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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009
नहीं की, मुख्यधारा का ही न्यूनाधिक मात्रा में अनुकरण किया। आधुनिक परिप्रेक्ष्य
7.1 आज के समय में समाज विज्ञान के प्रश्न पर जैन चिन्तकों ने काफी विस्तार से चर्चा की। आचार्य महाप्रज्ञ जैसे आचार्य तथा डॉ. सागरमल जैन जैसे गृहस्थों ने इस विषय पर पर्याप्त विचार किया। इस विचार-विमर्श के दो पक्ष हैं
(i) जैन धर्म का चिंतन समाज के लिये शोधन का कार्य करता है। अणुव्रतों के अतिचार इस बात के सूचक हैं कि जैन गृहस्थ को कोई भी असामाजिक कार्य नहीं करना है। आचार्य तुलसी ने इन अणुव्रतों को ही आधुनिक रूप देकर और व्यापक बनाया। उन्होंने इन अणुव्रतों को केवल जैनों के लिये न मानकर सर्वग्राह्य माना। यह अणुव्रतों का समाज के साथ संबन्ध जोड़ने का ही एक उपक्रम था।
(ii) डॉ. सागरमल जैन अथवा डॉ. कमलचन्द सोगानी जैसे विचारकों ने ठाणं में उल्लिखित राष्ट्रधर्म, नगर धर्म, ग्राम धर्म जैसे लौकिक पक्षों पर तो बल दिया ही; वात्सल्य जैसे सम्यग्दर्शन के अंग को भी साधर्मी वात्सल्य तक सीमित न रखकर सबके प्रति वात्सल्य में परिणत करने पर बल दिया।
इसके अतिरिक्त स्वयं मैने भी श्रम, स्वावलम्बन, वैयावृत्य, स्थिरीकरण और वात्सल्य को समाजदर्शन का आधार बनाने पर बल दिया।
7.2 यह सब प्रयत्न किये जाने पर भी अभी यह प्रश्न अनुत्तरित ही है कि क्या जैन परंपरा कोई ऐसी सर्वांगीण लौकिक व्यवस्था देती है जिसके अन्तर्गत आज की समस्याओं का हल ढूँढा जा सके। इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले हमें यह देखना होगा कि क्या सामाजिक व्यवस्थायें सार्वकालिक होती हैं ?
7.3 राज्य व्यवस्था को लें भगवान् ऋषभदेव ने राजतंत्र दिया, स्वयं भगवान महावीर एक गणतंत्र के राजवंश से सम्बद्ध थे, गुप्तकाल में सम्राट् हुए आज संसदीय प्रजातंत्र है। कल अमरीकी शैली की राष्ट्रपति शासन प्रणाली आ सकती है। आर्थिक दृष्टि से पहले अनुसूचित जाति के लोग कुछ व्यवसाय नहीं कर सकते थे। आज उनके लिये नौकरियों में आरक्षण है। अभिप्राय यह है कि सामाजिक व्यवस्थायें बदलती हैं। कल तक बहुपत्नी प्रथा थी और मुस्लिम समुदाय में आज भी है। किन्तु हिन्दु समुदाय के लिये वह गैरकानूनी घोषित हो चुकी है।
7.4 ऐसी परिस्थिति में किसी एक व्यवस्था को निर्धारित करना जैन-अजैन किसी के लिये भी संभव नहीं है। परन्तु हमारे अनुभव के आधार पर कुछ व्यापक नियम अवश्य बनाये जा सकते हैं । ऐसे कुछ नियमो की ओर संकेत करना अनुचित न होगा। भविष्य के लिए कतिपय विचारणीय बिन्दु ।
8.1 आज समानता पर बल है। ऐसे में सेव्य-सेवक भाव नहीं चल सकता। शिक्षा के विस्तार के साथ सेवक घरेलू नौकर दिन पर दिन कम होते जायेंगे। ऐसे में कोई भी व्यवस्था अधिकाधिक स्वालम्बन पर टिकी हुई होनी चाहिए। सामन्तवादी युग की