________________
अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009
11 6.3 जहाँ कुमारपाल जैसे जैन राजा हुए, उनके मार्गदर्शन हेतु हेमचन्द्र जैसे आचार्यों ने राजनीति के ग्रंथ भी लिखे किन्तु उनको किसी प्रकार के जैन संप्रदाय का रंग देने का प्रयत्न कदापि नहीं हुआ। इस प्रकार जैन परंपरा ने सम्प्रदायनिरपेक्ष राज्य की ही कल्पना की।
6.4 अर्हन्नीति जैसे ग्रंथों का वर्ण्य विषय दो भागों में विभक्त हो सकता है- राजधर्म और राजनीति। राजधर्म राजा में अपेक्षित नैतिक गुणों का वर्णन करता है। ये गुण सार्वभौम हैं और किसी भी राजा से उनकी अपेक्षा की जा सकती है भले ही वह राजा जैन हो या न हो। राजा के ऐसे 36 गुणों का वर्णन अर्हन्नीति में है किन्तु उनमें से एक भी गुण ऐसा नहीं जिसके अपेक्षा अजैन राजा से न की जा सके। यहाँ तक मांस मदिरा आदि के त्याग अथवा रात्रि भोजन के त्याग जैसा भी कोई चर्चा इस सूची में नहीं है। इसका यह अभिप्राय तो नहीं माना जा सकता हेमचन्द्र जैन राजा से इन नियमों के पालन की आशा न रखते रहे होंगे। किन्तु ये नियम राजा के व्यक्तिगत जीवन के लिये है अतः इन्हें नृप के गुणों में परिगणित किया जाना उचित नहीं समझा गया। ____ 6.5 जहाँ तक राजनीति का संबन्ध है, जैन आचार्यों ने उसमें साम, दाम, दण्ड, भेद नामक चार नीतियों का उसी प्रकर का वर्णन किया है जिस प्रकार का मनुस्मृति आदि ग्रंथों में है। युद्ध इनमें से अन्तिम उपाय है।
साम्ना दाम्ना च भेदेन जेतुं शक्या यदारयः। तदा युद्धं न कर्त्तव्यं भूपालेन कदाचन।। किन्तु ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि आत्मरक्षा के लिये ही युद्ध करना चाहिये। आक्रमणकारी बन कर नहीं। यद्यपि ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि राजा को दूसरे का राज्य हड़पने के लिये युद्ध करना चाहिये
यदि केनाप्युपायेन परस्त्यजति नो रणम्। तथा वीक्ष्यमिथः साम्यं युद्धायैवोद्यतो भवेत्॥
निरपराध पर प्रहार न करने की बात जैन आचार्यों ने की किन्तु यह कोई उनकी ही विशेषता नहीं थी।
6.6 इसी प्रकार दण्डनीति के संदर्भ में जैन परंपरा मध्यकालिक व्यवस्था का अनुकरण करती रही है जिसमें नजरबन्दी, और कारावास के साथ साथ अंगभंग का तथा फाँसी का भी विधान है। यह विधान स्थानांग सूत्र के अनुकरण पर किया गया है जहाँ कहा गया है किसत्तविहा दंडनीई पणत्ता तं जहा (1) हक्कारे (2)मक्कारे (3) धिक्कारे (4) परिभासे (5) मंडली बन्धे (6) कारागारे (7) छविछेदेय। अत्र छविछेद इति वधाद्युपलक्षणम्।
6.7 दण्डनीति में लिंग तथा वर्ण के आधार पर स्त्री, विप्र तथा तपस्वियों को अंगछेद तथा वध से मुक्त रखा गया है
जाते महापराधेऽपि स्त्रीविप्रतपस्विनाम्। नांगछेदो वधोनैव कुर्यात्तेषां प्रवासनम्॥ अभिप्राय यह है कि राजनीति तथा दण्डनीति में कोई विशेषता जैन परंपरा ने प्रदर्शित