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________________ अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 समयसार की "ज्ञान ज्योति" टीका का वैशिष्टय -डॉ. श्रेयांस कुमार जैन अध्यात्म की अजस्र स्रोतस्विनी प्रवाहित करने वाला श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य विरचित समयसार आत्मतत्त्व निरूपण करने वाले ग्रंथों में सर्वश्रेष्ठ है। इस ग्रंथराज पर असाधारण प्रतिभाशाली आचार्य श्री अमृतचन्द्र सूरि ने दण्डान्वय प्रक्रिया का आश्रय लेकर "आत्मख्याति" नामक टीका लिखी, जिसकी भाषा समास बहुल है और दार्शनिक प्रकरणों की अधिकता के करण सामान्यजनों को दुरूह है। इसमें समयसार को नाटक का रूप दिया गया है। नाटकीय निर्देशों को पूरा पूरा स्थान दिया है। यथा पीठिका परिच्छेद को पूर्वरंग कहा गया है। ग्रंथ को नाटक के समान 9 अंकों में विभक्त किया गया है। (1) जीवाजीव (2) कर्ताकर्म (3) पुण्य-पाप (4) आस्रव (5) संवर (6) निर्जरा (7) बन्ध (8) मोक्ष (9) सर्वविशुद्धज्ञान। नवम अंक के अन्त में समाप्ति सूचक पंक्तियाँ इस प्रकार है "इति श्री अमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यामामख्यातौ सर्वविशुद्धज्ञानप्ररूपको नवमोंकः" नवम अंक के बाद नयों का सामञ्जस्य उपस्थित करने के लिए स्याद्वादाधिकार तथा उपायोपेय भावाधिकार नामक दो स्वतंत्र परिशिष्ट जोड़ दिए हैं। यह आत्मख्याति टीका चार सौ पन्द्रह गाथाओं पर लिखी गयी है उसी के मध्य 278 कलश काव्यों के माध्यम से सारभूत विषयों को प्रस्तुत किया है। कलशकाव्य भावपूर्ण एवं रोचक हैं। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि का अनुगमन करते हुए विलक्षण प्रतिभावान् आचार्यवर्य श्री जयसेन स्वामी ने समयसार के ऊपर अत्यन्त सरल और सुबोध संस्कृत में तात्पर्यवृत्ति टीका लिखी। इसमें गुणस्थान विवक्षा से कथन किया गया है कि किस गुणस्थानवर्ती की क्या पात्रता होती है। इससे आचार्य जयसेन स्वामी को विशेष प्रसिद्धि मिली। इन्होंने पदखण्डना विधि को अपनाया है। टीका लिखने की इनकी विशेष विधि है। मूल की सुरक्षा की है। इसीलिए यह विधि श्रेष्ठ है। कुन्दकुन्दाचार्य के मूल शब्दों की संरक्षा में प्राकृत शब्दानुसारी इस टीका का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह 439 गाथाओं पर लिखी हुई तात्पर्यवृत्ति समयसार को दस अधिकारों में विभक्त करती है। आचार्य अमृतचन्द सूरि ने जीवाजीवाधिकार की टीका एक साथ कर एक अंक माना है किन्तु जयसेन स्वामी ने उसको दो अधिकारों में विभक्त कर टीका की है। अन्त में स्याद्वाद अधिकार रूप से ग्रंथ समाप्ति के बाद जोड़ा है। आचार्य जयसेन की विशेषता है कि प्रत्येक अधिकार या उपपरिच्छेद के प्रारंभ में इन्होंने इस अधिकार का विश्लेषण विषय वस्तुओं के अनुसार उत्थानिका के रूप में गाथाओं की संख्या को भी उपस्थित कर दिया। इस टीका ने अध्यात्म और सिद्धांत में रुचि रखने वालों को प्रभावित किया है।
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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