिः स्यात्॥ साक्षर एव च वर्णसमूहान्नैव विनार्थगतिर्जगति स्यात्॥ -महापुराण 23/69-73
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__भगवान के मुखरूपी कमल से बादलों की गर्जना का अनुकरण करने वाली दिव्यध्वनि निकल रही थी। यद्यपि वह एक प्रकार की थी तथापि सर्वभाषारूप परिणमन करती थी
और लोगों का अज्ञान दूर कर उन्हें तत्त्वों का बोध करा रही थी आगे आचार्य ने लिखा है कि कोई लोग ऐसा कहते हैं कि दिव्यध्वनि देवों के द्वारा की जाती है परन्तु ऐसा कहना मिथ्या है क्योंकि ऐसा कहने में भगवान् के गुण का घात होता है। इसके सिवाय दिव्यध्वनि साक्षर होती है क्योंकि लोक में अक्षरों के समूह के बिना अर्थ का ज्ञान नहीं होता। चन्द्रप्रभकाव्य में दिव्यध्वनि के विषय में लिखा है
सर्वभाषास्वभावेन ध्वनिनाथ जगद्गुरुः। जगाद गणिनः प्रश्नादिति तत्त्वं जिनेश्वरः। 614॥
जगत के गुरु चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ने गणधर के प्रश्न पर सर्वभाषा स्वभाव वाली दिव्यध्वनि के द्वारा तत्त्वों का उपेदश दिया।
हरिवंशपुराण में भगवान की दिव्यध्वनि को हृदय और कर्ण के लिए रसायन लिखा है- 'चेतः कर्ण रसायनं'। उन्होंने यह भी लिखा है
जिनभाषाऽधरस्पंदमंतरेण विभिता। तिर्यग्देवमनुष्याणां दृष्टिमोहमनीनशत्।।615।।
ओष्ठकंपन के बिना उत्पन्न हुई जिनेन्द्र की भाषा ने तिर्यञ्च, देव तथा मनुष्यों की दृष्टि संबन्धी मोह को दूर किया था।
दिव्यध्वनि के संबन्ध में जयधवला (पु.1पृ.126) में लिखा है- वह सर्वभाषामयी है, अक्षर-अनक्षरात्मक है, जिसमें अनन्त पदार्थ समाविष्ट हैं (अनन्त पदार्थों का वर्णन है), जिसका शरीर बीजपदों से घड़ा गया है, जो प्रात: मध्याह्न और सांयकाल इन तीन संध्याओं में छह-छह घड़ी तक निरंतर खिरती रहती है और उक्त समय को छोड़कर इतर समय में गणधरदेव संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को प्राप्त होने उनके प्रवृत्ति करने (उनके संशयादि को दूर करने) का जिसका स्वभाव है, संकट और व्यक्तिकर दोषों से रहित होने के कारण जिसका स्वरूप विशद है और उन्नीस (अध्ययनों के द्वारा) धर्मकथाओं का प्रतिपादन करना जिसका स्वभाव है, इस प्रकार स्वावलम्बी दिव्यध्वनि है।
तिलोयपण्णत्ति में इस दिव्यध्वनि के संबन्ध में वर्णन है कि यह 18 महाभाषा 700 लघुभाषा तथा और भी संज्ञी जीव जीवों की भाषा रूप परिणत होती है। यह तालु, दन्त, ओष्ठ और कण्ठ की क्रिया से रहित होकर एक ही समय में भव्य जीवों को उपदेश देती है।
भगवान की दिव्यध्वनि प्रारंभ में अनक्षरात्मक होती है, इसलिए उस समय केवली भगवान के अनुभय वचन योग माना गया है। पश्चात् श्रोताओं के कर्ण प्रदेश को प्राप्त कर सम्यग्ज्ञान को उत्पन्न करने से केवली भगवान के सत्य वचन योग का सद्भाव भी आगम में माना है।
प्रश्न- सयोग केवली की दिव्यध्वनि को किस प्रकार सत्य अनुभय वचन योग कहा
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उत्तर- केवली की दिव्यध्वनि उत्पन्न होते ही अनक्षरात्मक रहती है, इसलिए श्रोताओं ने कर्ण प्रदेश से संबन्ध होने के समय तक अनुभय वचन योग सिद्ध होता है। इसके पश्चात् श्रोताओं के इष्ट अर्थों के विषय में संशय आदि को निराकरण करने से तथा सम्यग्ज्ञान को उत्पन्न होने से सत्य वचन योग का सद्भाव सिद्ध होता है। इस प्रकार केवली में सत्य और अनुभयवचन योग सिद्ध होते हैं। ___ इस कथन से ज्ञात होता है कि श्रोताओं ने समीप पहुँचने के पूर्व वाणी अनक्षरात्मक रहती है, पश्चात् भिन्न-भिन्न श्रोताओं का आश्रय पाकर वह दिव्यध्वनि अक्षररूपता को धारण करती है। स्वामी समन्तभद्र ने जिनेन्द्रदेव की वाणी को सर्वभाषा स्वभाव वाली कहा है यथा
तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकम्। प्रीणयत्यमृतं यद्वत्प्राणिनो व्यापि संसदि॥ स्वयंभूस्तोत्र 97
श्री सहित तथा सर्वभाषा स्वभाव वाली आपकी अमृत वाणी समवशरण में व्याप्त होकर अमृत की तरह प्राणियों को आनन्दित करती है।
चौंसठ ऋद्धियों में बीजबुद्धि नाम की ऋद्धि का भी कथन आता है। उसका स्वरूप राजवार्तिक में इस प्रकार कहा है- जैसे हल के द्वारा सम्यक् प्रकार से तैयार की गई उपजाऊ भूमि में योग्यकाल में बोया गया एक भी बीज बहुत बीजों को उत्पन्न करता है, उसी प्रकार नो इन्द्रियावरण श्रुतज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम के प्रकर्ष से एक बीज पद के ज्ञान द्वारा अनेक पदार्थों को जानने की बुद्धि को बीजबुद्धि कहते हैं 'सुकृष्टसमुथिते क्षेत्रे सारवति कालादिसहायापेक्षं बीजमेकमुप्तं यथानेकबीजकोटिप्रदं भवति तथा नोइन्द्रियावरण-श्रुतावरण-वीर्यान्तरायक्षयोमशमप्रकर्षे सति एक बीजपद ग्रहणादनेकपदार्थप्रतियत्ति/जबुद्धिः। (राजवार्तिक अध्याय 3 सूत्र 66 पृ.143)
इस संबन्ध में यह कहा जाता है कि जिनेन्द्र देव की बीजपदयुक्त वाणी को गणधरदेव बीजबुद्धि ऋद्धिधारी होने से अवधारण करके द्वादशांगरूप रचना करते हैं।
इस प्रसंग में यह बात विचार करने योग्य है कि प्रारंभ में भगवान की वाणी को झेलकर गणधरदेव द्वादशांग की रचना करते हैं, अत: उस वाणी में बीजपदों का समावेश आवश्यक है, जिनके आश्रय से चार ज्ञानधारी महर्षि गणधरदेव अंगपूर्वो की रचना करने में समर्थ होते हैं। वीर भगवान् की दिव्यध्वनि को गौतमगणधरदेव सुनकर 'बारहंगाणं चौदस पुव्वाणं च गंथाणमेक्केण चेव मुहुत्तेण कमेणरयणा कदा' (धवल टीका भाग 1पृ.65) द्वादशांग तथा चौदहपूर्व रूप ग्रंथों की एक मुहूर्त में क्रम से रचना की।
इसके पश्चात् भी तो भगवान महावीर की दिव्यध्वनि खिरती रही है। श्रोतृमण्डली को गणधरदेव द्वारा दिव्यध्वनि के समय के पश्चात् उपदेश प्राप्त होता है। जब दिव्यध्वनि खिरती है, तब मनुष्यों के सिवाय संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, देवादि भी अपनी-अपनी भाषाओं में अर्थ को समझते हैं। इससे वीरसेन स्वामी ने इस दिव्य वाणी को 'सव्वभासासरूवा' सर्वभाषा स्वरूपा, भी कहा है। उस दिव्यवाणी की यह अलौकिकता है कि उससे गणधर सदृश महानुभाव ज्ञान के सिन्धु भी अपने लिये अमूल्यज्ञान निधि प्राप्त करते हैं तथा
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महान मंदमति प्राणी, सर्प, गाय, व्याघ्र, कपोत, हंसादि पशु-पक्षी भी अपने-अपने योग्य ज्ञान की सामग्री प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि जिनेन्द्रदेव की दिव्यध्वनि अलौकिक वस्तु है, अनुपम है और आश्चर्यकारक है। उस वाणी के समान विश्व में अन्य कोई वाणी नहीं है। वाणी की लोकोत्तरता में कारण तीर्थकर भगवान का त्रिभुवन वन्दित अनन्त सामर्थ्य समलंकृत व्यक्तित्व है। सामर्थ्यसंपन्न गणधरदेव महान महिमाशाली सुरेन्द्र आदि भी प्रभु की अपूर्व शक्ति से प्रभावित होते हैं। योग के द्वारा जो चमत्कारयुक्त वैभव दिखाई पड़ता है, वह स्थूल दृष्टि वाले को समझ में नहीं आता है, अतएव वे विस्मय के सागर में डूबे ही रहते हैं। दिव्यध्वनि तीर्थकर प्रकृति के विपाक-उदय की सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु है, क्योंकि तीर्थकर प्रकृति कर्म का बन्ध करते समय केवली, श्रुतकेवली में पादमूल में इस भावना का बीज बोया गया था कि इस बीज से ऐसा वृक्ष बने, जो समस्त प्राणियों को सच्ची शांति तथा मुक्ति का मंगल संदेश प्रदान कर सके। मनुष्य पर्याय रूपी भूमि में बोया गया यह तीर्थकर प्रकृति रूप बीज अन्य साधन सामग्री पाकर केवली की अवस्था में अपना वैभव तथा परिपूर्ण विकास दिखाता हुआ त्रैलोक्य के समस्त जीवों को विस्मय में डालता है। आज भगवान ने इच्छाओं का अभाव कर दिया है, फिर भी उनके उपदेश आदि कार्य ऐसे लगते हैं मानों वे इच्छाओं के द्वारा प्रेरित हो। इसका यथार्थ में समाधान यह है कि पूर्व की इच्छाओं के प्रयास से भी कार्य होता है। जैसे घड़ी में चाबी भरने के पश्चात् यह घड़ी अपने आप चलती है, उसी प्रकार तीर्थकर प्रकृति का बन्ध करते समय जिन कल्याणकारी भावों का संग्रह किया गया था वे ही बीज अनन्तगुणित होकर विकास को प्राप्त हुए हैं। अतः केवली की अवस्था पूर्ण सञ्चित पवित्र भावना के अनुसार सब जीवों को कल्याणकारी सामग्री प्राप्त होती है। ___ दिव्यध्वनि के विषय में कुन्दकुन्दाचार्य के सूत्रात्मक ये शब्द महत्त्वपूर्ण है-'तिहुवण हिदमधुरविसदवक्काणं' अर्थात् दिव्यध्वनि के द्वारा त्रिभुवन के समस्त भव्य जीवों को हितकारी, प्रिय तथा स्पष्ट उपदेश प्राप्त होता है। जब छद्मस्थ तथा बाल अवस्था वाले महावीर प्रभु के उपदेश के बिना ही दो चारण ऋद्धिधारी महामुनियों की सूक्ष्म शंका दूर हुई थी तब केवलज्ञान, केवलदर्शनादि सामग्री संयुक्त तीर्थकर प्रकृति के पूर्ण विपाक-उदय होने पर उस दिव्यध्वनि के द्वारा समस्त जीवों को उनकी भाषाओं में तत्त्व बोध हो जाता है इसमें कोई सन्देह नहीं है।
धर्मशर्माभ्युदय में दिव्यध्वनि का वर्णन करते हुए लिखा हैसर्वाद्भुतयमयीसृष्टिः सुधावृष्टिश्च कर्णयोः। प्रावर्तत ततो वाणी सर्वविद्येश्वराद्विभो।।620॥
सर्व विद्याओं के ईश्वर जिनेन्द्र भगवान के सर्व प्रकार के आश्चर्यों की जननी तथा कर्णों के लिए सुधा की वृष्टि के समान दिव्य ध्वनि उत्पन्न हुई। गोम्मटसार जीवकाण्ड की संस्कृत टीका में लिखा है कि तीर्थकर की दिव्यध्वनि प्रभात, मध्याह्न, सायंकाल तथा मध्यरात्रि के समय छह-छह घटिका काल पर्यन्त अर्थात् दो घण्टा चौबीस मिनट तक
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प्रतिदिन नियम से खिरती हैं। इसके सिवाय, गणधर, चक्रवर्ती, इन्द्र सदृश विशेष पुण्यशाली व्यक्तियों के आगमन होने पर उनके प्रश्नों के उत्तर के लिए भी दिव्यध्वनि खिरती है। इसका कारण यह है कि उन विशिष्ट पुण्यात्माओं को सन्देह दूर होने पर धर्म भावना बढ़ेगी
और उससे मोक्षमार्ग की देशना का प्रचार होगा जो धर्म तीर्थंकर की तत्त्व प्रतिपादन दी पूर्ति स्वरूप होगी।
जयधवला टीका में लिखा है कि यह दिव्यध्वनि प्रातः, मध्याह्न, तथा सांयकाल इन तीन संध्याओं में छह-छह घड़ी पर्यन्त खिरती हैं- तिसंज्झ विसयछचडियासु णिरंतरं पयट्टमाणिया (भाग 1पृ.126)।
तिलोयपण्णत्ती में तीन संध्याओं में नवमुहूर्त पर्यन्त दिव्यध्वनि खिरने का उल्लेख हैपगदीए अक्खलिओ संझत्तिदयम्मि णवमुहुत्ताणि।। णिस्सरदि णिरुवमाणो दिव्वज्झुणी जाव जोयणय।।62॥
इसी ग्रंथ में यह भी कहा है कि गणधर, इन्द्र तथा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ यह दिव्यध्वनि समयों में भी निकलती है, यह भव्य जीवों को छहद्रव्य, नौ पदार्थ, पांच अस्तिकाय और सात तत्वों का नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरूपण करती है।
तीर्थंकरों के वचन विषयक गुणों की चर्चा स्तोत्रों में अनेक स्थलों पर की गई है। यथान शीतलाश्चन्दनचन्द्ररश्मयो न गाङ्गमम्भो न च हारयष्टयः। यथा मुनेस्तेऽनघवाक्यरश्मयः शमाम्बुगर्भाः शिशिरा विपश्चिताम्॥
