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________________ तीर्थकर का श्रीविहार वैचारिक धरातल पर -डॉ. धर्मेन्द्र जैन संसार सागर को स्वयं पार करने तथा दूसरों को पार कराने वाले महापुरुष तीर्थकर कहलाते हैं। दर्शनविशुद्धि आदि आत्मा की पवित्र सोलह भावनाओं द्वारा ही यह उत्कृष्ट तीर्थकर पद प्राप्त होता है। जैन दर्शन में इसे “षोडशकारण भावना भाने से तीर्थकर प्रकृति का बंध होता है" के रूप में जाना जाता है। तीर्थकर जैनधर्म का विशेष शब्द है। "तीर्थ करोतीति तीर्थकरः"। जो धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं वे तीर्थकर हैं। श्री अपराजितसूरि भगवती आराधना की विजयोदया टीका में तीर्थकर का लक्षण बताते हुए कहते हैं- "तरन्ति संसारं येन भव्यास्तत्तीर्थम् कैश्चन (कंचन) तरन्ति श्रुतेन गणधरैर्वालम्बनभूतैरिति श्रुतं गणधरा वा तीर्थम्। तदुभयात्तीर्थकरः अथवा तिसु तिठदित्ति तित्थं इति व्युत्पत्तै तीर्थशब्देन मार्गोत्रयात्मक: उच्यते तत्करणात्तीर्थकरो भवति। जिसके आश्रय से भव्य जीव संसार से पार उतरते हैं- मुक्त होते हैं- वह तीर्थ कहलाता है। कितने भी भव्य श्रुत अथवा गणधरों के आश्रय से तरते हैं अतः श्रुत और गणधर भी तीर्थ कहलाते हैं। इसलिए श्रुत व गणधर रूप तीर्थ को जो करते हैं वे तीर्थकर कहलाते हैं। इस विषय में अन्यत्र भी कहा है- "तित्थयरे भगवंते अणुत्तरपरक्कमे अमियनाणी तिण्णे सुगइगइगए सिद्धियहपदेसए वंदे" । जो अनुपम पराक्रम के धारक-क्रोधादि कषायों के उच्छेदक, अपरिमितज्ञानी-केवलज्ञानी, तीर्थ- संसार समुद्र के पारंगत, सुगतिगतिगत-उत्तम पंचम गति को प्राप्त और सिद्धपथ के उपदेशक हैं, वे तीर्थकर कहलाते हैं। इस प्रकार जैन दर्शन के महापुरुषों में तीर्थंकर भगवान् को सर्वोत्कृष्ट महापुरुष माना गया है। पूज्य मुनिश्री प्रमाणसागर जी शास्त्रसारसमुच्चय की व्याख्या जैनतत्वविद्या में तीर्थंकर के बारे में लिखते हैं- तीर्थ शब्द का एक अर्थ घाट भी होता है। तीर्थकर सभी जनों के लिए संसार समुद्र से पार उतारने हेतु धर्म रूपी घाट का निर्माण करते हैं। तीर्थ का अर्थ मूल या सेतु भी होता है, कितनी ही बड़ी नदी क्यों न हो, सेतु द्वारा निर्बल से निर्बल व्यक्ति भी उसे सुगमता से पार कर सकता है। तीर्थकर संसार रूपी सरिता को पार करने के लिए धर्मशासनरूपी सेतु का निर्माण करते हैं। इस धर्मशासन के अनुष्ठान द्वारा आध्यात्मिक साधना कर जीवन को परम पवित्र और मुक्त बनाया जा सकता है। तीर्थकर मानव जगत् को शिवपथ दिखाकर उस पर चलने की प्रेरणा और बल प्रदान करते हैं।' जैन दर्शन में मान्य एवं अत्यन्त पूजनीय सर्वोत्कृष्ट महामना तीर्थंकर का धर्मोपदेश तथा विश्वकल्याण का संदेश तीर्थकर के श्री विहार बिना संभव नहीं है। पूर्णज्ञान के बिना तीर्थकर भगवान् अपने आपको विश्वकल्याण तथा धर्मोपदेश में असमर्थ मानते हैं, संभवतः इसी कारण तीर्थकर दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त होने तक मौन धारण करते हैं। तीर्थकर
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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