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________________ अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 67 यह मार्दव गुण जाति, कुल, बलादि आठ प्रकार के मद से रहित है और चार प्रकार की विनय से संयुक्त है। यह विनय ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार की अपेक्षा चार प्रकार का है। ज्ञान विनय के शब्दशुद्धि अर्थशुद्धि, उभय शुद्धि, काल शुद्धि, विनय उपधान, बहुमान और अनिन्हव- ये आठ भेद हैं। इनका पालन करना और ज्ञानी पुरुष की विनय करना ज्ञानविनय गुण कहलाता है। दर्शन के निःशंकित आदि आठ अंगों का पालन करना और दर्शनधारी की विनय करना दर्शन विनय गुण है चारित्र के अतिचारों को दूर कर चारित्रधारी की विनय करना तथा गुरु की प्रत्यक्ष - परोक्ष में मन-वचन-काय से विनय करना चारित्र विनय गुण है। गुरुओं की वैयावृत्ति करना, उनके अनुकूल प्रवृत्ति करना उपचार विनय गुण है। यह विनय कायिक, वाचिक और हृदय से की जाती है ।" 'मार्दव' शब्द के साथ उत्तम लगा हुआ है जो सम्यक्त्व का द्योतक है। अर्थात् सम्यक्त्व स कोमल परिणामों का होना उत्तम मार्दव है। यह धर्म मान का मर्दन करने वाला विमल धर्म है, जो सभी जीवों का हितकारक है। मार्दव गुण के धारण करने से आत्म- परिणाम निर्मल होता है। 3. उत्तम आर्जव धर्म मन, वचन और काय से कपटपूर्ण भावों का सर्वथा अभाव तथा सरल भावों का सद्भाव आर्जव धर्म कहलाता है। यथा - 'ऋजोर्भावः आर्जवं मनोवाक्कायानामवक्रता ।" अर्थात् कुटिल एवं मायाचारी युक्त योग परिणामों से रहित होकर शुद्ध हृदय से चारित्र का पालन करना आर्जव धर्म है।" भाव या परिणामों की विशुद्वि तथा विसंवाद रहित प्रवृत्ति को भी आर्जव धर्म कहा जाता है। - भावविशुद्धिरविसंवादनं चार्जवलक्षणम्' मन, वचन और काय की क्रिया में एकरूपता लाना आर्जव है। जो भाव या विचार ह्रदय से परिणति करता है, अर्थात् काय से भी तदनुसार ही कार्य किया जाता है, तो यह आर्जव धर्म कहलाता है। इसके विपरीत दूसरे को धोखा देना, अधर्म है, जिसके कारण मनुष्य नरकगति का बंध करता है। 2 उत्तम आर्जव धर्म में उत्तम विशेषण है अर्थात् जिन भावों में किचितमात्र भी छल कपट, मायाचारी आदि विभाव न हो वही भाव आर्जव भाव-गुण होता है। यह भाव आत्मा का गुण है। आर्जव धर्म मन को स्थिर करने वाला धर्म है, पाप को नष्ट करके सुख का उत्पादक है। इसलिए इस भव में इस आर्जव धर्म को आचरण में लाना चाहिए- उसी का पालन करना चाहिए उसी का श्रवण करना चाहिए क्योंकि यह धर्म भव का क्षय करने वाला है। 4. उत्तम शौच धर्म- 'शुचेर्भाव: शौचम्' अर्थात भावों का शुद्ध होना ही शौच धर्म है। "लघोर्भावो लाघवं अनतिचारत्वं शौचं प्रकर्षप्राप्तलोभनिवृत्तिः " अर्थात् आत्म परिणामों की मलिनता दूरकर अतिचार रहित अवस्था का नाम लाघव - शौच धर्म है। लोभ की पूर्णत:
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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