स्वयम्भूस्तोत्र 10/1 अर्थात् भगवान के वचन रूपी किरणों से जो शीतलता प्राप्त होती है, वैसी शीतलता चन्दन से, चन्द्रमा की किरणों से, गंगा के जल से और मोतियों की मालाओं से प्राप्त नहीं हो सकती है।
परम आनन्दकारी, सुखकारी अमृतवत् प्रभु की वाणी अजर-अमर पद की दात्री है। यथास्थाने गम्भीरहृदयोदधि सम्भवायाः, पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति। पीत्वा यतः परमसम्मदसङ्गभाजो, भव्या व्रजन्ति तरसाप्यजरामरत्वम्॥
कल्याणमन्दिरस्तोत्र - 21 'विषापहार स्तोत्र' में भगवान् के वागातिशय को प्रगट करते हुए कहा गया है कि उनका वचन नानार्थक भी है एवं एकार्थक भी है, वह नाना लोगों के लिए एक ही अर्थ को सम्प्रेषित करता है। वह हितकारी भी है जिसे सुनकर व्यक्ति निर्दोषता को प्राप्त होता है
नानार्थमेकार्थमदस्तदुक्तं, हितं वचस्ते निशमय्य वक्तुः। निर्दोषतां के न विभावयन्ति, ज्वरेण, मुक्तः, सुगमः स्वरेण॥
विषापहार स्तोत्र-29 तीर्थकरों के वचनों की महिमा अपार है। इन वचनों को श्रवण कर, उनका रहस्य समझकर स्वर्ग एवं मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। यही बात व्यक्त करते हुए लिखा है
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शिवसुखमजरश्रीसंगमं चाभिलष्य, स्वमभिनियमयन्ति क्लेशपाशेन केचित्। वयमिह तु वचस्ते भूपतेभवियन्त स्तदुभयमपि शश्वल्लीलया निर्विशामः॥ जिनचतुर्विशतिका 21
अर्थात् हे प्रभो ! जो मनुष्य आपके सिद्धांतों से परिचित नहीं है वे स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के लिए तरह-तरह के नियम करते हैं- कठिन तपस्याओं से क्लेश उठाते हैं, फिर भी उन्हें प्राप्त नहीं कर पाते, पर हम लोग आपके उपदेश का रहस्य समझकर अनायास ही उन दोनों को प्राप्त कर लेते हैं।
मुक्ति के दुर्गम मार्ग को वीतराग की वाणी रूपी दीपक की सहायता से पार किया जा सकता है, अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति प्रभु के उपदेश से ही संभव है
प्रच्छन्नः खल्वयमघमयैरन्धकारैः समन्तात् पन्था मुक्तेः स्थपुटितपदः क्लेशगतैरगाधैः। तत्कस्तेन व्रजति सुखतो देवे ! तत्त्वावभासा, यद्यग्रेऽग्रे न भवति भवद्भारतीरत्नदीपः॥ एकीभावस्तोत्र-14
अर्थात् निश्चय से यह मुक्ति का मार्ग सब ओर से पाप रूपी अंधकार के द्वारा ढका हुआ और गहरे दु:खरूपी गड्ढों से ऊँचे-नीचे स्थान वाला है। हे देव! जीव, अजीव आदि तत्त्वों को प्रकाशित करने वाली आपकी वाणी रूपी रत्नों का दीपक यदि आगे-आगे नहीं हो तो उस मार्ग से कौन पुरुष सुख से गमन कर सकता है। अर्थात् कोई नहीं। रयणसार में लिखा हैअज्झयणमेव झाणं, पंचेंदिय-णिग्गहं कसायं पि। तत्तो पंचमयाले, पवयणसारब्भसि कुज्जाहो॥१०॥
तीर्थकर महावीर की दिव्यध्वनि से प्रसूत आगम साहित्य का अध्ययन (मनन-चिंतन, स्वाध्याय) ही ध्यान है। उसी से पंचेन्द्रियों का सहज ही निग्रह होता है तथा कषायों का क्षय भी। अतएव (एकादश महाप्रयोजन की सिद्धि के लिए) इस पंचमकाल में प्रवचनसार (जिनवाणी रूपसार-आगम सुभाषित) का अभ्यास करते रहना ही श्रेयस्कर है।
- जैन बौद्ध दर्शन विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-5
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पूजा के परिप्रेक्ष्य में जैनाचार्यों की विचारधारा
-डॉ. कुलदीप कुमार पूजा शब्द 'पुज + अ +टाप्' प्रत्यय से निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है- पूजा, सम्मान, आराधना, आदर, श्रद्धाञ्जलि, श्रद्धेय, आदरणीय, पूज्य, श्रद्धास्पद इत्यादि।'
'राग प्रचुर होने के कारण गृहस्थों के लिए 'जिन' पूजा प्रधान धर्म हैं, यद्यपि इसमें पञ्च परमेष्ठी की प्रतिमाओं का आश्रय होता है, पर वहाँ अपने भाव ही प्रधान हैं, जिनके कारण पूजक को असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा होती रहती है। नित्य नैमित्तिक के भेद से वह अनेक प्रकार की है और जल चन्दनादि अष्ट द्रव्यों से पूजा की जाती है। अभिषेक व गान नृत्य आदि के साथ की गयी पूजा प्रचुर फलदायी होती है। सचित व अचित द्रव्य से पूजा, पंचामृत व साधारण जल से अभिषेक, चावलों की स्थापना करने व न करने आदि संबन्धी अनेकों मतभेद इस विषय में दृष्टिगत हैं, जिनका समन्वय करना ही योग्य है। पूजा के पर्यायवाची नाम
यागो यज्ञः क्रतुः पूजा सपर्येज्याध्वरोः मखः। मह इत्यपि पर्यायवचनान्यर्चनाविधेः॥'
अर्थात्- याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह ये सब पूजा विधि के पर्यायवाची शब्द हैं। पूजा के भेद- इज्या आदि की अपेक्षा
प्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम्। चतुर्मुखमहः कल्पद्रुमाश्चाष्टाह्निकोऽपि च॥'
अर्थात्- पूजा चार प्रकार की है सदार्चन (नित्यमह), चतुर्मुख (सर्वतोभद्र), कल्पद्रुम ओर अष्टाह्निका। निक्षेपों की अपेक्षा
णामट्ठावणा दव्वेखित्ते काले वियाणाभावे या छव्विहपूया भणिया समासओ जिणवरिंदेहि।
अर्थात्- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा संक्षेप से छह प्रकार की पूजा जिनेन्द्र देव ने कही है। द्रव्य व भाव की अपेक्षा
'पूजा द्विप्रकारा द्रव्यपूजा भावपूजा चेति' अर्थात् पूजा दो प्रकार की- द्रव्यपूजा और भाव पूजा। श्रावकाचार संबन्धी ग्रंथों की पूजा पद्धति और दैनिक षट्कर्मों का विस्तार से वर्णन
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अनेकान्त 62/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2009 मिलता है। जैन वाडमय में देव, शास्त्र और गुरु की उपासना भक्ति को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है और इन्हें श्रावक की दैनिक षट् क्रियाओं के अन्तर्गत प्रतिपादित किया गया है।
आचार्य कुन्दकुन्द के चारित्र प्राभृत में तथा वरांगचरित और हरिवंशपुराण में दान, पूजा, तप और शील को श्रावकों का कर्तव्य बतलाया है। आदिपुराण में आचार्य जिनसेन ने लिखा है कि महाराज भरत ने पूजा, वार्त्ता, दान, स्वाध्याय, संयम और तप को व्रती लोगों का कुलधर्म बतलाया । यथा
इज्यां वार्तां च दत्ति व स्वाध्यायः संयमस्तपः ।
श्रुतोपासकसूत्रत्वात् से तेभ्यः समुपादिशत् ॥
कुलधर्मों यमित्येषामर्हत्पूजादिवर्णनम्।
तदा राजर्षिरन्वेवोचदनुक्रमात् ॥
आचार्य पद्मनन्दि ने पञ्चविंशतिका में श्रावक के दैनिक षट्कर्मों का वर्णन इस पकार किया है
देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्याय: संयमस्तपः ।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ।
अर्थात् जिन पूजा, गुरु की सेवा, स्वाध्याय, संयम और तप से छह कर्म गृहस्थों के लिए प्रतिपादित करने के योग्य हैं अर्थात् वे उनके आवश्यक कार्य है।
आचार्य सोमदेव ने उपासकाध्ययन में इसी प्रकार श्रावक के षट्कर्मों का उल्लेख किया है। 10
जैन वाङमय में श्रावक के लिए एक प्राचीन शब्द 'उपासक' का भी प्रयोग किया गया है तथा इसी आधार पर प्राकृत भाषा में 'उवासज्झयणं' और संस्कृत भाषा में ‘उपासकाध्ययन' नाम से श्रावकाचार विषयक ग्रंथों की रचना की गयी है। द्वादशांगश्रुत में 'उपासगदसांग" की स्वतंत्र रूप से गणना की गयी है। अर्द्धमागधी आगम उवासगदसाओ तीर्थंकर महावीर के दस उपासकों का वर्णन किया गया है, उपासकों के माध्यम से ही उपासक धर्म का प्रतिपादन किया गया है। जैन गृहस्थ या उपासक की उपासना पद्धति क्या है, इस विषय में उपासकाचार या श्रावकाचार विषयक सभी ग्रंथों में संक्षिप्त रूप से या विस्तृत रूप से विवेचन किया गया है।
के प्रकार
पूजा
आचार्य सोमदेव ने पूजा के दो प्रकारों का उल्लेख करते हुए कहा कि - ' देवपूजा के दो रूप हैं- एक पुष्पादि में जिन भगवान की स्थापना करके पूजा की जाती है और दूसरे जिन बिम्बों में जिन भगवान की स्थापना करके पूजा की जाती है किन्तु जिस प्रकार पुष्प फल या पाषाण में स्थापना की जाती है उस तरह अन्य देव हरि-हरादिक की प्रतिमा में जिन भगवान की स्थापना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जैसे शुद्ध कन्या में ही पत्नी का संकल्प किया जाता है दूसरे से विवाहित में नहीं, वैसे ही शुद्ध वस्तु में ही जिन देव की स्थापना करना उचित है, जो अन्यरूप हो चुकी है उसमें स्थापना करना उचित नहीं है । "
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आचार्य अमितगति ने पूजा के द्रव्य और भाव पूजा ये दो भेद किए हैं और कहा है कि वचन और शरीर को जिन भक्ति में लगाना द्रव्यपूजा है और मन को लगाना भावपूजा है। अथवा गंध, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, अक्षत आदि से जिन पूजन करना द्रव्य पूजा है और मन को उसमें लगाना भावपूजा है। पूजा के उपरिलिखित प्रकार आचार्य अमितगति के पूर्व किसी श्रावकाचार में प्राप्त नहीं होते। __आचार्य पद्मनन्दि ने लिखा है कि- 'जो जिनदेव का दर्शन करते हैं, भक्ति से पूजा, स्तुति करते हैं, वे तीनों लोकों में दर्शनीय, पूज्य और स्तुत्य हो जाते हैं। जो जिन दर्शन नहीं करते हैं, उनका जीवन निष्फल है। उनके गृहस्थाश्रम को धिक्कार है।
धर्म और श्रुति के उपासकों को प्रातः उठकर देवता और गुरु का दर्शन करना चाहिए। भक्ति से उनकी वन्दना करनी चाहिए। उसके पश्चात् अन्य कर्त्तव्य कार्यों को करना चाहिए। क्योंकि विद्वानों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में सर्वप्रथम धर्म का उल्लेख किया है। आचार्य सोमदेव से पूर्व संभवतः किसी आचार्य ने अपने ग्रंथ में पूजा तथा पूजा विधि का इतना विस्तृत और स्पष्ट वर्णन नहीं किया है। __आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय में अरिहंत, सिद्ध, चैत्य और प्रवचन भक्ति का निर्देश किया है तथा प्रवचनसार में देवता, यति और गुरु की पूजा का निर्देश किया है।
आचार्य रविषेण ने लिखा है कि जो जिन भगवान की आकृति के अनुरुप जिन बिम्ब बनवाता है तथा जिन भगवान की पूजा और स्तुति करता है, उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
आचार्य योगीन्द्र ने लिखा है कि तूने न तो मुनिवरों को दान ही दिया, न जिन भगवान की पूजा ही की ओर न पंचपरमेष्ठी को नमस्कार किया तब तूझे मोक्ष का लाभ कैसे होगा। ___ इसी प्रकार कालक्रमानुसार सभी श्रावकाचार रचयिता आचार्यों ने यथाशक्ति पूजा, पूजनविधि एवं पूजा के फलादि का विस्तृत वर्णन किया। आचार्य वसुनन्दि वसुनन्दिश्रावकाचार ग्रंथ में पूजन विधान का वर्णन करते हुए लिखते है। कि
जिणसिद्धसूरिपाठयसाहूणं जं सुयस्स विहवेण। कीरइ विविहा पूजा वियाण तं पूजणविहाणं॥ णामट्ठवणादव्वे खित्ते काले वियाण भावे य। छव्विहपूया भणिया समासओ जिणवरिंदेहिं॥
अर्थात् अर्हन्त जिनेन्द्र, सिद्ध भगवान, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं की तथा शास्त्र की जो वैभव से नाना प्रकार की पूजा की जाती है, उसे पूजन विधान जानना चाहिए। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा संक्षेप से छह प्रकार की पूजा जिनेन्द्रदेव ने कही है। यथा
