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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009
आकाश में ही होता है। (3) तीर्थकर के श्रीविहार के चारों ओर हिंसा का अभाव (4) केवलज्ञान के बाद तीर्थकर का कवलाहार नहीं होता है। (5) उपसर्ग का अभाव (6) मुख एक होने पर चारों ओर मुख दिखाई देना। (7) स्वयं की छाया न पड़ना (8) निर्निमेष दृष्टि (9) विद्याओं की ईशता (10) शरीर में नखों एवं बालों का न बढ़ना। (11) अट्ठारह महाभाषा, सात सौ लघु भाषाओं में भी जो संज्ञी जीवों की समस्त अक्षर-अनक्षरात्मक भाषाएं हैं उनमें तालु, दाँत, ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से रहित होकर एक ही सम एक साथ भव्यजनों को उपदेश देना। तिलोयपण्णति में केवलज्ञान के ये ग्यारह अतिशय कहे हैं। अन्तिम अतिशय विशेष है। उधर देवकृतअतिशय पुनः 13 ही हैं। दोनों अतिशयों में संख्या का न्यूनाधिक होना ति. प. के वर्णन की विशेषता है।
भगवान् जिनेन्द्र की स्वभावतः अस्खलित तथा अनुपम दिव्यध्वनि तीनों सन्ध्याकालों में नवमुहूर्तो तक खिरती है और एक योजन पर्यन्त जाती है। ति. प. में इस प्रकार तीन बार ही दिव्य ध्वनि खिरने का उल्लेख है। जबकि गोम्मटसार जीवकाण्ड की संस्कृत टीका में - तीर्थकर की ध्वनि पूर्वाह्न, मध्यान्ह, अपरान्ह और अर्धरात्रिकाल में छह छह घड़ी पर्यन्त बारह सभा के मध्य में सहज ही खिरती है। अत: दोनों प्रकार के कथन मिलते हैं। इसके अतिरिक्त गणधरदेव, इन्द्र एवं चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ यह दिव्य ध्वनि शेष समयों में भी खिरती है। यह दिव्य ध्वनि भव्यजीवों को छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्वों का निरूपण नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा करती है।
तीर्थकरों के श्रीविहार का यह भावात्मक तथ्य है कि (1) संख्यात योजनों तक वन प्रदेश असमय में ही पत्रों, फूलों एवं फलों से परिपूर्ण समृद्ध हो जाता है। (2) काँटों और रेती आदि को दूर करती हुई सुखदायक वायु प्रवाहित होती है। (3) जीव पूर्व वैर को छोड़कर मैत्री भाव से रहने लगते हैं। (4) तीर्थकर के श्रीविहार जितनी भूमि दर्पण तल सदृश स्वच्छ एवं रत्नमय हो जाती है। (5) सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से मेघकुमारदेव सुगन्धि त जल की वर्षा करता है। (6) देव विक्रिया से फलों के भार से नम्रीभूत शालि और जौ आदि सस्य की रचना करते हैं। (7) सब जीवों को नित्य आनंद होता है। (8) वायुकुमार देव विक्रिया से शीतल पवन चलता है। (9) कूप और तालाब आदि निर्मल जल से परिपूर्ण हो जाते हैं। (10) आकाश धुआँ एवं उल्कापातादि से रहित होकर निर्मल हो जाता है। (11) संपूर्ण जीव रोग बाधाओं से रहित हो जाते हैं। (12) यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर स्थित और किरणों की भांति उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्म चक्रों को देखकर मनुष्यों को आश्चर्य होता है। (13) तीर्थकर के श्रीविहार के समय उनके चरणों के नीचे चार दिशाओं और चार विदिशाओं में 7-7 की पंक्ति के हिसाब से 56 कमलों की रचना होती है। किन्तु क्रियाकलाप के अनुसार 225 कमलों की रचना होती है। वैभव के प्रतीक 1. ध्वज 2. भृगार, 3.कलश 4. दर्पण 5.पंखा 6.चमर 7.छत्र 8.सुप्रतिष्ठ ये अष्ठ मंगल द्रव्य तीर्थकर के श्रीविहार के समय आगे चलते हैं।
तीर्थकर को जब केवलज्ञान होता है, तब से चारों प्रकार के देव उनकी सेवा में श्रीविहार आदि में सदैव आते रहते हैं। देशना के अष्ट महाप्रतिहार्य होते हैं जो केवलज्ञान