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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009
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1827 में पूर्ण की थी। अत: बहुत संभव है कि इसके 2-3 वर्ष पूर्व उनका स्वर्गवास हो चुका होगा। इन प्रमाणों के आधार पर डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुमान से उनका जन्म वि. सं. 1797 और मृत्यु वि.सं. 1824(सन् 1740-1767) माना जा सकता है। फिर भी, उतने से अल्पकाल में ही उन्होंने जो सारस्वत-कार्य किये, वे उनकी असाधारण-प्रतिभा के अभूतपूर्व प्रेरक-उदाहरण बन गये। प्रकृति का ऐसा कुछ नियम भी है कि जो असाधारण प्रतिभा संपन्न होते हैं, उनका आयुष्य लगभग 40 वर्ष के आगे नहीं बढ़ पाता। कलिंगाधिपति जैन-सम्राट खारवेल, स्वामी शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद एवं सुप्रसिद्ध गणितज्ञ रामानुजन् आदि इसके साक्षात् उदाहरण हैं। जनभाषा के अनन्य सेवक
पं. टोडरमलजी परम निष्ठावान्, सात्त्विक-चरित्र, निरभिमानी, लोकोत्तर-प्रतिभा के ध नी एवं मनस्वी व्यक्ति थे। उनकी जिह्वा पर सरस्वती का साक्षात् निवास था। राष्ट्रभाषा-हिन्दी के वे परम भक्त थे। प्राचीन भारतीय भाषाएँ उनके लिये प्रेरणा की अजन-स्रोत थी अवश्य, किन्तु युग के साथ-साथ चलना वे आत्म-हित एवं पर-हित की दृष्टि से श्रेयस्कर समझते थे। अतः जन-भाषा को वे कभी नहीं भूले। प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की परंपरा को उन्होंने नतमस्तक होकर अवधारण किया तथा जन-सामान्य को लाभान्वित कराने हेतु उन्होंने जन-भाषा अथवा देश-भाषा का सहारा लिया। जैसा कि उन्होंने स्वयं भी कहा है -
यथा- हमारै हूं किंचित् सत्यार्थ पदनि का ज्ञान भया है। बहुरि इस निकृष्ट समय वि. हम सारिखे मंद बुद्धीनितें भी हीन बुद्वि के धनी जन अवलोकिए है। तिनकौं तिनि पदनि का अर्थ-ज्ञान होने के अर्थि धर्मानुराग के वश” देशभाषामय ग्रंथ तैयार करने की हमारे इच्छा भई, ताकरि हम यह ग्रंथ बनावें हैं। सो इस वि. भी अर्थ सहित तिनिही पदन का प्रकाशन हो हैं। इतना तो विशेष है जैसे प्राकृत, संस्कृत-शास्त्र विषै प्राकृत-संस्कृत-पद लिखिए हैं, तैसे इहाँ अपभ्रंश लिये वा यथार्थपना को लिये देश भाषारूप पद लिखिये है, परन्तु अर्थविर्षे व्यभिचार किछु नाही' ।
टोडरमलजी की भाषा ऐसे युग में प्रारंभ होती हैं, जब प्रारम्भिक हिन्दी-गद्य का नवोन्मेष हो रहा था। यद्यपि छिटपुट रूप में टोडरमलजी के कुछ ही समय पूर्व के हिन्दी-गद्य के रूप मिल जाते हैं किन्तु उनसे, गद्य ही उस समय के विचारों के वाहन का मुख्य साधन था, यह नहीं कहा जा सकता। हिन्दी-साहित्य के इतिहासकारों ने, गद्य की समस्त विधाओं से युक्त प्राचीन से प्राचीन गद्य-ग्रन्थ 1800 ई. के बाद का ही उल्लिखित किया है। इससे यह निश्चयपूर्वक माना जा सकता है कि हिन्दी-गद्य के निर्माण एवं रूप-स्थिरीकरण में पं. टोडरमल का प्रमुख योगदान रहा है। उनकी टीकाओं के प्रवाहपूर्ण गद्यों में वही मनोरमता, सरसता एवं स्वाभाविकता है, जो पर्वतीय निर्मल-स्रोतों में। हिन्दी-गद्य के विकास के इतिहास में उनका स्थान निस्सन्देह ही अग्रगण्य माना जायगा।' समर्थ व्याख्याकार एवं लेखक
पण्डित-प्रवर के समय भारत में मुद्रणालयों का प्रारम्भ नहीं हुआ था। उस समय तक