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________________ 38 अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 में जिनेन्द्र प्रभु की अलौकिक दीपक एवं अदभुत सूर्य जैसी उपमाओं के द्वारा स्तुति की गयी है। इन दोनों ही उपमाओं का प्रयोग भगवान जिनेन्द्र के कैवल्य ज्ञान की स्तुति करने के लिये किया गया है। मानतुंगाचार्य जी ने इस स्तोत्र में भगवान के अन्तरंग एवं बाह्य गुणों की स्तुति करके भक्ति के श्रेष्ठ मार्ग को प्रकाशित किया है। मिथ्यात्व का परिहार मानतुंगाचार्य जी ने भक्तामर स्तोत्र के विभिन्न पद्यों में जिनेन्द्र प्रभु की स्तुति के माध्यम से मिथ्यात्व का परिहार किया है। भक्तामर स्तोत्र के ग्यारहवे पद्य में लिखा है कि "आपके सुन्दर रूप को देखने के बाद यह नेत्र फिर किसी और को देखकर संतोष को प्राप्त नहीं होते" इस पद्य में मानतुंगाचार्य जी ने यह भावाभिव्यक्ति की है कि जिस भक्त ने जिनेन्द्र भगवान की वीतरागता के दर्शन का आनंद पा लिया है वह फिर कहीं भी रागी देवी-देवताओं में संतोष को प्राप्त नहीं होता। सम्यक्त्व की यह भावना बीसवें पद्य में और अधिक मुखर हो जाती है। इस पद्य में मानतुंगाचार्य ने भगवन् के कैवल्यज्ञान की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि "आपका परम ज्ञान जिस तरह आप में शोभा को प्राप्त होता है। उस तरह हरिहरादि में शोभा को प्राप्त नहीं होता। इस पद्य में हरिहरादिक पद से ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवों का कथन किया गया है। इनमें वीतरागता का अभाव होने से इन्हें दिव्य कैवल्यज्ञान की प्राप्ति कैसे हो सकती है? । इस स्तोत्र के इक्कीसवें पद्य में भी वीतरागी जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन की प्रशंसा ब्याजोक्ति अलंकार द्वारा की गयी कि आपके पहले सभी हरिहरादि देवों को देख लेने से आपके प्रति मन में संदेह नहीं रह पाता। निश्चित ही मानतुंगाचार्य जी के इन निर्मल भावों से सम्यग्दर्शन के निःशंकित अंग की पुष्टि होती है। जननी-प्रशंसा मानतुंगाचार्य जी ने भक्तामरस्तोत्र के बाइसवें पद्य में उस जननी की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है जिसने तीर्थकर जैसे महान् सुत को जन्म दिया। स्तोत्र परम्परा में जननी प्रशंसा का ऐसा अनुपम उदाहरण अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। तीर्थकर भगवान मोक्ष मार्ग के प्रणेता होते है, उन जैस महान सुत को जन्म देने के कारण से उनकी जननी स्वयमेव ही प्रशंसा की पात्र बन जाती हैं। आचार्य मानतुंग का सामाजिक दृष्टिकोण आचार्य मानतुंग के पूर्ववर्ती एवं समकालीन आचार्यों और कवियों ने अपने आराध्य की स्तुति में उन्हें सूर्य, चंद्र, पर्वत, सागर, नदी, सरोवर, कमल आदि उपमा प्रदान की है। जो सभी उपमायें प्रकृति की परिधि से ही ग्रहण की गयी थी। वहीं आचार्य मानतुंग ने भक्तामर स्तोत्र में अपने आराध्य की स्तुति में उन्हें विभिन्न प्रकार की उपमा देकर प्रकृति की परिधि से बाहर निकलने का साहस दिखलाया है। आचार्य मानतुंग की दृष्टि प्रकृति के मनोरम दृश्यों के साथ-2 तत्कालीन समाज पर थी। इसका उदाहरण हमें भक्तामर स्तोत्र के दसवे पद्य में प्राप्त होता है। दसवें पद्य में मानतुंग
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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