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________________ अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 के बाद से सदा साथ में रहते हैं। प्रातिहार्य तीर्थकर भगवान् के पहिचान के विशेष लक्षण हैं। ये प्रातिहार्य तीर्थकर के सिवाय अन्य किसी भी महापुरुष के नहीं पाये जाते हैं। इन प्रातिहार्यो को धारण करने की योग्यता जिनमें होती है वे अरिहंत कहलाते हैं। ये प्रातिहार्य तीर्थकर परमात्मा के महिमा बोधक चिह्न के रूप में माने जाते हैं। प्रातिहार्य के शब्दार्थ से भी स्पष्ट होते हैं कि "प्रतिहारा इव प्रतिहारा सुरपतिनियुक्ताः देवास्तेषां कर्माणि कृत्याणि प्रातिहार्याणि" प्रातिहार्य की इस युत्पत्ति के अनुसार देवेन्द्रों द्वारा नियुक्त प्रतिहार-सेवक का कार्य करने वाले देवता को तीर्थकर अरिहन्त के प्रतिहार कहते हैं और उनके द्वारा भक्ति हेतु रचित 1.अशोकवृक्ष 2.सिंहासन 3.भामण्डल 4.तीनछत्र 5.चमर 6.सुरपुष्पवृष्टि 7. देवदुन्दुभि 8. देवों द्वारा भक्ति सहित जय-जय ध्वनि को प्रातिहार्य कहते हैं। (1) जिस वृक्ष के नीचे तीर्थकर को केवलज्ञान होता है वही अशोक वृक्ष है, ऐसा ति.प. में उल्लेख है। किन्तु अन्य ग्रंथकारों के अनुसार समवसरण में विराजमान तीर्थकर के सिंहासन पर अशोकवृक्ष होता है वह पृथ्वीकायिक है तथा देवरचित है। शोक रहित तीर्थकर के मस्तक पर होने के कारण इसका नाम अशोक वृक्ष है। तीर्थंकरों का सान्निध्य प्राप्त करने वाले जीव शोक रहित हो जाते हैं यही अशोक वृक्ष का भावात्मक तथ्य है। तीर्थकर भगवान् जिन वृक्षों के नीचे दीक्षा धारण करते हैं वही उनका अशोकवृक्ष है ऐसा वर्णन भी आदिपुराण में है। तीर्थकर यद्यपि अधर में विराजते हैं तथापि वैभव का प्रतीक (2) उनसे चार अंगुल नीचे सिंहासन रहता है। (3) तीर्थकर परमात्मा के मस्तक के चारों ओर प्रभामण्डल होता है। प्रभामण्डल के विषय में पूज्य मुनि श्री प्रमाणसागर जी का भावात्मक चिंतन अत्यन्त रोचक है। शास्त्रसारसमुच्चय की जैनतत्वविद्या व्याख्या में मुनिश्री लिखते हैं - Occult Science के अनुसार भामंडल (Halo) महान् व्यक्तियों के सिर के पीछे गोलाकर में पीले रंग के चक्र जैसा होता है। तीर्थंकरों का प्रभावलय उनकी परम औदारिक, अनुपम देह से निकलती हुई कैवल्य रश्मियों का वर्तुल मण्डल है। उनकी दिव्य प्रभा के आगे कोटि कोटि सूर्यों का प्रभाव भी हतप्रभ हो जाता है। सामान्य व्यक्तियों के पीछे पायी जाने वाली भावधारा को आभामण्डल कहते हैं। यह सबल और निर्बल दो प्रकार का होता है। जिनका चरित्र अच्छा हो, आत्मबल अधिक हो, उनका आभामण्डल सबल और जिनकी नैतिक भावधारा हीन हो उनका आभामण्डल निर्बल होता है। यह व्यक्ति की भावधारा का प्रतीक है। सामान्य व्यक्तियों का आभामण्डल परिवर्तनशील होता है। बाध्य तत्त्वों के प्रभाव से उनकी भावधारा सदैव बदलती रहती है। जब कि असामान्य और निर्मल भावधारा वाले व्यक्तियों पर अशुद्ध वायु मण्डल का प्रभाव नहीं पड़ता। यह अपने आप में इतना सशक्त होता है कि अन्य भावधारा से प्रभावित नहीं होता, बल्कि यह अधिक बलवान् होकर अन्यों को अपने से प्रभावित भी करता है। यही कारण है कि महापुरुषों का सान्निध्य हमें अपनी तरंगों से प्रभावित कर प्रसन्नता प्रदान करता है। इससे निकलने वाले तैजस रश्मियाँ अलौकिक और शांत होती हैं। तीर्थकरों के भामण्डल की प्रतिच्छाया में भव्यात्मा अपने अतीत के तीनभव, एक वर्तमान और आगामी तीन भव इस प्रकार सात भवों को देख
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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