उच्चारिऊण णामं अरुहाईणं विसुद्धदेसम्मि। पुष्पाणि जं खिविज्जति वणिया णामपूया सा।
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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 अर्थात् अरहन्त आदि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्प क्षेपण किए जाते हैं, उसे नाम पूजा जानना चाहिए। स्थापना पूजा
सब्भावासब्भावा दुविहा ठवणा जिणेहि पण्णत्ता। सायारवंतवत्थुम्मि जंगुणारोवणं पढमा॥ अक्खय-वराडओ वा अमुगो एसो त्ति णिययबुद्धीए।
संकप्पिरूण वयणं एसा विइया असब्भावा॥ जिन भगवान ने सद्भाव और असद्भाव स्थापना ऐसी दो प्रकार की स्थापना पूजा कही है। आकारवान् वस्तु में जो अरहंत आदि के गुणों का आरोपण किया जाता है, पहली सद्भाव स्थापना पूजा है और अक्षत, वराटक आदि में अपनी बुद्धि से यह अमुक देवता है ऐसा संकल्प करके उच्चारण करना, उसे दूसरी अर्थात् असद्भाव स्थापना जानना चाहिए तथा इस पंचम काल में दूसरी असद्भावस्थापना का निषेध बतलाते हुए लिखा कि इससे कुलिंग मतियों से मोहित इस लोक में संदेह हो सकता है। तत्पश्चात् आचार्य ने सद्भावस्थापना पूजा में कारापरक (प्रतिमा) का लक्षण', इन्द्र का लक्षण, प्रतिमा विधान , प्रतिष्ठा विधान, का विस्तृत विवेचन किया है। द्रव्य पूजा
दव्वेण य दव्वस्स य जा पूजा जाण दव्व पूजा सा। दव्वेण गंधसलिलाइपुव्वभणिएण कायव्वा।
अर्थात् जलादि द्रव्य से प्रतिमादि द्रव्य की जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्य पूजा जानना चाहिए। वह जल गन्ध आदि पदार्थ समूह से (पूजन सामग्री) करनी चाहिए। तथा वह द्रव्य पूजा सचित, अचित और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की होती है। प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान और गुरु आदि का यथायोग्य पूजन करना सचित पूजा है, जिन तीर्थकर आदि के शरीर की और द्रव्य श्रुत अर्थात् कागज आदि पर लिखकर जो शास्त्र की पूजा की जाती है, वह अचित पूजा है और जो दोनों का पूजन किया जाता है, उसे मिश्र पूजा जानना चाहिए। तथा 'आगमद्रव्य, नो आगमद्रव्य आदि के भेद से अनेक प्रकार के द्रव्यनिक्षेप को जानकर शास्त्र प्रतिपादित मार्ग से द्रव्यपूजा करना चाहिए।" क्षेत्र पूजा जिणजम्मणणिक्खमणे णाणुप्पत्तीए तित्थचिण्हेसु। णिसिहीसु खेत्तपूया पूव्वविहाणेण कायव्वा।।
अर्थात् जिन भगवान की जन्म कल्याणकभूमि, निष्क्रमणकल्याणकभूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिस्थान, तीर्थचिह्न, स्थान और निषीधिका अर्थात् निर्वाण भूमियों में विधानपूर्वक क्षेत्रपूजा करनी चाहिए अर्थात् वह क्षेत्रपूजा कहलाती है। काल पूजा
'कालपूजा का वर्णन करते हुए आचार्य लिखते हैं कि -जिस दिन तीर्थंकरों के
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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009 गर्भावतार जन्माभिषेक, निष्क्रमणकल्याणक, ज्ञानकल्याण और निर्वाण कल्याणक हुए हैं उस दिन इक्षुरस, घृत, दधि, क्षीर गन्ध और जल से परिपूर्ण विविध अर्थात् अनेक प्रकार के कलशों से, जिन भगवान का अभिषेक करें तथा संगीत, नाटक आदि के द्वारा जिन गुणगान करते हुए रात्रि-जागरण करना चाहिए। इसी प्रकार नन्दीश्वर पर्व के आठ दिनों में तथा अन्य भी उचित पर्वो में जो जिन महिमा की जाती है, उसे कालपूजा जानना चाहिए। भाव पूजा
भाव पूजा का वर्णन करते हुए आचार्य लिखते हैं कि- परमभक्तिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान के अनन्तचतुष्टय आदि गुणों का कीर्तन करके जो तीनों कालों में वन्दना की जाती है, उसे निश्चय से भावपूजा जानना चाहिए। अथवा पञ्च णमोकार पदों के द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार जाप करें। अथवा जिनेन्द्र के स्तोत्र अर्थात् गुणगान करने को भावपूजन जानना चाहिए। अथवा पिण्डस्थ, पदस्थ, रुपस्थ और रूपातीत रूप जो चार प्रकार का ध्यान किया जाता है, उसे भी भावपूजा कहा गया है। तत्पश्चात् आचार्य ने क्रमशः पिण्डस्थ ध्यान का वर्णन", पदस्थ ध्यान का वर्णन", रूपस्थ ध्यान का वर्णन और रूपातीत ध्यान का वर्णन" किया। और अन्त में लिखा कि यह छह प्रकार की पूजा धर्मानुरागरक्त सर्वदेशव्रती श्रावकों को यथायोग्य नित्य ही करनी चाहिए। पूजा के फल
पूजा के फल का उल्लेख करते हुए में आचार्य लिखते हैं कि- 'ग्यारह अंग का धारक, देवों में सर्वश्रेष्ठ इन्द्र भी सहस्त्र जिह्वाओं से पूजा के समस्त फल का वर्णन करने के लिए समर्थ नहीं है, तब मैं अपनी शक्ति के अनुसार थोड़े से वचन द्वारा कहूँगा, जिससे कि सभी भव्य जन धर्मानुराग में अनुरक्त हो जावें। तत्पश्चात् आचार्य पूजा के फल का विस्तृत वर्णन करते हुए कहते हैं कि
कुत्थंभरिदलभेत्ते जिणभवणे जो ठवेइ जिणपडिमं। सरिसवमेत्तं पि लहेइ सो णरो तित्थयरपुण्णं॥ जो पुण जिणिंदभवणं समुण्णयं परिहितोरणसमग्गं। णिम्मावइ तस्स फलं को सक्कई वण्णिउं सयलं।"
अर्थात् जो मनुष्य कुंथुम्भरी (धनिया) के पत्र बराबर जिनभवन बनवाकर उसमें सरसों के दाने के बरारबर भी जिन प्रतिमा का स्थापन करता है, वह तीर्थकर पद पद पाने के योग्य पुण्य को प्राप्त करता है, तब जो कोई अति उन्नत और परिधि, तोरण आदि से संयुक्त जिनेन्द्र भवन बनवाता है, उसके समस्त फल का वर्णन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है। ___'पूजन के समय नियम से जिन भगवान के समक्ष जलधारा को छोड़ने से पाप रूपी मैल का संशोधन होता है तथा चन्दन रस के लेप से मनुष्य सौभाग्य से संपन्न होता है। अक्षतों से पूजा करने वाला मनुष्य अक्षय नौ निधि और चौदह रत्नों का स्वामी चक्रवर्ती होता है, सदा अक्षोभ अर्थात् रोग-शोक रहित निर्भय रहता है, अक्षीण लब्धि से संपन्न होता है और अन्त में अक्षय मोक्ष सख को प्राप्त होता है।'
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'पुष्पों से पूजा करने वाला मनुष्य कमल के समान सुन्दर मुखवाला, तरुणीजनों के नयनों से और पुष्पों की उत्तम मालाओं के समूह से समर्चित देह वाला कामदेव होता है। ___'नैवेद्य से पूजा करने वाला मनुष्य, सद्भावों के योग से उत्पन्न हुए केवल ज्ञानरूपी प्रदीप के तेज से समस्त जीवद्रव्यादि तत्त्वों के रहस्य को प्रकाशित करने वाला अर्थात् केवल ज्ञानी होता है।'43 _ 'दीपों से पूजा करने वाला मनुष्य, सद्भावों से उत्पन्न हुए केवल ज्ञानरूपी प्रदीप के तेज से समस्त जीवद्रव्यादि तत्त्वों के रहस्य को प्रकाशित करने वाला अर्थात् केवल ज्ञानी होता है। ___ 'धूप से पूजा करने वाला मनुष्य चन्द्रमा के समान धवल कीर्ति से जगत्य को धवल करने वाला अर्थात् त्रैलोक्यव्यापी यशवाला होता है। फलों से पूजा करने वाला मनुष्य परम निर्वाण के सुख रूप फल पाने वाला होता है।'45 ___'जिन मंदिर में घण्टा समर्पण करने वाला मनुष्य घण्टाओं के शब्दों से व्याप्त, श्रेष्ठ विमानों में सुर-समूह से सेवित होकर प्रवर अप्सराओं के मध्य में क्रीड़ा करता है।'46
'जिन मंदिर में छत्र प्रदान करने से मनुष्य शत्रुरहित होकर पृथिवी को एक छत्र भोगता है तथा चमरों के दान से चमरों के समूहों द्वारा परिवीजित किया जाता है, अर्थात् उसके ऊपर चमर ढोरे जाते हैं। 47 _ 'जिन भगवान के अभिषेक करने के फल से मनुष्य सुदर्शन मेरु के ऊपर क्षीरसागर के जल से सुरेन्द्र प्रमुख देवों के द्वारा भक्ति के साथ अभिषिक्त किया जाता है। 48 _ 'जिन मंदिर में विजय पताकाओं के देने से मनुष्य संग्राम के मध्य विजयी होता है। तथा षटखण्डररूप निष्प्रतिपक्ष स्वामी और यशस्वी होता है। 49 और अन्त में आचार्य लिखते हैं कि 'अधिक कहने से क्या लाभ है, तीनों ही लोकों में जो कुछ भी सुख है, वह सब पूजा के फल से प्रापत होता है, इसमें कोई संदेह नही है।'50 पूजा-विधि
उपलब्ध दिगम्बर जैन साहित्य मे पूजन विधि का अनुमानतः विस्तृत विवेचन करने वाले आचार्य सोमदेव प्रतीत होते हैं। आचार्य सोमदेव ने 'उपासकाध्ययन' में पूजा की विधि का विस्तार पूर्वक विवेचन किया है।
आचार्य सोमदेव के पश्चात् होने वाले ग्रंथकारों में आचार्य वसुनन्दि ने अपने श्रावकाचार में प्रतिष्ठा विधि का विवेचन किया है, किन्तु उतना नहीं जितना की आचार्य सोमदेव ने किया है।
पं. आशाधर ने संक्षेप में पूजा के क्रम को बतलाया है। पं. मेधावी ने आचार्य वसुनन्दि का अनुसरण किया है। आचार्य सोमदेव ने पूजकों के दो प्रकार किए है। यथा
द्वयेदवेसेवाधिकृता: संकल्पिताप्तपूज्यपरिग्रहाः कृतप्रतिमापरिग्रहाश्चा' अर्थात् (1) पुष्पादि में पूज्य का संकल्प करके पूजन करने वाला और (2) प्रतिमा का अवलम्बन लेकर पूजा करने वाला।
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___ आचार्य सोमदेव के द्वारा पूजक को फल, पत्र और पाषाण आदि की तरह अन्य धर्म की मूर्ति में सकल्प करने का निषेध किया गया है तथा लिखा है कि जैसे शुद्व कन्या में ही पत्नी आदि का संकल्प किया जाता है, दूसरे से विवाहित में नहीं, उसी प्रकार शुद्ध द्रव्य में ही पूज्य का संकल्प करना चाहिए, आकारान्तर को प्राप्त वस्तु में नहीं। यथा
संकल्पोऽपि दलफलोपलादिष्विव न समयान्तरप्रतिमासु विधेयः। यतः शुद्धे वस्तुनि संकल्पः कन्याजन इवोचितः। नाकारान्तरसंक्रान्ते यथा परपरिग्रहे।
आचार्य सोमदेव ने उक्त दोनों प्रकार के पूजकों के लिए पृथक्-2 पूजा विधि का वर्णन किया है। आचार्य वसुनन्दि ने आचार्य सोमदेव द्वारा निर्दिष्ट उक्त दोनों प्रकारों को सद्भाव स्थापना तथा उन सद्भावस्थापना नाम दिये हैं तथा साकार वस्तु (प्रतिमा) में अर्हन्त आदि के गुणों का आरोपण करने का सद्भाव स्थापना और अक्ष वराटक आदि में अपनी बुद्धि से 'यह अमुक देवता है' ऐसा संकल्प करने को असद्भाव स्थापना बतलाया
__ आचार्य वसुनन्दि ने वर्तमान काल में असद्भाव स्थापना का निषेध किया है। तथा लिखा है कि- हुण्डावसर्पिणी काल में दूसरी असद्भाव स्थापना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कुलिंग मति से मोहितों को इसमें सन्देह हो सकता है। यथा
हुंडावसप्पिणीए विइया ठवणा ण होदि कायव्वा। लोए कुलिंगमइमोहिए जयो होइ संदेहो।
संदर्भ :
1. वामन शिवराम आप्टे, संस्कृत हिन्दी कोश, पृ.628 2. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग-3, पृ.73 3. महापुराण सर्ग सं. 67, श्लो. सं. 193 4. महापुराण, सर्ग सं. 38, श्लो. सं. 26 5. वसुनन्दिकृत उवासयज्झयाणं, गाथा 381 6. भगवती आराधना 47/157/20 7. चारित्र प्राभृत, गाथा-6 8. आदि पुराण, श्लो., 24-25 9. पद्मनन्दि पंचविंशति, अधिकार सं. 6, श्लो. सं. 7 10, उपासकाध्ययन कल्प- 46, श्लो. 911 11. उपासकाध्ययनकल्प-35, श्लो. 481 12. अमितगति श्रावकाचार, बारहवाँ परिच्छेद, श्लो.12 13. पदमनन्दि पंचविंशति, अधिकार सं. 6, श्लो.14-15 14. पदमनन्दि पंचविंशति, अधिकार सं.6, श्लो. 16-17 15. पंचास्तिकाय, गाथा-166
16. प्रवचनसार, गाथा-1/69 17. पद्मचरित- 14/213
