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अनेकान्त 62/3, जुलाई-सितम्बर 2009
किया गया है। इस युग के प्रत्येक काल में एक शैली विशेष का अभ्युदय हुआ तदनुसार मंदिरों आदि का निर्माण किया गया। इस युग के मंदिरों की साज-सज्जा पर विशेष महत्त्व दिया गया है। इस काल में चार प्रकार की शैली मुख्य रूप से प्रचलित हई।
iगुर्जर प्रतिहार शैली - इस शैली के अन्तर्गत निर्मित मंदिरों के भीतर गर्भगृह और सामने मण्डप बनाया जाता था बुन्देलखण्ड में इस शैली के मंदिर बहुमात्रा में प्राचीन नगरों तीर्थो में पर्याप्त मात्रा में अवस्थित हैं। कला और स्थापत्य की पर्याप्त संवृद्धि इस समय हुई। ___ii कलचुरी शैली - इस शैली के मंदिरों के बाहरी भागों की साज-सज्जा विशेष रूप से पाई जाती है। तथा मंदिरों के शिखर की ऊँचाई भी बहुत होती है। बुन्देलखण्ड में इस शैली के मंदिरों का निर्माण बहुत स्थानों पर हुआ है। इस युग के मंदिरों की बाह्य भित्ति कला अपने आप में अद्वितीय है।
iii चन्देल शैली- इसमें मंदिर की शिखर शैली उत्कृष्ट रूप को प्राप्त हुई रति चित्रों का विकास भी इस शैली के बने मंदिरों में हुआ। जो मंदिर की बाह्य दीवालों पर गढ़ें गए। इस शैली के मंदिर खजुराहो, देवगढ़, चन्देरी आदि स्थानों में पर्याप्त मात्रा में स्थित हैं। ___iv कच्छपघात शैली- इस शैली के मंदिर कला के अद्वितीय नमूने रहे हैं। इस शैली के बने मंदिरों में ऐसा कोई भी भाग शेष नहीं रहता था जो कला से वेष्टित न हों।।
काल विभाजन के इस क्रम में जैन संस्कृति और कला का निरंतर विकास हुआ। बुन्देलखण्ड की जैन वास्तुकला का अध्ययन की दृष्टि से कोई ठोस प्रयत्न नहीं हुआ अन्यथा बुन्देलखण्ड से आज भी प्राचीन इतिहास के साथ जैन संस्कृति और वास्तुकला पर अद्वितीय जानकारी प्राप्त होती। यहां की कला में जैन संस्कृति की अविच्छिन्न धारा प्रवाहित होती रही है। वास्तुकला का तो यह महत्त्वपूर्ण गढ़ रहा है।
भारत में मूर्तिकला की गरिमा बुन्दलेखण्ड में देखने को मिलती है। मूर्तिकला के सर्वोत्कृष्ट गढ़ और मूर्ति निर्माण के केन्द्र स्थल बुन्देलखण्ड में ही विद्यमान है। यहां की मूर्तिकला एक सी नही है। भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-2 प्रकार की मूर्तिकला के उत्कृष्ट नमूने हैं। अनेक प्रकार की आसनों सहित स्वतंत्र तथा विशाल शिला पट्टी पर उकेरित विशालकाय मूर्तियां बहुधा इस क्षेत्र में उपलब्ध हैं। कुछ मूर्तियां आध्यात्मिक दृष्टि से और कुछ लौकिक दृष्टि से निर्मित हुई हैं। लौकिक दृष्टि से बनी मूर्तियां कला के बेजोड़ नमूने हैं। उनमें सामाजिक रहन-सहन आचार-विचार तथा प्रवृत्तियां एवं भावनाओं का तलस्पर्शी परिज्ञान प्राप्त होता है। मूर्तिकला की विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए यह अनुभव होता है कि बुन्देलखण्ड में बाहरी कलाकारों ने आकर भी मूर्ति निर्माण का कार्य संपन्न किया
और अपनी अनूठी कला का परिचय दिया है। वास्तुकला के इन प्रतिमानों को हम मुख्यतः निम्नांकित रूपों में वर्गीकृत कर सकते हैं। जो कला संस्कृति अध्यात्म एवं सामाजिक व्यवस्था के अध्ययन की दृष्टि में महत्वपूर्ण हैं।
(अ) तीर्थकर की मूर्तियां- बुन्दलेखण्ड के पुरातन तीर्थों मंदिरों गहरों में चौबीस तीर्थकरों में प्रायः आदिनाथ, अभिनन्दननाथ, चन्द्रप्रभ, शीतलनाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर तीर्थकरों की मूर्तियां व्यापक रूप में विद्यमान हैं।