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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 अनेक विकल्प करते हैं किन्तु जब उसे प्रत्यक्ष पहनते हैं, तब विकल्प नहीं रहता । पहिनने का सुख अलग ही है। इस प्रकार सविकल्प के द्वारा निर्विकल्प का अनुभव होता है। ( दे. ती.म.आ. परंपरा भाग - 4 पे 287-88 )
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14 वर्ष की आयु में गोम्मटसार जैसे आगम ग्रंथों की भाषा- वचनिका लिखी । आजकल 14वर्ष की उम्र में बच्चों के ज्ञान से तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें कैसी दिव्य-प्रतिभा प्राप्त थी। उनका पाण्डित्य क्रमशः निखरता गया और यश भी गगन चूमने लगा था। सोना देखकर चाहे सुन्नू हो या मुन्नू, सभी के मुख में पानी आ जाता है, फिर, यदि राज-सम्मान भी मिलने लगे, तब तो कहना की क्या ? ऐसे लोग प्रायः अहंकारी बन जाते हैं और चन्द्रलोक से बातें करने लगते हैं। लेकिन, एक सच्चे तपस्वी एवं मूक साधक की स्थिति ठीक इसके विपरीत होती है। टोडरमलजी विनयगुण, शीलरूप, भद्र परिणाम एवं आत्मानुशासन से ही ज्ञान की सार्थकता मानते थे। उन्होंने अपने पाण्डित्य एवं यशोवृद्धि के कारण कभी भी अभिमान नहीं किया। त्रिलोकसार जैसे करणानुयोग के कठिन ग्रंथ की सुन्दर एवं सुबोध टीका लिखकर भी उन्होंने अपने को मन्दमति ही माना है। यथा - " इस शास्त्र की संस्कृत टीका जदपि पूर्वे भई है तदपि तहां संस्कृत गणितादिक का ज्ञान बिना प्रवेश होई सकता नाहीं तात स्तोक ज्ञान वालों के त्रिलोक के स्वरूप का ज्ञान होने के अर्थि तिस ही अर्थ काँ भाषाकरि लिखिए है या वि मेरा कर्त्तव्य इतना ही है, जो क्षयोपशम के अनुसारि तिस शास्त्र का अरथ कों जानि धरमानुराग तैं औरनि के जानने के अर्थि जैसे कोई मुखर्ते अच्छर उच्चारि करि देशभाषा रूप व्याख्यान करै तैसें मै अच्छरनि की स्थापना करि लिखोंगा बहुरि छंदनि का जोड़ना, नवीन युक्ति, अलंकारादि का प्रकट करना इत्यादि नवीन ग्रंथकारनि के कार्य हैं, तेती मोतें बने ही नाहीं तातै ग्रंथ का कर्तापना मेरे हैं नाहीं।"
साहित्यिक मर्यादाओं के प्रतिपालक
साहित्य के क्षेत्र में जिस नैतिक मर्यादा एवं साहित्यिक ईमानदारी की आवश्यकता होती है, श्रद्धालु मन से वे उसके प्रतिपालक थे। जो विषय उन्हें अधिक स्पष्ट नहीं होता था, अथवा जिस विषय पर वे अधिक प्रकाश नहीं डाल पाते थे, उस विषय में वे अपनी कमजोरी व्यक्त कर क्षमा-याचना कर लेते थे। उन्होंने त्रिलोकसार की भूमिका (पृ.3) में लिखा है- "इस श्रीमत् त्रिलोकसार नाम शास्त्र के सूत्र नेमिचन्द्र नामा सिद्धान्त चक्रवर्ती करि विरचित हैं, तिनकी संस्कृत टीका का अनुसार लेइ इस भाषा टीका विषै अरथ लिखोंगा। कहीं कोई अरथ न भासैगा ताको न लिखोंगा कहीं समझाने के अर्थि बधाय करि लिखोंगा। ऐसैं यहु टीका बनेगी ता विषै जहाँ चूक जानों तहां बुधजन संवारि शुद्ध करियों छद्मस्थ के ज्ञान सावर्ण हो हैं तात चूक भी परै जैसे जाकों धोरा सूझे अर वह कहीं सिम मारग विषै स्खलित होई तौ बहुत सूझने वाला वाकी हास्य न करै..... ऐसे ही विचारतें इस टीका करने विषै मेरे उत्साह वर्ते है ।
निस्सन्देह ही महाकवि बनारसीदास जी, जिन्होंने कि अपने हिन्दी के सर्व प्रथम लिखित