18. परमात्मप्रकाश, गाथा-168 19. वसुनन्दिकृत उवासयज्झयम गाथा 280-38120. वसुनन्दिकृत उवासयज्झयणं, गाथा-382 21. वसुनन्दिकृत उवासयज्झयणं, गाथा-383-384, 22. 385, 23. 387,
24. 388-389, 25.390-392
26393-447
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27.448
28. 449-450 29. 451
30. 452 31. 453-455
32. 456-463 33. 459-463
34. 464-471 35.472-475
36. 476 37.478
38. 479-480 39.481-482
40. 483 41. 484
42. 485 43. 486
44. 487 45. 488
46.489 47. 490
48. 491 49. 492
50.493 51. उपासकाध्ययन, कल्प-35, पृ. 217 52. उपासकाध्ययन, कल्प-35, श्लो. 481 53. वसुनन्दिकृत उवासयज्झयणं, गाथा 383-384 54. वसुनन्दिकृत उवासयज्झयणं, गाथा
___व्याख्याता -जैनदर्शनविभाग -श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ,
कटवारिया सराय, नई दिल्ली -16
वीर सेवा मंदिर की आम सभा एवं नई कार्यकारिणी
सदस्यों एवं पदाधिकारीयों का मनोनयन दिनांक 12 जुलाई 2009 को आम सभा में चुनाव अधिकारी श्री सुमत प्रसाद जैन ने निर्विरोध मनोनीत कार्यकारिणी समिति के 21 सदस्यों की घोषणा की। सभा में उपस्थित सभी सदस्यों ने करतल ध्वनि से स्वागत किया। मनोनीत सदस्यों की प्रथम बैठक दिनांक 25 अक्टूबर 2009 में पदाधिकारीयों का सर्वसम्मति से मनोनयन किया गयाअध्यक्ष- श्री सुभाष चंद जैन, उपाध्यक्ष- श्री भारत भूषण जैन व श्री सुरेन्द्र पाल जैन, महामंत्री- श्री विनोद कुमार जैन, मंत्री - श्री योगेश जैन व श्री दिनेश जैन एवं कोषाध्यक्ष - श्री वीरेन्द्र कुमार जैन तथा कार्यकारिणी समिति सदस्य के रूप में श्री रुपचंद कटारिया, श्री धनपाल सिंह जैन, श्री मदन लाल जैन, श्री जगदीश प्रसाद जैन, श्री श्रीकिशोर जैन, श्री अनिल कुमार जैन, श्री चक्रेश जैन, श्री विजयेन्द्र जैन, श्री प्रताप जैन, श्री पवन कुमार जैन, श्री प्रवीण कुमार जैन, श्री धर्मभूषण जैन, श्री सुनील कुमार जैन, श्री राज जैन।
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जैन दर्शन में काल की अवधारणा
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- डॉ. सुदर्शन मिश्र
"
'काल' शब्द का प्राचीनतम उल्लेख हमें ऋग्वेद में उपलब्ध होता है, जिसका अर्थ वैदिक विद्वान अधमर्षण ने संवत्सर किया है। अथर्ववेद में काल को नित्य पदार्थ स्वीकार किया गया है और उससे प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति मानी गयी है। उपनिषदों में भी 'काल' शब्द विविध अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। महाभारत में 'काल' शब्द को दिष्ट, देव, हठ, भव्य, भवितव्य, विहित मागधेय आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया गया है। योग सांख्य आदि दर्शन काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं मानते पातंजल योगसूत्र में भी काल की वास्तविक सत्ता नहीं मानी गई है। काल वस्तुगत सत्य नहीं है। बुद्धिनिर्मित तथा शब्दज्ञानानुपाती है। व्युत्थितदृष्टिवाले व्यक्तियों को वस्तु स्वरूप की तरह अवभासित होता है। शंकर, रामानुज, निम्बार्क, माध्व और बल्लभ संप्रदाय ने भी काल को वास्तविक पदार्थ नहीं माना है। बौद्ध दर्शन के अनुसार 'काल' व्यवहार के लिए कल्पित संज्ञा है । "
आधुनिक विज्ञान भी काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं मान रहा है उसके अनुसार काल subjective है Stephen Howking के शब्दों में आधुनिक विज्ञान सम्मत काल की अवधारणा को हम समझ सकते हैं- "Our views of nature of time have changed over the years. Up to the begining of this century people belived in a absolute time. That is each event could he labeled by a number called "time" in a unique way, and all good clocks would agree on the time interval between time events. However, the discovery that the speed of light appeared the same to every observer, no matter how he was moving, led to the theory of relativity- and in that one had to abandon the idea that there was a unique absloute time. Instead, each observer would have his own measure of time as recorded by a clock that he carried. Clocks carried by different observers would ot necessarily agree. Thus time become a more personal concept relative to the oberver who measured it."7
नैयायिक और वैशेषिक काल को सर्वव्यापी स्वतंत्र और अखण्ड द्रव्य मानते हैं। कुछ पाश्चात्य विद्वान भी काल के संबन्ध में दोनों सिद्धांतों को मानते हैं। "
जैन परंपरा में काल के संदर्भ में दो अवधारणाएँ प्राप्त हैं- प्रथम अवधारणा के अनुसार काल स्वतंत्र द्रव्य नहीं है, वह जीव और अजीव की पर्याय मात्र है। इस मान्यता के अनुसार जीव एवं अजीव द्रव्य के परिणम को ही उपचार से काल माना जाता है। वस्तुत: जीव और अजीव ही काल द्रव्य हैं। काल की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। दूसरी अवधारणा के अनुसार काल स्वतंत्र द्रव्य है। अद्धासमय के रूप में उसका पृथक् उल्लेख है । " यद्यपि
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अनेकान्त 62/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2009 काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने वालों ने भी उसको अस्तिकाय नहीं माना है। सर्वत्र धर्म-अधर्म आदि पाँच अस्तिकायों का ही उल्लेख प्राप्त होता है ।"
,
श्वेताम्बर परंपरा में काल की दोनों प्रकार की अवधारणाओं का उल्लेख है, किन्तु दिगम्बर परंपरा में काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने वाली अवधारणा का ही उल्लेख है । यद्यपि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परंपराओं में काल को स्वतंत्र द्रव्य माना गया है। किन्तु काल के स्वरूप के संबन्ध में उनमें परस्पर भिन्नता है। श्वेताम्बर परंपरा काल को अणु नहीं मानती तथा व्यावहारिक काल को समय क्षेत्रवर्ती तथा नैश्चयिक काल को लोक- अलोक प्रमाण मानती है। दिगम्बर परंपरा के अनुसार 'काल' लोक व्यापी और अणु रूप है। कालाणु असंख्य है, लोकाकाश के प्रत्यक प्रदेश पर एक- एक कालाणु स्थित है।"
आचार्य महाप्रज्ञ इन दोनों अवधारणाओं की संगति अनेकान्त के आधार पर बैठाते हुए लिखते हैं- "काल छह द्रव्यों में एक द्रव्य भी है और जीव-अजीव की पर्याय भी है। ये दोनों कथन सापेक्ष हैं, विरोधी नहीं। निश्चय दृष्टि में काल जीव- अजीव की पर्याय है और व्यवहार दृष्टि में वह द्रव्य है। उसे द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है। वह परिणमन का हेतु है, यही उसका उपकार है, इसी कारण वह द्रव्य माना जाता है। "
काल द्रव्य दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परंपराओं के अनुसार अस्तिकाय नही है । श्वेताम्बर परंपरा की दृष्टि से औपचारिक और दिगम्बर परंपरा की दृष्टि से वास्तविक काल के उपकार या लिंग पाँच हैं- 'वर्तमानपरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य 5 अर्थात् वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व- ये काल द्रव्य के कार्य हे ।। वर्तना शब्द के दो अर्थ हैं- वर्तन करना तथा वर्तन कराना। प्रथम अर्थ काल के संबन्ध में तथा द्वितीय अर्थ बाकी द्रव्यों के संबन्ध में घटित होता है। तात्पर्य यह है कि काल स्वयं परिवर्तन करता है तथा अन्य द्रव्यों के परिवर्तन में भी सहकारी होता है। जैसे कुम्हार का चाक स्वयं परिवर्तनशील होता है तथा अन्य मिट्टी आदि को भी परिवर्तन कराता है, उसी प्रकार क भी है। संसार की प्रत्येक वस्तु उत्पाद व्यय ध्रोव्यात्मक होने से परिवर्तनशील है, काल उस परिवर्तन में निमित्त है। काल परिणाम भी कराता है। एक देश के दूसरे देश में प्राप्ति हेतु हलन-चलन रूप व्यापार क्रिया है। परत्व का अर्थ उम्र में बड़ा और अपरत्व का अर्थ उम्र में छोटा है- ये सभी कार्य भी काल द्रव्य के हैं। नयापन पुरानापन आदि भी कालकृत ही हैं। "
परिवर्तन का जो कारण है, उसे ही काल कहते हैं। काल की व्याख्या दो दृष्टियों से की जा सकती है। द्रव्य का स्वजाति के परित्याग के बिना वैनासिक और प्रायोगिक विकार रूप परिणाम व्यवहार दृष्टि से काल को सिद्ध करता है। प्रत्येक द्रव्य परिवर्तित होता रहता है। परिवर्तनों के होते हुए भी उसकी जाति का कभी विनाश नहीं होता। इस प्रकार के परिवर्तन परिणाम कहे जाते हैं। इन परिणामों का जो कारण है, वह काल है। यह व्यवहार दृष्टि से काल की व्याख्या हैं। प्रत्येक द्रव्य और पर्याय की प्रतिक्षणभावी स्वसत्तानुभूति वर्तना है।" इस वर्तना का कारण काल है। यह काल की पारिमार्थिक व्याख्या है। प्रत्ये
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द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक वृत्तिवाला है। यह वृत्ति प्रतिक्षण रहती है। कोई भी क्षण इस वृत्ति के बिना नहीं रह सकता। यही पारमार्थिक काल का कार्य है। काल का अर्थ है परिवर्तन। परिवर्तन को समझने के लिए अन्वय का ज्ञाना होना आवश्यक है। अनेक परिवर्तनों में एक प्रकार का अन्वय रहता है। इसी अन्वय के आधार पर यह जाना जा सकता है कि उस वस्तु में परिवर्तन हुआ। यदि अन्वय न हो तो क्या परिवर्तन हुआ, किसमें परिवर्तन हुआ- इसका जरा भी ज्ञान नहीं हो सकता। स्वजाति का त्याग किये बिना विविध प्रकार के परिवर्तन होना काल का कार्य है। इसी काल के आधार पर हम घंटा, मिनट, सेकेण्ड आदि विभाग करते हैं। यह व्यवहारिक काल है। पारमार्थिक या निश्चय दृष्टि से प्रत्यक पदार्थ का क्षणिकत्व काल का द्योतक हैं। यह व्यवहारिक काल है। पारमार्थिक या निश्चय दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ का क्षणिकत्व काल का द्योतक है। क्षण-क्षण में पदार्थ में परिवर्तन होता रहता है। यह परिवर्तन बौद्ध परिवर्तन की तरह ऐकान्तिक न होकर ध्रौव्ययुक्त
काल अरूपी और अजीव द्रव्य है। काल अनन्त है। दिन, रात, मास, ऋतु, वर्ष आदि उसके भेद हैं। ये समस्त भेद काल के कारण ही होते हैं। काल न होता तो ये भेद भी नहीं होते। जीव और पुद्गल में समय-समय पर जीर्णता उत्पन्न होती है, वह काल द्रव्य की सहायता के बिना नहीं हो सकती। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप स्वभाव से युक्त जीव और 'पुद्गल का जो परिणमन दिखाई देता है, उससे काल द्रव्य सिद्ध होता है।
काल द्रव्य पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्शों से रहित है। हानि- वृद्धिरूप है, अगुरुलघु गुणों से युक्त है, अमूर्त है, और वर्तना लक्षण सहित है।
