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________________ अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 भारत की मूर्तिकला में बुंदेलखण्ड का योगदान सर्वोत्कृष्ट है। विभिन्न देवी देवताओं की तुलना में जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां बहुत बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। अनेक जगह विशालकाय शिलापट्टों पर उत्कीर्ण द्वि मूर्तिकाऐं ( भरत - बाहुबलि ) त्रिमूर्तिकाऐं (शान्ति कुन्धु अर) और सर्वतोभद्रकाएं मौजूद हैं। त्रिमूर्तिकाऐं भगवान शान्ति कुन्धु-आर जिन की हैं। क्योंकि यह तीनों चक्रवर्ती और कामदेव के साथ साथ तीर्थंकर जैसे महापद के धारी हुए तीर्थंकरों की मूर्तियां प्रायः पद्मासन एवं कायोत्सर्ग अवस्था में ही उपलब्ध है। कुछ ऐसी मूर्तियां हैं जिनकी जटाएं लटकी हुई हैं। अनेक मूर्तियां भ. पार्श्वनाथ की सहस्र फणवाली फणावली एवं सर्प कुण्डलीयुक्त हैं जो विशेष उल्लेखनीय है चतुर्विंशतिपट्ट, मूर्ति ऑकित स्तंभ एवं सहस्रकूट शिलापट्ट प्रायः इस क्षेत्र में अनेक जगह अवस्थित हैं। (ब) देवदेवियों की मूर्ति जैन परंपरा में प्रत्येक तीर्थंकर की यक्षयक्षिणी की जानकारी मिलती है जो शासन देवता के रूप में माने जाते हैं। यक्षों में धरणनेन्द्र और यक्षिणियों में पद्मावती, चक्रेश्वरी अम्बिका की मूर्तियां विशेष रूप से पाई जाती है। विद्या देवियों में महाकाली, महामानसी, गौरी, सरस्वती, लक्ष्मी, नवग्रह, गंगा-यमुना, इन्द्र-इन्द्राणी, कीचक द्वारपाल, क्षेत्रपाल आदि की मूर्तियां पर्याप्त मात्रा में अनेक जगह विद्यमान हैं। इ संबन्ध मंदिर स्थापत्य से ही रहा है तथा उनके पद के अनुसार मंदिर के विभिन्न भागों में इन्हें स्थान दिया गया है। 77 (स) विद्याधर की मूर्तियां जो अपनी विशेष साधना एवं तपस्या के फलस्वरूप विद्याएं सिद्ध कर देते हैं। ऐसे व्यक्ति विद्याधर की कोटि में गिने गए है। प्रायः इन्हें आकाश गामनी विद्याएं सिद्ध होती हैं। और आकाश मार्ग से यह अपनी प्रेयसी के साथ आमोद-प्रमोद पूर्वक घूमा करते हैं। इस प्रकार के स्थापत्तीय भित्ति चित्र अनेक जगह पाए जाते हैं। (द) साधू साध्वियां अनेक जगह आचार्यों को उपदेशरत दिखाया गया है। उनकी समीप साधुवर्ग एवं हाथ में ग्रंथ लिए उपाध्याय तथा भक्तियुक्तनत श्रावकगण ऐसे संघों की वंदना में रत दिखाए गए हैं। बुन्देलखण्ड के बहुतीर्थों में तोरणद्वारों, शिलाफलकों, गुफाओं तथा भित्ति पर उत्कीर्ण ऐसी मूर्तियां अनेक रूपों में पाई जाती हैं। मूर्तियों में भावात्मक प्रधानता विशेष रूप से लक्षित होती हैं। (य) श्रावक-श्राविका श्राविकाओं में आर्यिका या तीर्थंकर की माता ही विशेष रूप से पाई जाती हैं जो इन्द्राणियों द्वारा बहु प्रकार से सेवित है। इसके अलावा साधु संतों में उपदेशामृत सुनते हुए अथवा स्तुति करते हुऐ अनेक जगह श्रावक श्राविकागण दर्शाए गए हैं। । इन मूर्तियों से उनके वस्त्राभूषण, अलंकार, केस, सज्जा, भावभंगिमा एवं भक्ति वंदना की परंपराओं का परिज्ञान होता है। (र) युग्म स्थापत्य में युग्मों और मंडलियों का निर्माण सामाजिक धार्मिक एवं सांस्कृतिक परंपरा को प्रस्तुत करने के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हुआ है। इनमें अलंकरण का बाहुल्य है। काम शास्त्र को साकार मूर्तिरूप में प्रयुक्त कर भोगविलास रागरंग का चित्रण मंदिर की बाह्य भित्तियों पर दर्शाए मंदिर के अंदर शांत और पावन वातावरण में प्रवेश कराने की प्रवृत्ति का अनुकरण बुन्देलखण्ड के अनेक तीर्थों में देखने को मिला है। खजुराहो इसका जीता जागता गढ़ है रति चित्रों के यह युग्म प्रेमासक्त और संभोग रत
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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