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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009
के अब तक हिन्दी में विभिन्न कवियों के द्वारा शताधिक अनुवाद किये जा चुके हैं। भक्तामर स्तोत्र को हिन्दी के साथ-2 अन्य भारतीय भाषाओ में जैसे-राजस्थानी गुजराती, मराठी, कन्नड़, बंगला आदि में भी अनुवादित किया जा चुका है। इस स्तोत्र को जर्मन भाषा में डॉ. जैकोवी ने एवं अंग्रेजी में शार्लोट क्राउने एवं एच. आर. कापड़िया आदि विद्वानों ने अनुवादित किया है। हिन्दी के साथ-2 इस स्तोत्र को जर्मन, अंग्रेजी एवं उर्दू में भी अनुवादित किया जा चुका है। उर्दू में इसका अनुवाद 1925 ई. में भोलानाथ दरख्शां जी ने रूवाइयाते दरख्शां नामक शीर्षक से किया था। भक्तामर स्तोत्र का आंतरिक मूल्यांकन
स्तोत्र शब्द की व्याख्या करते हुए हलायुधकोष में लिखा है कि स्तोत्र शब्द संस्कृत के स्तु धातु से निष्पन्न होता है। स्तु धातु का अर्थ स्तुति करना, प्रशंसा करना होता है। स्तोत्र शब्द की उक्त परिभाषा के अनुरूप भक्तामर स्तोत्र आ. मानतुंग के द्वारा जिनेन्द्र भगवन् की गुण स्तुति एवं प्रशंसा में लिखा गया है।
भक्ति की कसौटी पर भक्तामर-भक्तामर जैसे महान संस्कृत भक्ति काव्य का मूल्यांकन करना समुद्र के जल को अंजुलि में भरने के असफल प्रयास जैसा होगा। भक्ति के लक्षणों को समझने के लिए विभिन्न पूर्वाचार्यो एवं विद्वानों के अभिमतों पर दृष्टि डालना आवश्यक है(1) "अहंदाचार्यबहुश्रुतवचनेषु भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागः भक्तिः -सर्वार्थ सिद्धि
6/24//339 अर्थ-अरहन्त, आचार्य, उपाध्याय आदि बहुश्रुत संतों में और जिनवाणी में भावों की विशुद्धि पूर्वक जो प्रशस्त अनुराग होता है। उसे
भक्ति कहते हैं। (2) "अर्हदादिगुणानुरागो भक्तिः -भगवती आराधना 47/159 अर्थ-अर्हदादि गुणों
में प्रेम करना भक्ति है। (3) भक्तिः पुनः सम्यकत्वं भव्यते व्यवहारेण सरागसम्यग्दृष्टीनां
पंचपरमेष्ठ्याराधनारूपा।, समयसार तात्पर्यवृत्ति टीका 173/176/243 आगम में उल्लिखित परिभाषायें भक्ति के स्वरूप को भगवन् के गुणों के प्रति अनुराग के रूप में परिभाषित करती है। आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र में भगवान जिनेन्द्र के प्रति एक भक्त के रूप में अनुराग व्यक्त करते हुए लिखा है कि
सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश! कर्तुं स्तवं विगत शक्ति रपि प्रवृत्तः! प्रीत्यात्मवीर्य मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्।
नाभ्येति किं निज शिशोः परिपालनार्थम्॥ भावार्थ-हे नाथ! जैसे हिरणी शक्ति न रहते हुए भी प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिए सिंह का सामना करती है। उसी तरह मैं भी शक्ति न होने पर भी भक्तिवश आपका स्तवन करने के लिए उद्यत हुआ हूँ।
उक्त पद्य में आचार्य मानतुंग ने स्पष्ट किया है जिनेन्द्र भगवन् के प्रति उनके असीम