दिगम्बर परम्परानुसार काल निश्चय और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है। श्वेताम्बर परंपरानुसार काल चार प्रकार है- प्रमाणकाल, यथायुर्निवृत्ति काल, मरणकाल और अद्धाकाल। काल के द्वारा पदार्थ मापे जाते हैं इसलिए उसे प्रमाणकाल कहा जाता है। जीवन और मृत्यु भी काल सापेक्ष है इसलिए जीवन के अवस्थान को यथायुर्निवृत्तिकाल और उसके अन्त को मरणकाल कहा जाता है। सूर्य, चन्द्र आदि की गति से संबन्ध रखने वाला अद्धाकाल कहलाता है। वह मनुष्य लोक में ही होता है। इसीलिए मनुष्य लोक को समय क्षेत्र कहा जाता है। निश्चय काल जीव-अजीव का पर्याय है। वह लोक-अलोक व्यापी है उसके विभाग नहीं होतो। समय से लेकर पुद्गल परावर्त तक के जितने विभाग हैं वे सब अद्धाकाल के हैं। इसका सर्वसूक्ष्म भाग समय कहलाता है। जो अविभाज्य होता है। इसकी प्ररुपणा कमलपत्र- भेद और वस्त्र विदारण के द्वारा की जाती है। मन्दगति से एक पुद्गल परमाणु को लोकाकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जाने में जितना समय लगता है उसे एक 'समय' कहते हैं। इस दृष्टि से जैनधर्म की समय की अवधारणा आधुनिक विज्ञान के बहुत समीप है। 1968 की परिभाषा के अनुसार सीजियम धातु नं. 133 के परमाणुओं के 9192631776 कम्पन की निश्चित अवधि कुछ विशेष परिस्थितियों में एक सेकण्ड के बराबर होती है।
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अन्ततः निष्कर्ष स्वरूप श्रमणी मंगलप्रज्ञा के शब्दों में कह सकते हैं कि काल के स्वरूप के संबन्ध में विभिन्न मतभेद हो सकते हैं किंतु व्यावहारिक जगत् में उसकी उपयोगिता निर्विवाद है। इसी उपयोगिता के कारण काल को द्रव्य की कोटि में परिगणित किया गया है। 'उपकारकं द्रव्यम्' जो उपकार करता है वह द्रव्य है। काल का उपकार भी प्रत्यक्ष सिद्ध है अतः काल की स्वीकृति आवश्यक है। कालवादी दार्शनिक तो मात्र काल को ही विश्व का नियामक तत्त्व स्वीकार करते हैं। 25 इतना न भी माने तो भी विश्व - व्यवस्था का एक अनिवार्य घटक तत्त्व तो काल को मानना ही होगा।
संदर्भ:
82
ऋग्वेद- 10.190. वृहदारण्यक 4.4.16, मैत्रायण 6.15
जैन दर्शन के नव तत्व
5.
पातंजलयोगदर्शनम् 3/52
6. जैन दर्शन के नव तत्व, पृ. 81
1.
3.
4.
2. अथर्ववेद 18 /53,54
डॉ. धर्मशीला, पृ. 81
जैन आगम में दर्शन समणी मंगलप्रज्ञा, पृ. 135 पर उद्धृत
7. Howking, stephen- A Brief History of Time p.14
8. जैन दर्शन के नव तत्व- डॉ. धर्मशीला, पृ. 81-82
9. समयाति वा, अवलियाति वा, जीवाति वा, अ जीवाति वा
2
-
10. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 13/61-71
12.
11. वही, 2/124 वही, 5/248 13. लोगागासपदे से एक्केक्क जेठिया हु ऐक्केक्का ।
रयणाणं इव, ते कालाणु असंखदव्वाणि ।। द्रव्य संग्रह 22
14. उत्तरज्झयणाणि- 28/10 का टिप्पण, पृ. 148 15. तत्त्वार्थसूत्र 5/22 16. जैन दर्शन में द्रव्य- डॉ. कपूर चन्द जैन, पृ. 30-31 17. तत्त्वार्थराजवार्तिक 5.22.10 18. तत्त्वार्थराजवार्तिक- 5.22.4 19. जैन धर्म दर्शन डॉ. मोहन लाल मेहता, पृ. 219-20 20. कुन्दकुन्दाचार्य - पंचास्तिकाय गाथा, 23, पृ. 48
21. कुन्दकुन्दाचार्य - पंचास्तिकाय गाथा 24 पृ. 50
22. जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ. 196
कालः पचति भूतानि कालः संरहति प्रजाः ।
कालः सुप्तेषु जागर्ति काल हिमा
ठाणं 2/387
23. द्रष्टव्य, नवनीत, भारतीय विद्याभवन, बम्बई, जून 1980 पृ.106
24. जैन आगम में दर्शन, पृ. 140 25. षड्दर्शनसमुच्चय पृ.16
-प्रधानाचार्य बी.एस.एस. कॉलेज, बचरी पीरो भोजपुर (बिहार)
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“अहिंसा के सिद्धांतों द्वारा सामाजिक एवं अन्य समस्याओं का निदान"
-डॉ. श्रीमती कृष्णा जैन अहिंसा मानसिक पवित्रता का नाम है। उसके व्यापक क्षेत्र में सत्य, अचौर्य, बह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सभी सद्गुण समा जाते हैं। इसीलिए अहिंसा को “परम-धर्म" कहा गया है। संसार में जल-थल और आकाश सर्वत्र सूक्ष्म-जीव भरे हुए हैं, इसलिए बाह्य आचरण में पूर्ण अहिंसक होकर संभव नहीं है। परन्तु यदि अन्तरंग में समता हो और बाहर की प्रवृत्तियाँ प्रमाद-रहित, यत्नाचार पूर्वक नियंत्रित कर ली जायें, तो बाह्य में सूक्ष्म जीवों का घात होते हुए भी साधक अपनी आन्तरिक पवित्रता के बल पर अहिंसक बना रह सकता है।
संकल्पात कृतकारितमननाद्योगत्रयस्य चरसत्वान्। न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूलवधाद्विरमणं निपुणः॥
अर्थात् मन, वचन, काय के संकल्प से और कृत, कारित, अनुमोदना से त्रस जीवों की जो नहीं हनता, उस क्रिया को गणधरादिक निपुण पुरुष स्थूल हिंसा से विरक्त होना अर्थात् अहिंसाणुव्रत कहते हैं।
अहिंसा का क्षेत्र इतना संकुचित नहीं है जितना लोक में समझा जाता है। अहिंसा का आचरण भीतर और बाहर दोनों ओर होता है। अन्तरंग में चित्त का स्थित रहना अहिंसा है। जीव का अपने साम्य भाव में संलग्न रहना अहिंसा है। क्रोध-मान-माया-लोभ से रहित पवित्र विचार और संकल्प ही अहिंसा है। अंतरंग में ऐसी आंशिक साम्यता लाये बिना अहिंसा की कल्पना नहीं की जा सकती है। । अहिंसा केवल एक व्रत नहीं है। अहिंसा एक विचार, एक समग्र-चिंतन है। अहिंसा किसी मंदिर में, या किसी तीर्थ पर जाकर सुबह-शाम संपन्न किया जाने वाला कोई अनुष्ठान नहीं है। वह आठों-याम चरितार्थ किया जाने वाला एक संपूर्ण जीवन-दर्शन है। वह संसार के सभी धर्मों का मूल है।
जैनाचार्यों ने अहिंसा को परम-धर्म और हिंसा को सबसे बड़ा पाप माना है। उन्होंने स्थापित किया है कि झूठ-चोरी-कुशील और परिग्रह आदि बड़े पाप हिंसा रूप हैं। इसीलिए उन्होंने अहिंसा को साध्य तथा सत्य-अचौर्य-ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि शेष व्रतों को उसका साधक माना है। उन्होंने आन्तरिक अहिंसा को “निश्चय-अहिंसा" और बाह्य आचरण में पलने वाली अहिंसा को "व्यवहार-अहिंसा" कहा है।
तत्र अहिंसा व्रतमादौ क्रियतेप्रधानत्वात्। सत्यादीनि हि तत्पारिपालनार्थदीनि सस्यस्य वृत्तिपरिक्षेपवत्।
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अर्थात् इन पाँच व्रतों में अहिंसा व्रत को (सूत्रकार ने) प्रारंभ में रखा है, क्योंकि वह सब में मुख्य है। धान्य के खेत के लिए जैसे उसके चारों ओर काँटों का घेरा होता है उसी प्रकार सत्यादिक सभी व्रत उसकी रक्षा के लिए हैं।
अहिंसा अनन्त काल तक मानव मन को प्रकाशित करती रहेगी। वह उधार के तल से जलाया गया दीपक नहीं है, जो घड़ी भर में बुझ जाये। अहिंसा तो एक आंतरिक प्रकाश है। उसे कभी बुझाया नहीं जा सकेगा। भावनाओं को भड़का कर इन्सान को कुछ समय के लिए शैतान बनाया जा सकता है, पर उसे हमेशा शैतान रखा नहीं जा सकता। हिंसा पर अहिंसा की विजय का यही सबसे बड़ा प्रमाण है।
अहिसां जैन धर्म का प्राण है इसलिये जैन आगम में अहिंसा की प्रेरणा के लिये और हिंसा के निषेध के लिए, बहुत लिखा गया है। लगभग एक हजार वर्ष पूर्व अमृतचन्द्र स्वामी प्रसिद्ध दिगम्बर आचार्य हुए हैं। उन्होंने अनेक शास्त्रों की रचना की। हिंसा और अहिंसा की परिभाषा केलिए उन्होंने एक स्वतंत्र-ग्रंथ का नाम रखा "पुरुषार्थ-सिद्धि-उपाय"।
अमृतचन्द्र स्वामी ने इस ग्रंथ में हिंसा और अहिंसा का इतना सूक्ष्म विश्लेषण किया है कि बाद के आचार्यों ने उनके विषय में यह स्वीकार किया कि- "हिंसा-अहिंसा के विषय में आगम में जहाँ भी, जो कुछ भी उपलब्ध है, वह बीज रूप से "पुरुषार्थ-सिद्धि-उपाय" में अवश्य है। जो इस ग्रंथ में नहीं है वह अन्यत्र कहीं नहीं है।
आत्मपरिणामहिंसनं हेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत्। अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय।।'
अर्थात् आत्म परिणामों का हनन करने से असत्यादि सब हिंसा ही हैं। असत्य वचन आदि ग्रहण तो केवल शिष्य जनों को उस हिंसा का बोध कराने मात्र के लिए है।
जैन मत में हिंसा पर दो पक्षों से विचार किया गया है। एक बाह्य पक्ष है। जैन दर्शन की दार्शनिक शब्दावली में इसे द्रव्य हिंसा कहा गया है। यह पूर्ण रूप में बाह्य घटना है, जिसको प्राणि-पात, प्राणि वध, प्राण हनन आदि नाम से भी जाना जाता है। जैन मत में आत्मा को सापेक्ष रूप में नित्य माना है। अत: उनके अनुसार हिंसा से प्राणों का हनन होता है, आत्मा का नहीं। जैन मत के अनुसार प्राण दस माने गए हैं- पांच इन्द्रियों की शक्ति, मन, वाणी व शरीर का त्रिविध बल, श्वसनक्रिया एवं आयुष्य। इन प्राण शक्तियों का वियोजन ही द्रव्य-दृष्टि से हिंसा है। इस प्रकार प्राण-शक्तियों का हनन करना या उनमें अलगाव उत्पन्न करना ही द्रव्य हिंसा है।
दूसरी आन्तरिक हिंसा है, जिसे जैन शब्दावली में भाव-हिंसा कहा गया है। यह मनुष्य की मानसिक स्थिति से उत्पन्न हिंसा है। आचार्य अमृतचन्द्र हिंसा के भावात्मक पक्ष पर बल देते हुए हिंसा या अहिंसा की परिभाषा करते हुए कहते हैं कि रागादि कषायों का अभाव अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना ही हिंसा है। यही जैन आगमों का सार है, हिंसा की पूर्ण परिभाषा सूत्र में मिलती है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार राग, द्वेष आदि प्रमादों से युक्त होकर किया जाने वाला प्राण वध हिंसा है।
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__आचारंग में अहिंसा को मनोवैज्ञानिक आधार देते हुए शाश्वत धर्म के रूप में स्वीकार किया गया है। अहिंसा को शाश्वत बताते हुए सूत्र कहता है- "सभी प्राणियों, में जिजीविषा प्रधान है। पुनः सभी को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है।" मनुष्य की इस सुख की चाह को ही जैन धर्म में अहिंसा का आधार बताया गा है।
जैन धर्म में मनोवैज्ञानिक सत्य के साथ-साथ अहिंसा का आधार बौद्धिक तुल्यताबोध को भी माना है। इसको मानते हुए कहा गया है कि जो अपनी पीड़ा को जान पाता है, वही तुल्यताबोध के आधार पर दूसरों की पीड़ा को भी समझ सकता है।
चित्त में क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों की उत्पत्ति ही हिंसा है। चित्त की निष्कषाय, निर्मल परिणति ही अहिंसा है। जीव जब राग-द्वेष-मोह रूप परिणामों से प्रेरित नहीं है तब प्राणों का व्यपरोपण हो जाने पर भी वह अहिंसक है और जब राग आदि कषायों से युक्त है तब किसी के प्राणों की विघात होने पर भी वह हिंसक है।
"हमारे पास कुछ करने के लिये मन, वाणी और शरीर, ये तीन साधन हैं। धर्म तो वही हो सकता है जो इन तीनों में बस जाये, इन तीनों को पवित्र करे। वास्तव में परमधर्म तो एक ही है, और वह है “अहिंसा"। अपने आप में एक परिपूर्ण जीवन-दर्शन है। मन का सारा सोच विचार, और मन के सारे संकल्प, अहिंसा पर आधारित होने चाहिए
और अहिंसा मय होने चाहिए। अतः चिन्तन के स्तर पर अहिंसा परम धर्म है। हमारे कृत्य भर नहीं, हमारे भाव भी अहिंसामय हो, यह अहिंसा की अनिवार्य शर्त है।"
जैनाचार्यों ने मन के माध्यम से होने वाले पापों को रोकने पर अपेक्षाकृत अधिक जोर दिया है उनकी मान्यता है कि मन के पाप रोके बिना वचन और तन के पाप नहीं रोके जा सकते हैं उन्होंने यह भी माना है कि जीव को अपनी करनी से जो कर्म बन्ध होता है उसमें फल देने वाली शक्तियां उसके मानसिक व्यापार के आधार पर ही उत्पन्न होती हैं।
