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________________ अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 81 उपवनभूमि 5.ध्वजभूमि 6.कल्पवृक्षभूमि 7.भवनभूमि 8.श्रीमण्डप भूमि होती है। उसके बाद प्रथमपीठ, द्वितीय पीठ, तृतीय पीठ बनी होती है। समवसरण के बाहरी भाग में सबसे पहले धूलिसाल कोट होता है। यह समवसरण की सीमा दीवार कही जा सकती है। यह धूलिसालकोट पाँच वर्णवाला, विशाल, समानगोल मानुषोत्तर पर्वत के आकार सदृश है। इसमें जगह-2 पताकाएं हैं। इसकी सुन्दरता तीनों लोकों को आश्चर्य चकित करती है। आचार्य यतिवृषभ ने तो इसके लिए 'तिहुवण विम्हयजणणी" शब्द का प्रयोग किया है। आचार्य जिनसेन तो इसे मानो इन्द्रधनुष ही धूलिसाल के रूप में समवसरण की सेवा कर रहा हो" के रूप में वर्णित किया है। आदि पुराण में इसे कई वर्णवाला कहा है। जैसेधूलिसाल कहीं पर तो सुवर्ण के समान पीला है, कहीं मूंगा के समान लाल है आदि-आदि। धूलिसाल कोट की चारों दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित ये चार द्वार है। ये तोरण द्वार अत्यन्त सुन्दर हैं। इन द्वारों के बाहर मंगल द्रव्य, नवनिधिधूपघट आदि युक्त पुतलियाँ स्थित हैं। प्रत्येक द्वार के मध्य दोनों बाजुओं में एक एक नाट्यशाला होती है। इस नाट्यशाला में देवांगनाएं नृत्य करती रहती हैं। धूलिसाल के चारों गोपुरों में से प्रत्येक के हाथ में उत्तम रत्नदण्ड को लिए हुए ज्योतिष्क देव द्वार रक्षक होते हैं। इन द्वारों के अन्दर प्रवेश करने पर कुछ आगे जाने पर चारों दिशाओं में चार मान स्तम्भ होते हैं। प्रत्येक मानस्तम्भ चारों ओर से दरवाजे सहित तीन परकोटों से परिवेष्टित होता है। ये मानस्तंभ तीन पीठिका सहित वेदी पर अवस्थित होते हैं। इन मानस्तम्भों पर घण्टा, ध्वज, चामर आदि कलात्मक वस्तुएं उत्कीर्ण होती हैं। मानस्तंभों के मूल और ऊपरी भाग में चारों दिशाओं में अष्ट प्रतिहार्य सहित अरिहन्त भगवान की प्रतिमाएं विराजमान होती हैं। मानस्तंभों के चारों ओर चार-चार वापिकाएं होती हैं। एक एक वापिका के प्रति दो-दो कुण्ड होते हैं, इन कुण्डों में देव, मनुष्य तिर्यंच पैर धोकर ही आगे प्रवेश करते हैं। ये मानस्तंभ अपने अपने तीर्थंकर के समय उनकी ऊँचाई से बारह गुणा अधिक ऊँचाई वाले होते हैं। मानस्तंभ नाम की सार्थकता सिद्ध करते हुए आचार्य यतिवृषभ कहते हैं- मानस्तंभ को दूर से ही देखने पर अभिमानी मिथ्यादृष्टियों का अहंकार दूर हो जाता है इसलिए इसे मानस्तंभ कहते हैं। उसके बाद चैत्य प्रासाद भूमि है। वहाँ एक चैत्य प्रासाद है जो वापिका, कूप, सरोवर, वन, खण्डों से मण्डित पांच-पांच प्रासादों से सहित है। चैत्य प्रासाद भूमि के आगे रजतमय वेदी बनी रहती है। वह धूलिसाल कोट की तरह आगे गोपुर द्वारों से मण्डित है। ज्योतिषी देव द्वारों पर द्वारपाल का काम करते हैं। उस वेदी के भीतर की ओर कुछ आगे जाने पर कमलों से व्याप्त अत्यंत गहरी परिखा होती है जो कि वीथियों सड़कों को छोडकर समवसरण को चारों ओर से घेरे हुए होती है। परिखा के दोनों तटों पर लतामण्डप बने होते हैं। लतामण्डपों के मध्य चन्द्रकान्तमणि मय शिलाएँ होती हैं। जिन पर देवगण विश्राम करते हैं। इसे खातिका भूमि कहा गया है। यह खातिका भूमि फूले हुए कुमुद, कुवलय, कमल वनों तथा हंसादि पक्षियों सहित होती है। खतिका भूमि के आगे रजतमय एक वेदी होती है। यह वेदी पूर्ववत् गोपुर द्वारों आदि से सहित होती है। इस द्वितीय वेदी से कुछ आगे जाने पर लताभूमि होती है। इसमें पुन्नाग, तिलक, बकुल, माधवी, इत्यादि नाना प्रकार की लताऐं
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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