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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2009
जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित श्रमण संस्कृति को अपने इस प्यारे देश का 'भारतवर्ष' यह नामकरण ऋषभदेव के ही ज्येष्ठपुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम से करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इतना ही नहीं अपितु इस देश का प्राचीन “अजनाभवर्ष" - यह नामकरण भी ऋषभदेव के पिता नाभिराज के नाम पर प्रचलित रहा। "भारतवर्ष नामकरण के ये उल्लेख अनेक वैदिक पुराणों में उपलब्ध हैं। यथा-श्रीमद् भागवत पुराण (स्कन्ध पुराण 5, अध्याय 4) में कहा है कि भगवान् ऋषभदेव को अपनी कर्मभूमि "अजनाभवर्ष" में सौ पुत्र प्राप्त हुए, जिनमें से ज्येष्ठ पुत्र महायोगी "भरत" को उन्होंने अपना राज्य दिया और उन्हीं के नाम से इस देश का नाम “भारतवर्ष" कहने लगे। -येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीद् येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति। इसी प्रकार लिंगपुराण (47/21-24) में भी कहा है-हिमाद्रेर्दक्षिणं वर्ष भरतस्य न्यवेदयत्। तस्मात्तु भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः।। विष्णु पुराण (अंश 2, अध्याय 1, श्लोक 28-32) वायुपुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण में भी यही बात कही गयी है।
इस प्रकार ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित यह श्रमण संस्कृति भारत की प्राचीनतम संस्कृतियों में से अन्यतम है।
प्रो. विमलदास कौन्देय के ज्ञानोदय पत्रिका (सितं.1949) में प्रकाशित 'श्रमण संस्कृति' शीर्षक लेख में कहा है- वैदिक आर्यों का धर्म प्रकृति के तत्त्वों की पूजा करना था। वे अच्छे धनुर्धारी थे। वे महत्त्वाकांक्षी भी थे, उन्होंने विजितों को दास बनाया और उनके मुखिया का नाम "सुदास" रखा, जिसका वर्णन ऋग्वेद में है। इनका प्रथम उपनिवेश आज का पश्चिमी पाकिस्तान था। वहाँ वे बड़े-बड़े यज्ञ करते, सोम पीते गीत गाते तथा आनन्द से जीवन व्यतीत करते थे। उनकी संस्कृति उच्च वर्ग के लिए पृथक् थी और दासों के लिए पृथक् थी। संभवतः जाति (वर्ण) व्यवस्था का जन्म यहीं से प्रारंभ हुआ था और पुरुषसूक्त में कालपुरुष की अवधारणा कर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की क्रमशः उसके सिर, छाती, उरू और पैरों में स्थापना कर जाति को अपरिवर्तनीय बना दिया है। __इसके विपरीत हस्तिनापुर, अयोध्या, काशी और मगध आदि राज्यों के आसपास के रहने वाले किसी अन्य (जो कि श्रमण संस्कृति रही होगी, वे उस) संस्कृति के धारक प्रतीत होते हैं। इन प्रांतों के रहने वाले मनुष्यों की संस्कृति का मूल तत्व था “आत्मा"। वे आत्मा के विकास में विश्वास करते थे। जबकि वैदिक आर्यों में वर्ण व्यवस्था, यज्ञ, कर्मकाण्ड, देवता आदि पर जोर दिया जाता था इसके विपरीत मूल भारतीय संस्कृति में मानवीय समानता, आत्मविकास, गुणपूजा और परलोक, कर्मफल आदि पर अधिक जोर दिया जाता था, जो सर्वथा स्वाभाविक था।
श्रमण संस्कृति के बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत के काल में भी इस संस्कृति के मानने वालों को "व्रात्य' कहा गया, पश्चात् उनको 'व्रषण' कहा गया। उन्हें अयज्वन, क्रव्याद आदि भी आर्य लोगों द्वारा कहा जाता था, किन्तु जब वे उनकी तपस्या, आचार-विचार, अहिंसा, सत्य आदि से अधिक प्रभावित हुए, तब उन्होंने उनका नाम "श्रमण" रखा।