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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009
लघुताभिव्यक्ति
आचार्य मानुतंग ने भक्तामर स्तोत्र के तृतीय पद्य में "बुद्ध्या विनाऽपि " शब्दों का प्रयोग करके अपने भीतर भरे हुए अपार ज्ञान सिन्धु से अहंकार का समस्त खारापन दूर कर दिया है। उनकी इस अभिव्यक्ति ने उनके कवि मस्तिष्क से उनके भक्त हृदय को श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया है। उनकी इसी भावना ने "लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर" जैसी पंक्तियों को जन्म दिया है।
आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र को लिखते समय ही इस स्तोत्र की सफलता का समस्त श्रेय आठवे पद्य में ही तव प्रभावात् के माध्यम से जिनेन्द्र चरणों में समर्पित कर दिया था। इस पद्य में उन्होंने लिखा कि "कमल" के पत्ते पर पड़ी एक साधारण जल की बूँद जिस तरह मोती जैसी चमक को प्राप्त कर लेती है। उसी प्रकार मुझ मन्द बुद्धि के द्वारा रचित आपका यह स्तवन सज्जनों के चित्त को हरने में आपके प्रभाव के कारण ही समर्थ होगा। भक्ति प्रेरणा
प्राप्त कथाओं से जिस प्रकार का उल्लेख प्राप्त होता है कि आचार्य मानतुंग ने शारीरिक बन्धन की अवस्था में इस स्तोत्र की रचना की एवं इसके प्रभाव से समस्त बंधनों से मुक्त हो गय स्तोत्र रचना से बंधन मुक्त होने के उद्देश्य के विषय में संपूर्ण स्तोत्र के किसी भी पद्य से जानकारी प्राप्त नहीं होती है। 46वे पद्य में मानतुंगाचार्य जी ने "आपाद -कण्ठ मुरुशृंखलवेष्टिताङ्गा...विगत बंध भया भवन्ति" इन भावों के माध्यम से भगवान के नाम - जाप्य के महत्त्व के प्रभाव को दर्शाया है। इस पद्य में पूर्व में भी उन्होंने हस्तिभय निवारण, सिंह भय निवारण, दावाग्नि भय निवारण, भुजंग भय निवारण, संग्राम भय निवारण, निर्विघ्न समुद्र यात्रा आदि का उल्लेख जिनेन्द्र स्मरण के फल के रूप में किया है। इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि वे स्वयं शारीरिक बंधन युक्त थे।
भगवन् की स्तुति में प्रेरणा के रूप में मानतुंगाचार्य जी ने छठे पद्य में "त्वद्भक्ति रेव मुखरीकुरुते बलान्माम्" लिखकर स्पष्ट कर दिया कि उन्हें इस स्तोत्र की रचना के लिए केवल भगवन् की भक्ति ने ही प्रेरित किया था जैसे बसन्त ऋतु में आम की मंजरी को देखकर बरबस ही कोयल मधुर शब्द बोलने लगती है।
वीतरागी परमात्मा में कर्तृत्व का आरोप निराधार
कुछ लोग भक्तामर स्तोत्र के विषय में शंका करते है कि इस स्तोत्र में निकाँक्षित अंग को गौण कर दिया है एवं वीतरागी प्रभु को कर्ता मानकर स्तुति की गयी है।
यह शंका निराधार है क्योंकि सम्पूर्ण स्तोत्र के किसी भी पद्म में ईश्वर से किसी भी प्रकार स्वर्गादि रूप लौकिक बाँछा नहीं की गयी है । मानतुंगाचार्य जी ने भक्तामर स्तोत्र के सातवें पद्य में भगवान जिनेन्द्र की स्तुति को पाप क्षयी बतलाते हुए लिखा है कित्वत्संस्तवेन भव सन्तति - सन्निबद्धं
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीर भाजाम् ।