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अनेकान्त 62/3, जुलाई सितम्बर 2009 के रूप में पाए जाते हैं। शारीरिक रूप लावण्य साजसज्जा के अलावा मनोभावों की अभिव्यक्ति इन मूर्तियों से ऐसे प्रगट होती है जैसे यह जीवित रूप में अपनी अभिव्यक्ति प्रगट कर रहे हों। कलाकार के कला की अद्वितीयता इन युग्मों में देखने को मिलती है। राग रंग के प्रतीक अनेक नृत्य, वाद्य संगीत मंडलियों का मूर्तिगत बनाने की अनूठी कला भी इनमें देखने को मिलती है। इस अद्वितीय कला को देखकर पत्थर को भी मोम बनाने वाली यहां कला है की उक्ति चरितार्थ होती है।
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(ल) प्रतीक मानवीय संस्कृति की समुन्नति में प्रतीक का अभ्युदय आरंभ से ही नाना रूपों में आगे आया। आरंभ में सकारात्मक पुनः अतदाकार और बाद में तदाकार के रूप में यह अपने विकासक्रम में आई, जैन परंपरा में प्रतीक का अस्तित्व आरंभ से ही रहा। ध र्मचक्र, ध्वजा, चैत्य, वृक्ष, पुष्प, पात्र, स्वस्थि, स्तूप, मानस्तंभ, अष्ट मंगल, अष्ट प्रातिहार्य, सोलह स्वप्न आदि अनेक प्रकार के प्रतीक शुभ माने गए हैं। यह प्रतीक धर्म संस्कृति और आधेय आधारों की एक ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि अपने आप में समाहार किए हुए हैं।
(व) पशु-पक्षी इनको मूर्तिगत बनाने का कारण मात्र अलंकरण ही था तीर्थकरों के चिन्हों के रूप में या देवी-देवताओं के आसन के रूप में इनका निर्माण किया गया। हाथी, सिंह, वृषभ, अश्व, बंदर, कुत्ता, सर्प, मत्स्य, कच्छप आदि मूर्तिरूप अनेक जगह देखने को मिलते हैं जो भित्तियों द्वारा अथवा मूर्ति के आसनों में गढ़े गए हैं।
आसन और मुद्राऐं तथा प्रकृति चित्रण तीर्थंकर की मूर्तियाँ तो मात्र कायोत्सर्गासन अथवा पद्मासन के रूप में ही प्राप्त होती हैं परन्तु देवी देवताओं के आसन अनेक प्रकार के पाए गए हैं। कमल, अशोकवृक्ष, कल्पवृक्ष, लताएँ आदि के अंकन में कलाकारों ने आद्वितीय सफलता प्राप्त की है। इन आयामों से हम कला के विभिन्न विकासक्रमों का अध्ययन प्राप्त कर सकते हैं।
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सामाजिक और धार्मिक चेतना के इन पुरातन गढ़ों में जैन धर्म के विकास और उसकी संस्कृति की समुन्नति में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। बुन्देलखण्ड आज भी भारत के हीलिए नहीं अपितु विश्व के लिए अपनी अनूठी कला और संस्कृति की गरिमा का पान करा रहे हैं। बुन्देलखण्ड में ऐसे शताधिक पुरातन क्षेत्र हैं जहां वास्तुकला के वर्णित आयामों का स्वरूप दर्शन हमें देखने को मिलता है। मुख्य रूप से बुन्देलखण्ड के उन ऐतिहासिक पुरातन स्थलों को हम स्मरण करेंगे जिनसे जैन संस्कृति और कला का अतुल भंडार भरा है। ऐसे स्थलों में मुख्य रूप से खजुराहो, बूढ़ी चन्देरी, मदनपुर, देवगढ़, बालावेहट, थूवौन, रेदीगिरि (नैनागिरि) बजरंगढ़, पवा, विठला, रखेतरा, आमनचार, गुटीलीकागिरि, स्वर्णगिरि (सोनागिरि), नारियल कुंड विदिशा, बरूआसागर मठखेरा कन्नौज, नोहटा, विनैका, पाली, त्रिपुरी, अमरकंटक, बानपुर, सोहागपुर, पचराई, कुंडलपुर, अहार, पपौरा, झांसी संग्रहालय, द्रोणगिरि, निसई, उदमऊ, कोनीजी, नवागढ़, पाटनगंज, करगुंवा, ग्यारसपुर, गोलाकोट, जहाजपुर इवई, चांदपुर, सीरोन, सेरोन, कारीतलाई वितहरी पठारी विदिशा, बड़ागांव, भेड़ाघाट, ललितपुर, जतारा, बंधा आदि प्रमुख हैं।
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प्रधान संपादक- वीतरागवाणी (मासिक), टीकमगढ़ (म.प्र.)