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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009 पराश्रितता छोड़नी होगी। यह जैन धर्म चिन्तन के 'पुरिस तुममेव तुम मित्तं' के सिद्धान्तानुसार समीचीन ही होगा।
8.2 साम्यवादी व्यवस्था ने पूंजीवादी व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाया। स्वयं साम्यवादी व्यवस्था भी कारगर सिद्ध नहीं हुई। उधर निरकुंश भोग की प्रवृत्ति पर्यावरण के लिये भी खतरा बन गयी। ऐसे में अपरिग्रहवादी व्रती समाज को महत्त्व देना होगा। व्रती समाज का अर्थ है अपने भोग की वृत्ति पर स्वेच्छा से अंकुश लगाना। साम्यवादी व्यवस्था भोग अथवा संग्रह पर बलपूर्वक अंकुश लगाती है किन्तु उससे व्यक्ति की स्वतंत्रता का अपहरण होता है। अपरिग्रह अथवा अन्य व्रत व्यक्ति की मूर्छा को तोड़ते और उसे वास्तविक अर्थ में स्वतंत्र बनाते हैं।
8.3 आणविक शस्त्रों के युग में युद्ध का विकल्प छोड़ना होगा क्योंकि आज युद्ध का अर्थ सर्वनाश है, शत्रु का नाश नहीं। महात्मा गाँधी ने विदेशी शक्ति का अहिंसक ढंग से मुकाबला करना सिखाया। हमें ऐसा उपाय ढूँढना होगा कि राज्य, समूह विशेष, व्यवस्था विशेष अथवा व्यक्ति विशेष द्वारा किये गये अन्याय तथा शोषण का प्रतिकार अहिंसक ढंग से हो सके। ____8.4 आर्थिक व्यवस्था में जहाँ एक ओर समृद्धवर्ग को स्वेच्छा से परिग्रह का नियंत्रण करना होगा वहाँ राज्य को ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि मूलभूत आवश्यकताएं सबकी ही पूरी हों। अभाव में भ्रष्टाचार ही नहीं, आतंकवाद भी बढ़ता है। दूसरी ओर अतिभोग स्वच्छंदता का पर्यायवाची है।
8.5 शिक्षा में अधिकारों पर बल देने के साथ-साथ यह भी सिखाना होगा कि कर्त्तव्य पालन में तत्परता बरते बिना किसी को अपने अधिकार नहीं मिल सकते । ____8.6 स्पर्धा ने हमें तनाव दिया। इससे कुछ भौतिक समृद्धि तो बढ़ी, पर सुख नहीं बढ़ा। सभी धर्म संतोष पर बल देते हैं। एक समय मनुष्य को परिवार तथा समाज पर भरोसा था कि मुसीबत में वे सहारा देंगे। आज मनुष्य अकेला पड़ गया है। अतः वह संकट के लिये निरंतर संग्रह करता रहता है। स्पर्धा के स्थान पर सहयोग की भावना को प्रतिष्ठित करना होगा।
8.7 जैन परंपरा की एक आचार मीमांसा है जो मोक्षोन्मुखी है। उस आचार-मीमांसा का सामाजिक महत्त्व भी है। वह आचार-मीमांसा सार्वभौम है। उसका धार्मिक मूल्यांकन तो हुआ किन्तु अब उसका सामाजिक मूल्यांकन भी होना चाहिये। अहिंसा व्यक्ति को राग-द्वेष से बचाकर उसकी आत्मा को निर्मल बनाती है किन्तु साथ ही सुरक्षा प्रदान कर समाज को निश्चिन्तता भी देती है। सत्य पर आधृत व्यवहार अभय का कारण है। जहाँ प्रामाणिकता है वहाँ व्यक्ति में आत्मविश्वास जागता है और न्याय की स्थापना होती है। ब्रह्मचर्य से समाज में स्त्री/पुरुष का सम्मान बढ़ता है क्योंकि वह भोग की वस्तु नहीं रहकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करती है। अपरिग्रह विषमता मिटाता है। इस प्रकार सभी आध्यात्मिक मूल्यों का एक सामाजिक पक्ष भी है।
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