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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009
इसका फल है। इन्द्रियों के दर्प का निग्रह करने के लिए निद्रा पर विजय पाने के लिए तथा सुखपूर्वक स्वाध्याय करने के लिए गरिष्ठ रसों का त्याग- रसपरित्याग नाम का चौथा तप है। एकान्त में जन्तुओं की पीड़ा से रहित, शून्य स्थान में तथा निर्बाध ब्रह्मचर्य पालन के लिए शयनासन करना- विविक्तशयनासन तप है। आतापन योग, प्रतिमास्थान, वृक्षमूल में निवास इत्यादि काय- क्लेश करना छठा कायक्लेश तप है। प्रमाद जन्य दोषों के परिहार के लिए प्रायश्चित करना, प्रायाश्चित तप है। पूज्य गुरुओं के आदर-सत्कार को विनय तप कहा जाता है। शरीर की थकान या शारीरिक पीड़ा के निवारण के लिए वैयावृत्ति करना वैयावृत्य तप है। आलस्य को छोड़कर ज्ञानार्जन करना स्वाध्याय तप है। अहंकार और ममकार का त्यागकर शरीर से ममत्व छुड़ाने को व्युत्सर्ग तप कहते हैं। चित्तवृत्ति का एकाग्र होना और उसके विक्षेप का त्याग करना ध्यान तप है। - इस प्रकार ये बारह तप साधु के लिए उपादेय है। यदि ये तप सम्यग्दर्शन के साथ किये जाते हैं तो उत्तम तप श्रेणी में आ जाते हैं।
8. उत्तम त्याग धर्म - आचार्य पूज्यपाद स्वामी जी लिखते हैं कि:- "संयतस्य योग्य ज्ञानादिदानं त्यागः।" अर्थात् संयत के योग्य ज्ञान आदि का दान करना त्याग है। निग्रंथ मुनि के लिए ज्ञानोपकरण शास्त्रादि, संयमोपकरण- पिच्छी और शौचोपकरण -कमण्डलु आदि का दान करना त्याग है। जो श्रमण मिष्ट भोजन राग द्वेष उत्पन्न करने वाले उपकरण तथा ममत्वोत्पादक वसतिका को छोड़ देता है उसे त्याग धर्म होता है। श्रमण योग्य ज्ञानादि का दान करना त्याग धर्म है। सदाचारी पुरुष द्वारा मुनि को प्रीतिपूर्वक आगम का व्याख्यान करना, शास्त्र देना, संयम पालन में साधनभूत पिच्छी-कमण्डलु आदि देना भी त्याग धर्म है। रत्नत्रय का दान देना प्रासुक त्याग कहलाता है। आचार्यों ने ज्ञान दान को त्याग धर्म माना है। यद्यपि ज्ञान दान की वस्तु नहीं है फिर भी इसको दान करने के लिए कहा है क्योंकि ज्ञान-दान करने से स्वयं का ज्ञान रूपी मद का त्याग हो जाता है और शिष्य को आत्म बोध भी हो जाता है। यदि ज्ञान का दान न दिया जाय तो गुरु की मानकषाय बढ़ जायेगी और शिष्य आत्म ज्ञान से वंचित रह जायेगा। वास्तव में त्याग और दान में अन्तर है, क्योंकि दान पर-वस्तुओं का होता है किन्तु त्याग स्वयं की वस्तु का होता है। मोह राग, द्वेष जो अनादि काल से भरा हुआ है, उसका त्याग करना वास्तव में त्याग है, जो वस्तु पराई है, उसका त्याग क्या होगा? वह तो पहले से ही त्यक्त है। औषधि, शास्त्र, अभय
और आहार दान करने के लिए धन की आवश्यकता होती है बिना धन के चारों दान संभव नहीं है। अर्थात् जितने भी दान देने योग्य कार्य है।, वे सब धन से ही संबन्ध रखते हैं, फिर भी इन चारों दान को त्याग क्यों कहा जाता है ? जब धन परवस्तु है तब उसका त्याग कैसे संभव है ? पर-वस्तु में त्याग और ग्रहण कैसे संभव है ? इसका उत्तर यह है कि धन-पर वस्तु के प्रति आसक्ति भाव का त्याग करके दान किया जाता है तब वह त्याग कहलाता है। जब धन में राग-भाव नहीं होगा तो धन के माध्यम से किया गया दान त्याग कहलाता है। वास्तव में वस्तु के प्रति राग-भाव का त्याग ही सच्चा त्याग है। यदि आहारादि देने से मान, माय, लोभ-कषाय का त्याग होता है तभी वह दान सार्थक होता है। जब हम