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________________ अनेकान्त 62/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2009 23 समयसार की आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति दोनें टीकाओं का सम्यक् स्वाध्याय कर संस्कृति संवाहिका अध्यात्मविद्या प्रवीणा आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माता जी ने दोनों टीकाओं को एक साथ विविध रहस्योद्घाटन के साथ प्रस्तुत करने का विचार बनाया। दोनों संस्कृत टीकाओं का अक्षरशः अनुवाद करते हुए विशेषार्थ भावार्थ सहित "ज्ञानज्योति " नामक टीका लिखी। ज्ञान ज्योति रथ का संपूर्ण देश में प्रवर्तन चल रहा था और गणिनी प्रमुख आर्यिका श्री का समयसार टीका लिखते हुए आत्मरथ प्रवर्तित था अतः टीका क नाम " ज्ञान ज्योति" रखा गया। समयसार पर हिन्दी भाषा में अनेक टीकाएँ लिखी जा चुकीं थीं उनमें विशेषार्थ आदि द्वारा विषयों को भी स्पष्ट किया गया था फिर भी आर्यिकारत्न को व्याख्या लिखने की आवश्यकता महसूस हुई क्योंकि कोई भी टीका आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति तथा अध्यात्मअमृत कलश के हिन्दी भाषा सहित एक साथ नहीं थी । स्वाध्यायियों को अध्यात्म और सिद्धांत के विषय स्पष्ट नहीं हो पाते थे। जो विषय आत्मख्याति से स्पष्ट नहीं होता वह तात्पयवृत्ति स्पष्ट करती है। दोनों टीकाओं का एक साथ अर्थ देखने पर विषय की स्पष्टता हो जाती है इसीलिये माता जी ने दोनों टीकाओं को सार्थ एक साथ तैयार किया। आत्मख्याति टीका के बाद विशेषार्थ और तात्पर्यवृत्ति के पश्चात् भावार्थ लिखकर निश्चयव्यवहार परक अर्थ को सुस्पष्ट कर वर्तमान में व्यवहार को असत्यार्थ और हेय कहने वाले लोगों के भ्रम का निवारण करने और सम्यक् बोध कराने का प्रयत्न किया है। यथा गाथा संख्या आठ' की आत्मख्याति टीका में श्री अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है कि " इति वचनात् व्यवहारनयो नानुसर्तव्य:" इस कथन से व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं किन्तु वही आगे 11वीं गाथा की टीका के अन्त मे कहते हैं " अथ च केषाञ्चित्कदाचित् सोऽपि प्रयोजनवान्'' अर्थात् किन्हीं लोगों को व्यवहार प्रयोजनीभूत है पुनः 12वीं गाथा की टीका में स्वयं श्री अमृतचन्द्र सूरि कह रहे हैं कि जो सोलह ताव से तपे शुद्ध स्वर्ण के समान परमभाव का अनुभव करते हैं, उनके लिए निश्चयनय प्रयोजनवान है, उसके पहले एक दो आदि से लेकर पन्द्रह ताव तक शुद्ध होते हुए सुवर्ण के समान अपरमभाव में स्थितजनों को व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है इसका अर्थ स्पष्ट है कि पूर्ण शुद्ध हुए बारहवें गुणस्थानवर्ती के लिए अथवा जिनके बुद्धिपूर्वक राग का अभाव है ऐसे शुद्धोपयोगी निर्विकल्प ध्यानी मुनि के लिए निश्चय प्रयोजनीभूत है। शेष चतुर्थ, पंचम, षष्ठ, सप्तम गुणस्थानवर्ती जनों को व्यवहार पूर्णतः कार्यकारी हैं। क्योंकि इतनी स्पष्टता अन्य टीकाओं में देखने को नहीं मिलती है। सम्यक्त्व के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने कहा है भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च । आसवसंवरणिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥13॥ (अ.) भूतार्थ से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ये नव पदार्थ ही सम्यकत्व है।
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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