अविधायापि हि हिंसा हिंसाफलभाजनं भवत्येकः। कृत्वाप्यपरो हिंसां हिंसफलभाजनं न स्यात्।।
अर्थात् निश्चय पर कोई जीव हिंसा को न करके भी हिंसा फल के भोग करने का पात्र नहीं होता है अर्थात् फल प्राप्ति परिणामों के अधीन है, बाह्य हिंसा के अधीन नहीं। इसी लिए कहा गया है
अहिंसालक्षणो धर्मः, सोऽपि जीवशुद्धभावं बिना न संभवति।'
अर्थात् धर्म अहिंसा लक्षण वाला है, और वह अहिंसा जीव के शुद्ध भावों के बिना संभव नहीं है।
इस चिंतन के आधार पर जैन संतों ने हिंसा को "भाव-हिंसा" और "द्रव्य-हिंसा" के रूप में दो प्रकार से कहा है। प्राणियों को पीड़ा पहुंचाने का, या उनके घात का विचार करना "भाव-हिंसा" है। प्राणियों का पीड़ा पहुंचाने वाली और उनका घात करने वाली क्रिया "द्रव्य-हिंसा" है। छहढाला में कहा गया है
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षटकाय जीव न हनन तैं
सब विध दरब-हिंसा टरी,
रागादि भाव निवारतैं
हिंसा न भावित अवतरी '
इससे एक तथ्य यह भी प्रगट होता है कि अपने मन की मलिनता के कारण हम ऐसे अनगिनत पापों का फल भोगते हैं, जो हमने कभी किये ही नहीं होते। केवल चित्त की चंचलता के कारण, और राग-द्वेष की तीव्रता के कारण, तरह-तरह के कुत्सित विचार हमारे मन में उठते रहते हैं। उनके दुखद परिणाम भोगने के लिये हम मजबूरर हैं।
हिंसायामविरमणं हिंसापरिणमनमपि भवति हिंसा ।
तस्मात्प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम्।'
अर्थात् हिंसा में विरक्त न होना हिंसा है और हिंसा रूप परिणमना भी हिंसा होती है। इसलिए प्रमाद के योग में निरंतर प्राण घात का सद्भाव है।
-
जैन दार्शनिकों ने अल्पतम हिंसा वाली जीवन पद्धति का आविष्कार किया है उन्होंने व्यावहारिक ढंग से वर्गीकरण करके हिंसा के चार भेद किये है:
1. संकल्पी - हिंसा
3. उद्योगी-हिंसा
2 आरम्भी-हिंसा
4. विरोधी हिंसा
अहिंसा से व्यक्ति का जीवन निष्पाप बनता है, और प्राणि - मात्र को अभय का आश्वासन मिलता है। इस अवस्था से प्रकृति के संतुलन को बनाये रखने से भी सहायता मिलती है पर्यावरण को संरक्षण मिलता है, इसलिये तो संतों ने मनुष्य के संयत आचरण को जीव मात्र के लिये कल्याणकारी कहा है।
अहिंसा का अर्थ कायरता नहीं है जीवन से पलायन भर अहिंसा का उद्देश्य नहीं है अहिंसा जीवन को व्यावहारिक और संतुलित बनाते हुए स्व और पर के घात से बचने का उपाय है। मानव में मानवता की प्रतिष्ठा का उपाय अहिंसा है।
अहिंसा में विश्वास रखने वालों को और पाप से बचने की अभिलाषा रखने वालों का पशु-वध ओर मांस भक्षण से बचना चाहिए। मांस-मछली, अण्डा और मदिरा, तामसिक आहार कहे गये हैं। इनके सेवन से आचरण में तामसिक वृत्तियों का ही प्रादुर्भाव होता रहता
है।
आज के परमाणविक युग में अहिंसा के बिना मानव जाति का अस्तित्व ही संभव नहीं जान पड़ता। स्वामी घनानंद द्वारा लिखित पुस्तक " श्री रामकृष्ण और उनके अनोखे संदेश " के प्राक्कथन में अर्नाल्ड टॉयनबी ने लिखा है- मानव इतिहास में आज के भयावह क्षणों में मानव के अस्तित्व की बचाए रखने का एक मात्र उपाय "अहिंसा" का सिद्धांत ही जान पड़ता है। अशोक, रामकृष्ण ओर गांधी के बहुमूल्य सुझावों का अनुपालन करके ही संसार को विनाश से बचा सकते हैं। प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री अलबर्ट आईन्सटीन ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था- गांधी ने भारत को जिस अहिंसा के द्वारा आजाद कराया
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था, उससे ही दुनिया में व्याप्त असंतोष और संघर्ष को समाप्त किया जा सकता है। ___महात्मा गांधी ने अहिंसा के सकारात्मक प्रयोग करके, रक्त-विहीन क्रांति के सहारे, अपने देश का स्वाधीन कराने का अनोखा काम, अभी हमारे सामने ही संपन्न किया है इसी प्रकार अनेक महापुरुषों ने हिंसा-रहित जीवन जी कर यह भी चरितार्थ कर दिया है कि अहिंसा अव्यवहारिक नहीं है। वह पूर्णतः व्यावहारिक जीवन पद्धति है। वह एक निष्पाप, निराकुल, संतुष्ट और अखण्ड जीवन जीने की कला है। अहिंसा में इतनी सामर्थ्य है कि वह विकास से दहकते हुए वित्त में समता और शान्ति के फूल खिला सकती है।
आज विश्व अन्यमनस्कता से ही सही, परंतु निराशा एवं घोर घुटन की ओर बढ़ता जा रहा है। ऐसे में आवश्यकता है-एक "खुले विश्व" की, जिसमें विज्ञान की प्रगति और अहिंसा का पुट हो। मानव जाति का अस्तित्व विज्ञान और अहिंसा के आपसी अनुपूरक सिद्धांत पर टिका ही है। बड़ी से बड़ी वैज्ञानिक गतिविधियाँ भी मनुष्य को मनुष्य माने बगैर संभव नहीं होती और यही मान्यता नैतिक मूल्यों को जन्म देती है इन्हीं नैतिक मूल्यों की संरक्षा एवं सुरक्षा हेतु हमें अहिंसा की आवश्यकता है।
जब तक मनुष्य अहिंसा को एक बुनियादी मानव मूल्य के रूप में स्वीकार नहीं कर लेता तब तक विनाशकारी संघर्ष और शोषण-दमन से कोई बचाव नहीं है। भारतीय परंपरा इस बात को पहचानती है कि सृष्टि की एकता की अनुभूति का प्रतिफलन सृष्टि मात्र के प्रति अहिंसा के व्यवहार में ही हो सकता है क्योंकि स्वार्थों की टकराहट भी तब घृणा
और प्रतिशोध को नहीं विकसित होने देगी जो हिंसा के प्रेरक कारण है। भारतीय परंपरा इस बात को पहचानती है कि अहिंसा ही सर्वोच्च धर्म, सर्वोच्च तप ओर सर्वोच्च सत्य है और इसी से बाकी सब गुणों का जन्म होता है।
सामाजिक व्यवस्था के केन्द्रीय आधार के रूप में अहिंसा को स्वीकार करने का अर्थ है एक शोषण विहीन समता मूलक समाज की स्थापना, जिसमें न केवल रंग, जाति, लिंग, भाषा, संप्रदाय और राजनीतिक-आर्थिक ताकत के आधार पर अन्य के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार न किया जा सके, बल्कि प्रत्येक मनुष्य की अंतर्निहित सर्जनात्मकता को अभिव्यक्ति के तमाम अवसर मिल सके। ___ अहिंसा भारतीय संस्कृति की बुनियाद है जिसकी अनुपस्थिति में न तो उसकी पहचान बनती है और न ही अस्मिता। जैन दृष्टि में अहिंसा सर्वोपरि है; वह परम धर्म है अर्थात् धर्मों का धर्म है इस संदर्भ में हमें यह भी जानना चाहिए कि अहिंसा का अर्थ हिंसा की सर्वथा संपूर्ण अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि उसके दबाव को व्यक्ति और समाज के जीवन में से क्रमशः घटाते जाना है।
हिसा आज अत्यन्त व्यवस्थित, संगठित, समन्वित और वाणिज्यिक मुद्रा में हमारे सामने है तथा उसमें न केवल युद्धों मे अपितु हमारे खानपान, रहन-सहन में भी खतरनाक घुसपेठ कर ली है, इसलिए हमारा कर्तव्य बनता है कि हम अहिंसा की शक्ति को रोजमर्रा के जीवन में प्रकट करें और हर बिन्दु पर क्रूरता, बर्बरता के दैत्य को पराजित करें।
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मांसाहार हिंसा की एक घिनौनी शक्ल है जिसने हमारे उपग्रह को एक "वधशाला उपग्रह" में तब्दील कर दिया है। हम कत्लखानों में निरीह पशुओं की ओर युद्धान्मादों में निर्दोष मनुष्यों की दिन दहाड़े हत्या कर रहे हैं। यह दुश्चिन्ता का विषय है- अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है।
हमें खुले शब्दों में हिंसा के दुष्परिणामों की जानकारी लोगों को देनी चाहिए और उन्हें बताना चाहिए कि अहिंसा के जिस स्वरूप की चर्चा आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने की थी उसके निहितार्थ क्या थे ? बताना चाहिए कि हम किस तरह प्राणिमात्र को सुखी और निर्विघ्न बनाकर अपने पर्यावरण को सुरक्षित रख सकते हैं।
सामाजिक क्षेत्र में अहिंसा का अर्थ था मनुष्यों तथा मनुष्योपयोगी पशु-पक्षियों को न मारना अर्थात् आंशिक अहिंसा थी और न मारने का लक्ष्य था-सामाजिक सुव्यवस्था का निर्माण तथा स्थायित्व।
आत्मा की स्वतंत्रता को स्वीकार कर लेने से अहिंसा को व्यापकता मिलती है। अहिंसा की भावना को समझने और बलवान बनाने के लिए आत्मा की समानता का सिद्धांत अत्यंत उपयोगी है भगवान महावीर ने कहा-प्राणी मात्र को आत्म तुल्य समझो।" हे पुरुष ! जिसे मारने की इच्छा करता है, जिस पर शासन करने की इच्छा करता है, जिसे अपने वश मे करने का विचार करता है- वह तेरे जैसा ही प्राणी है।"
सापेक्षता है तो शोषण नहीं होगा, अपराध नहीं होगा, युद्ध और हिंसा नहीं होगी। सापेक्ष चिंतन सामाजिक संबंधों की भूमिका में एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। मानवीय संबंधों में जो कटुता दिखाई दे रही है उसका हेतु निरपेक्ष दृष्टिकोण है। संकीर्ण राष्ट्रवाद और युद्ध भी निरपेक्ष दृष्टिकोण के परिणाम है। सापेक्षता के आधार पर संबंधों को व्यापक आयाम दिया जा सकता है। ___मैं रहूंगा या वह रहेगा, अहिंसा की परिधि में इस चिंतन को स्थान नहीं मिल सकता। मैं भी रहूंगा, वह भी रहेगा- इस प्रकार सहअस्तित्व की भाषा में सोचना अहिंसा का दर्शन है। आचार्य उमास्वामी का एक प्रसिद्ध सूक्त है-"परस्परोपग्रहो जीवानाम्।" परस्परता कीअनुभूति सह अस्तित्व के संबंध में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सूत्र है।
विकास की मात्र भौतिक अवधारणा का विकल्प अहिंसक व्यवस्था से ही संभव है। अहिंसक व्यवस्था में साधन-शुद्धि, व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा, उपभोग की सीमा, अर्जन के साथ विसर्जन तथा विलासिता की सामग्री के उत्पादन और आयात पर रोक ही व्यवस्था को ईमानदारी के साथ व्यक्ति तथा सरकार दोनों को पालन करना होगा इसके साथ साथ अहिंसक तकनीक की खोज, अहिंसक तरीकों से कलह शमन सहकार का अर्थशास्त्र तथा स्वदेशी को आवश्यक स्थान देना होगा। ___अहिंसक आर्थिक व्यवस्था के अन्दर ही अहिंसक समाज- व्यवस्था का स्वरुप छिपा होता है। जिस समाज में आर्थिक शोषण होता है वह समाज अहिंसक नहीं है अहिंसक समाज का आधार अशोषण है। अशोषण के लिए श्रम तथा स्वावलम्बन की चेतना और व्यवस्था का विकास, व्यवसाय में प्रामाणिकता तथा क्रूरता का वर्जन अनिवार्य है।
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अहिंसक समाज में कुछ विशेष प्रकार की हिंसा का सर्वथा वर्जन हो। उदाहरणार्थ-आक्रामक हिंसा, निरपराध व्यक्तियों की हत्या, भ्रूण हत्या, जातीय घृणा, छुआछुत आदि का व्यवस्थागत निषेध हो। इनको महिमा मंडित करने वाले पत्र व मीडिया पर भी नियंत्रण हो। साम्प्रदायिक अभिनिवेश, मादक वस्तुओं का सेवन तथा प्रत्यक्ष हिंसा को जन्म देनेवाली रूढ़ियों और कुरीतियों का वर्जन भी आवश्यक है। नई समाज व्यवस्था के अंतर्गत वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति का भी विकास करना चाहिए।
