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________________ अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009 आचार्य ने भगवन् की स्तुति के फल का वर्णन करते हुए लिखा है कि हे भगवन्! आपकी स्तुति करने वाले भक्त जन आपके समान हो जाते है। इसमें आश्चर्य की क्या बात है। इस कथन को पुष्ट करने के लिए उन्होंने उदाहरण दिया कि जो स्वामी अपने आश्रित सेवक को सम्पति देकर अपने समान नहीं बनाता उसकी सेवा से क्या लाभ है? इस कथन से तत्कालीन समाज की स्थिति स्पष्ट होती है। दूसरे अर्थों में यह उदाहरण आर्थिक असमानता एवं सामाजिक भेद-भाव पर चोट कर के उसे दूर करने पर बल देता है। आधुनिक समाजवाद की विचार धारा के वृक्ष के बीज भक्तामर स्तोत्र के इस एक उदाहरण में स्पष्ट झलकते हैं। अद्भुत आलंकारिक छटा एवं अनोखा काव्य पक्ष संतुलन आचार्य मानतुंग जी ने भक्तामर स्तोत्र की रचना के लिए 'वसंततिलका छंद का प्रयोग किया है। यह छन्द संस्कृत भाषा का एक अति ललित छंद है। इस छंद का दूसरा नाम मधुमाधवी भी है। काव्य शास्त्र में वसंततिलका छंद का लक्ष्मण स्पष्ट करते लिखा है कि "ज्ञेयं वसन्ततिलका तभजा जगौ गः"। इस छन्द में क्रमशः तगण, भगण, जगण तथा दो गुरू होते है। इस प्रकार चौदह अक्षरों से इसका निर्माण होता है। भक्तामरस्तोत्र के प्रत्येक पद्य में चार-चार पंक्तियाँ हैं। एवं 56-56 अक्षर हैं। इस प्रकार संपूर्ण स्तोत्र में 192 पंक्तियाँ एवं 2688 अक्षर हैं। इस सर्वोत्कृष्ट भक्ति-काव्य में अनेक अलंकारों की छटा बिखरी हुई है। इस स्तोत्र में अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक, ब्याजोक्ति आदि विभिन्न अलंकारों का प्रयोग किया गया है। शब्द और अर्थ से समन्वित रचना को काव्य कहते है। इस स्तोत्र के छन्दों में केवल शाब्दिक सूचनायें नहीं है उनमें अर्थ रूपी चित्त एवं भक्ति रस रूपी आत्मा भी है। भक्तामरस्तोत्र के भाव-पक्ष एवं कला-पक्ष में अनोखा संतुलन नजर आता है। न इसमें अति दार्शनिकता का बोझ है और न ही इसमें अबूझ उपमाओं का संग्रह है।जिस काव्य में अत्यधिक अलंकार, अतिदार्शनिकता एवं अबूझ उपमायें पायी जाती है, वह काव्य जन सामान्य के लिए अग्राव्य हो जाता है। भक्तामर स्तोत्र में काव्य के इन दोनों पक्षों का अद्भुत समायोजन है। इसमें जहाँ एक ओर मनमोहक छंद एवं अलंकारों का प्रयोग किया गया है, वहीं दूसरी ओर इसके प्रत्येक पद्य में जिनेन्द्र-भक्ति के निर्मल भावों की अविरल सरिता प्रवाहित होती है। कला-पक्ष काव्य का शरीर है एवं भाव-पक्ष उसकी आत्मा होती है। किसी काव्य की पूर्णता इन दोनों के सद्भाव से ही संभव है। भक्तामर स्तोत्र एक ऐसा ही संपूर्ण जीवन्त काव्य है। आचार्य मानतुंग ने भक्तामरस्तोत्र के रूप में भव-सागर पर एक ऐसे सेतु का निर्माण किया है, जिसके द्वारा संसारी प्राणी इस दुःखालय से निकलकर सिद्धालय तक की यात्रा पूर्ण कर सकते हैं। कनिष्ठ शोध अध्येता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणासी (उ.प्र.)
SR No.538062
Book TitleAnekant 2009 Book 62 Ank 03 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2009
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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