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________________ अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 भाषा का उद्देश्य विधेयात्मक स्वरूप न केवल सता के स्वरूप के प्रतिपादन को असम्भव सिद्ध करता है बल्कि उसके प्रति अनेक प्रकार के दार्शनिक विवादों को भी उत्पन्न कर देता है। अनुभव द्वारा पदार्थ के एक-अनेक, परिवर्तनशील-स्थायी, सामान्य विशेष रूप द्विआयामी स्वरूप का ज्ञान होता है। जब दार्शनिक इस सामान्य अनुभव की व्याख्या करना चाहते हैं तो उद्देश्यविधेयात्मक भाषा के विधिनिषेधात्मक स्वरुप से भ्रमित होकर वे अनुभव के एक पक्ष को यथार्थ और दूसरे को भ्रामक स्वीकार कर लेते है। जैसे अद्वैत वेदान्त के अनुसार सता का सामान्य और स्थायी पक्ष वास्तविक है तथा वे उसके परिवर्तनशील विशेष पक्ष को भ्रमात्मक स्वीकार करते हैं और बौद्ध इसकी विपरीत स्थिति को स्वीकार करते हैं। उनके ये एकांगी सिद्धान्त कई प्रकार के अन्तर्विरोधों और समस्याओं को उत्पन्न कर देते हैं। जैन दर्शन के अनुसार भाषा के स्वरूप से उत्पन्न विभिन्न दार्शनिक समस्याओं का समाधान स्याद्वाद को एक कथन शैली के रूप में स्वीकार करने पर स्वतः ही हो जाता है। कहा गया है कि सत्ता पूर्णतया अनिर्वचनीय न होकर वचनीय-अनिर्वचनीय स्वरूप है। उसके परस्पर सापेक्ष अनेक धर्मरूप जटिल स्वरूप को एक साथ अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य भाषा में नहीं है इसलिये वह अनिर्वचनीय है, लेकिन स्यात् शब्द के प्रयोग पूर्वक पदार्थ के इस जटिल स्वरूप की ओर संकेत करते हुए क्रमिक रूप से उसके एक धर्म का वर्णन किया जा सकना सम्भव होने के कारण वह वचनीय भी है। अनुभव द्वारा ज्ञात हो रहे वस्तु के एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि धर्म युगल परस्पर पूरक हैं तथा इनमें एक एक का निषेध किये जाने पर दूसरे का विधान असम्भव है। स्याद्वादनयात्मक दृष्टि द्वारा पदार्थ के इस द्विआयामी स्वरूप को यथार्थतः समझा जा सकता है।' स्यात् पदार्थ नित्य है' इस वाक्य में स्यात् पद के प्रयोग पूर्वक व्यक्ति यह जानता है कि वस्तु सर्वथा नित्य न होकर एक निश्चित अपेक्षा से ही नित्य है तथा उसका यह नित्यात्मक पक्ष अपने अस्तित्व के लिये दूसरे पक्ष-अनित्यात्मक पक्ष की अपेक्षा करता है। इस प्रकार स्याद्वाद द्वारा सामान्य रूप से वस्तु के नित्यानित्यात्मक स्वरूप को जानने के उपरान्त व्यक्ति विभिन्न नयों द्वार क्रमिक रूप से नित्य पक्ष को अनित्य पक्ष सापेक्ष विशिष्ट स्वरूप में और अनित्य पक्ष को नित्य पक्ष सापेक्ष विशिष्ट स्वरूप में जानता है। वह स्याद्वादनयसंस्कृत रूप से एक -अनेक, भेद-अभेद, सामान्य-विशेष आदि सभी धर्म युगलों को परस्पर सापेक्ष विशिष्ट स्वरूप में समझता है तथा उसे अनुभव के एक पक्ष को यथार्थ और दूसरे को भ्रामक मानने की कोई आवश्यकता नहीं रहती। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है लौकिक, वैज्ञानिक, दार्शनिक सभी क्षेत्रों में स्याद्वादनय संस्कृत दृष्टि शाब्दबोध की शक्यता और यथार्थता की अनिवार्य शर्त है।
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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