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अनेकान्त 62/4, अक्टूबर-दिसम्बर2009
से रहित तथा शीत और गर्मी आदि की बाधा से शून्य वन में चराता हुआ बड़े प्रयत्न से उसका पोषण करता है, उसी प्रकार राजा को भी अपने सैनिक को किसी उपद्रवहीन स्थान पर रखकर उनकी रक्षा करना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो राज्य का परिवर्तन होने पर चोर, डाकू तथा अन्य राजा लोग उसके इन सेवकों को पीड़ा देने लगेंगे।
9. कण्टकशोधन- चोर, चरट (देश से बाहर निकाले गए अपराधी), अन्नप (खेतों या मकानों की माप करने वाले), धमन (व्यापारियों की वस्तुओं का मूल्य निश्चित करने वाले), राजा के प्रेमपात्र, आटविक (वन में रहने वाले भील या अधिकारी) तलार (छोटे छोटे स्थानों में नियुक्त किए हुए अधिकारी), भील, जुआरी, मंत्री और अमात्य आदि अधकारीगण) आक्षशालिक (जुआरी), नियोगि (अधिकारी वर्ग), ग्रामकूट (पटवारी) और वार्द्धषिक (अन्न का संग्रह करने वाले व्यापारी) ये राष्ट्र के कण्टक हैं। उक्त राष्ट्र के कण्टकों में से अन्न का संग्रह करके दुर्भिक्ष पैदा करने वाले व्यापारी लोग देश में अन्याय की वृद्धि करते हैं तथा तंत्र (व्यवहार) एवं देश का नाश कर देते हैं। वार्द्धषिकों (लाभवश राष्ट्र का अन्न संग्रह कर दुर्भिक्ष पैदा करने वाले व्यापारियों) की कर्त्तव्य, अकर्त्तव्य में लज्जा नहीं होती अथवा उनमें सरलता नहीं होती- कुटिल स्वभाव वाले होते हैं। जिस देश में राजा प्रतापी तथा कठोर शासन करने वाला होता है, उसके राज्य में राष्ट्र कण्टक नहीं होते हैं।
10. कृषि कार्य में योग देना- राजा को आलस्य रहित होकर अपने अधीन ग्रामों में बीज देना आदि साधनों द्वारा किसानों से खेती कराना चाहिए। वह अपने देश में किसानों द्वारा भलीभाँति खेती कराकर धान्य संग्रह करने के लिए उनसे न्यायपूर्ण उचित अंश ले। ऐसा होने से उसके भण्डार आदि में बहुत सी संपदा इकट्ठी हो जायेगी। उससे उसका बल बढ़ेगा तथा संतुष्ट करने वाले धान्यों से उसका देश भी पुष्ट अथवा समृद्धिशाली हो जाएगा।
11. अक्षरम्लेच्क्षों को वश में करना- अपने आश्रित स्थानों पर प्रजा को दु:ख देने वाले जो अक्षरम्लेच्छ हैं, उन्हें कुल शुद्धि प्रदान करना आदि उपायों से अपने अधीन करना चाहिए। अपने राजा से सत्कार पाकर वे फिर उपद्रव नहीं करेंगे। यदि राजाओं से उन्हें सम्मान प्राप्त नहीं होगा तो वे प्रतिदिन कुछ न कुछ उपद्रव करते रहेंगे। जो अक्षरम्लेच्छ अपने ही देश में संचार करते हों, उनसे राजा को कृषकों की तरह कर अवश्य लेना चाहिए। जो अज्ञान के बल से अक्षरों द्वारा उत्पन्न अहंकार को धारण करते हैं, पापसूत्रों से आजीविका करने वाले वे अक्षरम्लेच्छ कहलाते हैं। हिंसा करना, मांस खाने से प्रेम रखना, बलपूर्वक दूसरों का धन अपहरण करना और धूर्तता करना, यही म्लेच्छों का आचार है।"
___ 12. समञ्जसत्व धर्म पालन- प्रजा को विषम दृष्टि से न देखना, सब पर समान दृष्टि रखना, समञ्जसत्व धर्म है। इस गुण के द्वारा शिष्ट गुणों का पालन और दुष्ट पुरुषों का निग्रह करना चाहिए। जो पुरुष, हिंसा आदि दोषों में तत्पर रहकर पाप करते हैं, वे दुष्ट कहलाते हैं। जो क्षमा, संतोष आदि के द्वारा धर्मधारण करने में तत्पर हैं, वे शिष्ट कहलाते हैं।