भगवान महावीर ने युद्ध के मूल पर प्रहार किया। वे समाज के मानवतावादी, शांतिवादी आंदोलनों के सिद्धांतों की अपेक्षा कहीं अधिक गहरे में गये। आधुनिक संदर्भो में यदि कहें तो उनका ध्यान प्रकृति के असंतुलन और पर्यावरण प्रदूषण तक गया । वे प्रकृति के किसी भी तत्त्व के साथ किसी भी प्रकार की छेड़-छाड़ को हिंसा मानते थे। इसलिए उन्होंने पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को भी सजीव माना। वनस्पति को तो वे जीव-युक्त मानते ही थे। उनका मानना था जो पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है वह अन्य जीवों की हिंसा का भागी भी बनता है। यह अवधारणा आज के वैज्ञानिक अवधारणा के बहुत निकट है। __ हमारा यह भी दायित्व है कि हम अहिंसा की शक्तियों को एकजुट करें। जब हिंसा और शस्त्र की शक्ति में विश्वास रखने वाले एक साथ बैठकर चिंतन कर सकते हैं तब क्या यह संभव नहीं है कि नैतिकता, संयम, अहिंसा और शांति में विश्वास रखने वाले एक साथ मिलकर शांति की संस्कृति के लिए कार्य करें। उच्छृखल हो रही अर्थ और राज्य शक्ति पर अंकुश के लिए अहिंसा की शक्ति का निर्माण आज की आवश्यकता ही नहीं अपरिहार्यता है। ___मनुष्य की चिर-प्रतीक्षित आकांक्षा है-शांति, जो उसे अस्तित्व, विकास एवं प्रगति के लिए भी आवश्यक है "जिस तरह युद्ध मानव- मस्तिष्क में जन्म लेते हैं शांति भी मानव मस्तिष्क से ही जन्म लेगी। "यूनेस्को की यह घोषणा स्पष्ट करती है कि हिंसा के प्रति प्रतिबद्धता घनी मारकाट, आणविक सर्वनाश, मानवीय एवं भौतिक संसाधनों का भारी अपव्यय, विषमतावादी अर्थव्यवस्था, मानवाधिकारों का उल्लंघन, हिंसक प्रतिशोध, हिंसा-प्रधान विज्ञान और प्रोद्यौगिकी, विप्लव, गृह-युद्ध, युद्ध, उपनिवेशवादी परंपराओं आदि को तो जन्म दे सकती है पर शांति को नहीं। “जिस जाति ने युद्ध का आविष्कार किया वही शांति का आविष्कार करने में सक्षम है।" सेबाइल घोषणा-पत्र का यह अंतिम वाक्य आत्मविश्लेषण को इंगित करता हुआ यह कहता है- अब यह समय आ गया है जब हमें अहिंसा सार्वभौम रूपांतरण की हमारी युगों पुरानी कल्पना को साकार रूप देने के प्रयत्नों को और भी गति देनी होगी तथा इसका प्रारंभ स्वयं से करना होगा।
कलह, वर्ग-संघर्ष, उग्रवाद, शस्त्रीकरण, सत्ता और संपत्ति का असमान वितरण- ये सब हिंसा के स्फुलिंग होते हुए भी हिंसा के मूल रूप से असीमित इच्छाएं, क्रोध, भय, घृणा, क्रूरता, मिथ्याभिमान, संग्रहवृत्ति आदि मानवीय संवेग ही हिंसा के लिए उत्तरदायी हैं। अनेकांत चिंतन, सापेक्ष दृष्टिकोण, सह-अस्तित्व, सहिष्णुता, जीवन के प्रति सम्मान, विसर्जन, साधन-शुद्धि-ये सब अहिंसा के स्फुलिंग है। इनके प्रशिक्षण और प्रयोग से शांति की अखण्ड लौ प्रज्वलित की जा सकती है।
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अहिंसा के प्रयोग द्वारा व्यक्ति का हृदय-परिवर्तन करना होगा। आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए और सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए विसर्जन उतना ही आवश्यक है जितना अर्जन। जब तक भौतिकता और आध्यात्मिकता का समन्वय नहीं होगा, शरीर, मन और चित्त का संतुलन नहीं होगा, विज्ञान का सारा विकास निरर्थक है। जब तक अहिंसा का सही अर्थ समझ में नहीं आयेगा, अहिंसा की अपार शक्ति का प्रयोग नहीं होगा; विश्व-शांति स्थापित करने में, सामाजिक न्याय दिलवाने में और वैयक्तिक आनंद करने में सफल नहीं हो सकते।
अहिंसा व्यक्ति के लिए न होकर समष्टि के लिए होती है। व्यक्तिगत रूप से तो हिंसा से व्यक्ति को प्रत्यक्ष लाभ मिलता ही है समाज का कल्याण तो अहिंसा से ही होता है। अहिंसा एक ऐसा हितकारी कर्त्तव्य है जिसका व्यक्ति और समाज दोनों ही समान रूप से अपने जीवन में आचरित कर सकते हैं। अहिंसा एक हितकारी आचरण है जो इसका पालन करेगा उसका अवश्य ही कल्याण होगा किंतु यह एक सामाजिक और सर्वहितकारी नियम भी है।
अहिंसा एक मनोभाव है मन में अहिंसा का भाव जब दृढ़ हो जाता है तो वह पुरुष अजातशत्रु हो जाता है। कोई भी प्राणी उससे द्वेष नहीं करता। शत्रु भी उसके सामने विनम्र हो जाते हैं यहाँ तक कि क्रूर सत्त्व सिंह व्याघ्र आदि भी अहिंसा प्रेमी व्यक्ति के निकट आकर बैर भाव भूल जाते हैं।
अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ बैरत्यागः।
अहिंसक जीवन शैली का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है-सुविधावादी जीवन शैली में परिवर्तन। जब तक इच्छा का संयम नहीं होता, जीवन शैली में संयम को प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी, तब तक अहिंसा की बात का सार्थक परिणाम नहीं आ सकेगा।
अहिंसा केवल मोक्ष तक पहुँचने का ही सोपान नहीं है अपितु यह तो दैनन्दिनी जीवन में आने वाला वह दिव्य रसायन है जो प्रतिक्षण जीवन को पुष्ट उन्नत और उत्कृष्ट बनाता है। अहिंसा का पालन करने वाले को इसका दिव्य फल प्राप्त होता ही है किन्तु इससे अधिक उसके परिवेश में रहने वाले को उसका लाभ मिलता है।
इस विवेचनों से यही निष्कर्ष निकलता है कि हमें एक ऐसे विश्व के निर्माण की दिशा में काम करना चाहिए जिसका आधार विज्ञान के साथ अहिंसा भी हो इस कार्य में कठिनाई तो अवश्य है परंतु मानवमात्र के अस्तित्व की सुरक्षा एवं संघर्षों से बचने के लिए दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है। निश्चित रूप से वह मार्ग हमें शांति और समृद्धि की ओर ले जाएगा। संदर्भ:
1. र. क. श्रा. 53/स. सि. 7/20/358/7 2. रा. वा. 7/20/1/54/6, सा. ध. 4/7 2. स. सि. 7/1/343/4/ रा. वा. 7/1/6/534/13. पु. सि. उ-42 4. पु. सि. उ-51 5. प. प्र. टी. 2/686. प. छहढाला 6/1 7. पु. सि. उ-48 8. योग सूत्र 2/35
- सहायक प्राध्यापिका
संस्कृत महारानी लक्ष्मीबाई शासकीय उत्कृष्ट महाविद्यालय, ग्वालियर (म.प्र.)
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Jaina Studies in Russia
- Natalia Zheleznova From the early beginning the Jaina Studies in Russia were very marginal and sporadical in comparison with Buddhist and Brahmanistic Studies. Only few Russian Indologists had got interest in Jainism and tried to make research work on this Indian tradition.
The Jaina Studies in Russia have started in the beginning of 20th century when some Russian Indologist had got interested in this old Indian religion and philosophy. The first publication containing information about Jainism was the article by Russian Indologist N.D. Mironow “Jainickija Zamytki” (Notes on Jain Studies) in Bulletin de 1 Academie Imperiale des Sciences de St.-Petersburg(1911). There years later a book "Nirvana and Salvation" (1914) written by Nikolay Gerasimov has devoted one chapter to the Jain doctrine of salvation was published!. Along with other different Indian teachings of Deliverance N. Gerasimov has explained the main principles of the tirthankaras' understanding of the doctrine of Liberation. This book was not based on text analyses of Jaina sources: The author had taken the whole information about Jainism from European of Jaina literature on Indian thought. Next publication was the article by Ivan.P.Minaev in the Journal of Ministry of Local Education named "Information about Jainas and Buddhists". Besides these three publication till the middle of the century there was no other information about Jain doctrine available in Russia.
During this time Jainism was included into the textbooks and notes for students as a small chapter among Indian traditions. There were also published some translations from English into Russian famous textbooks on History of Indian Philosophy written by Indian authors like Chatterji's and Datta's The Introduction to Indian Philosophy and S. Radhakrishnan's Indian Philosophy in which chapters on Jainism were included and which still nowadays are used by students for the studying Indian Philosophy.
In the middle of the 60-ties of 20 century was published N.R. Guseva's "Jainism"4. This book specially dedicated to Jain tradition was based on
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3 62/4, 3ter-fe-2009 author's personal experience of living in India. It told about history of Tirthankaras' Teaching, different schools and sects in Jainism and modern trends in this tradition. N.R. Guseva did not study any Indian Language (nor Sanskrit, nor Prakrit or even modern Hindi) and she did not refer to ancient Jain literature so her exposition of Jainism in the book depends on only her knowledge of European sources about this subject and her personal impressions. The book was oriented to the masses to give them main ideas about Mahavira's Doctrine in the context of modern situation in India.
In 70-ies the article written by V.S. Kostyuchenko devoted to the problems of Jain dialectics was published. Cosmological conceptions in Jainism and Jain cosmography was described in very detailed article Jaina Mythology by Olga Volkova in the Encyclopedia of World Mythology
Till recently only one Ph.D dissertation was devoted to Jain Studies in Russian. This was A.A. Terentiev's "Tatthartha-adhigama-sutra as an ancient source of the post-canonical Jainism". Together with the analyses of the main principals and notions of the Jain Doctrine A. Terentiev has translated Umasvati's treatise from Sanskrit into Russian. At that time besides this translation only few extracts from Haribhadra's Shaddarshana-samuccaya were translated into Russian
At the end of 20th century the situation has changed in some way. More serious research work on Jainism has been done. One book named “Philosophy of Jainism” by A.A. Terentiev and V.K.Shokhin 10 was published in which Jain Doctrine was explained according to the Umasvati's teaching of Tattvarth-sutra. Quite recently after this publication a small but useful dictionary “Hiduism. Jainism. Sikhism" was released 11. The reconstruction of Mahavira's teaching based on Pali Trupitaka was made by V.K.Shokhin in his “The first Philosophers of India"12.A.A. Terentiev has started as a Jain Scholar but after some time has changed his professional interest from Jainism to Tibetan Buddhism and nowadays deals only with this traditions.
