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अनेकान्त 62/3, जुलाई सितम्बर 2009 सुशोभित होती है। लता भूमि में लतामण्डप बने हुए होते है। लताभूमि के कुछ आगे जाने पर एक स्वर्णमय कोट होता है। यह कोट भी धूलिसाल की तरह गोपुर, द्वारों, मंगलद्रव्यों, नवनिधियों और धूप घंटों आदि से सुशोभित रहता है उसके आगे पूर्वादिक चारों दिशाओं में क्रमश: अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र नामक चार उद्यान होते हैं। इन उद्यानों में इन्हीं नाम वाला एक चैत्यवृक्ष भी होता है। यह वृक्ष तीन कटनी वाली वेदी पर होता है। उसके पास में मंगलद्रव्य स्थापित होते हैं, ध्वजाएँ फहराती रहती हैं तथा वृक्ष के शीर्ष पर मोतियों की माला से युक्त तीन छत्र होते हैं। इस वृक्ष के मूल भाग में अष्टप्रातिहार्यं युक्त अर्हंत भगवान की चार प्रतिमाएँ विराजमान होती हैं। इसी का नाम उपवन भूमि है। इस भूमि पर स्थित वापिकाओं में स्नान करने मात्र से जीवों को एक भव दिखाई देता है तथा वापिकाओं के जल में देखने से सात भव दिखाई देते हैं। उसके आगे पुनः वेदी होती है। इस वेदी के आगे ध्वजभूमि होती है। ध्वजभूमि में माला वस्त्र, मयूर, कमल, हंस, गरुड़, सिंह, बैल, हाथी और चक्र से चिन्हित दश प्रकार की स्वर्ण ध्वजदण्ड सहित निर्मल ध्वजाएँ होती हैं। ध्वजभूमि के बाद में एक स्वर्णमय कोट है । इस कोट में भी पूर्व के समान चार दरवाजे होते हैं। यह कोट नाट्यशालाऐं तथा सुगन्धित धुँआ निकलता हुआ धूप घटों से व्याप्त है। यहाँ नागेन्द्र द्वारपाल के रूप में खड़े रहते हैं।
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उसके आगे कल्पभूमि होती है। कल्पभूमि में कल्पवृक्षों का वन होता है। इन वनों में कल्पनातीत सौन्दर्य सहित दश प्रकार के कल्प वृक्ष होते हैं। ये कल्पवृक्ष नाना प्रकार की बल्लियों तथा वापिकाओं से व्याप्त हैं। यहाँ देव, मनुष्य तथा विद्याधर क्रीड़ा करते रहते हैं। कल्पभूमि में पूर्वादि चारों दिशाओं में क्रमश: नमेरू, मन्दार, सन्तानक और पारिजात नामक चार सिद्धार्थ वृक्ष होते हैं। सिद्धार्थ वृक्षों की सुन्दरता चैत्यवृक्षों के समान है परन्तु इनमें अहंत की जगह सिद्ध की प्रतिमाएँ विराजमान हैं। कल्पभूमि के आगे पुनः एक स्वर्णमय वेदी बनी हुई होती है। इस वेदी के द्वार पर भवनवासी देव द्वारपाल के रूप में खड़े रहते हैं। इस वेदी के आगे जाने पर भवनभूमि है। भवन भूमि में एक से एक सुन्दर कलात्मक और आकर्षक बहुमंजिले भवनों की पंक्ति रहती है। देवों द्वारा निर्मित इन भवनों में देव गीत, संगीत, नृत्य, जिनाभिषेक, जिनस्तवन आदि करते हुए सुखपूर्वक रहते हैं। भवनों की पंक्तियों के बीच में वीथियों गालियाँ बनी होती हैं। वीथियों के दोनों पार्श्व में नव-नव स्तूप बने होते हैं। पद्मरागमणिमय इन स्तूपों में अर्हत और सिद्धों की प्रतिमाएँ विराजमान रहती हैं। इन स्तूपों पर बन्दनमालाएँ लटकी हुई होती हैं मकराकार तोरणद्वार होते हैं। छत्र लगे हुए होते हैं। मंगल द्रव्य रखे होते हैं और ध्वजाऐं फहराती रहती हैं। यहाँ विराजमान जिन प्रतिमाओं की देवगण पूजन और अभिषेक करते हैं । भवनभूमि के आगे स्फटिक मणिमय चतुर्थ कोट आता है। इस कोट के गोपुर द्वारों पर कल्पवासी देव खड़े रहते हैं। इसके पश्चात् अनुपम, मनोहर, उत्तमरत्नों के स्तंभों पर स्थित और मुक्ताजालादि से शोभायमान आठवीं श्री मण्डप भूमि होती हैं। इस भूमि में निर्मल स्फटिक से निर्मित सोलह दीवालों के मध्य वारह कोठे (कोट्ठा) होते हैं। इन कोठों के भीतर पूर्वादिकप्रदक्षिण क्रम से पृथक् बारह गण बैठते हैं। इन बारह कोठों में से प्रथम कोठे में गणधरादि