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________________ 16 अनेकान्त 62/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2009 वैदिक परंपरा में " श्रमण " शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख हमें "माण्डूक्योपनिषत्" में मिलता है। इन तथ्यों से स्पष्ट होता है कि उस समय और उसके पहले अनेक आर्येतर जातियाँ थीं, जिनकी समृद्ध और सुसंस्कृत परंपरायें थीं वे वातरसना (वायुरूप वस्वधारी अर्थात् नग्न दिगम्बर, शिश्नदेव (नग्न देवों), व्रात्य, निर्ग्रथ, अर्हत्, आदि को अपना पूज्य (इष्टदेव) मानते थे, जिनके विषय में विशेष जानकारी हमें वेदों से प्राप्त होती है फिर भी भारत की इन मूल प्राचीन परंपराओं की उपेक्षा भी कुछ विद्वानों और इतिहासकारों ने कम नहीं की। इसीलिए प्रो. हायकिन्स ने अपनी पुस्तक "रिलीजन ऑफ इण्डिया ( पृष्ठ 4-5 ) में ठीक ही लिखा है कि “भारत की धार्मिक क्रान्ति के अध्ययन में जो विद्वान् अपना सारा ध्यान आर्यजाति की ओर ही लगा देते हैं और भारत के समस्त इतिहास में द्रविडों ने जो बड़ा भाग लिया है, उसकी उपेक्षा कर देते हैं, वे महत्त्व के तथ्यों तक पहुँचने से रह जाते हैं। इसलिए आज बहुत आवश्यक है कि विद्वान् और इतिहासकार उपलब्ध साहित्यिक पुरातात्त्विक एवं भाषा वैज्ञानिक आदि विपुल साक्ष्यों की अनदेखी न करते हुए श्रमण संस्कृति की एक विशाल मूलधारा की महत्ता की उपेक्षा न कर, उसे भी साथ लेकर चलें, ताकि परस्पर के आदान-प्रदान उनकी भावनात्मक एकता आदि सूत्रों आदि के आधार पर संपूर्ण भारतीय संस्कृति के यथार्थ स्वरूप और गौरव को समझा जा सके। 44 ऋग्वेद में भगवान् ऋषभ तथा वातरशन मुनियों का स्पष्ट उल्लेख है ककर्दवे वृषभो युक्त आसीद (10/102/6) " मुनयो वातरशना: ( 10/136/ 2-3 ) श्रीमद् भागवत पुराण (5/3 वाक्य 20 पृ. 207-208) में भी कहा है " बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षमयया तदवरोधायने मरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणा मूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तन्वावततार " - अर्थात् भगवान् विष्णु ने राजा नाभि (तीर्थंकर ऋषभदेव के पिता) का प्रिय करने के लिए महारानी मरूदेवी के गर्भ में ऋषभदेव के रूप में अवतार लिया था, जिसका उद्देश्य था वातरशना ( श्रमण ऋषियों ) के धर्म को प्रकट करना। भगवान ऋषभदेव चौदह मनुओं की पीढ़ी में पाँचवीं पीढ़ी के मनु थे प्रथम स्वायम्भुव मनु के बाद दूसरे प्रियव्रत, तीसरे आग्नीघ्र, चौथे नाभि और पाँचवें मनु ऋषभ हुए। (भागवत पुराण) वेदों तथा अन्यान्य वैदिक साहित्य में विशेषकर अथर्ववेद के पन्द्रहवें "व्रात्यकाण्ड" में वर्णित "व्रात्यों" का स्वरूप विवेचन श्रमण संस्कृति के अध्ययन के परिप्रेक्ष्य में विशेष महत्त्व रखता है। ये व्रात्य श्रमण संस्कृति के आदर्श प्रतीत होते हैं। डॉ. जगदीशदत्त दीक्षित (नई दिल्ली) ने अपनी पुस्तक "ब्राह्मण तथा श्रमण संस्कृतियों का दार्शनिक विवेचन" (भा. विद्या भवन प्रकाशन) में (पृ. 75) पर व्रात्यों की स्वरूप विवेचना में लिखा है कि व्रात्य किसी जाति विशेष का नाम नहीं है, अपितु जो निजी जीवनचर्या में व्रतों का कठोरता के साथ पालन करते थे, उन्हें व्रात्य कहा जाता
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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