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अनेकान्त 62/3, जुलाई - सितम्बर 2009
प्राचीन आर्ष-ग्रन्थों का संकलन, अध्ययन, मनन-चिन्तन एवं लेखन सभी सहज कार्य न थे। यातायात के साधन भी विकसित न थे। इन सभी कठिनाइयों के अतिरिक्त भी, और पण्डितजी ने अत्यन्त अल्पायु प्राप्त होने पर भी, जो अनोखे कार्य किये, उन्हें देखकर आश्चर्य में डूब जाना पड़ता है। द्रव्यानुयोग, करणानुयोग एवं चरणानुयोग के संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश के कुछ प्रमुख ग्रंथों की राजस्थानी-हिन्दी-टीकाएँ लिखकर उन्होंने जैन-जगत् में तत्त्वज्ञान के स्वाध्याय के अवरुद्धप्राय-प्रवाह को अपनी सरल सुबोध वचनिकाओं से पुनः प्रवाहित किया। कर्म-सिद्वान्त की चर्चा करना केवल प्राकृत-संस्कृत एवं अपभ्रंश-भाषाओं के ज्ञाता-पण्डितों तक ही सीमित न रहा, टोडरमलजी की रचनाओं को पढ़कर तथा उनका नित्य स्वाध्यायकर हिन्दी के साधारण ज्ञाता जिज्ञासु नर-नारियाँ भी जैन-धर्म-दर्शन एवं अध्यात्म के मूल-सिद्धांतों को आत्मसात् कर पाने में समर्थ हो सके। ___पं. टोडरमल के सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय प्राकृत-ग्रंथ हैं:- सिद्वान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र (10वीं सदी) कृत कर्मफिलोसोफी के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ-गोम्मटसार-कर्मकाण्ड तथा जीवकाण्ड, जिन पर उन्होंने गोम्मटसार-वचनिका, लिखी, जिसमें लब्धिसार और क्षपणासार नामक ग्रंथ भी सम्मिलत है। दूसरा ग्रंथ है- जैन-भूगोल एवं जैन-खगोल का वर्णन करने वाला प्राकृत ग्रंथ- त्रिलोकसार, जिस पर उन्होंने लिखीत्रिलोकसार-भाषा-वचनिका।
उनका तीसरा ग्रंथ है आचार्य गुणभद्र (10वीं सदी) कृत अत्यन्त हृदयग्राही और आध्यात्मिक-रस में सरावोर कर देने वाला संस्कृत-भाषात्मक "आत्मानुशासन" नामक ग्रंथ, जिस पर उन्होंने लिखी- आत्मानुशासन-भाषा-वचनिका। अन्य ग्रंथ है आचार्य अमृतचन्द्र कृत संस्कृत भाषात्मक पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, जिसकी भाषा-वचनिका अपूर्ण रहने के कारण पं. टोडरमल के परमभक्त तथा अनेक ग्रंथों की भाषा-वचनिकाओं के लेखक पं. दौलतराम जी काशलीवाल ने उसे पूर्ण करके महाकवि त्रिभुवन-स्वयम्भू, आचार्य जिनसेन, आचार्य गुणभद्र, महाकवि सिंह एवं भट्टारक यश:कीर्ति के सत्कार्यों का पावन-स्मरण दिला दिया है।
इनके अतिरिक्त भी उनके द्वारा लिखित अन्य तीन स्वतंत्र रचनाएँ भी हैंरहस्यपूर्ण-चिट्ठी, मोक्षमार्ग-प्रकाशक एवं गोम्मटसार-पूजा। ___गोम्मटसार-जीवकाण्ड, गोम्मटसार-कर्मकाण्ड, लब्धिसार एवं क्षपणासार पर लिखित टीकाओं के समग्र रूप का नाम "सम्यग्ज्ञान-चन्द्रिका" रखा गया है, जो विवेचनात्मक गद्य-शैली में है। प्रारंभ में 71 पृष्ठों की पीठिका है, जो एक प्रकार से उसकी भूमिका या प्रस्तावना कही जा सकती है। इसके अध्ययन से उक्त चारों ग्रंथों का वर्ण्य-विषय स्पष्ट हो जाता है। अध्येताओं के अनुसार इसे 65000 श्लोक प्रमाण बतलाया गया है।
गोम्मटसारादि की टीकाओं में उन्होंने जो घोर परिश्रम किया है, उसे तो वही समझ सकता है, जिसने उस प्रकार के कार्य किये हों। वस्तुतः स्वतंत्र ग्रंथ लिखना आसान है, किन्तु किसी मूल-ग्रंथ का अनुवाद, भाष्य या टीकादि लिखना सहज नहीं। सच्चा भाष्य