At the end of the 90-ties Natalia Zheleznova has done her Ph.D. dissertation on Kundakunda's doctrine of salvation and from that time she is continuing research work on Jainism, mostly Digamber Philosophy. She has published the monograph which is dedicated to the investigation of texts belonging to one of the most famous and important Jain teacher Kundakunda (III-IV A.D.). The important part of the work is a commented
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translation of the 4 main Kundakunda's philosophical treatises from Prakrit and Sanskrit into Russian: Pravacanasara, Samayasara, Niyamasara and Pancastikayasara. Now she has finished second book devoted to Digambar Philosophy including translation from Prakrit and Sanskrit into Russian and some other Kundakund's work (as Barasa-anuvekkha, Rayana-sara and Attha-pahuda).Tattvatha-adhigama-sutra of Umasvati, Purushartha-siddhyaupaya of Umasvati, Purusharthsiddhyaupaya of Amritachandra Suri, Dravaya-samgraha of Nemichandra Siddhanta Chakravartin and Akalanka Bhatta's Svarupasamgraha. The importance of the subject of the present study is determined by the significant contribution made by the philosophical legacy of the above-mentioned Digambara thinkers to the formation of the Jaina doctrine, which has been repeatedly affirmed both by adherents of Jainism themselves and by scholarly authorities on Jaina Philosophy. The works by Umasvami ad Kundakunda are essentially the first systematized compendia of philosophical and religious thought in the history of Jainism. In the treatise by Amrtacandra Suri, we find the earliest detailed substantiation of the teaching on non-violence (ahimsa). The work by Nemichandra is a representative sample of Jaina Philosophical thought in its classical from. In the Jaina tradition itself, all the above mentioned thinkers are considered authoritative teachers and masters, as well as characteristic representatives of Digambara Jaina philosophy. Therefore, uncovering the place occupied by the Digambara tradition in the history of Jaina philosophy and the significant features of Jaina philosophical thought as a whole and to analyzing the specificity of the Digambara school itself, a task that is still being acutely faced by Russian Indology.
Morever, the present study is the first one in world Indology consistently to expose, with the works of the Digambara thinkers as materials, the general traits of the Jaina doctrine and to elucidate the peculiar features of the Digambara approach to describing the different structures and strata of reality, as well as to analyze the principal categories of the Jaina doctrine in the works of the above-mentioned authors. The author has considered it expedient to make a fresh Russian translation of the Tattvartha-adhigamasutra by Umasvami (it was translated for the first time by A.A. Terentiev and published as an appendix to: M.T. Stepanyants. Vostochnaya filosofiya, Moscow: Vostochnaya Literatura, 1997) based on the following considerations: first, the existing Russian translation can be hardly considered satisfactory or readable even by professional Indologists who
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are not specialists in Umasvami's philosophy. Second, a fresh translation of this text based on the system of terminological equivalences used in translation other philosophical treatises of the Digambara Jaina tradition can also contribute to a deeper understanding of Jainism.
Being only one specialist of Jainism in Russia N. Zheleznova during last 9 years delivers lectures on Jain Philosophy in Moscow State University, Philosophy Faculty, Department of History of Foreign Philosophy.
References :
1. Gerasimov N. Nirvana and Salvation.(Russian). Moscow, 1914.P.91-101
2. Aleksandrov G. V. History of Indian Sociologies Thought. (In Russian) Moscow, 1968. P. 252-264; Culture of Ancient India. (in Russian). Moscow, 1975. P.111-130; Bongard-Levin GM. Ancient Indian Civilization in Russian). Moscow, 1980.P.63-77.
3. Chatterji S., Datta L. The Introduction to Indian Philosophy. (Russian translation). Moscow, 1955.P.72-105; Radhakrishnan S. Indian Philosophy (Russian translation) Moscow, 1956.in 2 vols. Vol.I P. 240-289.
4. Guseva N.R. Jainism. (in Russian). Moscow. 1968. English translationBombay, 1971.
5. Kostyuchenko V.S.Dialectic Ideas in Jain Philosophy. (in Russian)-Journal of Philosophical Sciences. 175. No.6.P.23-38.
6. Volkova O.Ph. Jaina Mythology (in Russian). Encyclopedia of World Mythology.Mascow, 1980. Vol.1.P.369-372
7. Terentiev A.A. "Tatthartha-adhigama-sutra as an ancient sourece of the post-canonical Jainism". Ph.D. Thesis (in Russian). Not published. Moscow, 1983.
8. Some chapters from this translation for the first time by A.A. Terentiev were published as an appendix to: M.T. Stepanyants. Eastern Philosophy (in Russian). Moscow, 1997
9. The Anthology of World Philosophy. (in Russian). 1969. Vol.1, Part I.P. 138153.
10. Terentiev A.A.'Shokhin V.K. Philosophy of Jainism. (in Russian)-Lyssenko V.G., Terentiev A.A., Shokhin V.K. Early Budhdhist Philosophy. Philosophy of Jainism. Moscow, 1994.P.313-381.
11. Hindustan Jainism. Sikhism. (in Russian). Moscow, 1996.P.483-530.
12. Shokhin V.K. The first Philosophers of India. (in Russian). Moscow, 1997.P.133-150.
- Natalia Zheleznova
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समाचार विविधा
22वीं सदी जैन सदी होगी- गांधीवादी प्रो. रामजी सिंह भागलपुर
दिनांक 10 अक्टूबर2009 को प्रसिद्ध गांधी विचारक, समाजसेवी, सर्वोदय सिद्धांत के प्रचारक, पूर्व सांसद एवं पूर्व कुलपति जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय, लाडनूं प्रो. रामजी सिंह भागलपुर का आगमन वीर सेवा मंदिर दिल्ली में हुआ। आपके साथ वीर कुंवरसिंह विश्वविद्यालय आरा के जैनशास्त्र एवं प्राकृत विभाग के अध्यक्ष प्रो. रामजी राय भी थे। अतिथियों का संस्था महामंत्री श्री सुभाष जैन, कोषाध्यक्ष श्री धनपाल सिंह जैन, मंत्री श्री योगेश जैन, शोध उपसमिति विद्वान सदस्य श्री सुमत प्रसाद जैन, संपादक मण्डल सदस्य प्रो. एम. एल. जैन ने माल्यार्पण कर स्वागत किया तथा संस्थापक आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार रचित साहित्य भेंट किया गया। प्रो. सिंह को संस्था भवन का अवलोकन कराया गया व शोधार्थियों को दी जाने वाली सुविधाओं के विषय में बताया गया।
प्रो. एम. एल. जैन ने बताया कि आपने विश्वधर्म संसद व अनेक अन्तर्राष्ट्रीय मंचों में जैनधर्म के सिद्धान्तों अहिंसा, अनेकांत, अपरिग्रह व स्याद्वाद के ऊपर अपने व्याख्यान दिये हैं और इन सिद्धांतों का व्यापक प्रचार-प्रसार किया है। आपने उपरोक्त पर अनेक स्मरणीय उद्बोधन एवं शोध लेख दिये हैं जिससे समाज को साहित्यिक लाभ के साथ-साथ आत्मिक लाभ पहुंचा है। आप अनेक वर्षों तक राज्यसभा के संसद सदस्य रहे हैं।
प्रो. रामजी सिंह ने कहा कि आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार जी की इस कर्मभूमि के बारे में पता चलने पर उनकी आने की अभिलाषा तीव्र हो गयी। आपने बताया कि अपने शोध विद्यार्थी जीवन में वह इसी संस्था से शोध अध्ययन सामग्री मंगाया करते थे तथा आपने अनेकांत शोध पत्रिका के पुराने अंकों का संकलन भी कर रखा है। आपने बताया कि 'सर्वोदय' शब्द आचार्य समंतभद्र द्वारा रचित एवं वीर सेवा मंदिर द्वारा प्रकाशित ग्रंथ युक्त्यानुशासन में सर्वप्रथम मिलता है तथा वैदिक व अन्य किसी शब्दकोश में प्रयोग नहीं है। महात्मा गांधी ने जैन सिद्धांतों का गहराई से चिंतन-मनन कर अहिंसा, अनेकांत व अपरिग्रह का अपने जीवन में अपनाया। मैं जब पढ़ता था तब इस संस्था से युक्त्यानुशासन, स्वयंभूस्त्रोत, आप्तमीमांसा आदि ग्रंथों का अध्ययन करता था। आपने आ. जुगलकिशोर जी, पं. सुखलाल जी सिंघवी, डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री आदि विद्वानों द्वारा रचित साहित्य का अध्ययन किया है।
आज जो विश्व में पर्यावरण सुरक्षा को लेकर कार्बन क्रेडित की बात जा रही है यह और कुछ नहीं भ0 महावीर का अपरिग्रह सिद्धांत ही है। आज भी विश्व अहिंसा, अनेकांत एवं अपरिग्रह के मार्ग पर चलकर ही पुष्पित और पल्लवित होगा। उन्होंने कहा कि 22वीं
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________________ 96 अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 सदी जैन सिद्धांतों की सदी होगी। अभी से महावीर के सिद्धांत अपरिग्रह का प्रचार-प्रसार पश्चिमी देशों में हो रहा है। प्रो. रामजी राय ने बताया कि बिहार के अनेक कालेजों में जैनशास्त्र और प्राकृत भाषा पढाई जा रही है तथा बिहार सरकार द्वारा शीघ्र ही कक्षा 6ठीं से प्राकृत के अध्ययन-अध्यापन का कार्य प्रारंभ किया जा रहा है। देश के अन्य राज्यों में भी इस तरह का प्रयोग किया जाना चाहिए। इस अवसर पर संस्था उपनिदेशक डॉ. रजनीश शुक्ल, भोगीलाल लेहरचंद प्राच्य विद्या संस्थान, के निदेशक डॉ. बालाजी गड़ोकर एवं प्रो. जे. पी. वेदालंकार, पूर्व विभागाध्यक्ष संस्कृत, हंसराज कालेज दिल्ली भी उपस्थित थे। संस्था भवन में आयोजित आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार स्मृति व्याख्यानमाला में दिनांक 27 दिसम्बर, रविवार को प्रो. रामजी सिंह, भागलपुर विश्वविद्यालय, ने मुख्य वक्ता के रूप में आने की सहर्ष स्वीकृति प्रदान की। श्री योगेश जैन मंत्री- वीर सेवा मंदिर लेखकों से निवेदन 1. लेख स्वच्छ हस्तलिखित या टंकित मूल लेख की हस्ताक्षरित प्रति ही भेजे, लेख पर अपना पूरा पता, फोन एवं मोबाईल नं., व ईमेल लिखे, भेजने से पूर्व उसकी प्रति अपने पास सुरक्षित रखें। अप्रकाशित निबन्ध लौटाये नहीं जायेंगे। लेख के साथ लेख के मौलिक एवं अप्रकाशित होने का प्रमाण पत्र अवश्य संलग्न करें एवं अनेकान्त में प्रकाशन के निर्णय होने तक अन्यत्र प्रकाशनार्थ न भेजें। अप्रकाशित निबन्ध को ही प्रकाशन में वरीयता दी जायेगी तथा मौलिक एवं मूल | लेख प्रकाशित होने पर ही मानदेय दिया जायेगा। 4. यदि लेख कम्प्यूटर पर टंकित हो तो उसके Font के साथ सी. डी. के रूप में ही भेजे या उसे निम्न E-mail : virsewa@gmail.com पर भी भेज सकते हैं। पुस्तक समीक्षा हेतु पुस्तक की दो प्रतियाँ भेजें तथा संभव हो तो दो पृष्ठों में उस पुस्तक का संक्षिप्त परिचय भी भेजें। स्तरीय तथा महत्त्वपूर्ण प्रकाशनों की ही समीक्षायें प्रकाशित की जायेंगी। लेख में उल्लिखित मूल श्लोकों, गाथाओं, उद्धरणों तथा सभी सन्दर्भो को मूल ग्रन्थ से मिलाकर शुद्ध करके ही भेजें। प्रायः प्रूफ रीडिंग में इनका मिलान आपके प्रेषित लेख की मूल कॉपी से ही संभव होता है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली के द्वारा जारी नयी पदोन्नति नीति के अनुसार वे ही शोधपत्र पदोन्नति में मान्य होगे जो नंबर से युक्त शोध पत्रिका में प्रकाशित होंगे। अनेकान्त पत्रिका को पेरिस से जारी होने वाले इन्टरनेशनल स्टैण्डर्ड सीरियल नंबर प्राप्त है। विद्वान अपने उच्चस्तरीय शोध आलेख प्रकाशन हेतु भेजे।