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आचार्य ज्ञानसागर के संस्कृत महाकाव्यों में अनेकान्तवाद
डा० चन्द्रमोहन शर्मा
अनेकान्तवाद सिद्धान्त जैनदर्शन की आधार शिला है। इस सिद्धान्त के बिना जैनदर्शन को समझ पाना कठिन है। यह सिद्धान्त सकल विश्व के मत-भेदों, संप्रदायों, वर्गो, जातियों के मध्य भेद की संकीर्ण दीवारों को तोड़कर उनमें सामंजस्य स्थापित करने में सक्षम है।
अनेकान्त शब्द 'अनेक और अन्त' इन दो शब्दों के सम्मेलन से बना है। अनेक का अर्थ होता है एक से अधिक, नाना तथा अन्त का अर्थ होता है धर्म। यद्यपि अन्त का अर्थ विनाश, छोर आदि भी होता है किन्तु वह यहाँ अभिप्रेत नहीं है। जैनदर्शन के अनुसार वस्तु परस्पर विरोधी अनेक गुण-धर्मों का पिण्ड है। वह सत् भी है असत् भी, एक भी है अनेक भी, नित्य भी है अनित्य भी। इस प्रकार परस्पर विरोधी धर्म युगल वस्तु में अन्तर्गर्भित है। उसका परिज्ञान हमें एकान्त दृष्टि से नहीं हो सकता, उसके लिए अनेकान्तात्मक दृष्टि चाहिए।
बीसवीं शताब्दी में शुष्क होती हुई संस्कृत काव्यधारा को पुनजीवित करने वाले महाकवि ज्ञानसागर जी के जयोदय, सुदर्शनोदय, वीरोदय ये तीन महाकाव्य त्रिरत्न के रूप में सुशोभित हैं उनके काव्यों में जैनदर्शन के अनेक सिद्धांतों के साथ ही अनेकान्तवाद का विस्तार से वर्णन हुआ है। आचार्य ज्ञानसागर जी के अनुसार वस्तु में रहने वाला विशेष धर्म भी दो प्रकार का है-व्यतिरेक रूप और पर्याय रूप। एक पदार्थ में जो असमानता या विलक्षणता पायी जाती है उसे व्यतिरेक कहते हैं और प्रत्येक द्रव्य प्रति समय जो नवीन रूप को धारण करता है उसे पर्याय कहते हैं। जैन धर्म वस्तु को नित्यानित्य मानता है। इसका वर्णन करते हुए आचार्य ज्ञानसागर जी ने कहा है कि द्रव्य की अपेक्षा वस्तु नित्य है और पर्याय की अपेक्षा वह अनित्य है यदि वस्तु को सर्वथा नित्य कूटस्थ माना जाये तो उसमें अर्थ क्रिया नहीं बनती है और यदि सर्वथा कथञ्चित् नित्य कथञ्चित् अनित्य मानना पड़ता है अन्यथा लोक व्यवहार कैसे संभव होगा इसलिए लोकव्यवहार के संचालनार्थ हम पवित्र अनेकान्तवाद का ही आश्रय लेते हैं। इसी बात को जयोदय में दृष्टांत द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा गया है -हे आत्मभूप ! नित्यैकता का परिहार करने वाला मेघ है और मेघ से उत्पन्न हुआ शब्द क्षणस्थिति-अनित्यैकता का प्रतिबोध करने वाला है। प्रत्यभिज्ञान से नित्य और अनित्य की सिद्धि होती है अर्थात् जिसके विषय में यह ज्ञान हो