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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009
का परिणाम है कि समवसरण के कोठों के क्षेत्र में यद्यपि जीवों का क्षेत्रफल असंख्यातगुण है तथापि वे सब जीव एक दूसरे से अस्पृष्ट रहते हैं। उनकी भावात्मक चरमोत्कृष्टता से बालक प्रभृति सभी जीव समवसरण में प्रवेश करने अथवा निकलने में अन्तर्मुहूर्तकाल के भीतर संख्यात योजन चले जाते हैं। वहां कभी भी भगदड़ नहीं होती है। समवसरण में सदैव आतंक, रोग, मरण, वैर, कामबाधा, पिपासा तथा क्षुधा की पीड़ा नहीं होती है।"
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तीर्थंकर भगवान का श्री बिहार केवलज्ञान के बाद निर्वाण प्राप्त होने तक अर्थात् आयु पूर्ण होने तक सर्वत्र होता रहता है जैसे महावीर भगवान् ने 30 वर्ष तक श्री विहार किया । पुराणों में अन्यत्र भी इस प्रकार का उल्लेख मिलता है। मुनिसुव्रत भगवान् ने साढ़े सात हजार वर्ष तक श्री विहार किया। 2
घातिया कर्मों का क्षय होते ही तीर्थंकर भगवान् में पर पवित्रता प्रकट हो जाती है। उनके आत्मतेज का प्रसार सारे लोक में होने लगता है। उनका प्रभाव असाधारण हो जाता है। यही कारण है कि तीर्थंकर का जहां भी श्री विहार होता है वहाँ सभी संतुष्ट, सुखी, स्वस्थ तथा संपन्न हो जाते हैं। तीर्थंकर के आत्मप्रभाव से प्रकृति भी प्रफुल्लित हो जाती है। पृथ्वी धनधान्य से परिपूर्ण हो जाती है श्रेष्ठ अहिंसामयी एक आत्मा का यह प्रभाव है। आज के वैज्ञानिक युग में यह बात सिद्ध हो चुकी है कि मनुष्य के भावों का प्रभाव वातावरण पर पड़ता है। पवित्र आत्माओं के शरीर से निकलने वाली तरंगे वातावरण को विशुद्ध बनाती है जबकि अपवित्र आत्माएं वातावरण को विषाक्त बनाती है। तीर्थंकर प्रभु तो परम पवित्र होते हैं। तीर्थंकर भगवान् अहिंसा के देवता हैं। उनके समक्ष हिंसा के परिणाम दूर हो जाते हैं। जहाँ जहाँ पर भी उनका श्री विहार होता है वहाँ वहां सभी को अभय प्राप्त हो जाता है। क्रूर से क्रूर प्राणी भी तीर्थंकर के प्रभाव से करुणामूर्ति बन जाता है। उनके समीप में जन्मजात पैर रखने वाले प्राणी शेर-गाय आदि भी एक घाट पर पानी पीते हैं।
अनन्त चतुष्टय तो उनके अन्तरंग गुण हैं। वे तो शाश्वत उनके साथ ही रहेंगे। तीर्थंकर का श्री विहार तेरहवें गुणस्थान के अन्तर्गत माना गया है। चौथे से चौदहवें तक उत्तरोत्तर विशुद्धि के गुणस्थान है। तेरहवां / चौदहवां गुण स्थान परम विशुद्धि का फल है । अतः तीर्थंकर के भावों की परमपवित्रता के कारण ही ति.प. के अनुसार केवलज्ञान के 11 एवं देवकृत 13, अष्टप्रातिहार्यादि 34 अतिशय विशेष महिमा मण्डित गुण होते हैं।
तीर्थंकर का श्री विहार उनकी इच्छापूर्वक नहीं होता है स्वतः होता है इसी बात को आचार्य श्री कुन्दकुन्द कहते हैं
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ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो यणियदयो तेसिं अरहंताणं काले मायाचारो व इत्थी।"
स्त्रियों के मायाचार की तरह कर्मोदय के उदयकाल में अरहंतों का स्थान ( रुकना), आसन, विहार एवं धर्मोपदेश नियत होता है। तीर्थंकर का अनैच्छिक श्रीविहार होने पर भी सर्वजीवों का सदैव परम कल्याण करता है।