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________________ अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 3.4 यह स्पष्ट है कि जहाँ सैद्धान्तिक आधार पर जैनधर्म का चिंतन सामाजिक विज्ञान को साथ लेकर चलने वाला सिद्ध होता है वहाँ व्यवहार में भी जैन परंपरा आत्मधर्म के साथ साथ सामाजिक दृष्टि को महत्त्व देकर ही चलती रही है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 4.1 प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने आत्मधर्म का प्रतिपादन करने के पहले असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प का प्रतिपादन अपनी गृहस्थ अवस्था में किया। जब तक समाज व्यवस्थित न हो, तब तक क्या साधु-धर्म का पालन भी समीचीन रूप से हो सकता है? साधु भी अपनी चर्या का पालन तब ही तो कर पाता है जब गृहस्थ अपने अतिथि-संविभाग व्रत का पालन करने के प्रति सजग हो और गृहस्थ भी अपने अतिथि संविभाग-व्रत का पालन तब ही तो कर पायेगा जब किसान कृषि द्वारा भूमि को सस्य-श्यामला बनाये रखे। जैन परंपरा के इतिहास में अकाल के समय धर्मपालन की दुष्करता का विस्तृत वर्णन है। ___4.2 आदि तीर्थंकर ऋषभदेव ने कृषि की ही नहीं, असि की भी शिक्षा दी। बहुत बाद में चाणक्य ने कहा था कि 'शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्र शास्त्रचर्चा प्रवर्तते'। चीन ने जब बल प्रयोग द्वारा तिब्बत में धार्मिक स्वतंत्रता का अपहरण किया तो दलाई लामा को वहाँ से पलायन करने के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं मिला। अपराधी मनोवृत्ति वाले व्यक्तियों को केवल उपदेश द्वारा प्रशासित नहीं किया जा सकता। वहाँ दण्डनीति भी बरतना आवश्यक हो जाता है। सिक्ख गुरु भक्तिवादी थे। उनका कार्य आत्मचिंतन ही था किन्तु औरंगजेब के सम्मुख उन्हें तलवार भी उठानी पड़ी। जहाँ समाज है वहाँ शस्त्र अन्यायी के हाथ में पड़कर अनिष्ट कर सकता है किन्तु न्याय-व्यवस्था की सुरक्षा के लिए धारण किये जाने वाला शस्त्र समाज की अपरिहार्यता है। 'हा' 'मा' और 'धिक्' जैसे शब्दों के प्रयोग-मात्र से पाप-निवृत्ति वाले समाज की अवधारणा जैन-परंपरा ने हमें दी, किन्तु वह वर्तमान समाज के लिये पर्याप्त नहीं मानी गयी है। 4.3 असि और कृषि हमारे अस्तित्व के लिये आवश्यक हो सकते हैं, किन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है। मसि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प सभ्यता के विकास के उपकरण हैं। विकसित सभ्यता के वृक्ष पर ही अध्यात्म के फल-फूल खिलते हैं। इतिहास में असभ्य जातियों के बीच अध्यात्म-साधना कहीं भी फलती फूलती नजर नहीं आती। आदि तीर्थंकर ने अध्यात्म का प्रतिपादन करने के पूर्व सभ्यता के विकास के सभी सूत्र दे दिये। तदनतर उन्होंने अध्यात्म साधना का भी मार्ग प्रशस्त किया। इस उभयविध योगदान के लिये ऋग्वेद से लेकर श्रीमद्भागवत तक के जैनेतर-परंपरा के ग्रंथों ने भी उनका नाम अत्यंत श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है। 5.1 पण्डित सुखलाल संघवी ने अपने ग्रंथ 'चार तीर्थकर' में कहा- किसी समय में जैनधर्म के मूल उद्गम में निवृत्ति-प्रधान स्वरूप को स्थान नहीं मिला था बल्कि उसमें प्रवृत्ति-प्रधान स्वरूप का ही स्थान था। यह टिप्पणी चौंकाने वाली है क्योंकि जैन-अजैन प्रायः सभी चिंतक जैनधर्म को
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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