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________________ अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009 इस प्रकार वर्णित कया गया है अर्हन्तो देवता यत्र निग्रंथों दृश्यते गुरुः॥ दया चैव परो धर्मस्तत्र मोक्षः प्रदृश्यते॥ दर्शनेस्मिन्न सन्देह आचारान्प्रवदाम्यहम्। यजनं याजनं नास्ति वेदाध्ययनमेव च। नास्ति सन्ध्यातपो दानं स्वधास्वाहाविवर्जितम्। द्रव्यकव्यादिकं नास्ति नैव यज्ञादिका क्रिया। पितृणां तर्पणं नास्ति नातिथिर्वैश्यदेवकम्। क्षपणस्य वरा पूजा अर्हतो ध्यानमुत्तमम्॥ अयं धर्म समाचारो जैनमार्गे प्रदृश्यते। एतत्ते सर्वमाख्यातं जिनधर्मस्य लक्षणम्॥ अर्थात् जहाँ अर्हन्त को देवता और निग्रंथ मुनि को गुरु मानते हैं, अहिंसा परमधर्म है और मोक्ष की प्राप्ति परम लक्ष्य है। जिस धर्म में यजन-याजन नहीं होता, न ही वेदों का अध्ययन, न सन्ध्या करते हैं, न (ब्राह्मण जैसा) तप और दान। वे देवताओं को स्वाहापूर्वक हवि प्रदान भी नहीं करते और स्वाध्याय पूर्वक पितरों का तर्पण नहीं करते। वैश्वदेव अतिथि नहीं होते। जिस धर्म में क्षपणक (निग्रंथ जैन मुनि) की पूजा और अर्हन्त का ध्यान ही श्रेष्ठ माना जाता है। ये ही उस जैन धर्म के अपने लक्षण हैं। इस प्रकार वैदिक एवं श्रमण संस्कृति- इन दोनों का तुलनात्मक अध्ययन- भारतीय संस्कृति की प्राचीनता, समन्वयशीलता, एवं महत्ता समझने की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। इस हेतु विस्तृत अध्ययन-अनुसंधान अपेक्षित है। किन्तु मैंने यहाँ मात्र कुछ ही बिन्दुओं पर विचार प्रस्तुत किये हैं। - अनेकांत विद्या भवनम् बी-23/45-पी.6, शारदानगर कालोनी, खोजवाँ, वाराणसी
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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