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________________ 68 अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 निवृत्ति तथा संतोष के भाव को शौच कहते हैं। 'प्रकर्षप्राप्तलोभान्निवृत्तिः शौचम्" अर्थात् प्रकर्षता को प्राप्त ऐसे लोभ का अभाव करना शौच धर्म है। चित्त जो परस्त्री और परध न की अभिलाषा न करता हुआ षट्काय जीवों की हिंसा से रहित हो जाता है, उसे ही दुर्भेद्य अभ्यन्तर कलुषता को दूर करने वाला उत्तम शौच धर्म कहा जाता है।' उत्तम शौच धर्म में उत्तम विशेषण है जो किंचित् मात्र भी जिसके अन्दर मलिनता नहीं है, ऐसे साधु ही इसे पूर्ण रूप से पालन करते हैं। यह धर्म आत्मा का स्वभाव है। लोभादि का अभाव होना ही शौच है। भावों की शुद्धता के बिना व्रत, जप, तप आदि सभी निरर्थक माने जाते हैं। जो समभाव और संतोष रूपी जल से तृष्णा और लोभरूपी मल के समूह को धोता है तथा भोजन में गृद्धता नहीं रखता उसके निर्मल शौच होता है। शुद्धि मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है- बाह्य और आभ्यंतर। जल आदि से बाह्य शरीर आदि के मल का नाश होता है और लोभ कषाय आदि के त्याग से अन्तरंग-पवित्रता होती है। इष्ट वस्तुओं में राग का न होना और अनिष्ट वस्तुओं में द्वेष का न होना शौचधर्म है। इस संसार में प्राणी इस लोभ कषाय के काण ही दुःख उठाते हैं। जिसने इस लोभ कषाय को जीत लिया है वही उत्तम शौच धर्म का धारी है। 5. उत्तम सत्य धर्म - वस्तु का यथार्थ ज्ञान होना और उसको अपने आत्मा में अवधारण करना उत्तम सत्य धर्म है। सत्य धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण है। दूसरों के मन में संताप उत्पन्न करने वाले निष्ठुर कर्कश कठोर वचनों का त्याग करके सबके हितकारी प्रिय वचन बोलना, सत्य धर्म है। पर संतापकारी वचन न बोलना, निन्दा कलह आदि से पूर्ण भाषण से निवृत्त होना सत्य धर्म है। आगमों के कहे हुए आचार को पालन करने में असमर्थ होते हुए भी जो जिन वचन का ही कथन करता है, उसके विपरीत कथन नहीं करता तथा जो व्यवहार में झूठ नहीं बोलता है, वह सत्यवादी है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने कहा है कि- 'सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधुवचनं सत् मित्युच्यते।।' अर्थात् सत्-प्रशस्तजनों में अच्छे वचन बोलना सत्य है। सत् अर्थात् समीचीन और प्रशस्त वचन सत्य कहलाते हैं। सत् स्वभावी आत्मा में जो शांति-स्वरूप वीतराग परिणति उत्पन्न होती है उसे ही उत्तम सत्य की संज्ञा दी जाती है। इसी सत्य धर्म का प्रतिपादक वचन सत्य वचन है जब तक यह आत्मा अपने निज स्वरूप का सच्चा स्वरूप नहीं समझेगा और उसे यथावत् अवधारण नहीं करेगा तब तक सत्य धर्म प्रकट नहीं होगा। पदार्थ की सत्ता को स्वीकार करना ही सच्चा ज्ञान है और उसको यथार्थ जानकर उसको अपने अनुभव में लाना सच्चा चारित्र है। इस सच्चरित्र का राग द्वेष रहित शुद्ध अनुभव वीतरागता है और यही उत्तम सत्य धर्म है। दूसरे शब्दों में आत्मा का सत् स्वरूप का पहचानना सम्यग्ज्ञान है उसको वैसा ही मानना सच्ची श्रद्धा है इसी का यथार्थ कथन करना सत्य वचन है। इस प्रकार के श्रद्धावान् ज्ञान के द्वारा वीतराग भावों को प्रकट होना सत्य-धर्म है। यथार्थ जानना, यथार्थ मानना और उसी में रम जाना उत्तम सत्य धर्म है। इसका कथन करना सत्य वचन है। ये ही जिन-वचन है। इनका कहना ही सत्य वचन है।
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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