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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009 कर्मकाण्ड मूलक ब्राह्मण साहित्य मूलतः यज्ञ विधियों आदि के ज्ञानार्थ लिखा- गया, इसीलिए वैदिक परंपरा में "इज्या" शब्द यज्ञार्थ बोधक है, जबकि जैन परंपरा में "इज्या" शब्द “पूजा" के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। आदिपुराण (पर्व 38 पद्य 26) में आचार्य जिनसेन ने "पूजा पूजार्हतामिज्या" कहकर पूजा के अर्थ में "इज्या" शब्द का प्रयोग किया गया है महापुराणकार (38/34) ने भी कहा है कि -
एवंविधविधानेन या महेज्या जिनेशिनाम्। विधिज्ञास्तामुशन्तीज्यां वृत्तिं प्राथमकल्पिकीम्॥
अर्थात् विधि- विधान से जिनेन्द्रदेव की जो महापूजा की जाती है, उसे विधिवेत्ता आचार्य, श्रावक के षट्कर्मों में सर्वप्रथम की जाने वाली "इज्जा" वृत्ति कहते हैं।
डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने अपनी पुस्तक "भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान" में लिखा है कि "पूजा पद्धति और संन्यास श्रमण-परंपरा की देन है, क्योंकि दक्षिण भारत, जो कि श्रमण संस्कृति का केन्द्र रहा है, में भक्ति की उत्पत्ति हुई है। जब आर्य श्रमणों के साथ मिश्रित हो गये तो संन्यास और पूजा-विधि दोनों ही धार्मिक अनुष्ठान आर्य-संस्कृति में भी प्रतिष्ठित हो गये, क्योंकि जब आर्यों की यज्ञ-विधियाँ आत्मतुष्टि का साधन न रह सकीं, तो वैदिक आर्यों ने श्रमणों से भक्ति या पूजा विधि ग्रहण की। इसका एक सबल प्रमाण "श्रीमदभागवत" जैसे प्राचीन ग्रंथ का वह प्रसंग है, जिसमें भक्ति नारद से कहती है
उत्पन्ना द्राविडे साहं वृद्धि कर्णाटके गता। क्वचित्क्वचिन्महाराष्ट्र गुर्जरे जीर्णतां गता।
अर्थात् मेरा जन्म द्रविड देश में हुआ, कर्णाटक में मैं बड़ी हुई, महाराष्ट्र देश में कुछ काल तक वास किया और गुजरात में आकर मैं जीर्ण (बूढ़ी) हो गई हूँ। __डॉ. शास्त्री ने आगे लिखा है कि वैदिक आर्य यज्ञ संपादन करते थे और श्रमण लोग पूजा करते थे। अर्धमागधी प्राकृत आगम के मूलसूत्र "उत्तराध्ययन सूत्र" (12/42) में यज्ञ विधियों का अहिंसापरक अर्थ किया है और आध्यात्मिक संकेत प्रस्तुत किये हैं। उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि श्रमण आध्यात्मिकता द्वारा वैदिक आर्यों से समन्वय करने का प्रयास कर रहे थे। उत्तराध्ययन में श्रमण और वैदिक आर्यों के संघर्ष और समन्वय के अनेक प्रमाण उपलब्ध होते हैं। इन तथ्यों से भी यह निष्कर्ष निकलता है कि श्रमण पूजा विधि के आरंभ से ही समर्थक थे। मूर्तिपूजा भी श्रमण परम्परा की देन है स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने प्रमुख ग्रंथ "सत्यार्थ प्रकाश' में इस तथ्य को स्वीकृत और प्रतिपादित भी किया है।
वैदिक परंपरा के पद्मपुराण (भूमिखण्ड श्लोक 17-21) में वैदिक धर्म के लक्षणों के अभाव को ही जैनधर्म का लक्षण बतलाया गया है। उसमें एक निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैन मुनि के वेषधारी मुनि से राजा वेन के पूछे जाने पर उन्हें जैनधर्म के लक्षण बतलाते हुए