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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 समान अशक्य है। इसी को और स्पष्ट करते हुए महाकवि ज्ञानसागर जी कहते हैं किहे प्रभो ! अवयव और अवयवी में ऐक्य अभेद नहीं है पृथक्ता ही है, ऐसा कहना ठीक नहीं जान पड़ता परन्तु आपका अभेद कथन शतपत्र के समान सत्य है जैसे कि सौ पत्रों (कलिकाओं) का समूह शतपत्र अर्थात् कमल कहलाता है। यहाँ सौ पत्रों व कमल में भेद नही है- अभेद है क्योंकि एक-एक पत्र के पृथक् करने पर शतपत्र कमल ही नष्ट हो जाता है यही बात गुण और गुणी में भी है। प्रदेश भेद न होने से गुण-गुणी के साथ समवाय संबन्ध को प्राप्त होता है उनके मत में समवाय के एक होने के कारण संकर, अनवस्थिति तथा प्रतिज्ञाहानि रूप दोष आते हैं।' बौद्ध केवल अभाव को तत्त्व मानते हैं वे अभाववादी है लेकिन जैन दर्शन वस्तु के भाव-अभाव दोनों रूपों को मानता है। वस्तु के भावाभावात्मकता का वर्णन करते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी लिखते हैं कि यदि अन्योन्याभाव के माध्यम से घट में पट का अभाव न माना जाये तो पट के इच्छुक मनुष्य की घट में प्रवृत्ति होनी चाहिए, पर नहीं होती, इससे जान पड़ता है कि घट में पट नहीं है और पट में घट नहीं है। एक पर्याय का दूसरे पर्याय में होना अन्योन्याभाव कहलाता है। एक द्रव्य का दूसरा द्रव्य रूप न होना अत्यन्ताभाव कहलाता है। कार्यो त्पत्ति के पूर्व पर्याय में कार्य का अभाव होना, प्रागभाव कहलाता है और वर्तमान पर्याय के नष्ट होने को प्रध्वंसाभाव कहते हैं। उपर्युक्त चारों अभावों को जिनागम में स्वीकृत किया गया है इसीलिए पदार्थ भाव-अभाव दोनों रूप है।
जैन दर्शन वस्तु को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त मानता है वस्तु की उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मकता का वर्णन करते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी ने कहा है- कि प्रत्येक वस्तु प्रतिसमय अपने पूर्व रूप (अवस्था) को छोड़कर अपूर्व (नवीन) रूप को धारण करती है फिर भी वह अपने मूल रूप को नहीं छोड़ती, ऐसा ज्ञानी जनों ने कहा है, सो हे सज्जनों ! आप लोग भी वस्तु की यह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकता त्रिरूपता एक-एक काल में ही अनुभव कर रहे हैं। जो वस्तु स्वरूप से अनभिज्ञ है, ऐसे बाल (मूर्ख) जन ही इसके विपरीत स्वरूप वाली वस्तु को कहते हैं अर्थात् जो केवल उत्पाद या व्यय या ध्रौव्य रूप ही वस्तु को मानते हैं वे अज्ञानी हैं। इसे विभिन्न उदाहरण देकर स्पष्ट करते हुए महाकवि कहते हैं कि दूध के सेवन से आमशक्ति बढ़ती है, उसी दूध से बने दही का प्रयोग आमशक्ति को नष्ट करता है किन्तु उस दूध व दही दोनों में गोरसपना पाया जाता है। अत: समस्त वस्तुजाति उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप है। जीर्णज्वर वाले पुरुष ही दूध में, अतिसार वाले पुरूष की दही में और रोग-रहित भूखे मनुष्य की दोनों में रुचि का होना उचित ही है किन्तु उपवास करने वाले पुरुष की उन दोनों में किसी पर भी रुचि उचित नहीं मानी जा सकती। एक अन्य उदाहरण से इस स्पष्ट करते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी लिखते हैं
काष्ठं यदादाय सदा क्षिणोति हलं तटस्थो रथकृत करोति।
कृष्टा सुखी सारथिरेव रौति नैकस्त्रिधा तत्त्वमुरीकरोति॥2 अर्थात् कोई बढ़ई लकड़ी लेकर सदा छीलता है, छीलता हुआ यदि वह स्वेच्छा से