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________________ 66 अनेकान्त 62/3, जुलाई सितम्बर 2009 उस समय नग्न देखकर दुष्ट जन उन्हें गाली देते हैं, उपहास करते हैं, तिरस्कार करते हैं, मारते-पीटते हैं, और शरीर को पीड़ित करते है तो भी उस किसी प्रसंग में अपने परिणामों मे कलुषता की उत्पत्ति न होना क्षमा है। सम्यकदृष्टि के द्वारा की गई क्षमा ही वास्तव में उत्तमक्षमा है। वह भय, आशा, स्नेह व लोभ के कारण क्षमावान् नहीं है वह तो वस्तु तत्त्व का यथार्थ वेत्ता है। यद्यपि उदय की तीव्रता के कारण क्रोध का भाव आता है किन्तु सम्यग्ज्ञान के बल से वह उसका ज्ञाता ही रहता है, कर्त्ता नहीं। इस क्षमा गुण के बिना पूजा, व्रत, तप आदि दान सभी व्यर्थ रूप से फलित होते हैं। तथा क्रोध के कारण सभी गुण मिट्टी में मिल जाते हैं। जैसे द्वीपायन मुनि के क्रोध के निमित्त से ही द्वारिका नगरी मुनि सहित भस्म हो गयी थी। ज्ञानी पुरुषों का आभूषण क्षमाभाव है, इसलिए कहा भी गया है. "नरस्याभरणं रूपं, रूपस्याभरणं गुणाः । गुणस्याभरणं ज्ञानं ज्ञानस्याभरणं क्षमा।" अर्थात् मनुष्य का आभरण रूप है, रूप का आभरण गुण है, गुण का आभरण ज्ञान है और ज्ञान का आभरण क्षमा है। अतः क्षमा सर्वश्रेष्ठ गुण / धर्म है। मुनि संघ अपने प्रतिक्रमण एवं सामायिक पाठ में निगोदिया जीव से लेकर पंचेन्द्रिय जीव तक सभी से क्षमा भाव माँगते हुए कहते हैं कि "खम्मामि सव्वजीवानं सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती में सव्वभूएषु, वैरं मज्झं ण केण वि ॥" अर्थात् सभी जीव मेरे को क्षमा करें, और मैं भी सभी जीवों को क्षमा करता हूँ, मेरा सभी जीवों के प्रति मैत्रीभाव है, किसी जीव से मेरा वैर भाव नहीं है। उत्तमक्षमा से युक्त मनुष्य, देव और विद्याधरों से नमस्कृत ऐसा अगणित उत्तम ऋषियों ने अविनश्वर केवलज्ञान को प्राप्त कर भव दुःख भंजन करके सिद्ध - निरजंनपद को प्राप्त कर लिया है। 2. उत्तम मार्दव धर्म - यह गुण / धर्म कषाय के अभाव में प्रकट होता है। 'मृदोर्भावः मार्दवम्' अर्थात् मृदुया नम्र भावों का होना मार्दव धर्म है अथवा अत्यन्त कोमल परिणाम को मार्दव कहा जाता है। " मृदोर्भावो मार्दवं जात्यादिमदावेशादभिमानाभावः । अर्थात् जाति, कुल, रूप, ज्ञान, तप, वैभव, प्रभुत्व, ऐश्वर्य संबन्धी अभिमान या मद का अभाव तथा मृदुभावों का सद्भाव ही मार्दव गुण है। मान कषाय को जीतना उत्तम मार्दव कहलाता है। उत्तम ज्ञान और तपश्चरण में प्रधान तथा समर्थ होने पर भी अपनी आत्मा को मान कषाय से मलिन न होने देना उत्तम मार्दव कहलाता है। 7
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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