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जैन प्राच्यकालीन-साहित्य के आद्य हिन्दी गद्य टीकाकार : महापण्डित टोडरमल
प्रो. राजाराम जैन
पण्डितप्रवर टोडरमलजी 18वीं सदी की एक महान् विभूति एवं शौरसेनीप्राकृत के कुछ प्रमुख जैन-ग्रंथों के राजस्थानी-हिन्दी के प्रथम गद्य-टीकाकार माने गये हैं। उन्होंने जैन-सिद्धान्तों एवं जैनदर्शन के दुरूह रहस्यों का समकालीन जनभाषा में उद्घाटन कर प्राच्य- जैन-विद्या की महान् सेवाएं तो की ही, साथ ही हिन्दी-गद्य के विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। शौरसेनी-जैनागमों में सूत्र-शैली में वर्णित करणानुयोग, द्रव्यानुयोग एवं चरणानुयोग के विषय अत्यन्त जटिल एवं नीरस समझे जाते रहे हैं, अत: समय-समय पर इनके ऊपर संस्कृत-टीकाएं भी लिखी जाती रही। तत्कालीन दृष्टिकोण से वे भले ही सुबोध नही हों, किन्तु परवर्ती कालों में भाषा-परिवर्तन के अनिवार्य-नियमों के कारण वे पुनः दुर्बोध सिद्ध होने लगी। इस कारण आगमों का अध्ययन एवं स्वाध्याय सीमित होने लगा था। इस परिस्थिति में पण्डित टोडरमल जी ऐसे प्रथम विद्वान् थे, जिन्होंने युग की आवश्यकता को समझा और अपने सभी प्रकार के ऐहिक सुख-भोगों को जिनवाणी-माता की पुण्यवेदी पर समर्पित कर उक्त आगम आदि ग्रंथों की व्याख्या लोकप्रचलित जन-भाषा-राजस्थानी-हिन्दी में प्रस्तुत की और इस प्रकार स्वाध्याय की परंपरा को लुप्त होने से बचा लिया। पारिवारिक परिचय
पण्डित जी का जन्म जयपुर के एक सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत खण्डेलवाल जैन गोदीका-गोत्रीय परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम जोगीदास एवं माता का नाम रम्भा देवी था। पण्डितजी के हरिचन्द एवं गुमानीराम नाम के दो पुत्र थे और दोनों ही अध्ययनशील एवं कवि थे। पण्डित जी को जन्मजात दैवी-प्रतिभा का वरदान मिला था। उनकी प्रतिभा तथा प्रत्युत्पन्नमतित्व से प्रभावित होकर जयपुर-राज्य के तत्कालीन लोकप्रिय दीवान अमरचन्द्र ने कुछ समय तक अपने पास में रखकर उन्हें विद्याध्ययन कराया था। छोटी आयु में ही उन्हें संस्कृत, प्राकृत एवं कन्नड-भाषाओं का ज्ञान ही नहीं हो गया, बल्कि उन्होंने जैन एवं जैनेतर मूल-ग्रंथों का अध्ययन भी कर लिया था। स्मृति-शक्ति इतनी विलक्षण थी कि उन्हें सैकड़ों सन्दर्भ-वाक्य कण्ठस्थ हो गये थे। उन्हें कुल आयुष्य लगभग 27 वर्षों का ही मिला था। उनकी जन्म एवं मुत्यु की निश्चित तिथियों का जानकारी तो नहीं मिलती किन्तु उन्होंने गोम्मटसार की टीका वि. सं. 1818 में (सन् 1761 ई.) कर ली थी तथा पुरुषार्थसिद्ध्युपाय की अपूर्ण-टीका को पं. दौलतराम ने वि.सं.