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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009
परिणाम के अभाव में स्व-संतान और पर-संतान की स्थिति नहीं बनती। क्योंकि समानता
और असमानता के आधार पर ही स्वसंतान और परसंतान सिद्ध होती है। समुदाय भी नहीं बनता, क्योंकि समुदायी अनेक द्रव्यों के असमुदाय रूप अवस्था को त्यागकर समुदाय रूप अवस्था को स्वीकार करने पर ही समुदाय बन सकता है। यह बौद्ध को स्वीकार नहीं। इसी से जीवन-मरण, शुभ-अशुभ कर्मों का अनुष्ठान, उनका फल, पुण्य-पाप का बन्ध आदि भी नहीं बनता? अत: बौद्धों का क्षणिकवाद उचित नहीं है, वह जैनदर्शन के ऋजुसूत्रनय की दृष्टि जैसा प्रतीत तो होता है किन्तु अन्य दृष्टि का निषेधक होने से वह ऋजुसूत्रनयाभास माना जा सकता है। संदर्भ :
(1) वत्थुपमाणविसयं णयविसयं हवइ वत्थु एकसं। णयचक्को गा. 171 (2) प्रमाणनयैराधिगमः।- तत्त्वार्थसूत्र 1/6 (3) (i) प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः। वादिदेवसूरि कृत प्रमाणनयतत्त्वालोक 7/1
(ii)योज्ञानुरभिप्रायः। - अकलंक कृत लघीयस्त्रय, 2/30 (4) जावदिया वयण वहा तावदिया चेव होंति णयवादा । -सन्मतिप्रकरण-3/47 (5) सर्वार्थसिद्धि- आचार्य पूज्यपाद, 1/33/241 (6) आत्माश्रितो निश्चयनय:पराश्रितो व्यवहारनयः। -आचार्य अमृचन्द्र, समयसार टीका, गा. 272 (7) तत्त्वार्थसूत्र 1/33 (8) निरपेक्ष नया मिथ्या.....। समंतभद्रकृत आप्तमीमांसा, का. 108 (9) पच्चुप्पन्नग्गाही उज्जुसुओ णयविही मुणेयव्वो। - अनुयोगद्वार, नयनिरुपण, गा.139
तथा विशेषावश्यक भाष्य, भाग-2, गा. 2184 (10) तत्त्वार्थधिगमभाष्य 1/35
(11) सन्मति प्रकरण 1/5 (12) सर्वार्थसिद्धि प्र.अ. /33/प्र.245
(13) राजवार्तिक 1/33 पृ.96-98 (14) जयधवला गा.13-14, प्र. 185 (15) श्लोकवार्तिक 1/33/श्लो.61 (16) आलाप पद्धति-सू. 199
(17)न्यायावतार- का. 29 पर वृत्ति (18) नयचक्र-गा. 210
(19)न्यायविनिश्चयविवरण 3/91 (20) प्रमयेकमलमार्तण्ड तृतीय भाग नय विवेचनम् पृ.662 (21) प्रमाणनयतत्वालोक 7/28-29 (22) प्रमेयरत्नमाला 6/ पृष्ठ 347 (23) सन्मति प्रकरण, 1/5
(24) धवला पृ. 9,4/1/49 कदि अणुयोगद्वारे। (25) सुद्धोअणतणअस्स उ परिसुदो पज्जवविअप्पो। - स. प्र. 3/48 (26) घीयस्त्रय 2/5/43का. तथा 2/6/71 विवृत्ति सहित।। (27) श्लोकवार्तिक 1/33/62 का. (28) प्रमेयकमललमार्तण्ड तृतीय नयविवेचन, पृ.662 (29) प्रमाणनयतत्त्वालोक 7/30-31 (30) स्याद्वादमञ्जरी, श्लोक 28 की टीका, पृ. 248 (31) श्लोकवार्तिक, श्लोक 63 से 67, पृ. 248-249 (32) वही, वृत्ति सहित। पृ. 251 (33) वही चतुर्थखण्ड, सूत्र 1/33 पृ.252 तथा तुलनीय- पं. माणिकचन्द्र कौंदेय की व्याख्या। (34) वही, पृ. 252 तथा पं. कौंदेय की हिन्दी व्याख्या। (35) एतेन चित्राद्वैतं, संवेदनाद्वैतं, क्षणिकमित्यपि मननमृजुसूत्राभासतामायातीत्युक्तं वेदितव्यं।
- वही, पृ. 253 (36) वही, वृत्ति, पृ. 253 (37) वही, पृ. 254 पर वृत्ति तथा तुलनीय पं. कौंदेय की व्याख्या।
- वरिष्ठ व्याख्याता, जैनदर्शन विभाग लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नईदिल्ली -16