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________________ अनेकान्त 62/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2009 9 निवृत्ति प्रधान मानते रहे हैं। प्रश्न है कि ऋषभदेव ने जो योगदान षट्कर्मों के प्रतिपादन द्वारा अपनी गृहस्थ अवस्था में दिया, वह जैन परम्परा का अंग है अथवा नहीं ? यदि हम उसे जैन परम्परा का अंग मानें तो जैन धर्म चिंतन का सामाजिक विज्ञान के साथ संबन्ध स्वतः ही स्थापित हो जाता है और पण्डित सुखलाल जी संघवी की उक्त टिप्पणी की व्याख्या करना भी आसान हो जाता है। 5.2 इस संबन्ध में आचार्य हेमचन्द्र का वक्तव्य महत्त्वपूर्ण है कि स्वामी (ऋषभदेव) ने अपना कर्तव्य समझकर लोकानुकम्पा की दृष्टि से यह सब कुछ सावध होने पर भी प्रतिपादित किया। एतच्च सर्वसावद्यमपि लोकानुकम्पया स्वामी प्रवर्तयामास जानन् कर्त्तव्यमात्मनः (त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित 1.2 ) आचार्य हेमचन्द्र की दुविधा यहाँ स्पष्ट हो रही है। वे ऋषभदेव के इस योगदान को 'सावद्य' भी बता रहे हैं और 'लोकानुकम्पा' भी कह रहे हैं तथा इसे उनको 'कर्तव्य' भी बता रहे हैं। 5.3 क्या कोई चीज लोकानुकम्पा' और 'कर्तव्य' होने पर भी 'सावद्य' हो सकती है ? यही वह बिन्दु है जहाँ जैनधर्म के चिंतन के सामाजिक विज्ञान के साथ संबन्ध पर विचार-विमर्श की शुरुआत होती है। आचार्य कुन्दकुन्द ने शुभ-अशुभ दोनों को ही 'अशुद्ध' कहा है। परमतत्त्व पाप-पुण्यातीत है-यह मीमांसा दर्शन के अपवाद को छोड़कर सभी जैन- जैनेत्तर भारतीय दर्शनों को मान्य है। आचार्य भिक्षु के सामने जब यह प्रश्न आया और उन्होंने सभी लौकिक कर्तव्यों को सावध बताया तो उन्होंने कोई नयी बात नहीं कही बल्कि आचार्य हेमचन्द्र की ही बात दोहरायी थी। डॉ. नथमल टाटिया सूत्रकृतांग की साक्षी के आधार पर कहा करते थे कि यदि कोई व्यक्ति किसी को कुछ दान दे रहा हो तो साधु न तो उसका निषेध करें न उसका अनुमोदन करे यदि साधु निषेध करता है तो प्रतिगृहीता का वृत्ति-विच्छेद होता है और यदि अनुमोदन करता है तो राग का पोषण होता है। 5.4 आचार्य महाप्रज्ञ ने इस समस्या का यह समाधान प्रस्तुत किया कि थोड़ी-बहुत परिग्रह - भावना के बिना समाज चल ही नहीं सकता । परिग्रह को प्रशस्त तो कोई जैन चिंतक मानेगा नहीं किन्तु समाज संचालन के लिये परिग्रह की अपरिहार्यता से भी इंकार नहीं किया जा सकता। 5.5 आचार्य सोमदेव सूरि ने सारे विवाद का समाहार इस प्रकार किया कि जैन के लिये वे सभी लौकिक विधि स्वीकार्य है जिनमें व्रत दूषित न होता हो और सम्यक्त्व पर आंच न आयेसर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिनं यत्र न व्रतदूषणम् ॥ 5.6 आचार्य सोमदेव सूरि के उपर्युक्त वक्तव्य में तीन शब्द विचारणीय हैं। (i) सम्यक्त्वहानि (ii) और व्रतदूषण
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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