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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 कि यह वही है जिसे पहले देखा गया था, वह नित्य है और जिसके विषय में यह वह नही है' इस प्रकार का बोध हो वह अनित्य है। मेघ अकस्मात् उत्पन्न होता है और अकस्मात् विलीन हो जाता है इससे पदार्थ की अनित्यता का बोध होता है और मेघ से उत्पन्न हुआ शब्द अनेक क्षण तक विद्यमान रहता है, इससे पदार्थ सर्वथा अनित्य नहीं है यह सिद्ध होता है। तात्पर्य यह है कि पदार्थ नित्यानित्यात्मक है, द्रव्य दृष्टि से नित्य, पर्याय दृष्टि से अनित्य है।
वस्तु की एकानेकात्मकता का वर्णन करते हुए आचार्य ज्ञानसागर ने कहा है-सत् सर्वथा एक नहीं है क्योंकि वह अनेक गुणों का संग्रह रूप है। घृत, शक्कर और आटा आदि मिलाकर लड्डू बनाया जाता है अत: वह देखने में एक प्रतीत होता है, परन्तु जिन पदार्थो के संग्रह से बना है, उनकी ओर दृष्टि देने से वह अनेक रूप हो जाता है परन्तु जीवादि द्रव्य रूप सत् अनेक गुणों के संग्रह रूप होने से लड्डू की तरह अनेकरूपता को प्राप्त नहीं होता क्योंकि घृत, शर्करा आदि पदार्थ अपना पृथक्-पृथक् अस्तित्व लिए लड्डू में संग्रहीत होकर एक रूप दिखते हैं। इस प्रकार जीवादि द्रव्यों में रहने वाले ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदिगुण अपनी पृथक् सत्ता नहीं रखते और न कभी जीवादि द्रव्यों से पृथक् थे। इसलिए सत् में जो अनेकत्व है वह उसमें अनेक गुणों के साथ तादात्म्य होने से हैं, संग्रहरूप होने से नहीं। अनेक गुणों की ओर दृष्टि देने से जीवादि सत् अनेक रूप जान पड़ते हैं परन्तु उन सबमें प्रदेश भेद न होने से परमार्थ से एकरूपता है। इसी को और स्पष्ट करते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी कहते हैं कि जिसे 'सेना' इस एक नाम से कहते हैं उसमें अनेक हाथी, घोड़े और पयादे होते हैं। जिसे 'वन' इस एक नाम से कहते हैं उसमें नाना जाति के वृक्ष पाये जाते हैं, एक स्त्री वाची दार शब्द को एक स्त्री के रहने पर भी 'दाराः' इस बहुवचन से जल को 'आपः' इस बहुवचन में कहते हैं उसी प्रकार सत् भी एक होकर भी अनेक रूपता को प्राप्त होता है। वैयाकरणों ने जिस प्रकार "रामश्च रामश्च रामश्चेति रामाः" इस एकशेष द्वन्द्व समास में अनेक राम शब्दों को एक राम शब्द में समाविष्ट कर अनेक में एकत्व को प्रकट किया है उसी प्रकार पर्यायगत अनेक रूपता को गौण कर द्रव्यों में भी आचार्यों ने एकरूपता स्वीकृत की है। तात्पर्य यह है कि सत् एक भी है और अनेक भी। अर्थात् एक ही वस्तु में एकत्व व अनेकत्व की प्रतीति होती है। इसलिए उक्त व्यवहार को देखते हुए अनेकान्त तत्त्व को स्वीकार करना ही चाहिए।
वस्तु की भेदाभेदात्मकता का वर्णन करते हुए महाकवि ज्ञानसागर जी ने लिखा है कि हे अर्हन् ! आपके द्वारा कथित पदार्थ को जब मैं पूर्ण रूप से ग्रहण करना चाहता हूँ तब पत्नी को पुत्र के समान कह नहीं सकता हूँ। तात्पर्य यह है कि पुरुष की पत्नी को उसका पुत्र माता कहता है और पति पत्नी कहता है, उसे सर्वथा न माता रूप कहा जा सकता है और न पत्नी रूप, क्योंकि उसमें माता और पत्नी का व्यवहार पुत्र और पति की अपेक्षा से है इसी तरह किसी वस्तु को भेद और अभेद दोनों रूप कहा जाता है। प्रदेशभेद न होने के कारण वस्तु अपने गुण से अभेदरूप है और संज्ञा लक्षण आदि की अपेक्षा भेद रूप है। दो रूप वस्तु को एकान्तरूप से एकरूप कहना तलवार से आकाश को खण्डित करने के