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________________ अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009 मण्डल विधान पूजन-जैन आगम के आलोक में डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' किसी भी धर्म के परिपालन हेतु देवता एवं देवालय की अपरिहार्य आवश्यकता होती है। जैन धर्म में मूर्ति पूजा को सर्वप्रथम संसार में स्थान दिया और यह सब जानते हैं कि कालान्तर में अन्य परंपराओं में भी इस व्यवस्था का अनुकरण किया गया। वर्तमान में प्राप्त इतिहास का अवलोकन करें तो यह बात पूरी तरह से सिद्ध हो जाती है कि मूर्ति पूजा का श्रेय जैन धर्मानुयायियों को ही जाता है। जहाँ जिन मूर्ति विराजमान होती है उस भवन को जिनालय कहा जाता है। भरत चक्रवर्ती द्वारा कैलाश पर्वत पर 72 जिनालयों के निर्माण की बात शास्त्र में मिलती है। वर्तमान में भी अनेकानेक उत्कृष्ट जिनालय हैं और उनके निर्माण का क्रम अनवरत जारी है। जिनालयों के निर्माण में संस्कारों की महती भूमिका होती है। यदि वास्तु व्यवस्था एवं धार्मिक संस्कारों के निर्वहन पूर्वक जिनालयों का निर्माण किया जाता है तो वह जीवन एवं जीवों के लिए यथेष्ट फलदायी होता है। चूंकि जिनालयों की गिनती नौ देवताओं में होती है अतः उनका पूरी विधि के साथ निर्माण एवं प्रतिष्ठा होना आवश्यक है। कहते हैं कि खान से निकला हुआ पत्थर भी उचित संस्कारों को प्राप्त कर देवता की संज्ञा को प्राप्त कर लेता है अत: यह जरूरी है कि संस्कारों के आरोपण में किसी प्रकार की कमी न रहे। जिनालय निर्माण के विषय में आचार्य कहते हैं कि यद्यप्यारम्भतो हिंसा हिंसायाः पापसम्भवः। तथाप्यत्र कृतारम्भो महत्पुण्यं समश्नुते॥ निरालम्बनधर्मस्य स्थितिर्यस्मात्ततः सताम्। मुक्तिप्रासादसोपानमाप्तरुक्तो जिनालयः॥ अर्थात् जिनालय के निर्माण के आरंभ में हिंसा होती है, हिंसा से पाप लगता है तो भी जिन मंदिर बांधने (निर्माण) में किये जाने वाले आरंभ से महा पुण्य प्राप्त होता है। जिन मंदिर के बिना जिन धर्म की स्थिति नहीं रहती तथा जिन मंदिर मुक्ति रूपी महल में प्रवेश करने के लिए सीढ़ी के समान सहायक होता है। इस व्यवस्था के अनुसार जिन मंदिर का निर्माण आवश्यक है। यह सभी को विदित है कि बिना जिनालय के जिन बिम्ब स्थापना की व्यवस्था कैसे संभव हो सकती है ? ___ हमारे शास्त्रों में जिन बिम्ब दर्शन एवं जिनालय दर्शन की महिमा विशेष बतायी गई है। आचार्य रविषेण ने पद्मपुराण (32/178-183) में बताया है कि -"जो मनुष्य जिन प्रतिमा के दर्शन का चिन्तवन करता है वह बेला का, उद्यम का अभिलाषी होता है, वह
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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