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________________ अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 मुनि जन विराजते है। दूसरे कोठे में कल्पवासिनी देवियां, तीसरे कोठे में आर्यिका एवं श्राविकाएं, चौथे कोठे में ज्यातिषी देवियाँ, और पांचवें कोठे में व्यन्तर देवियाँ, छठे कोठे में भवनवासिनी देवियां, सातवें कोठे में भवनवासीदेव, आठवें कोठे में व्यन्तरदेव, नवें कोठे में ज्योतिषीदेव दसवें कोठे में कल्पवाली देव, ग्यारहवें कोठे में चक्रवर्ती आदि मनुष्य, बारहवें कोठे में सिंह, हाथी, व्याघ्र आदि तिर्यन्च जीव बैठते हैं। यहां पर बैठे तिर्यंच जीव पूर्व वैर को छोड़कर शत्रु भी उत्तम मित्र भाव से संयुक्त होते हैं। इन बारह कोठों में मिथ्यादृष्टि, अभव्य, असंज्ञी जीव कदापि नहीं होते हैं तथा अनध्यवसाय से युक्त, सन्देह से संयुक्त और विविध प्रकार की विपरीतताओं वाले जीव भी नहीं होते हैं। इसके आगे पांचवी वेदी होती है। इस वेदी के आगे एक के ऊपर एक क्रमशः तीन पीठ होते हैं। प्रथम पीठ के ऊपर उपर्युक्त बारह कोठों में से प्रत्येक कोठे के प्रवेश द्वार में एवं समस्त चारों वीथियों के सम्मुख सोलह-सोलह सोपान होते हैं। इस पीठ पर चूड़ी सदृश गोल तथा नाना प्रकार के पूजा द्रव्य एवं मंगल द्रव्यों सहित चारों दिशाओं में धर्म चक्र को सिर पर रखे हुए यक्षेन्द्र स्थित रहते हैं वे गणधर देवादिक बारह गण में से प्रत्येक गण का प्रमुख - प्रमुख इस पीठ पर चढ़कर तीर्थकर भगवान् की प्रदक्षिणा देकर बार-बार पूजा करते हैं। तथा सैकड़ों स्तुतियों द्वारा कीर्तन कर कर्मो की असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा करके प्रसन्नचित्त होते हुए अपने अपने कोठों में प्रवेश करते हैं अर्थात् अपने अपने नियत स्थान पर जाकर बैठ जाते हैं। प्रथम पीठ के ऊपर दूसरी पीठ होती है। द्वितीय पीठ पर चढ़ने के लिए प्रत्येक दिशा में पाँच वर्ण वाली रत्ननिर्मित आठ-आठ सीढ़ियाँ होती हैं। इस पीठ के ऊपर मणिमय स्तम्भों पर लटकती हुई सिंह, बैल, कमल, चक्र, वस्त्र, गरुड़ और हाथी इन चिह्नों से युक्त ध्वजाऐं शोभायमान होती है।। द्वितीय पीठ पर धूपघट, नवनिधियाँ, पूजाद्रव्य और मंगल द्रव्य स्थित रहते हैं। द्वितीय पीठ के ऊपर तृतीय पीठ होती है। इसमें भी चारों ओर आठ आठ सीढ़ियाँ होती हैं। तीसरी पीठ के ऊपर एक गंधकुटी होती है। यह गंधकुटी, चामर, किंकिणी, वन्दनमाला एवं हारादिक से रमणीय गोशीर, मलयचन्दन और कालागरु इत्यादिक धूपों की सुगंध से व्याप्त, प्रज्वलित रत्नदीपकों से सहित तथा नाचती हुई विचित्र ध्वजाओं की पंक्तियों से संयुक्त होती हैं। सुगंध से व्याप्त होने के कारण इसका नाम गंधकुटी है। गंधकुटी के मध्य पादपीठ सहित स्फटिक मणियों से निर्मित एवं घण्टाओं के समूहादिक से रमणीय सिंहासन होता है। लोक अलोक को प्रकाशित करने के लिए सूर्य सदृश भगवान् तीर्थंकर अरहंतदेव सिंहासन के ऊपर आकाश में चार अंगुल के अन्तराल से विराजमान होते हैं। ___ तीर्थकर को केवलज्ञान होने के बाद कुछ विशेषताएं स्वतः प्रकट होती हैं तथा कुछ विशेषताएं देवों द्वारा नियत होती हैं। तदनन्तर ये विशेषताएं तीर्थंकर के श्रीविहार सहित सदाकाल रहती हैं। पुराण और आगमों में इन्हें केवलज्ञान के अतिशय तथा देवकृत अतिशय कहा गया है। इन विशेषताओं को संक्षेप में इस प्रकार समझ सकते हैं (1) जहाँ जहाँ तीर्थकर का श्रीविहार होता है वहाँ - वहां तीर्थकर के विराजित स्थान के चारों दिशाओं में सौ-सौ योजन तक सुकाल होता है। (2) केवलज्ञान के बाद तीर्थंकर का श्रीविहार सदैव
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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