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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009
अनुराग में ही उन्हें इस स्तोत्र की रचना के लिए प्रेरित किया है।
भक्तामर स्तोत्र की विषय वस्तु आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र में अड़तालीस पद्मों के माध्यम से एक क्रमवार विषय वस्तु पर भावाभिव्यक्ति की है अड़तालीस पद्यों की विषय वस्तु को गहराई से समझने पर समस्त पद्यों में एक क्रम पूर्वक विषय वस्तु स्पष्ट होती है, जो इस प्रकार है
विषय वस्तु
(1)
मंगलाचरण के रूप में आदि
जिनेन्द्र प्रभु की वंदना
स्तोत्र रचना का संकल्प
(2)
(3)
(4)
(5)
(6)
(7)
( 8 )
(9)
(10) जननी प्रशंसा
लघुताभिव्यक्ति
भक्ति हेतु प्रेरणा
जिनेन्द्र स्तुति का फल
श्रेय समर्पण
जिनेन्द्र भगवान की परम दर्शनीय बाह्य मुद्रा
जिनेन्द्र भगवान की अंतरंग गुण विभूति
अनुपमेय जिनेन्द्र भगवान
(11) श्रेयस पथ प्रणेता
( 12 )
(13)
( 14 )
विभिन्न नामों से स्तुति एवं प्रणाम
अनंत गुण निधान जिनेन्द्र की स्तुति
बाह्य विभूति रूप समवशरण,
अष्ट प्रतिहार्यो एवं बिहार काल का वर्णन
(15) भय मुक्ति दाता के रूप में जिनेन्द्र की स्तुति ( 16 ) स्तुति का फल
पद्य संख्या
1
2
3, 4
5, 6
7, 9, 10
8
11 से 13
14, 15 16 से 21
22
23
2223
24 से 26
27
28 से 37
38 से 47
48
33
भक्तामर स्तोत्र के मंगलाचरण के प्रथम में प्रयुक्त "युगादौ" एवं सम्यक् प्रणम्य शब्द ध्यान देने योग्य है। “युगादौ " शब्द का प्रयोग युग के आदि में अर्थात् कर्म भूमि के प्रारम्भ में उत्पन्न हुए भगवन् ऋषभ देव की ओर संकेत करता है यहाँ निश्चय ही आचार्य मानतुंग ने मंगलाचरण के रूप में प्रथम तीर्थकर भगवन् ऋषभ देव का स्मरण किया है।
द्वितीय शब्द 'सम्यक् प्रणम्य' इस बात को स्पष्ट करता है कि भक्ति, त्रियोग (मन, वचन, काय) पूर्वक की जानी चाहिए। अंतरंग हृदय में विद्यमान छल, कपट, अहंकार, विषयाभिलाषा जैसे विकारों को त्यागकर प्रमाद रहित होकर नमस्कार करना चाहिए। इसी भावना का उल्लेख पंडित प्रवर श्री दौलतराम जी ने छहढाला ग्रंथ के मंगलाचरण में "नमहँ त्रियोग सम्हारिके" लिखकर के किया है।