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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 रागोत्पादक साधनों के होने पर भी उन सबसे विरक्त होकर आत्मोन्मुखी बने रहना उत्तम ब्रह्मचर्य है। व्यावहारिक रूप से स्त्रीसंगति नहीं करना, उनके रूप आदि को देखने में कोई रुचि नहीं रखना तथा काम आदि कथाएं नहीं करना, सुनना, उनको नवधा ब्रह्मचर्य होता है। अनुभूत स्त्री का स्मरण, उनकी कथाओं का श्रवण और उनसे संसक्तशयन, आदि का त्याग करना ब्रह्मचर्य है। अथवा स्वतंत्र वृत्ति का त्याग करने के लिए गुरुओं के पास रहना ब्रह्मचर्य है। आचार्य शुभचन्द्र जी के अनुसार- जो अपने शुद्ध-बुद्ध स्वरूप में स्थित होता है, परमानन्दमय अमृतरस का आस्वादन करता है, परमानन्द में विचरण करता है, उसमें ठहरता है, उसका अनुभव करता है तथा उसके अमृतरस का पान करता है उसका आस्वादन करता है, उसका उपभोग करता है, वह ब्रह्मचर्य का धारक कहलाता है। जिसके परिपालन से अहिंसादि गुणों की अभिवृद्धि होती है वह ब्रह्मचर्य कहलाता है। ब्रह्मचर्य की आधारशिला पर ही दया, ज्ञान, तप, सत्य, अचौर्य, सम्यक् दर्शन आदि श्रेष्ठ गुण विकसित होते हैं। व्रत, जप-तप, साधना आदि श्रेष्ठ गुणों का प्राण (आधार) ब्रह्मचर्य ही है।
इस प्रकार उत्तम क्षमादि दशधर्म संवर के हेतु रूप में कथन किया गया है। धर्म शब्द वस्तु का स्वभाववाची है। अतः आत्मा का धर्म समतारूपी ही है। क्षमादि दशधर्म तो इसके चिन्ह हैं। जो धर्म लौकिक प्रयोजन की सिद्धि के लिए किये जाते हैं, वे उत्तम धर्म नहीं कहे जा सकते और ऐसे धर्म कभी भी संवर के कारण नहीं हो सकते। अतः आध्यात्मिक प्रयोजन मोक्ष की सिद्धि के लिए विशिष्ट रूप से उत्तम क्षमादि गुणों को जीवन में धारण करना चाहिए।
संदर्भ :
1. आचार्य उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 9, सूत्र 6 2. आर्यिका अभयमती, दशधर्म विवेचन, पृ. 17 3. स्वामी कार्तिकेय - कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा, 394 4. तत्त्वार्थभाष्य 9/6, पृ. 384 5. आचार्य पूज्यपादस्वामी, सवार्थसिद्धि, अध्याय 9 सूत्र 6 6. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन (मूलाचारवृत्ति 11/5) 7. स्वामी कार्तिकेय जी - कार्तिकेयानुप्रेक्षा 395 8. गणिनी आर्यिका ज्ञानमती - दशधर्म पृष्ठ 33 9. मलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन (मूलाचार वृत्ति 11/5) 10. आचार्य कुन्द कुन्द - वारसाणुवेक्खा 63 11. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन ( तत्त्वार्थाधिगमभाष्य 9/6/3) 12. आचार्य पद्मनन्दि -पदमनन्दिपंचविंशतिका - 89 13. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन (मलाचार वृत्ति 11/5) 14. आचार्य पूज्यपाद स्वामी - सर्वार्थसिद्धि 9/6 15. आO पद्मनन्दि - पदमनन्दि पंचविंशतिका - 94 16, स्वामी कार्तिकेय - कार्तिकेयानुप्रेक्षा 397