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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009
इस सत्य धर्म से मनुष्य शोभित होता है, सत्य से ही पुण्यकर्म बंधता है, सत्य से संपूर्ण गुणों का समूह महानता को प्राप्त हो जाता है और सत्य से ही देवगण सेवा करते हैं।
6. उत्तम संयम धर्म - संयम का अर्थ है- जीवों की रक्षा करना। 'समितिषु वर्तमानस्य प्राणींद्रियपरिहारस्संयमः। 20 अर्थात् समिति में प्रवृत्त हुए मुनि जो प्राणी हिंसा और इन्द्रिय विषयों का परिहार करते हैं सो संयम है। धर्मवृद्धि के लिए समिति-पालन में तत्पर श्रमण द्वारा प्राणी रक्षा, इन्द्रिय और कषायों का निग्रह करना संयम है।। पंच महाव्रतों का पालन, पाँच समितियों का पालन, कषाय-निग्रह, मन-वचन-काय इन तीन दण्डों का त्याग
और पंचेन्द्रिय विषयों पर विजय का नाम संयम है। जो मुनि जीवों की रक्षा करने में तत्पर है, गमनागमन करते में तृण मात्र का भी छेद नहीं करना चाहते हैं, उस साधु को संयम धर्म होता है। सम्यक्त्व से युक्त भाव लिंगी मुनि को ही यह उत्तम संयम होता है। संयम धारण करने के कारण ही मुनि को संयमी कहा जाता है। संयत मुनियों में प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम की अपेक्षा दो भेद हैं। पाँच स्थावर और त्रस ऐसे षट्काय जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है और पाँच इन्द्रिय तथा मन का जय करना इन्द्रिय संयम है। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण और मन को वश में करना तथा पृथ्वी कायिक, जलकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक ओर त्रसकायिक जीवों की रक्षा संयम है। जो ईर्या, भाषा, एषणा आदान-निक्षेपण ओर प्रतिष्ठापना- इन पाँचों समितियों को पालता है वह संयमी है।
___यद्यपि मुनि का व्यावहारिक जीवन तो पूर्णतया संयममय ही होता है किन्तु यदि अन्तरंग में वीतरागता का भाव नहीं है और कषायों का निग्रह नहीं हुआ तो बाह्य संयम उत्तम संयम नहीं कहलावेगा। उत्तम संयम के लिए तो साधु को अपने जीवन में कषायों का निग्रह करना तथा वीतराग धर्म को अपने जीवन में उतारना होगा। व्यवहार संयम का पालन तो केवल संयम ही कहलावेगा, उत्तम संयम नहीं। सम्यक्त्व सहित पाँचों समितियों का पालन, आठों शुद्धियों का संरक्षण, राग-द्वेष घटाकर वीतरागता की अभिवृद्धि ही उत्तम संयम है। संयम का प्रकरण केवल मुनियों के लिए ही नहीं समझना चाहिए बल्कि संयम की साधना व्यक्ति का पुनीत कर्तव्य है।
7. उत्तम तप धर्म - 'कर्मक्षयार्थ तप्यते इति तप: अर्थात् कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है, वह तप है। कर्मक्षय के लिए शरीर और इन्द्रियों को तप्त करना तप है। रागादि समस्त परभाव तथा इच्छाओं के त्याग से स्व-स्वरूप में प्रतपन-विजयन करना तप है। वस्तुतः तप करना मनुष्य गति में ही संभव है, क्योंकि नरक, व देवलोक में औदारिक शरीर का उदय तथा पाँच महाव्रत नहीं होते। त्रिर्यचों में भी महाव्रत आदि का पालन संभव नहीं है। अत: वीतरागता की सिद्धि के लिए धीर-वीर साधुओं को तप का नित्य संचय करना चाहिए।
यह तप अनशन, उनोद आदि के भेद से बारह प्रकार का है। चार प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन तप है। भूख से कम खाना उनोदरतप है। भिक्षा के इच्छुक मुनि का एक घर या दो घर आदि का संकल्प करना वृत्ति-परिसंख्यान तप है। आशा की निवृत्ति