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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009
लौकिक विधि
(अ) जैन को लौकिक विधि का पालन करना है अर्थात् उसे कानून का पालन (Law abinding) करना चाहिए। यह नियम साधु-श्रावक सब पर लागू होता है।
(ब) इस लौकिक विधि के पालन में सम्यक्त्व दूषित नहीं होना चाहिए। यह नियम कभी-कभी साम्प्रदायिक कट्टरता के रूप में परिणत हो सकता है। उदाहरणतः जैनों के चार उपसंप्रदाय मुख्य हैं। कभी कभी एक उपसंप्रदाय का व्यक्ति दूसरे उपसंप्रदाय के साधु को नमस्कार करने में सम्यक्त्व का दूषित होना मान लेते हैं। वस्तुतः सम्यक्त्व एक आन्तरिक मन:स्थिति है और उसकी रक्षा के लिये सामान्य शिष्टाचार का पालन न करना सामाजिक दृष्टि से अभीष्ट नहीं है। हम अपनी श्रद्धा को सुरक्षित रखते हुए भी सामान्य शिष्टाचार का पालन करें तो कोई हानि नहीं है।
(स) व्रतदूषण' से अभिप्राय अणुव्रत ही लेना चाहिये। महाव्रत की दृष्टि से किसी भी लौकिक विधि का पालन अशक्य ही है। अतः गृहस्थ को अपने अणुव्रतों की रक्षा करते हुए सामाजिक कार्य करने चाहिये। महाव्रती तो लौकिक कार्य करता ही नहीं है।
निष्कर्ष यह है जैन गृहस्थ एक सामाजिक प्राणी है, असामाजिकता से उसे हर हालत में बचना है।
5.7 कठिनाई यह है कि सोमदेव सूरि ने लौकिक विधि की चर्चा तो कर दी किन्तु जैन परंपरा कोई लौकिक विधि इदमित्थम्तया निर्दिष्ट नहीं कर पायी। फलस्वरूप जैन परंपरा ने प्रायः भारत के बहुसंख्यक हिन्दुसमाज की ही समाज व्यवस्था को अंगीकार कर लिया।
6.1 प्रमाणस्वरुप आचार्य हेमचन्द्र की अर्हन्नीति को लिया जा सकता है। यह ग्रंथ विशुद्ध राजनीति का है। इसके प्रारंभ में ही भगवान् ऋषभ द्वारा वर्णाश्रमविभाग की बात की गयी है
वर्णाश्रमविभागं वै तत्संस्कार विधिं पुनः। प्रायश्चकार भगवान् लोकानां हितकाम्यया।। इतना ही नहीं उन्होंने चार आर्य वेद भी बनायेआर्यवेदचतुष्कं हि जगत्स्थित्यै चकार सः। पुरुषार्थार्जने दक्षा: यतः स्युर्निखिलाः प्रजाः॥
6.2 जैन परंपरा ने कोई अपनी स्वतंत्र राजनीतिशास्त्र नहीं दिया- इसके दो पक्ष है। प्रथम तो इसे जैन परंपरा की न्यूनता के रूप में देखा जा सकता है। दूसरी दृष्टि से इसे जैन परंपरा का गुण मानना चाहिये कि उन्होंने किसी मजहबी राज्य की कल्पना नहीं की। राज्य में जैन अजैन रहते हैं। अतः प्रजा पर किसी जैन संप्रदाय के नियम का साक्षात् अथवा परोक्ष रूप में थोपा जाना पक्षपात पूर्ण ही माना जायेगा। वास्तव में भारत के किसी भी धर्म ने सांप्रदायिक अथवा मजहबी राज्य स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया। सम्राट अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी तथा प्रशंसक था किन्तु उसने बौद्धेतर संप्रदायों को अपनी मान्यतानुसार जीवन जीने की पूर्ण स्वतंत्रता दी।