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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009
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क्रोधादि विकारी भावों का त्याग तथा विपरीत मान्यता स्वरूप मिथ्यात्व का त्याग करते हैं तभी वह त्याग, त्याग धर्म माना जायेगा। यदि यही त्याग सम्यक्त्व से जुड़ जाता है तो वह उत्तम त्याग कहलाता है।
9. उत्तम आकिंचन्य धर्म - आकिंचन्य धर्म की भावना यह है कि यह आत्मा शरीर से भिन्न है, ज्ञानमयी है, उपमा रहित है, वर्ण रहित है, सुख संपन्न है, परम उत्कृष्ट है, अतीन्द्रिय है, भय रहित है, इत्यादि प्रकार से आत्मा का ध्यान करना आकिंचन्य है।
"उपात्तेष्वपि शरीरादिषु संस्कारापोहाय ममेदमित्यभिसंधि निवृत्तिराकिंचन्यम्।" अर्थात्, जो शरीर आदि अपने द्वारा ग्रहण किये हुए हैं उनमें संस्कार को दूर करने के लिए 'यह मेरा है' इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग करना आकिंचन्य है। 'नास्य किंचन्यस्यास्त्यकिंचनः, तस्यभावःकर्मवा आकिंचन्यम्।" इसका कुछ नहीं है वह अकिंचन है और अकिंचन का भाव या कर्म आकिंचन्य है।
ममत्व के परित्याग को आकिंचन्य कहते हैं। घर, द्वार, धन-दौलत, बन्धु-बान्धव आदि यहां तक कि शरीर भी मेरा नहीं है, इस प्रकार का अनासक्ति भाव उत्पन्न होना आकिंचन्य है। सब कुछ त्याग करने के बाद भी उस त्याग के प्रति होने वाले ममत्व का भी त्याग करना आकिंचन्य धर्म है। जो मुनि लोक-व्यवहार से विरक्त चेतन-अचेतन परिग्रह को अपने मन,वचन,काय से सर्वथा छोड़ देता है उसी को निग्रंथपना तथा आकिंचन्य धर्म होता है।
किचित् मात्र भी पर-पदार्थ मेरा नही है और मैं भी किसी पर पदार्थ का नहीं हूँ, अपितु अकिंचन हूँ- ऐसा चिंतन करना आकिंचन्य कहलाता है। यह धर्म सामान्य रूप से गृहस्थ के और विशेष रूप से मुनि के ही होता है।
महामुनि दिगम्बर होने के पूर्व पूजा-दान, सम्मान, प्रतिष्ठा, विवाह आदि लौकिक कार्य से विरक्त हो जाते हैं और जमीन, जायदाद, संपत्ति, स्त्री, पुत्र, दास-दासी, स्वर्ण-रजत, धन-धान्य इत्यादि चेतन और अचेतन सभी प्रकार के परिग्रह से भी विरक्त हो जाते हैं। फिर भी श्रमण संघ से तथा संघस्थ व्यक्तियों से राग पीच्छी, कमण्डलु शास्त्र आदि से लगाव-प्रेम हो सकता है, महामुनि इन सभी से विरक्त होकर आकिंचन्य धर्म का पालन करते हैं। वस्तुत: आकिंचन्य धर्म के माध्यम से जीवन में बाह्य वस्तुओं के प्रति अनासक्ति भाव उत्पन्न करना होता है। "शरीर धर्मोपकरणादिषु निर्ममत्वमाकिंचन्यम्। अर्थात् शरीर तथा धर्मोपकरणों आदि में भी ममत्व भाव का सर्वथा अभाव आकिंचन्य धर्म कहलाता है। संक्षेप में कह सकते कि- सर्वपरिग्रह से निवृत्त होना आकिंचन्य है। शुभ ध्यान करने की शक्ति का होना आकिंचन्य है। ममत्व रहित होना आकिंचन्य है, और रत्नत्रय में प्रवृत्ति होना आकिंचन्य है।
10. उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म - ब्रह्म का अर्थ है - निर्मल-ज्ञान-स्वरूप आत्मा और उसमें लीन होना ब्रह्मचर्य है। अर्थात् निर्मल ज्ञान स्वरूपी आत्मा में वास करना ब्रह्मचर्य है। दूसरे शब्दों में- आत्मा ही ब्रह्म है उस ब्रह्म स्वरूप आत्मा में चर्या करना ब्रह्मचर्य है।