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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009
सकता है। (4) तीर्थंकर के मस्तक पर तीन छत्र तीन लोकों के साम्राज्य के सूचक होते हैं। (5) तीर्थकर भगवान के दोनों ओर देवों द्वारा चौसठ चमर ढोरे जाते हैं। चमर सदैव नीचे से ऊपर की ओर ढोरे जाते हैं। ये तीर्थकर के वैभव के प्रतीक है। नीचे से ऊपर की
ओर ढोरने से यह भावपक्ष उजागर होता है कि जो प्रभु को नमस्कार करता है वह उच्चगति को प्राप्त होता है। आचार्य मानतुंग जी भक्तामर स्तोत्र में मनोहारी शब्द चित्र में कहते हैं कि -
कुन्दावदात - चलचामर - चारुशोभं, विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम्। उद्यच्छाशांकशुचिनिर्झरवारिधार,
मुच्चैस्तटं सुरगिरेदिव शातकौम्भम्॥" हे परमात्मा ! आपका स्वर्णिम देह ढुरते हुए चमरों से उसी भांति शोभा दे रहा है जैसे स्वर्णमय सुमेरुपर्वत पर दो निर्मल जल के झरने झर रहे हैं। (6) पुष्पवृष्टि भगवान् के चरण कमलों के मूल में गिरती है। भक्तामरस्तोत्रकार ने इसे चित्ताकर्षक शब्दों में कहा है कि -
मन्दार-सुन्दर-नमेरु-सुपारिजात-, सन्तानकादिकुसुमोत्कर- वृष्टिरुद्धा। गन्धोदबिन्दु शुभमन्दमरुत्प्रपाता
दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिर्वा॥ ये पुष्पों की पंक्ति ऐसी प्रतीत होती है मानो आपके वचनों की पंक्तियाँ फैल रही हो। (7) तीर्थकर के सान्निध्य में ऊपर आकाश में भुवन व्यापी दुन्दुभि ध्वनि होती है। दुन्दुभिनाद सुनते ही आबालवृद्धजनों को अपार आनंद का अनुभव होता है और देवाधिदेव अरिहन्त प्रभु के श्रीविहार की सूचना भी सर्वजनों को एक साथ मिलती है। जगत् के सर्वप्राणियों को उत्तमपदार्थ प्रदान करने में यह दुन्दुभि समर्थ है। यह सद्धर्मराज अर्थात् परम उद्धारक तीर्थकर भगवान् की समस्त संसार में जयघोष कर सुयश प्रकट करती है। यह भावचित्र भक्तामर रचियता का है।
गंभीरतार-खपूरित - दिग्विभागस्, त्रैलोक्यलोकशुभसंगमभूतिदक्षः। सद्धर्मराज- जयघोषण-घोषकः सन्,
खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी॥ (8) गाढ़ भक्ति में आसक्त हाथ जोड़े.. हुए एवं विकसित मुख कमल से संयुक्त संपूर्ण गण (द्वादश) प्रत्येक तीर्थकर को घेर कर स्थित रहते हैं। पुराणों में इस प्रातिहार्य का दूसरा रूप है दिव्यध्वनि। किन्तु ति. प. में उपर्युक्त रूप में ही प्रातिहार्य वर्णित है। ये प्रातिहार्य देवों द्वारा किए जाने से इनमें दिव्यध्वनि के बजाय भक्ति सहित गणों का खड़े रहना या जय-जय ध्वनि होना रूप प्रातिहार्य उपयुक्त है। तीर्थंकर की परम पवित्र भावना