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________________ अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 तेला का, जो जाना प्रारंभ करता है वह चौला का, जो जाने लगता है वह पाँच उपवास का, जो कुछ दूर चला जाता है वह बारह उपवास का, जो बीच में पहुंच जाता है वह पन्द्रह उपवास का, जो मंदिर के दर्शन करता है वह मासोपवास का, जो मंदिर के आँगन में प्रवेश करता है वह छहमासोपवास का, जो द्वार में प्रवेश करता है वह वर्षोपवास का जो प्रदक्षिणा देता है वह शतवर्षोपवास का, जो जिनेन्द्र देव के मुख का दर्शन करता है वह सहस्र वर्षोपवास का और स्वभाव से स्तुति करता है वह अनन्त उपवास का फल प्राप्त करता है। वास्तव में जिनेन्द्र भक्ति से बढ़कर उत्तम पुण्य नहीं है। जिनभक्ति से कर्मक्षय को प्राप्त हो जाते हैं और जिसके कर्म क्षीण हो जाते है, वह अनुपम सुख से संपन्न परमपद को प्राप्त होता है।" इसी तरह आचार्य सकलकीर्ति ने पार्श्वनाथ चरित (7/57-68) में बताया है कि"जिनेन्द्र भगवान् के उत्तम बिम्ब आदि का दर्शन करने वाले धर्माभिलाषी भव्य जीवों के परिणाम तत्काल शुभ व श्रेष्ठ हो जाते हैं, जिनेन्द्र भगवान् का सादृष्य रखने वाली महाप्रतिमाओं के दर्शन से साक्षात् जिनेन्द्र भगवान का स्मरण होता है, निरंतर उनका साक्षात् ध्यान होता है और उसके फलस्वरूप पापों का निरोध होता है। जिनबिम्ब में साम्यता आदि गुण व कीर्ति, कान्ति व शान्ति तथा मुक्ति का साधनभूत स्थित वज्रासन और नासाग्र दृष्टि देखी जाती है, इसी प्रकार धर्म के प्रवर्तक जिनेन्द्र भगवान में ये सब गुण विद्यमान हैं। तीर्थकर प्रतिमाओं के लक्षण देखने से उनकी भक्ति करने वाले पुरुषों को तीर्थकर भगवान् का परम निश्चय होता है। इसलिये उन जैसे परिणाम होने से, उनका ध्यान व स्मरण आने से तथा उनका निश्चय होने से धर्मात्मा जनों को महान पुण्य होता है। जिस प्रकार अचेतन मणि, मंत्र, औषधि आदि विष तथा रोगादिक को नष्ट करते हैं, उसी प्रकार अचेतन प्रतिमायें भी पूजा-भक्ति करने वाले पुरुषों के विष तथा रोगादिक (जन्म-मरण के रोग) को नष्ट करती हैं।" महाकवि रइधू ने भी पासणाहचरिउ (6/18) में कहा है कि-'यद्यपि जिन प्रतिमा अचेतन है फिर भी उसे वेदन शून्य नहीं मानना चाहिए। संसार में निश्चित रुप से परिणाम या भाव ही पुण्य और पाप का कारण होता है। जिस प्रकार वज्रभित्ति पर कन्दुक पटकने पर उसके सम्मुख वह फट जाती है उसी प्रकार सुख-दु:खकारक निंदा एवं स्तुतिपरक वचनों के प्रहार से यद्यपि प्रतिमा भंग नहीं होती तथापि उससे शुभाशुभ कर्म तुरन्त लग जाते हैं। उनमें से धार्मिक कर्मों को स्वर्ग और परंपरा से मोक्ष का कारण कहा गया है। यह जानकर शुद्ध भावनापूर्वक जिन भगवान् का चिंतन करो और उनकी प्रतिमा का अहर्निश ध्यान करो।" इस तरह जिन बिम्ब दर्शन और जिनालय दर्शन के पीछे निहित भावों का पता चलता है। जैन समाज में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सवों के माध्यम से जिन बिम्ब संस्कार तथा मंदिर एवं वेदी प्रतिष्ठा, कलशारोहण, ध्वज स्थापना आदि के संस्कार करने की अनिवार्य परंपरा है और जब मंदिर निर्माण एवं मूर्ति प्रतिष्ठा विधि-विधानानुसार संपन्न हो जाती हे
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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